उपन्यास – ठेठ हिंदी का ठाट – अध्याय 3 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
बटोही ने जो कुछ आँखों देखा, कानों सुना, वह सब बातें उसको चकरा रही थीं, दुखी बना रही थीं, और सता रही थीं, पर इस घड़ी वह बहुत ही अनमना हो रहा था, वह दुखिया नारी रोई, मुरझाकर धरती पर गिरी, फिर आप ही सम्हली, पर वह वैसा ही अनमना बना रहा, न जाने क्या सोचता रहा पर अब अचानक चौंक पड़ा, चौंकते ही कहा देवबाला!! इस देवबाला नाम में न जाने कोई टोना था, न जाने कोई मुरझा देनेवाली सकती थी,जिससे इस नाम को सुनते ही वह तिरिया अचानक यह कहकर फिर अचेत हो गयी ”हाय! मैं ऐसी आपे से बाहर हो रही हूँ, ऐसा मेरा जी ठिकाने नहीं है,जिससे बार-बार जी में आने पर भी, यह न पहचान सकी, मुझ दुखिया को सहारा देनेवाला भैया देवनंदन छोड़ और कोई नहीं है” यह सुनकर हमारा बटोही जो देवनंदन छोड़ दूसरा नहीं है, फिर वैसा ही अनमना, फिर वैसा ही सोच में डूबा दिखलाई पड़ा, पर थोड़ी ही बेर में धीरज उसके मुखड़े पर देख पड़ा, उसने उपाय करके उस तिरिया को भी जो देवबाला है, सम्हाला, कुछ ही बेर में उसका जी भी ठिकाने हुआ, पर दोनों कुछ घड़ी चुप रहे, एक बात भी न बोले, न जाने कहाँ-कहाँ की बातें सोचते रहे, मैं समझता हूँ, वही पुरानी बातें उन दोनों के जी में घूम रही थीं, वह सुख के दिन, वह आपस का प्यार, वह फुलवारी का मिलना, वह मीठी बातें, वह लड़कपन का रंग ढंग, फिर दोनों की अड़चलें, धरम के झमेले, इसके पीछे भाई बहिन-सा प्यार, वह अनूठे बरताव, एक-एक करके आँखों के सामने फिर रहे थे और इसी से वह दोनों कितनी बेर तक कुछ भी न बोले। पर इस घड़ी देवनंदन के जी में कोई और ही बात ठन रही थी, इसलिए उन्होंने ढाढ़स करके कहा, देवबाला! तुमारे दुख से कलेजा फटा जा रहा है, क्या करूँ जो राम चाहते हैं करते हैं, पर मैंने अपने जी में ठाना है जहाँ से होगा रमानाथ को मैं खोज निकालूँगा, यह मेरा काम है तुमारा नहीं, अब और कुछ पूछने को नहीं रहा, पर तुम को एक बात बतलानी और रही है और वह रमानाथ का ठिकाना है, क्या कभी-कभी कोई चीठी आती है। देवबाला ने कहा, उनकी कोई चीठी जब से वह गये नहीं आयी, मैं उनका कुछ खोज ठिकाना नहीं जानती, मेरे भाग ने सभी बात बिगाड़ रखी है। इतना कहते-कहते उसकी आँखें फिर भर आयीं और छल-छल करके आँसू टपक पड़े।
देवनंदन चुप रहा, कुछ सोचने लगा, फिर बोला, अच्छा मैं खोज ठिकाना किसी भाँत जान लूँगा, तुम मत घबराओ। अभी पाँच-सात दिन मैं यहाँ रहूँगा, तब तक यह लड़का भी अच्छा हो जावेगा। और इसी गाँव में घूम फिर कर मैं रमानाथ का ठिकाना भी जान लूँगा। इसके पीछे मैं ठीक करूँगा,मुझको क्या करना चाहिए। इतना कहकर वह फिर चुप हो गया और मन-ही-मन कुछ सोचने लगा।
देवबाला इस घड़ी देवनंदन को देख रही थी, उसने देखा उसके सब देह में राख मली हुई है, सिर पर लम्बी-लम्बी जटायें हैं, हाथ में तूँबा और चिमटा है। गेरुये रंग का कपड़ा वह पहने है, सब भेस उसका साधुओं का है। देवबाला ने देखभाल कर पूछा, देवनंदन! क्या तुम साधु हो गये हो, पर वह कुछ न बोला, न जाने क्या सोचता रहा, फिर कहा, यह सब फिर कभी बतलाऊँगा।
अब भोर होने लगा था, इसलिए दोनों जन अपनी-अपनी ठौरों से उठे और नहाने-धोने में लग गये।
इसके पीछे देवनंदन सात दिन यहाँ रहा, सात दिन में उसने इस घर की दो कोठरियों और एक ओसारे को बनाकर ठीक किया, बरस दिन के खाने भर को नाज लिया, पाँच सात साड़ियाँ मोल लीं, और यह सब देवबाला को दिया, इस बीच लड़का भी भली भाँत अच्छा हो गया था। इसलिए आठवें दिन कुछ रोक भी देकर देवनंदन ने देवबाला से कहा। मैं अब जाता हँ, जहाँ तक हो सकेगा, मैं तुरन्त लौटूँगा, मैंने इस गाँव में रमानाथ का कुछ ठिकाना पाया है, लोग कहते हैं इस गाँव से चार कोस पर रामपुर नाम का एक गाँव है, उसमें भवानीदत्त नाम का कोई कायथ रहता है, पूरब में जहाँ रमानाथ रहते हैं,वहीं यह कायथ भी आता-जाता है, आज कल वह घर आया हुआ है, उससे पूछने पर रमानाथ की बहुत-सी बातें जान पड़ेंगी, आज मैं वहीं रहूँगा, उनसे सब पूँछ पाँछ कर कल उसी ओर जाऊँगा, रमानाथ से भेट होना चाहिए, लिवा लाना मेरे हाथ है, मैं उनको तीन महीने के भीतर ही लेकर यहाँ पहुँचूँगा,तुम घबराना मत।
देवबाला बोली, मैं क्या कहूँ, जो तुम करते हो, उसमें मैं हाथ डाल नहीं सकती, जो हाथ डालूँ भी तो तुम काहे को मानोगे, मैं भी समझती हूँ भाई से बढ़कर इस धरती में अपना कोई दूसरा नहीं है, आप जावें, मैं आप को रोक नहीं सकती, पर मैं बड़ी अभागिनी हूँ, इसी से मेरा कलेजा धक्क-धक्क कर रहा है। यह कहकर देवबाला बहुत ही उदास और अनमनी हो गयी। पर देवनंदन ने उसको बहुत समझाया, ढाढ़स बँधाया, और इसके पीछे रामपुर की ओर पयान किया।
देवबाला के लिए फिर वही दिन रात आगे आये, पर उस के जी में यह बात बहुत उठा करती, क्या देवनंदन साधु हो गये? उसका भेस साधुओं का क्यों है? अपना ब्याह उन्होंने नहीं किया क्या? जब मैंने उनसे इन बातों को पूछा तो उन्होंने क्यों नहीं बतलाया? पर कोई ऐसी बात उसके जी में नहीं समाती थी जिससे उसका बोध होवे।
नवाँ ठाट
वह देखो सामने रामपुर गाँव दिखलाई पड़ता है, चारों ओर हरे भरे बाँस के पेड़ लहरा रहे हैं, उनके पास ही दो एक पेड़ आम, जामुन, महुआ और कटहल के दिखलाई देते हैं, पास ही एक बहुत बड़ा ताल है, ताल के ऊपर गाँव से थोड़ा हटकर एक बड़ा भारी बड़ का पेड़ है, धीमी बयार लगने से उसके पत्ते धीरे-धीरे हिल रहे हैं, उस पर एक झंडी भी फहरा रही है, जान पड़ता है वहाँ काली का थान है। उसी पेड़ के नीचे दो जने बैठे बातें कर रहे हैं। उसमें एक हमारे जान-पहचान वाले देवनंदन हैं, और दूसरा वही भवानीदास है, उनमें बहुत बेर तक बातें होती रहीं। जिससे देवनंदन ने रमानाथ की बहुत-सी बातें जानीं, पिछली बातें उन लोगों की यह थीं।
देवनंदन ने पूछा, जब रंगपुर में तुम दोनों जने साथ रहते थे, तो रमानाथ ने फिर रंगपुर का रहना क्यों छोड़ा?
भवानीदत्त-उन्होंने रंगपुर को अपने आप नहीं छोड़ा, मैं कह चुका हूँ रमानाथ की चाल-चलन ठीक नहीं है, वह बड़ा छटा और लुच्चा है, जिस बाबू के यहाँ वह काम-काज करता था, उन्हीं बाबू की टहलुनी के साथ एक दिन वह पकड़ा गया बाम्हन जान कर बाबू ने और कुछ तो न किया, पर टहलुनी और रमानाथ दोनों को अपने यहाँ से निकाल दिया, तभी से वह कलकत्ते रहता है; टहलुनी भी उसके साथ है, यह दो बरस की बात है, पर मैं यह ठीक कह सकता हूँ, अब भी कलकत्ते ही में है।
देवनंदन-जब यह दो बरस की बात है, तो फिर तुम कैसे कह सकते हो, अब भी वह कलकत्ते में है?
भवानीदत्त-मुझको यहाँ आये दस पन्द्रह दिन हुए, मेरे वहाँ से चलने के दस पाँच दिन पहले बाबू का एक चाकर कलकत्ते आया था, वह कहता था मुझसे और रमानाथ से वहाँ भेंट हुई थी, इसी से मैं जानता हूँ, अब तक वह कलकत्ते में है। उसने और भी कई बातें रमानाथ की मुझसे कही थी। पर उनको मैं आप से नहीं कहना चाहता, उनमें कोई बात काम की नहीं है, सब ऐसी ही हैं, जिससे रमानाथ का नाम लेने को मन नहीं करता।
देवनंदन-जाने दो मैं भी उनको नहीं सुनना चाहता, मुझको उन बातों से कोई काम नहीं है। जो कुछ मैं जानना चाहता था, जान चुका।
इतना कहकर देवनंदन चुप हो गये। भवानीदत्ता ने भी फिर कोई बात न छेड़ी। देवनंदन ने कुछ घड़ी पीछे कलकत्ते की ओर पयान किया।
दसवाँ ठाट
भादों का महीना, बड़ी अंधियारी छाई है, बादल घिरे हैं, दो एक बूँदें भी पड़ रही हैं, रात के एक बजे हैं, कहीं कोई आता-जाता नहीं, पहरेवाले लम्बी ताने सो रहे हैं, दूर एक धुंधला उँजाला बिजली का हो रहा है, पर उससे चारों ओर की अंधियाली को कुछ धक्का नहीं पहुँचता है, वह दूर के तारे की भाँति अपनी ही ठौर चमक रही है। इसी बेले कलकत्ते की सड़क पर एक भलामानस बहुत ही धीरे-धीरे जा रहा है, उससे भी धीरे-धीरे पाँव दबाये एक जन उसका पीछा कर रहा है, इन दोनों से भी पाँच सात हाथ दूर एक जन और इन दोनों पर आँख गड़ाये लम्बी डगों चल रहा है। ज्यों ही वह भलामानस एक मोड़ पर पहुँचा, और मुड़ कर एक गली में जाने लगा, वोंही पीछेवाला जन उस पर झपटा, और उठा कर उसको दे मारा, छाती पर चढ़ बैठा, और चाहता था, छुरी से उसका गला काट डाले, वोंही उस तीसरे जन ने उसको भी आकर धर दबाया, उसके हाथ से छुरी को छीन लिया और बहुत फुर्ती के साथ उसका हाथ पाँव बाँध कर उसको वहीं डाल दिया। भलेमानस के औसान जाते रहे थे। वह अपने को मरा ही समझ रहा था, पर अब उसके जी में भी जी आया, वह चाहता था चिल्लाकर पहरे वालों को बुलाऊँ, पर उस तीसरे जन ने रोका, कहा आप चुप रहें, मेरी बातों को सुन लें फिर जो चाहे करें। पहरेवालों को बुलाकर आप क्या करेंगे, जब तक मैं यहाँ हूँ आपका कोई एक रोआँ भी नहीं छू सकता। उन्होंने कहा आप जो कहेंगे मैं करूँगा। आपने मेरा जी बचाया है, आपके कहने से मैं कभी मुड़ना नहीं चाहता। वह बोले, यहाँ कुछ न कहूँगा, आप किसी ठौर चलें, वहीं सब बातें होंगी, मैं इस बँधुये को भी साथ ले चलूँगा। उन्होंने कहा अच्छा आइये, मेरे साथ चले आइये। कुछ बेर में यह तीनों जन एक घर में पहुँचे। वहाँ एक खुली कोठरी में बैठकर इन लोगों में बातचीत होने लगी। एक जलते हुए दीवे को छोड़ वहाँ और कोई न था।
पहले तीसरे जन ने भलेमानस से कहा, आप बताइये, आप कौन हैं, क्या आप इस बँधुये को पहचानते हैं? इसने क्यों आज आप पर छुरी चलानी चाही थी?
उन्होंने कहा, मैं मारवाड़ी हूँ, आप की दया से इन दिनों मेरा काम-काज कुछ अच्छा है, इसी से यहाँ के निठल्लू और निकम्मे सब मुझको कभी-कभी घेरा करते हैं, मैं भी उनको कभी-कभी कुछ दे दिया करता हूँ, पर अब इन में गुण्डे और लुच्चे भी बहुत हो गये हैं, वह डराकर बहुत कुछ लेना चाहते हैं, जो न दो तो इसी भाँत गला घोंट कर मार देने में ही अपनी बड़ाई समझते हैं। यह जो इस घड़ी यहाँ बैठा है, इसने परसों मुझसे पचास रुपया रोक माँगा था,मैंने कहा इस घड़ी मैं तुमको कुछ नहीं दे सकता, मैं समझता हँ इसी से आज यह मेरा जी लेना चाहता था। इसको मैं पहचानता हूँ, यह मुझसे दो चार बार दो-दो एक-एक रुपया ले चुका है। यह पछाँह का रहनेवाला बाम्हन है। आप बताइये आप कौन हैं?
तीसरे जन ने कहा, आप देख ही रहे हैं, मैं एक साधु हूँ, दूसरे के दुख-के-दुख को दूर करना ही हम लोगों का काम है, डेढ़ महीना हुआ, मैं कलकत्ते आया हूँ, तब रात से दिन इनको, जो आपके सामने बैठे हैं, खोज रहा हूँ, संजोग की बात है, आज अचानक इनसे भेंट हो गयी। मैं इन्हीं की खोज में एक ठौर जा रहा था, मग में देखा, आप पर घात लगाये यह चले जा रहे हैं, मुझको खटका हुआ, मैं भी पीछे-पीछे चला, जो सोचता था, वही हुआ, पर आप का जी बच गया, यह बड़ी बात हुई, मैंने यहाँ पहुँचने से पहले इनको न पहचाना था, दीवे के साम्हने आने पर मैंने इनको पहचाना, मेरा काम भी हुआ, अब मैं आप से यही चाहता हूँ आप इनका जी छोड़ दें, बिना पहचाने भी मैं इनको बचाना चाहता था, और इसीलिए आप को वहाँ से यहाँ लिवा लाया,बोलचाल होने पर पहरेवालों से पकड़े जाने का डर था।
मारवाड़ी ने कहा-एक तो यह बाम्हन हैं, दूसरे आप कहते हैं, इसलिए मैंने इनको छोड़ दिया, पर यह न जान पड़ा आप इनको क्यों खोजते रहे हैं।
मैं सब बातों को कहकर आपका जी भी दुखाना नहीं चाहता, पर अब इनसे कुछ पूछूँगा। यह कहकर उस तीसरे जन ने, उस जन की ओर फिर कर कहा, क्यों मुझको तुम पहचानते हो? रमानाथ तुम्हारा ही नाम है न?
रमानाथ के जी में इस घड़ी एक अचम्भे का उलट फेर हो रहा था, वह सोच रहा था, एक यह है जो दूसरे के दुख को दूर करना ही अपना धरम समझता है, एक मैं हूँ, जो दिन रात दूसरे के सताने ही मैं चैन पाता हूँ, क्यों उनका जी ऐसा है, और मेरा ऐसा! मैं इसको समझ नहीं सकता हूँ। पर कुछ-कुछ जी में आज यह बात समाती है, जो भले हैं, उन्हीं को सुख मिलता है मैं जितना ही सुख को खोजता फिरता हूँ, उतना ही वह मुझसे दूर भागता है,राम जानें यह क्या बात है, यह सोचकर वह बोला, हाँ रमानाथ मेरा ही नाम है, पर मैं आपको पहचानता नहीं हूँ, आप बड़े लोग हैं, सब कुछ जान सकते हैं, अनजान को भी पहचान सकते हैं, पर मैं पापी हूँ आप जैसों को कैसे पहचान सकता हूँ।
यह तीसरे जन हमारे देवनंदन हैं। रमानाथ की बातें सुनकर उनका जी भर आया, उन्होंने झट उसका हाथ-पाँव खोल दिया। पीछे मारवाड़ी से कहा,अब हम लोग जाते हैं, आप भी घर में जाइये। पर एक बात आपसे कहे जाता हूँ, आप धनी हैं, आप के बैरी कितने होंगे, इसलिए आप को बहुत रात गये घर से बाहर न जाना चाहिए।
मारवाड़ी ने कहा, आप बहुत ठीक कहते हैं, पर आज दो घड़ी रात गये अचानक मेरा साथ मेरे साथियों से छूट गया, मैं एक भलेमानस के यहाँ काम से गया था, वहाँ से आ रहा था, बीच ही में यह बात हो पड़ी। साथ तो छूटा ही, पंथ भी भूल गया, इसी से आज यह धोखा हुआ, नहीं तो मैं कभी रात को अकेले बाहर नहीं जाता और न बहुत रात बीते तक कहीं रहता हूँ।
इतना कहकर वह मारवाड़ी उठा, और घर में से पाँच-पाँच सौ रुपये की दो थैलियाँ लाकर देवनंदन के सामने रक्खीं, और कहा, आपने जो कुछ आज मेरे साथ किया है, उसका पलटा जनम भर मुझसे नहीं हो सकता, पर इन दो थैलियों को मैं आप की भेंट करता हूँ, आप इनको लीजिए, अपना टहलुआ मुझको समझते रहिये।
देवनंदन ने कहा, रुपया लेकर मैं क्या करूँगा, मैंने तुमारा जी बचा कर अपना काम किया है, तुमारा नहीं, इसका कुछ निहोरा नहीं है, तुम इन रुपयों को अपने पास रखो, इनको किसी धरम के काम में लगाओ, भूखों, कंगालों में इनको बाँटों, इसी से मेरे जी को सुख होगा, तुम्हारा जन्म सुधारेगा, धरती में इससे बढ़कर कोई दूसरा काम नहीं है।
इतना कहकर देवनंदन, रमानाथ के साथ चले गये।
ग्यारहवाँ ठाट
धीरे-धीरे गंगा बह रही हैं, घाट पर कोई नहाता है, कोई जल भरता है, कोई उतरता है, कोई चढ़ता है, कोई खड़ा निकलते हुए सूरज को जल चढ़ाता है, वहीं दो जन और बैठे हैं, एक देवनंदन और दूसरे रमानाथ। भोर के कामों से छुट्टी पाकर इन दोनों जनों में बातें हो रही हैं। देवनंदन ने कहा रमानाथ! आज चार साढ़े चार बरस तुमको घर छोड़े हुआ, तुम क्यों ऐसे हो गये जो घर चीठी भी नहीं लिखते, क्या तुमको अपने उस छोटे बच्चे अपनी उस सीधी घरनी की भी सुरत नहीं होती! उसका दिन कैसे बीतता होगा, उनको खाने-पहनने को कौन देता होगा, कपड़ा न रहने पर, दो-दो दिन पीछे भी कुछ खाने को न मिलने पर, वह किस का मुँह देखते होंगे, क्या इन सब बातों को तुम कभी नहीं सोचते, तुम्हारे छोड़ जिन का कोई दूसरा नहीं है, तुम्हीं जिन के जीने मरने के साथ हो, क्या तुम्हीं को फिर इतना निठुर होना चाहिए। पसू भी अपने बच्चे को प्यार करता है! चिड़ियाँ भी अपने जोड़े के साथ रहती हैं,पर तुम्हारा जी ने जाने कैसा है, जो तुम इन्हीं सबको भूले बैठे हो। जब वह तुम्हारा छोटा बच्चा भूख लगने पर माँ, माँ, करता, सूखे मुँह आकर अपनी माँ के पास खड़ा होता होगा, कहता होगा, माँ! भूख लगी है, उस घड़ी उस दुखिया पर कैसी बीतती होगी, वह कितना रोती होगी, क्या यह सोचकर तुम्हारा कलेजा नहीं कसकता। वह भलेमानस की घरनी है, तुम को छोड़ उसको सहारा देनेवाला कौन है!!! रमानाथ! जो अब तक तुमने इन बातों को नहीं सोचा,तो क्या अब भी न सोचोगे?
रमानाथ ने रोते-रोते कहा। कल जबसे मैंने आपको देखा है, तब से मेरा जी ठिकाने नहीं है, न जानें क्यों बहुत सी पिछली बातों की सुरत हो रही है,आज आप की बातों को सुनकर कलेजा फटा जाता है, जी घबरा रहा है, पर मुझको यह नहीं सूझता है, मैं क्या करूँ, न जाने उस जनम में मैंने कैसी कमाई की है, जिससे मुझको यह सब भुगतना पड़ रहा है।
देवनंदन-तुम उस जनम की कमाई को क्यों झींखते हो, उस जनम की कमाई तुम्हारी बहुत अच्छी रही है, जो अच्छी न होती, बाम्हन के घर में जनम न होता, देवबाला ऐसी घरनी न मिलती। तुम अपनी इस जनम की कमाई को झींखो, जिससे दूसरे जनम में न जानें तुम्हारी कौन गत होगी। जो देवबाला तुम्हारे पाँवों की धूल माथे में लगा कर अपने को सुहागिनी जानती, जिस देवबाला ने तुम्हारे लिए अपने देह के गहने तक उतार दिये, जिस देवबाला को तुम्हारा औगुन भी गुन जान पड़ता है, जिसने तुमारी बुराई पर आँख न डाली, तुम को देवता समझा, तुमारा मुँह देखकर ही दुख को सुख माना, हाय! तुमने उसी देवबाला को छोड़ा, और उसको छोड़ा भी तो किसी बाबू की टहलुनी रखा, क्या इससे भी बुरी कमाई हो सकती है, रमानाथ! तुम्हारा जमन बाम्हन के घर में हुआ है, तुमको दूसरों का भला करना चाहिए, जो कुछ मिल जाए उसी पर सन्तोख रखना चाहिए, ऐसा काम करना चाहिए जिससे किसी का जी न दुखे, सब से प्यार के साथ बरतना चाहिए, जिन कामों को करने से धरती के जीवों का भला हो, उन्हीं में जी लगाना चाहिए, पर तुम चोरी, ठगी, बटपारी करते हो, धोखा देकर डराकर दूसरों से धन लेते हो, जिन बुराइयों का नाम सुनकर रोआँ खड़ा होता है, उन्हीं के करने में जी लगाते हो कल तुमको मैंने अपनी आँखों दूसरे का गला काटते देखा, इस पर भी तुमारे पास एक कौड़ी नहीं है, इन बुरे कामों को करके तुम जो कमाते हो, उसको रंडी भड़ुओं को खिला देते हो, नाच रंग में उड़ा देते हो क्या इन बुराइयों से बढ़कर भी कोई बुराई है! इन कमाइयों का पलटा उस जनम में तुमको क्या मिलेगा, क्या भूलकर भी अपने जी में सोचते हो! कोल, भील, भर, पासी जिन कामों के करने में हिचकते हैं! जिन बुराइयों का नाम सुनकर कान पर हाथ रखते हैं!!! वही बुराइयाँ तुम से होती हैं, उन्हीं कामों को तुम करते हो!!! क्या इससे नरक में भी ठौर मिलेगी, मैं समझता हूँ ऐसे लोगों को देखकर नरक भी काँप उठेगा। रमानाथ! क्या अब भी तुम सोच सकते हो! क्या अब भी सच्चे जी से भगवान को पुकार कर कह सकते हो! प्यारे! जो चूक आज तक मुझ से हुई, आगे को मैं कान पकड़ता हूँ, तू उनको छिमा कर, तेरी ही दया से मेरे सब पापों के कट जाने का आसरा है। मैं समझता हूँ, तुम बाम्हन के घर में जनमे हो, बाम्हन का ही लोहू मास तुमारे में है, अब तक तुमने जो किया सो किया, अब से अपना जनम बना सकते हो।
रमानाथ रो रहा था, फूट-फूट कर रो रहा था, पाप एक-एक करके उसकी आँखों के सामने नाच रहे थे, देवनंदन की बातों से उसके कलेजे पर चोट सी लगी थी, वह डरा भी बहुत था, उससे बोला न जाता था, पर उसने जी थाम कर कहा, आप मुझको बचाइये, आप मुझ डूबते को सहारा दीजिए, अब आप जो कहेंगे, वही मैं करूँगा, दो महीना हुआ मेरी रखेली भी मर गयी, यह झंझट भी मेरे सिर से जाता रहा, रहा पेट का झमेला, उसके निबाह के लिए जो आप कहेंगे, वही मैं करूँगा, जिस में मेरा भला हो, जिस में मैं भगवान को अपना मुँह दिखा सकूँ, आप उन्हीं बातों को बताइये, अब मैं उन्हीं को करूँगा।
देवनंदन ने कहा, सब से सीधा ढर्रा यही है, तुम घर चल कर अपने बाल बच्चों में रहो, अपनी दुखिया घरनी के उजड़ते घर को बसाओ, भाग से, भली कमाई से जो मिले उसको खा पीकर अपना दिन बिताओ, इसी में तुमारा भला होगा, भगवान को मँह दिखाने जोग तुम इन्हीं कामों को करके होगे?
रमानाथ ने कहा-ना! घर मैं न चलूँगा, कौन मुँह लेकर चलूँ! मैं आप ही के साथ साधु होकर रहूँगा। अपना भला मैं इसी में देखता हूँ।
देवनंदन-क्यों न घर चलोगे? घर चलना होगा। यही मुँह लेकर घर चलो, इसी मुँह के लिए तुमारी घरनी तरसती है! यही मुँह उसके अंधियाले जी का उँजाला है? इसी मुँह के देखने के लिए वह एक घड़ी को एक-एक बरस ऐसा समझ रही है। जो अपने बालबच्चों में धरम के साथ रहता है, उसको साधु बनने से क्या काम है! तुम घर चलो, तुमारी भलाई इसी में है।
रमानाथ-मेरे खेत सब गिरों हैं, दूसरा काम करने आता नहीं, आज तक मुझ को अपने ही पेट से छुट्टी नहीं है, कल घर चलने पर बालबच्चों का निबाह कैसे होगा, जिन बखेड़ों से घबरा कर मैं भागा था, उन्हीं सब बखेड़ों को आप फिर मेरे सिर डालते हैं, घर चलने पर मेरी गत फिर जैसी की तैसी होगी। आप दया करके मुझको घर चलने को न कहिये?
देवनंदन-यह लो, इसको पढ़ो, देखो तुम्हारे सब खेत छूट गये, मैं इन सब बातों को ठीक कर चुका हूँ, मैं जानता था, तुम घर आने की बात चलने पर यही कहोगे, मैं घर चलकर खाऊँगा क्या? इसीलिए इस का रुपया चुकाकर इसको साथ लेता आया हूँ, जो तुम न पढ़ सकते हो, इसको किसी से पढ़ा देखो। फिर आज तक तुम्हारे बालबच्चों का निबाह कैसे होता है! जिस दाता ने आज तक उनका निबाह किया है, वही अब भी करेगा, तुमको ऐसी-ऐसी बातें न उठानी चाहिए।
रमानाथ, देवनंदन की करतूत देखकर और उनकी बातें सुनकर अचरज में आ गया, बोला अब मैं क्या कहूँ, जो आप कहते हैं वही करूँगा, घर चलूँगा,मैं आप की बात टाल नहीं सकता, आप कहते हैं घर चलने ही से मेरा भला होगा, तो मैं घर चलूँगा?
इतनी बातें होने पीछे दोनों जन घाट पर से उठे, और अपने डेरे की ओर चले गये।
बारहवाँ ठाट
जिस दिन देवनंदन, देवबाला को समझा बुझा कर रमानाथ को खोजने निकले, उसी दिन देवबाला को अपना दिन फिर फिरने का भरोसा हुआ, एक महीने तक वह बहुत अच्छी रही पर सुख उस के भाग में बदा न था, दूसरे महीने उसको थोड़ा-थोड़ा जर आने लगा, तीसरे महीने वह बहुत बढ़ गया,खाना-पीना सब छूट गया, दिन-दिन वह दुबली होने लगी, कुछ दिन तक उठती रही, फिर उठ बैठ भी न सकती, दिन रात खाट पर पड़ी रहने लगी,अपना कोई पास न था, देखभाल दौड़-धूप कौन करे, उसी पड़ोस की बूढ़ी बाम्हनी से जो कुछ बनता, वह करती, उसने लोगों से पूछपाछ कर देवबाला को दो एक औखध भी खिलायी, पर उससे कुछ न हुआ, दिन-दिन उसका रोग बढ़ता ही गया, आज उसकी दसा तनक भी अच्छी नहीं है, बुढ़िया मन मारे उसकी खाट के पास बैठी है, कभी चुपचाप रोती है, कभी देवबाला की आँख बचाकर आँसुओं को पोछ देती है। देवबाला का चार बरस का छोटा बच्चा भी उसी खाट के पास खड़ा है, कभी रोता है, कभी माँ, माँ, कर के खाने को माँगता है, कभी धूल में लोटता है, कभी मुँह के पास जाकर कहता है, माँ! बोलती क्यों नहींहो?
लड़के का रोना सुनकर देवबाला ने आँखें खोलीं, हाथ से लड़के को पास बुलाया, अपने आँचल से उसका धूल झाड़ा, कहा, बेटा क्यों रोते हो! अभी तुमारी माँ जीती है, इतना कहकर देवबाला ने लड़के को गोद में बैठा लिया, पर इतना रोई जिससे बिछावन तक भींग गया।
बुढ़िया ने कहा क्यों रोती हो देवबाला, अभी तुमारा क्या बिगड़ा है, इस बच्चे का मुँह देखो! इसको न रुलाओ, तुमारा मुँह देखकर यह रो-रो उठता है! ढाढ़स करो, इतना निरास क्यों हो!!!
देवबाला की साँसें चल रही थीं, बहुत बोला न जाता था, पर उसने जी थामकर कहा, जीजी? रोने दो, कल मैं रोने न आऊँगी, यह ढाढ़स करने का बेला नहीं है, फिर ढाढ़स कर ही के क्या होगा, जिन आँखों ने आँसू बहाना ही सीखा है, वह जीते कैसे मान सकती हैं। यह बच्चा रोता है! यह नहीं देखा जाता है! लड़के का आँसू पोंछ कर और उसका मुँह चूम कर देवबाला ने कहा यह कभी नहीं देखा जाता है! कलेजा फटता है! मरने के दुख से भी यह दुख भारी जान पड़ता है! पर इस को तो अभी बहुत दिन रोना है, आज मैं इसका धूल झाड़ती हूँ, मुँह चूमती हूँ, इसको रोते देख कर दुखिया बनती हूँ, हाय! कल इस का धूल कौन झाड़ेगा, कौन इस का मुँह चूमेगा, कौन इस को रोते देखकर कलेजा पकड़ेगा, कल यह किस को माँ कहेगा, कौन इस के मुँह को सूखा न देख सकेगी, भूख लगने पर जब यह रोवेगा, प्यास से जब इस का मुँह कुम्हिलावेगा, तब कौन इसको छाती से लगा कर कहेगी, बेटा मत रोओ। मेरे लाल! मत रोओ, देखो यह कलेऊ है, इसको खाओ! यह पानी तुमारे लिए लाई हूँ, इसको पीओ। कल यह बाल खोले मुँह बिचकाये रोता फिरेगा। धूल में भरा, भूखा, प्यासा, गलियों में ठोकरें खाता रहेगा, कभी माँ, माँ कर के कलपेगा, कभी एक टुकड़े रोटी के लिए, एक मूठी अन्न के लिए तरसेगा, सूखे मुँह पछाड़ खा-खा कर धरती पर गिरेगा, उस घड़ी इस की कौन गत होगी, कौन इस की सुरत करेगा, मुझ भिखारिनी से जनमा जान कर लोग इससे घिन करेंगे, पास न फटकने देंगे, उस घड़ी यह चार बरस का लड़का किस का मुँह देख कर जीयेगा, जीजी! लो, तुमारे गोद में मैं इस को देती हूँ! तुम्हीं इस दुखिया बच्चे को सम्हाल सकती हो, तुमारे बिना और कोई मुझ को अपना नहीं जान पड़ता है, तुमने आज तक मुझको सम्हाला है, अब इस बच्चे को सम्हालना, यह बच्चा तुमारा ही है, इतना कहते-कहते देवबाला की आँखें फिर मुँद गयीं, फिर वह अबोले हो गयी, कुछ घड़ी पीछे कहा पानी! बुढ़िया ने थोड़ा पानी पिला दिया।
अब की बार उसकी आँखें फिर खुलीं, उसने चारों ओर देखा, कहा, जीजी! एक बात और जी में रही जाती है, क्या अब उनको न देख सकूँगी, इस घड़ी जो उन को एक बार देख पाती, तो सब दिन का दुख भूल जाती, मरने का दुख भी भूल जाती, देवनंदन के गये आज तीन महीने पूरे हो गये, जाती बेले उन्होंने कहा था, मैं उनको तीन महीने के भीतर ही लेकर पहुँचूँगा, क्या आज वह आवेंगे, जीजी! जिस दिन देवनंदन उनको खोजने निकले, उस दिन मुझ को बहुत भरोसा हुआ था, मुझ को कई दिन ऐसा जान पड़ा, वह आये हैं, मैं उनके पास बैठी हूँ, रो रही हूँ, कहती हूँ, मैंने क्या किया, जो तुम मुझ को भूल गये थे, तुमारा कैसा कलेजा है, जो चार-चार बस तुमने मेरी सुरत नहीं की, तुम बड़े निठुर हो, जो तुमारे ऊपर अपना प्रान तक निछावर करना चाहती है, तुमारा ही मुँह देखकर जो सब कुछ भूल जाती है, क्या उस से भी तुम को रूठना चाहिए। वह इन बातों को सुनते हैं, अपने हाथों मेरा आँसू पोंछते हैं,कहते हैं, क्या मैं तुम को भूल सकता हूँ, पर भाग ने जो चाहा सो किया, जाने दो अब इन बातों को कह कर मुझको न लजवाओ, पर हाय! जीजी! यह सब मेरा सपना था, वह तो आज भी नहीं आये, जी की जी ही में रही जाती है, जो मैंने कुछ पुन्न किया हो, जो मेरी पहले जनम की कोई भली कमाई हो, तो मैं यही चाहती हूँ उनको एक बार और देखूँ, इस मरते बेले और एक बार उन को देखकर अपनी आँखें ठण्डी करूँ। जीजी! क्या भगवान मेरी यह पुकार सुनेंगे?
जिस घड़ी देवबाला बुढ़िया से इन बातों को कह रही थी, उसी बेले बाहर किसी के पाँव की आहट सुन पड़ी, थोड़ी बेर में देवनंदन ने घर के भीतर पाँव रखा, देखा, देवबाला की साँसें चल रही हैं, आँखें टँग गयी हैं, और बात उसके मुँह से बहुत ही रुक-रुक कर निकल रही है। देवनंदन बाहर ही से देवबाला की दसा सुनते आये थे, घर में आकर उस की यह दसा देख कर उनका कलेजा फट गया। बहुत सम्हालने पर भी जो न सम्हला, पर उन्होंने कलेजा थाम कर कहा, देवबाला! रमानाथ आये हैं, क्या कहती हो?
देवबाला ने प्यार के आँसू बहा कर कहा, भैया! अब इस जनम में भेंट न होगी, मैं चली, पर मरने के दुख से भी बढ़ कर जो दुख था, उसको तुमने दूर किया, मैं इस का कहाँ तक निहोरा करूँ, मुझ को भूल न जाना, मैं अब इस घड़ी यही चाहती हूँ, उन को यहाँ आने दो।
देवनंदन बड़े दुख के साथ घर में से बाहर हो गये, बुढ़िया भी वहाँ से उठकर दूसरी ठौर चली गयी, थोड़ी बेर में धीरे-धीरे सिर नीचा किये रमानाथ ने उस घर में पाँव रखा, रमानाथ का सिर लाज से ऊपर न होता था, आँख से आँसू भी गिर रहा था। देवबाला ने उस को आते देखा, कुछ घड़ी के लिए सब दुख भूल गयी, इस घड़ी उस की आँखों में आँसू न था, वह बोली, ”क्या कहूँ, भाग में यही लिखा था, साढ़े चार बरस पीछे प्यारे से भेंट होगी तो उस घड़ी जब प्रान बाहर निकलते होंगे, तब भी मैं अपने को बड़भागिनी समझती हूँ, जो मरते मुझ को तुमारे पाँवों की धूल मिल गयी। इतना कह कर देवबाला ने रमानाथ को पास बैठाला पाँवों की धूल लेकर आँखों से मला, माथे पर चढ़ाया, पीछे कहा, मैंने जान बूझ कर कभी कोई चूक नहीं की है, जो भूल कर मुझसे कोई चूक हुई हो, तो मैं चाहती हँ तुम उसको छिमा करो, जो कुछ भी तुमारे जी में मैल होगी, तो मैं भगवान को मुँह कैसे दिखाऊँगी, रमानाथ ने कहा, प्यारी! तुम से, और चूक! यह कैसे हो सकता है, पर जो कोई चूक हुई हो, मैंने उसको छिमा किया, भगवान तुमारा भला करे। अब की बार देवबाला फिर रोई, बोली, कैसा अच्छा होता, जो यह बात कुछ दिन पहले तुमारे जी में आती! भाग ने जो चाहा किया, अब मैं चली, इस बच्चे को तुम्हें सौंपे जाती हूँ, देखो यह रो रहा है, इस को चुप कराओ, और असीस दो, मैं जनम-जनम तुमारे चरनों की दासी होकर जनमूँ पर ऐसा दुख किसी जनम में न पाऊँ,जैसा इस जनम में मिला है।” रमानाथ न रोते-रोते देखा, इतना कहते-कहते देवबाला की आँखें अचानक मुँद गयीं, और देखते-ही-देखते प्रान उसके दुखिया देह से बाहर हो गया।
तेरहवाँ ठाट
सूरज वैसा ही चमकता है, बयार वैसी ही चल रही है, धूप वैसी ही उजली है, रूख वैसे ही अपनी ठौर खड़े हैं, उनकी हरियाली वैसी ही है, बयार लगने पर उनके पत्ते वैसे ही धीरे-धीरे हिलते हैं, चिड़ियाँ वैसी ही बोल रही हैं, रात में चाँद वैसा ही निकला, धरती पर चाँदनी वैसी ही छिटकी, तारे वैसे ही खिले, सब कुछ वैसा ही है, जान पड़ता है देवबाला मरी नहीं, धरती सब वैसी ही है, पर देवबाला मर गयी, धरती के लिए देवबाला का मरना जीना दोनों एक-सा है, धरती क्या, गाँव में चहल-पहल वैसी ही है, हँसना-बोलना गाना-बजाना, उठना, बैठना, खाना पीना, आना जाना सब वैसा ही है, देववाला के मरने से कुछ घड़ी के लिए दो एक जन का कलेजा कुछ दुखा था, पर अब उन को देवबाला की सुरत तक नहीं है। वह भी देवबाला को भूल गये। हाँ अब तक एक कलेजे में दुख की आग धहधहा रही है, अब तक एक जन की आँखों में आँसू बहता है, वह देवबाला के लिए बावला बन रहा है, यह दूसरा कोई नहीं, रमानाथ है। पीछे किरिया करम का झमेला हुआ, दूसरे काम काज की झंझट हुई, रमानाथ को ही यह सब सम्हालना पड़ा, धीरे-धीरे उस का दुख भी घटने लगा, धीरे-धीरे वह भी देवबाला को भूल रहा है। एक-एक कर के दिन जाने लगे, देवबाला को मरे कई दिन हो गये, पर देवनंदन अब तक उसको नहीं भूले हैं, अब तक वह लड़कपन की हँसती खेलती देवबाला, अब तक वह ब्याह के पहले की, बिना घबराहट की, लजीली, देवबाला, अब तक वह दुखिया रोती कलपती देवबाला, उनकी आँखों में, कलेजे में, जी में, रोंये-रोंये में, घूम रही है। सोते, उठते, बैठते, खाते, पीते, देवबाला ही की सूरत उनको बँधा रही है। वह सोचते हैं। क्यों? देवबाला की कोई ऐसी कमाई तो नहीं थी जिससे उसको इतना दुख मिले, फिर किसलिए उसका ब्याह ऐसे निठल्लू, निकम्मे, अनपढ़, बुरे के साथ हुआ, जिससे उसको कलप-कलप कर दिन बिताना पड़ा, क्यों उसके माँ बाप ने उसको ऐसे घर में ब्याहा जहाँ वह एक मूठी नाज के लिए भी तरसती रही। क्यों ब्याह के छही महीने पीछे ससुर मर गया, बरस भर पीछे पुरुख परदेस चला गया, उसके थोड़े ही दिन पीछे सास भी मर गयी। माँ बाप जगरनाथ जी गये, फिर न लौटे, रमानाथ कहते थे, वह दोनों एक ही दिन कलकत्ते में मर गये। क्यों एक के पीछे एक यह सब कलेजा कँपानेवाली बातें होती गईं, और क्यों जब उस के दिन फिर फिरने पर हुए तो वह आप ही चल बसी? क्यों जो इस धरती पर डर कर चलता है वही मुँह के बल गिरता है? क्या धरम से रहने वाले ही को सब कुछ भुगतनी होती है? राम जानें यह क्या बात है! पर जो ऐसा न होता, देबबाला को इतना दुख न भोगना पड़ता। सास ससुर सब दिन जीते नहीं रहते, माँ बाप भी कभी लड़की के काम आते हैं, माँ, बाप, ससुर, सास के मरने से कभी देवबाला को इतना दुख न भुगतना होता, जो रमानाथ भला होता, रमानाथ के बुरे और निकम्मे होने ही से देवबाला की यह सब दसा हुई। इससे मैं समझता हूँ देस की बुरी रीत जो रामकान्त के जी को डाँवाडोल न करती, अनसमझी से जो वह हाड़ ही को सब बातों से बढ़कर न समझते, झूठे घमण्डों के बस उतर कर ब्याह करके लोगों से हँसे जाने का जो उन को डर न होता, तो वह हठ न करते, और जो हठ न करते, तो रमानाथ जैसे क्रूर के साथ देवबाला का ब्याह न होता, और जो रमानाथ के साथ देवबाला का ब्याह न होता, तो कभी देवबाला जैसी भली तिरिया की यह दसा न होती। देस की बुरी रीतियों, झूठे घमण्डों से कितने फूल जो ऐसे ही बिना बेले कुम्हिला जाते हैं, कितनी लहलही बेलियाँ जो नुच कर सूख कर धूल में मिल जाती हैं, नहीं कहा जा सकता, राम! क्या तुम यही चाहते हो, यह देस बुरी रीतियों के बस ऐसे ही दिन मिट्टी में मिलता रहे?
इतना कहकर देवनंदन फिर सोचने लगा, जब मैंने जग से सब नाता तोड़ लिया, जी के उचाट से घर दुआर छोड़ कर साधु हो गया, अपना ब्याह तक नहीं किया, एक कौड़ी भी अपने पास नहीं रखता, काम लगने पर दूसरे का दुख छुड़ाने के लिए दो-चार सौ अपने भाई से लेता था, अब वह भी नहीं लेता, उसी को समझा दिया, मेरे बाँट के रुपये से दीन दुखियों का भला करते रहना, जब इस भाँत मैं सब झमेलों से दूर हूँ, तूँबा और लँगोटी ही से काम रखता हूँ, तो फिर एक तिरिया की घड़ी-घड़ी सुरत किया करना, उसके दुखों को सोच-सोच कर मन मारे रहना, देस की बुरी रीत के लिए कलेजा पकड़ना, आँसू बहाना, मुझ को न चाहिए, अब इन बखेड़ों से मुझ को कौन काम है, धरती का ढंग ही ऐसा है, सब दिन सब का एक सा नहीं बीतता, उलट फेर इस जग में हुआ ही करता है, इस को कौन रोकनेवाला है। फिर उस ने सोचा भभूत लगाने से क्या होगा, गेरुआ पहनने से क्या होगा, घर दुआर छोड़ने से क्या होगा, लँगोटी किस काम आवेगी, तूँबा क्या करेगा, साधु होने ही से क्या, जो दूसरे का दुख मैं न दूर करूँ, दुखिया को सहारा न दूँ, जिस काम के करने से दस का भला हो उस में जी न लगाऊँ। देस की बुरी रीत के दूर होने के लिए जतन करना, लोगों के झूठे घमण्डों को समझा बुझा कर छुड़ाना, जिससे एक को कौन कहे लाखों का भला होगा, क्या मेरा काम नहीं है, क्या मेरे साधु होने का सब से बड़ा फल यह नहीं है? देवबाला भूल जावे,भूल जावे, उसको अब भूल जाना ही अच्छा है! पर साँस रहते मैं दूसरे की भलाई के कामों को कैसे भूल सकता हूँ! पर क्या कभी मेरे मन की बात पूरी होगी? क्या कभी यहाँ वाले अपने देस की बुरी चालों को दूर करना सीखेंगे? क्या दूसरों की भलाई का रंग यहाँ वालों पर चढ़ सकता है? क्या हठ छोड़ कर इस देस के लोग बातों के करने में जी लगा सकते हैं, क्या जतन करने से कुछ होगा?
इसी बेले देवनंदन ने सुना, जैसे किसी ने कहा, ”हाँ होगा” उन्होंने आँख उठा कर देखा, आकास से एक जोत सामने उतरती चली आती है, और उसी में बैठा जैसे कोई कह रहा है ”हाँ! होगा” देवनंदन थिर होकर उस को देखने लगे, उसी में से फिर यह बात सुन पड़ी, ”क्यों मुझ को तुम जानते हो? मेरा नाम आसा है, मेरे बिना धरती का कोई काम नहीं चल सकता, मैं तुम को बतलाती हूँ, जतन करो, जतन करने से सब कुछ होगा” देवनंदन ने बहुत विनती के साथ कहा, कब तक होगा माँ? फिर बात सुनने में आयी, ”जतन करने वाले को कब तक की बात मुँह पर न लानी चाहिए, जब तक उस का काम न हो तब तक उस को जतन करते रहना चाहिए” देवनंदन ने देखा, इतनी बातों के कहने पीछे यह जोत फिर आँखों से ओझल हो गयी।
देवनंदन कब तक जीते रहे और किस ढंग से उन्होंने देस की बुरी चालों को दूर करने के लिए जतन किया, कैसे-कैसे खोटी रीत छुड़ा कर अपने देस भाइयों का भला करना चाहा, इन सब बातों को यहाँ उठाने का काम नहीं है, पर जब तक वह जीते रहे, उन का यही काम था, कुछ दिनों पीछे रमानाथ भी उनका साथी हो गया था, बहुत दिन तक लोगों ने देवनंदन को दूसरों की भलाई के लिए घूमते देखा था, पर पीछे उन को भी धरती छोड़नी पड़ी। जिस दिन उन्होंने धरती छोड़ी, उस दिन चारों ओर से लोगों को यह बात सुन पड़ी थी, ”क्या फिर कोई देवनंदन जैसा माई का लाल न जनमेगा’।
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