यहाँ कल्पना जैसा कुछ भी नहीं, सब सत्य है
लम्बे समय से ब्रह्मांड से सम्बंधित सभी पहलुओं पर रिसर्च करने वाले, “स्वयं बनें गोपाल” समूह से जुड़े हुए विद्वान रिसर्चर श्री डॉक्टर सौरभ उपाध्याय (Doctor Saurabh Upadhyay) के निजी विचार ही निम्नलिखित आर्टिकल में दी गयी जानकारियों के रूप में प्रस्तुत हैं-
दुनिया का कोई भी व्यक्ति अपने मन में जो जो कल्पना कर सकता है वो वो सब सत्य है !
जैसे – बचपन में आप सिनेमा हॉल में कोई हॉलीवुड की साइंस फिक्शन मूवी देखने गए और मूवी देखते समय तो आप बहुत प्रसन्न थे क्योंकि उस समय वो मूवी आपके अपने सपनों से बहुत मैच कर रही थी लेकिन जैसे ही आप मूवी देखकर सिनेमा हॉल से बाहर निकले तो आप उदास हो गये कि काश वो सपने की ही दुनिया असली होती पर उस समय आपको कोई बताये कि आपने जो जो देखा वो वो अक्षरशः सत्य है तो आप कैसा महसूस करेंगे ?
स्वाभाविक है यह सब सुनकर बेहद आश्चर्य तो होना ही है कि आखिर कल्पनायें सत्य कैसे हो सकती है ?
पर इस कांसेप्ट का बहुत ही बढियां तरीके से वर्णन किया गया है हमारे अनंत वर्ष पुराने वेरी साइंटिफिक हिन्दू धर्म में पर समस्या यह है कि हमारे अधिकांश बेशकीमती हिन्दू धर्म के ग्रन्थ अब ना के बराबर मिलतें हैं क्योंकि अधिकांश बेशकीमती हिन्दू ग्रन्थ या तो क्रूर आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दिए गए या तो अंग्रेजों के शासन काल में विदेश चले गए !
इसलिए इस तरह के दुर्लभ ज्ञान, कठिनाई से मिलने वाले उच्च कोटि के दिव्य दृष्टि प्राप्त संत जनों की कृपा से ही प्राप्त हो सकतें है | ऐसे ही एक ज्ञान का हम यहाँ वर्णन कर रहें हैं जो हमें एक दिव्य दृष्टिधारी संत की कृपा से प्राप्त हुआ है –
वास्तव में नारायण की अध्यक्षता में प्रकृति ही सारे दृश्य अदृश्य चराचर जगत का निर्माण करती है !
यह चराचर जगत केवल एक ब्रह्मांड तक ही नहीं सीमित है बल्कि इसमें अनंत ब्रह्मांड हैं और इन ब्रह्मांडों को प्रकृति (जो कि नारायण से अलग नहीं है) अपने गर्भ से जन्म देती है इसलिए प्रकृति का ही एक नाम जगतप्रसूता भी है !
यह माया रुपी प्रकृति ही अविद्या है मतलब जगत रुपी समस्त प्रपंचो का आधार है यह प्रकृति | यह दृश्य जगत, जिसे हम महसूस कर सकते हैं, और इससे परे जो अदृश्य जगत है (जिसका हमें कोई ज्ञान नहीं) उन सब की रचना का प्रकृति ही आधार है !
जबकि नारायण ही विद्या हैं, मतलब – सत्य के ज्ञान के अंतहीन भंडार !
प्रकृति एक ऐसी अनन्त गहरी भंवर है जिसमें असंख्य जीव अनंत काल तक फसें रहतें हैं जब तक उनकी नारायण से मुलाकात नहीं हो जाती है !
इस भंवर को ही कई लोग भव सागर भी कहतें हैं अर्थात भावनाओं का सागर !
ये भावनाएं ही मालिक की तरह 5 से 6 फीट लम्बे मानव को जो जो आदेश देतीं हैं उन हर आदेशों का मानव शरीर नौकर की तरह पालन करता है !
अब ये भावनाएं क्या होतीं हैं ?
सभी को पता है कि भावनाएं कई तरह के विचार, कल्पनाओं, शंकाओं आदि का समूह होती हैं लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि किसी भी मानव के मन में पैदा होने वाली हर भावना, कल्पना, शंका, विचार आदि सब (सत्य ना होते हुए भी) उतने ही सत्य होतें हैं जितना हमें अपनी आँखों से सामने दिखने वाला (असत्य रुपी) संसार सत्य लगता है !
यह बात गले उतारने में दिक्कत जरूर हो रही होगी क्योकि हमें संसार तो दिखता है लेकिन अपनी कल्पनाओं से सम्बंधित कोई सबूत तो नहीं दिखता है ?
तो यहाँ पर बात आती है योग्यता की, मतलब जिसके पास जितनी ज्यादा योग्यता होगी वो उतनी ही ज्यादा अपनी कल्पना को साकार होता देख पाएगा !
जैसे किसी जमीन के अंदर तेल है या नहीं, यह कोई साधारण आदमी जान (या देख) नहीं सकता है लेकिन एक भूगर्भ वैज्ञानिक अपने सोफिस्टिकेटेड इक्विपमेंट्स से पता लगा सकता है कि जमीन में तेल है या नहीं पर उसी वैज्ञानिक से अगर किसी ऐसे मरीज के बारें में पूछा जाए जिसे बार बार बुखार हो जाता हो कि बताईए इस मरीज को बार बार होने वाला बुखार सीजनल है या टाईफाईड का है या ट्यूबरक्लोसिस का है या कैंसर का है या किसी अन्य बीमारी का, तो शायद वो बेहद अनुभवी वैज्ञानिक नहीं बता पायेंगे लेकिन चिकित्सा की पढ़ाई कर चुका एक नौजवान ग्रेजुएट कुछ टेस्ट करवाकर बता सकता है कि बुखार के पीछे की असली वजह कौन सा रोग है लेकिन उसी ग्रेजुएट चिकित्सक से अगर पूछा जाए कि महीनों से बंद पड़ा कोई एयरकंडीशन क्यों नहीं चल रहा तो शायद वो ना बता पाए पर एक हाई स्कूल पास टेक्नीशियन शायद एसी को देखते ही बता दे कि उसमे क्या खराबी है !
तो जिस तरह एक साधारण आदमी जब मेहनत करके भूगर्भ शास्त्र की जानकारी लेगा तभी वो खुद से सक्षम हो पायेगा यह जानने के लिए कि जमींन में तेल है या नहीं और जिस तरह कोई वैज्ञानिक भी अपना दिमाग और ज्यादा खर्च करके चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान लेगा तभी वो खुद से बता पाने में सक्षम हो पायेगा कि कोई बुखार किस बीमारी से सम्बंधित है और जिस तरह एक ग्रेजुएट चिकित्सक भी अपना और ज्यादा दिमाग खर्च करके घरेलु सामानों के बारें में और ज्यादा जानकारी पा पायेगा अन्यथा उसे एक हाई स्कूल पास टेक्नीशियन भी मूर्ख बना कर ज्यादा पैसे ऐंठ सकता है, ठीक उसी तरह किसी भी मानव को अपने मन में उपजने वाली हर संभव/असम्भव सी दिखने वाली कल्पना का विजिबल वर्जन (अर्थात प्रत्यक्ष रूप) खुद से देखने के लिए थोड़ी या काफी (ये निर्भर करता है मनुष्य की अपनी वर्तमान क्षमता पर) मेहनत करनी पड़ती है !
और इस मेहनत में करना क्या होता है ?
सिर्फ एक काम करना पड़ता है और वो काम होता है कि आदमी अपनी रूची अनुसार किसी योग को अपनाकर उसमें खूब मेहनत करे जिससे उसकी अतीन्द्रिय क्षमता का विकास हो क्योंकि कई अनुभव ऐसे होतें हैं जिन्हें सिर्फ साधारण चर्म नेत्रों से देख पाना संभव नहीं है !
ये योग कई प्रकार के होतें है जैसे – हठ योग, राज योग, कर्म योग, भक्ति योग, तंत्र योग आदि !
तंत्र योग को भक्ति योग की ही एक शाखा कह सकतें हैं जिसमें इष्ट के प्रति भक्ति के साथ विभिन्न कठिन कर्मकांड का भी प्रावधान होता है, ठीक इसी तरह सेवा योग, कर्म योग की ही एक शाखा है जिसमे सिर्फ पर पीड़ा शमनार्थ का प्रयास किया जाता है जबकि कर्म योग में संसार की गति बरकरार रखने के लिए बहुत से ऐसे अन्य कर्म भी करने पड़ते हैं जो प्रथम द्रष्टया किसी कुतर्की को परोपकार का कार्य नहीं लग सकता है पर वास्तव में वे कार्य उतना ही जरूरी होतें जितना सेवा कार्य, जैसे कर्म योग में, अपने परिवार के भरण पोषण के लिए नौकरी, व्यापार आदि को पूर्ण ईमानदारी और मेहनत से निभाना, अपनी संतान को अच्छा इंसान बनाने की लगातार ट्रेनिंग देते रहना, देश समाज राजनीति को भ्रष्ट लोगों से लगातार बचाने की कोशिश करते रहना आदि जैसे कर्म भी आतें हैं | कर्म योग से पूर्णता अर्थात ईश्वरत्व की प्राप्ति निश्चित मिलती है जब उसमे सेवा योग और विनम्रता के भाव का उचित मिश्रण हो !
तंत्र योग में ही शैव मत के साधक देवी धूमावती को ही प्रकृति मानतें हैं और उन्हें ही प्रसन्न करने की कोशिश करतें हैं !
किसी मानव के मन में जो जो कल्पनाएँ पैदा होतीं हैं वो सब देवी धूमावती ही यानी अविद्या यानी माया का ही विस्तार है और जब कोई साधक अपनी अथक मेहनत से नारायण को अपने समक्ष प्रकट होने पर मजबूर कर देता है तो नारायण के प्रकट होते ही अविद्या अर्थात माया (परा माया और अपरा माया दोनों) तुरंत वहां से हट जाती है, जिससे साधक उस समय सत्य चित्त आनंद (अर्थात ख़ुशी की चरम सीमा) का सुख भोगता है !
ईश्वर के सर्वोत्तम रूप का दर्शन (जिसमें ईश्वर साधक को मनोवांछित वर भी प्रदान करतें है) पा लेने के बाद वह साधक अधिकारी हो जातें हैं सब कुछ जान लेने के मतलब उनसे कुछ भी छुपा नहीं रह सकता है, अनंत ब्रह्मांडों में क्या क्या हो रहा है वे चाहे तो पता कर सकतें हैं !
ईश्वर के ऐसे दुर्लभतम रूप का दर्शन प्राप्त साधक को हर सेकेण्ड अपने अंदर और बाहर, सर्वत्र अर्थात हर कण कण में नारायण का ही दर्शन होता है !
यह दुर्लभ स्थिति ठीक उसी तरह जैसे जब द्वापर युग में, बाल गोपाल यमुना घाट से गोपियों का वस्त्र चुरा कर भाग गए थे तब अन्य गोपियों की तरह हाय तौबा मचाने की बजाय राधा जी ने मन ही मन अनंत ब्रह्मांड अधीश्वर श्री कृष्ण का आवाहन किया तो तुरंत ही परम विलक्षण स्थिति पैदा हो गयी जिसमें ब्रह्मांड के हर कण कण से स्वयं बाल गोपाल बाहर निकल आये थे मतलब उस समय ब्रह्मांड में सिवाय राधाजी और श्री कृष्ण के अलावा तीसरा कोई और था ही नहीं | जो श्री कृष्ण के इस वाक्य को भी सत्य साबित करता है कि “एकोहम बहुस्याम” अर्थात इस ब्रह्मांड में वास्तव में सिर्फ मै ही एक हूँ जो अनंत भिन्न भिन्न जीवों के रूप में दिखता हूँ !
श्री कृष्ण ने यह भी बताया है कि हर मानव शरीर के हृदय में, मैं अविनाशी तत्व के रूप में सदैव वास करता हूँ !
इसीलिए हठ योग में ऋषियों ने अनुलोम विलोम प्राणायाम की बहुत महिमा बताते हुए कहा है कि अनुलोम विलोम प्राणायाम के अभ्यास से हृदय प्रदेश में निर्वात पैदा होता है जिससे वो अविनाशी तत्व (अर्थात ईश्वर) मजबूर हो जाता है बाहर आकर प्रकट होने के लिए !
ईश्वर का दर्शन प्राप्त साधक जब अपनी मरणधर्मा शरीर को त्यागतें हैं तो ईश्वर के ही समान अनंत विराट शरीर धारण करतें हैं और अपने ही शरीर में चराचर जगत को समाया हुआ देखतें हैं ! ईश्वर स्वरुप इन साधक अर्थात दिव्य सत्ता को आज की आम भाषा में सर्वोच्च स्तर का एलियन भी कहा जा सकता है क्योंकि ईश्वर के ही समान सर्वव्यापी होने के बावजूद इनका मुख्य वास ईश्वर के ही निज धाम (जिसे कोई गोलोक कहतें हैं तो कोई शिवलोक, कोई वैकुण्ठ कहतें हैं तो कोई मणिद्वीप भी कहतें है) में ही होता है !
ये दिव्य सत्ता (अर्थात सर्वोच्च स्तर के एलियन) माया रुपी प्रकृति (जो माया देवताओं तक को भ्रम में डाले रहती है) के भ्रम-जाल से भी परे होतें हैं | हर तरह की आसक्ति व मोह से विरक्त ये दिव्य सत्ता जब किन्ही मानवों के शुद्ध हृदय से किये गए अच्छे कर्मो से प्रसन्न होतें हैं तो कभी-कभी अत्यंत विपरीत और प्रतिकूल परिस्थितियों में उनकी सहायता के लिए | ईश्वर की ही तरह ये भी माया को अपनी इच्छा से कम्बल की तरह ओढ़ते हैं अर्थात माया का आश्रय लेकर उन मानवों को अपनी सुरक्षा घेरे में ले लेतें हैं !
ये दिव्य सत्ता, माया को अपने ऊपर अपनी इच्छा से इसलिए धारण करतें हैं क्योंकि इन्हें जिन मानवों को अभी निर्देशित करना होता है वे मानव अभी भी माया के आश्रय में ही होते हैं !
ये दिव्य सत्ता, पृथ्वी पर स्थित अपने कृपा पात्र मानवो से अभीष्ट कार्यों की पूर्ती के लिए भांति भांति प्रकार से, ईश्वर के ही समान लीला करते हुए संपर्क करतें है !
साक्षात् ईश्वर स्वरुप ये दिव्य सत्ता अर्थात सर्वोच्च स्तर के एलियन्स किसी अपने कृपा पात्र स्त्री/पुरुष की अंतरात्मा में ईश्वरीय आदेश की रूपरेखा अंकित करने के लिए, सरेआम उस मानव के स्थूल शरीर (अर्थात हाड़ मांस के शरीर) से उसका सूक्ष्म शरीर बाहर खींच लेतें हैं और फिर कुछ देर बाद उस सूक्ष्म शरीर को जरूरी इंस्ट्रक्शन्स देकर वापस उस सूक्ष्म शरीर को उस मानव के स्थूल शरीर के अंदर डाल देतें हैं !
यह सूक्ष्म शरीर बाहर खीचने और अंदर डालने की प्रक्रिया इतने कम समय में होती है कि उस मानव के आस पास उपस्थित अन्य साधारण मानवों को कुछ भी नहीं पता लगने पाता है, ठीक उसी तरह जैसे जब महाभारत युद्ध में कौरव पांडवों की सेना आमने सामने लड़ने के लिए बेताब खड़ी थी तब उस बेहद कम समय में, कब श्री कृष्ण ने अर्जुन का सूक्ष्म शरीर, अर्जुन के स्थूल शरीर से बाहर निकाल कर अर्जुन को गीता का दिव्य ज्ञान दे दिया, यह वहां उपस्थित बहुत से लोगों को बिल्कुल पता ही नहीं चल पाया था !
सूक्ष्म शरीर बाहर निकालने के अलावा जब सर्वोच्च स्तर के एलियन किसी मानव से बात करतें है तो उस मानव को उन एलियन की आवाज ऐसे सुनाई देती है जैसे मानों कोई उसके मन के अंदर बोल रहा हो !
लेकिन सर्वोच्च स्तर के एलियन की आवाज काफी तेज गतिशील और विचित्र तेजस्वी होती है जिसकी वजह से इस आवाज को थोड़ी ही देर तक सुनने के बाद मानव शरीर शरीर थकान महसूस करने लगता है !
श्री विवेकानंद भी जब शिकागो में जीरो के ऊपर तीन दिन तक भाषण दे रहे थे तो उनके साथ रहने वाले लोगों ने बताया था कि रात में श्री विवेकानंद के कमरे के अंदर से, श्री विवेकानंद की ऐसी आवाजें सुनाई देती थी मानों जैसे वो किसी से बातें कर रहें हों, जिसका खुलासा बाद में स्वयं विवेकानंद जी ने किया था कि उनकी बातें, स्वयं उनके दिवंगत गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस जी से होती थी जो कि दुनिया की नजर में कब का अपना मरणधर्मा शरीर छोड़ चुके थे | ठीक इसी तरह भारतीय गणितज्ञ आचार्य रामानुजन (जिनके बारे में आज भी पश्चिमी देशों के विद्वान कहतें है कि,- The Man Who Knew Infinity) के बारें में भी कुछ तत्कालीन लोगों के कमेंट्स सुनने को मिले थे कि वे शायद किसी शक्तिशाली एलियन के सम्पर्क में थे और उन्ही एलियन की कृपा से प्राप्त ज्ञान के आधार पर उन्होंने गणित के ऐसे रहस्मय दुर्लभ फार्मूले इजाद किये जिस पर आज तक शोध हो रहा है !
सर्वोच्च स्तर के एलियंस अपने कृपा पात्र मानवों से और भी कई तरह से लीला करते हुए संपर्क करतें हैं !
सर्वोच्च स्तर के एलियन्स किसी मानव (जो आत्मिक उन्नति की सीढियां तेजी से चढ़ रहें हों लेकिन वर्तमान में अभी बहुत ज्यादा आत्मिक रूप से सबल नहीं हो सकें हो) के विचारों को सीधे प्रभावित करने के लिए जब उस मानव के आस पास अदृश्य रूप में मौजूद रहतें हैं तो उन दिव्य सत्ता के प्रचंड असह्य तेज से उस मानव को कभी कभी भूकम्प की तरह धरती, बिस्तर या कुर्सी कांपती हुई महसूस होती है, अचानक उसे दिव्य सुगंध की तीक्ष्ण महक का झोका नाक में महसूस होता है, आँखें बंद करने पर मन बिना प्रयास के स्वतः केन्द्रित होने लगता है, हृदय में एक अनजानी ख़ुशी लगातार बढ़ने लगती है जिससे सभी तरह का आलस्य सुस्ती निराशा दूर होकर एक अद्भुत उत्साह महसूस होने लगता है और कभी कभी तो यह उत्साह इतना ज्यादा बढ़ जाता है कि उस मानव को लगने लगता है कि दुनिया का हर असम्भव काम उसके लिए निश्चित संभव है, उसे भ्रूमध्य (अर्थात तृतीय नेत्र) के पास ऐसा आन्तरिक दबाव महसूस होने लगता है कि मानों कोई चीज अंदर से बाहर निकलना चाहती हो आदि आदि !
जैसा की कभी कभी सुनने को मिलता है कि किसी मानव ने उम्मीद से बढ़कर इतना ज्यादा आश्चर्यजनक वक्तव्य या भाषण दिया कि, सुनने वाले श्रोतागण अभिभूत होकर कहने लगे कि अरे इनकी वाणी पर तो मानों माँ सरस्वती विराज रहीं थी | वास्तव में ऐसी घटना के पीछे भी ऐसी ही दिव्य गुरु सत्ता का हाथ होता है जो अक्सर अपने कृपा पात्र मानवों की वाणी, कर्म आदि को माध्यम बनाकर समाज कल्याण के लिए विशेष जन जागृति लाने का प्रयास करतीं हैं !
सर्वोच्च स्तर के एलियंस जब अपने किसी कृपा पात्र मानव (जो आत्मिक उन्नति की सीढियां तेजी से चढ़ रहें हों लेकिन वर्तमान में अभी बहुत ज्यादा आत्मिक रूप से सबल नहीं हो सकें हो) को अपना प्रत्यक्ष दर्शन देने का सौभाग्य देना चाहतें हैं तो उस मानव के लिए सबसे आसान तरीका होता है कि वह मानव उन्हें तन्द्रा अवस्था में देखे !
तन्द्रा अवस्था, वह अवस्था होती है जिसमें मानव अर्ध निद्रा की अवस्था में होता है जिससे उस मानव का सूक्ष्म शरीर इतना सक्रीय हो जाता है कि वह तुरंत प्रत्यक्ष चेतना से जुड़कर दर्शन के अनुभवों को, नीद से जागने के बाद भी याद रख सके !
पूर्ण निद्रा में हुए दर्शन का अनुभव याद रहे ऐसा जरूरी नहीं है क्योंकि पूर्ण निद्रा में मानव का सूक्ष्म शरीर परोक्ष चेतना से जुड़ा रहता है इसलिए जागने के बाद सक्रीय हुई प्रत्यक्ष चेतना में भी उस अनुभव की याद बने रहने की सम्भावना कम ही होती है (किसी भी मानव के तीन शरीर होतें हैं जो स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर कहलाते हैं, विस्तृत जानकारी के लिए कृपया नीचे दिए गए लिंक्स देखें) !
निष्कर्ष तौर पर यही कहा जा सकता है कि ज्ञान ही एकमात्र वो हथियार है जिससे माया (अर्थात अविद्या) के पर्दे में छेद किया जा सकता है ताकि विद्या अर्थात नारायण का पूर्ण प्रकाश जीव पर पड़ सके, जिससे जीव तुरंत पहचान सके कि, अरे मै ही तो ईश्वर हूँ और मैंने ही इस चराचर ब्रह्मांड का निर्माण किया है, तो फिर मैं क्यों अब तक एक दीन हीन मानव की तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहा था (अहम् ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ही ईश्वर हूँ, शिवोहम अर्थात, मैं ही शिव हूँ) !
ब्रह्मांड की सबसे मजबूत दीवार अर्थात माया को तोड़ पाने में सक्षम यही सत्य का दुर्लभ ज्ञान हमेशा से योग्य गुरुओं द्वारा योग्य शिष्यों को प्रदान किया जाता रहा है और अगर हम अपने पुराण ग्रंथों को भी देखें तो पायेंगे कि शिष्य भले ही इस दुनिया में मानव शरीर में रहें हो पर उनके गुरु दिव्य देह धारी भी रहें हैं, जैसे- जो वशिष्ठ ऋषि त्रेतायुग में श्री राम के गुरु थे, वही वशिष्ठ ऋषि द्वापर युग में श्री कृष्ण से मिलने हस्तिनापुर भी आये और वही वशिष्ठ ऋषि कलियुग में शांतिकुंज हरिद्वार के संस्थापक श्री राम शर्मा आचार्य जी को भी ज्ञान देने (उनके गुरु के अलावा अलग से) हिमालय पर आये जिसका वर्णन उनकी पुस्तक “चेतना की शिखर यात्रा” में भी है !
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