हर कोई जरूर पा सकता है चमत्कारी सिद्धियों के इन सर्व सुलभ प्रारूप को
चाहे व्यक्ति भगवान की भक्ति में कड़ी मेहनत करें या हठ योग में कड़ी मेहनत करे या राज योग में, उसको कुछ दिन बाद अपने शरीर में धीरे – धीरे, अलग – अलग किस्म की दिव्य शक्तियां महसूस होने लगती है, जो की समय के साथ बढती जाती है |
सिद्धियों का वर्णन शरीरगत कौतूहलों के रूप में किया जाता है।
काया का छोटा हो जाना, बड़ा हो जाना, पानी पर चलने लगना, हवा में उड़ जाना आदि विलक्षणताओं को शरीर द्वारा कर दिखाना सिद्ध पुरुषों का सफलता का लक्षण माना जाता है।
बहुत से लोग इन पर विश्वास करते हैं और तलाशते फिरते हैं कि जो ऐसे कृत्य कर दिखायें उन्हें सिद्ध पुरुष या पहुँचा हुआ योगी मानें। किन्तु ऐसे योगी बहुत कम होते है और वो अपनी सिद्धियों का प्रयोग बहुत छिपा कर भी रखते है।
तिब्बत को ऐसे योगियों का क्रीड़ास्थली बताया जाता रहा है। वह स्थान दुर्गम एवं प्रतिबन्धित होने के कारण वहां सर्वसाधारण की पहुँच बहुत कम होती रही है। इसलिए किंवदंतियों का अन्वेषण भी नहीं होता। वहाँ लामा सम्प्रदाय का प्रभुत्व था।
यहाँ पर सिद्धियों का व्यवहारिक ऐसे पहलु के बारे में समझाया जा रहा है जो सर्व सामान्य के लिए हर समय उपलब्ध है, बस जरुरत है उन्हें समझने की !
श्री बुद्ध का एक शिष्य किसी राजा द्वारा ऊँचे बाँस पर टाँगे हुए कमण्डलु को उस पर चढ़कर उतार लाया था और अपनी सिद्धाई से चमत्कृत करके उस राजा को और उसकी प्रजा को अपना शिष्य बना लिया था। स्वर्ण कमण्डलु लेकर जब वह बुद्ध के पास पहुँचा तो उन्होंने सारी बात जानी। वह शिष्य पहले नट था। बाँस पर चढ़ने की कला आती थी।
उसी अनुभव के आधार पर वह ऐसी करामात दिखाने में सफल हुआ था। बुद्ध ने समस्त शिष्य मण्डली को बुलाया और उस कमण्डलु को तुड़वाकर नदी में बहा दिया। कहा कि मेरा कोई शिष्य कभी भी ऐसा आडम्बर न रचे। यदि ऐसा हुआ तो बाजीगर लोग, सिद्ध पुरुष माने जाने लगेंगे और सच्चे योगी वैसा ढोंग न रच पाने के कारण उपेक्षित तिरष्कृत होते रहेंगे। उनके सदुपदेश भी कोई न सुन सकेगा।
योग वस्तुतः मनोविज्ञान का विषय है। उसका सम्बन्ध चेतना के परिष्कार से है। बुद्ध, विवेकानंद, अरविन्द आदि ने कोई करामातें नहीं दिखाई थीं। वे अपनी मानसिक उत्कृष्टता के आधार पर ही महानता के ऊँचे स्तर तक पहुँचे थे। व्यामोह की सुरसा, हनुमान को निगलना चाहती थी वे अपने को वैभववान् नहीं, अकिंचन बनकर उससे छुटकारा पा सके।
साधारण जनों को अपने में डूबा लेने वाले भवसागर के ऊपर होकर जो चल सकता है, पार जा सकता है उसे जल पर चलने की सिद्धी प्राप्त हुई यह समझना चाहिए। हनुमान की नम्रता अकिंचन भावना ही उनकी अणिमा सिद्धि की प्रारूप थी।
श्री बुद्ध आदि को, महात्मा सिद्धि थी। काया की दृष्टि से वे सामान्यजनों जैसी ही थे। प्रतिभा भी सामान्यजनों जैसी ही थी। पर लक्ष्य ऊँचा रखने और पूरा जीवन उसी में खपा देने के कारण वे महामानव माने गये।
उनके आदेशों का पालन लाखों करोड़ों ने किया यह महिमा सिद्धि कही जाये तो अत्युक्ति नहीं। शरीर से महापुरुष, रावण – कुम्भकरण जैसे विशाल नहीं होते पर अपने अदभुत व्यक्तित्व और कार्यों के कारण सामान्य लोगों की तुलना में कई गुना प्रभावी गिने जाते हैं।
सन्त दादू के पास एक महिला आई। वह पति को वश में करने का जंत्र-मंत्र चाहती थी। दादू ने उसके विश्वास को देखते हुये एक कागज पर कुछ लिखकर ताबीज पहना दिया। साथ ही पति के मधुर व्यवहार की रीति-नीति भी समझा दी। पति वश में हो गया। वह स्त्री दादू के सामने थाल भरकर धन तथा उपहार लाई। बहुत से दर्शक भी मौजूद थे।
दादू ने उस जंत्र-मंत्र को उससे वापस लिया और खोलकर सब लोगों को दिखाया था। उसमें कुछ भी अनोखापन नहीं था। अपने सद्व्यवहार से ही उसने पति को वश में किया था। अपना स्वभाव और प्रयास के बदलने से ही अभीष्ट सफलताएँ उपलब्ध होती हैं। तथ्य दादू ने सब पर प्रकट कर दिया और उपहार जरूरतमन्दों को बाँट दिया।
जिन्हें पानी पर चलने की जल्दी हो वे नाव में बैठ सकते हैं और जिन्हें हवा में उड़ना हो वे हवाई जहाज का टिकट खरीद सकते हैं सिर्फ ये सब चमत्कारी ताकत पाने के लिए भक्ति योग, राज योग या हठ योग का अभ्यास करना सर्वथा अनुचित है जबकि ये सिद्धिया परमतत्व यानी ईश्वर को पाने के प्रयास में बीच में पड़ने वाले विश्राम स्थल है।
वायुयान यात्रा में काँच की खिड़की से झाँककर नीचे की ओर देखा जाये तो रेलगाड़ी सांप सी रेंगती दिखाई पड़ती है और हाथी – घोड़े जैसे बड़े जानवर चाबी वाले खिलौने की तरह दौड़ते हैं। नदियाँ पतली नाली जैसी दीखती हैं।
ऐसा ही दृष्टिकोण दुनिया के भोग – सुख – वासनाओ के प्रति महामानवों का होता है। ये सब तुच्छ प्रतीत होते हैं। वे उनसे प्रभावित नहीं होते वरन् ओछे स्तर को बचकानापन मानकर हँस भर देते हैं। अपनी उनसे तुलना नहीं करते।
वायुयान पर चढ़ा हुआ व्यक्ति दूर-दूर के दृश्य देखता है किन्तु घास चरने वाले छोटे जानवर पास के ही दायरे में देख सकते हैं। कूप मण्डूक की दुनिया बहुत छोटी होती है। गूलर के भुनगों की उनसे भी कम दायरे की। जबकि वायुयान पर बहुत ऊँचाई पर से देखने पर दुनिया बहुत विस्तृत दीखती है।
चन्द्र यात्रियों ने चन्द्रमा पर खड़े होकर उगती हुई पृथ्वी को देखा था वह बड़े थाल के बराबर थी। पर हमारी दृष्टि में तो वही पूरा ब्रह्मांड है। इस भाव या सोच को भी कह सकते है आकाश गमन की सिद्धि ।
बच्चों को चाबी वाले खिलौने ही मनोरंजन के केन्द्र बने रहते हैं। पर बड़ी आयु के व्यक्ति उन्हें खिलवाड़ भर मानते हुए तुच्छ आँकते हैं। सामान्य बुद्धि के दुनियादार लोग लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति को ही बहुत बड़ी वस्तु मानते हैं और उनकी उपलब्धि को भारी सफलता गिनते हैं।
पर दूरदर्शी विवेकशील इन खिलवाड़ों में अपने को उलझते नहीं और सोचने की करने की दिशाधारा ऐसी बनाते हैं जो सृष्टा के युवराज की गरिमा को सुरक्षित रखे।
अन्य सभी अलौकिकताएँ और सिद्धियों का भी एक प्रकार मानसिक और भावनात्मक हैं जिन्हें सर्वसाधारण को समझकर अपने जीवन में निश्चित उतारने का प्रयास करना चाहिए।
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