गायत्री मन्त्र की सत्य चमत्कारी घटनाये – 14 (साधना के प्रारम्भिक अनुभव)
गिरीशदेव वर्मा, बहरायच, लिचाते हैं कि जब मैं पांच वर्ष का था तभी पिता जी ने मुझे गायत्री शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था। वे जब संध्या करते थे तो मुझे पास बिठा लेते थे। अयोध्या ले जाकर उन्होंने मुझे एक महात्मा से विधिवत मंत्र भी दिलवाया था। वे सब बातें मुझे अब भी भली प्रकार याद हैं। समय बीता, गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया, कुछ दिन यों ही बीत गये फिर दैवयोग से अपने ही एक ऐसे साथी का सत्संग प्राप्त हो गया जो गृहस्थ होत हुए भी महात्मा तथा योगी थे। चार साल उनके साथ रहा।
अनके सत्संग से आध्यात्मिक प्रेम जागृत हुआ। स्वाध्याय और साधना में रुचि बढ़ी। समय के कुचक्र से हम दोनों विछुड़ गये उनकी बदली दूसरी जगह हो गयी, मेरी बदली दूसरी जगह। परिस्थितियों के झंझावात ने जीवन नैया को बहुत थपेड़े दिये और अन्त में सबसे बड़ा धक्का पुत्र शोक का लगा। मेंरा एक 18 वर्ष का पुत्र था जो बड़ा होनहार कुशाग्र बुद्घि का योगी था। वह यक्ष्मा का शिकार हो गया।
ऐसे सुशील युवक पुत्र के चल बसने से मेरा मन शोकाकुल रहने लगा, चित्त में निशदिन अशान्ति रहने लगी। उन्हीं दिनों हमारे नगर में एक तांत्रिक स्वामी जी आये, उनकी काफी ख्याति थी। उन्होंने मुझे गायत्री जप का उपदेश दिया। उन्हीं दिनों गायत्री महाविज्ञान पुस्तक प्राप्त हुई। उसे पढ़ कर अन्धकार में विघुत प्रकाश चमक उठा। तब से मैं श्रद्घा पूर्वक गायत्री उपासना कर रहा हूं। अभियान का प्राण यज्ञ विधि पूर्वक चल रहा है। आन्तरिक शान्ति और सात्विकता एवं सद् बुद्घि के रूप में माता की कृपा का प्रत्यक्ष परिचय मुझे मिल रहा है।
कई बार मुझे ऐसे अनुभव हुए जिनसे यह प्रगट होता है कि माता का मंगलमय हाथ मेरे मस्तक पर रखा हुआ है। मेरे दफ्तर का एक कर्मचारी कुछ वर्षों से कागजों में गोल माल करके गबन करता रहा। उन्होंने दो महीने मेरे अधीन भी काम किया था। अन्त में वह पकड़ा गया और जिन-जिन लोगों के अधीन उसने काम किया था वे लोग भी अपराधी समझे जाने लगे, यघपि उस गबन से किसी अन्य का सम्बन्ध नहीं था। अनुष्ठïन आरम्भ करने के बाद ऐसा सुनाई पड़ा कि मेरे ऊपर भी अभियोग चलेगा।
चिन्ता बढ़ी किन्तु मैंने माता से ही अपना दु:ख निवेदन किया। एक दिन मैंने स्वप्न में देखा कि एक विशालकाय मनुष्य मेरी हत्या करने आ रहा है। उसके हाथ में एक छुरा भी है। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं किंकत्र्यव्यविमूढ़ हो गया।इतने में एक दिव्य रूप वाली देवी आई औ उस मनुष्य को पटक कर पैर से दबा लिया, फिर मुझसे कहा निर्भय चले जाओ। अब यह कुछ नहीं कर सकता। इतने में आंख खुल गई। इस स्वप्न का मैंने यह अर्थ लगाया कि माता ने उस अभियोग से मेरी रक्षाकर दी है।
चूंकि अभी मामला विचाराधीन था अतएव यह बात मैंने किसी से प्रकट नहीं की। कई महीने बाद जब यह निश्चय हो गया कि मेरे ऊपर अभियोग नहीं चलेगा, तब आज इस बात को लिख रहा हूं कि इस घटना के बाद माता के प्रति मेरी श्रद्घा अति बढ़ गई।
मेरा दृढ़ विश्वास हो गया कि स्वल्प श्रम में फलदायिनी साधना गायत्री से बढ़कर और कोई नहीं है। अभी मेरी साधना का शैशव है। मगर मुझे इतने में ही अनेकों लाभ हुए हैं। मन की चंचलात कम होकर विषयों से अरुचि उत्पन्न हो रही है। दैनिक जीवन में आये दिन ऐसे अनुभव होते हैं कि अनेक बातें प्रतिकुल होते हुए भी अनुकूल हो जाती हैं। मुझे विश्वास है कि जैसे-जैसे मेरी श्रद्घा बढ़ेगी, वैसे-वैसे कल्याण का मार्ग अधिक प्रशस्त होता जायेगा।
सौजन्य – शांतिकुंज गायत्री परिवार, हरिद्वार
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