मानव शरीर के रहस्यमय रस
हारमोन्स जन्य विचित्रताओं में कुछ आश्चर्य से भर देती हैं। आमस्टर-माइजे निवासी जान मिल्के 124 वर्ष तक जिये। उसने अन्तिम विवाह 80 वर्ष की आयु एक अठारह वर्षीय युवती से किया।
इसके बाद उसके दस बच्चे जन्मे और दीर्घ जीवी रहे। मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व उसके सफेद बाल फिर से काले होने लगे थे। दीर्घायु जिजीविषा का यह कमाल हारमोन्स के ही कारण कहा जा सकता है।
मैक्सिस जर्मनी का प्रसिद्ध भारोत्तोलक हुआ है। उसका निज का वजन 147 पौण्ड था। एक प्रदर्शन में उसने अपने से 40 पौण्ड भारी 187 पौण्ड के व्यक्ति को एक हाथ पर बिठाकर 16 बार अपने शरीर से ऊपर तक उठाया।
दूसरे हाथ में वह पानी से लबालब भरा गिलास इसलिए थामे रहा कि कोई यह न सोचे कि इतना वजन उठाने से उसके ऊपर कोई खिंचवा पड़ रहा है। खिंचवा पड़ेगा तो पानी फैलेगा, यह प्रमाण देने के लिए उसने दूसरे हाथ में गिलास थामे रहने का प्रदर्शन किया।
इन शारीरिक विचित्रताओं से भी बढ़कर है मनःसंरचना एवं वहाँ स्रवित न्यूरो हारमोन्स। हमारी आकाश गंगा में जितने तारे हैं, लगभग उतने ही दस अरब न्यूरान्स (स्नायु-कोश) मस्तिष्क में हैं। पिछले दिनों जिस एक तथ्य ने सर्वाधिक ध्यान वैज्ञानिकों का आकर्षित किया है, वह है इन स्नायुओं को परस्पर जोड़ने वाले सन्धि स्थलों (सिनेप्सों) पर स्रवित होने वाले द्रव्य पदार्थ ‘न्यूरोट्रान्स मीटस”।
आज वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह प्रामाणित किया जा रहा है कि स्नायु तन्त्रों की संचार प्रणाली इन रासायनिक तत्वों पर आधारित है। मानसिक बौद्धिक क्षमता को इन रसायनों को प्रभावित कर बढ़ाया जा सकता है। दर्द एवं दुःख जिनसे सारा मानव समुदाय आज त्रस्त है, उससे राहत दिलाना भी इन रसायनों के माध्यम से सम्भव है। जिस आनन्द की तलाश में भटकना मनुष्य स्वयं को अफीम, एल एस.डी. अल्कोहल के नशे में डुबा देता है, वह आधुनिक विज्ञान के अनुसार अन्दर से ही मस्तिष्कीय परतों को विकसित कर, रसायनों का स्राव उत्तेजित कर प्राप्त किया जा सकता है।
सबसे महत्वपूर्ण पिछली दशाब्दी की खोज है एण्डार्फीनग्रुफ का “एनकेफेलीन” नामक हारमोन। भावनाओं, उद्वेगों और मस्तिष्कीय नियन्त्रण को विचलित करने वाले प्रवाहों पर काम करने वाले इन हारमोन्स को मस्तिष्क स्वयं बनाता है। जब वैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की अफीम दर्द की अनुभूति को दबाने के लिए मस्तिष्क के किस भाग पर काम करती है तो उन्होंने मध्य मस्तिष्क के भावनाओं से सम्बन्धित भाग में कुछ ऐसी व्यवस्था पायी, मानो वे अफीम के रसायनों से संयोग हेतु ही बनी हो।
असली मुद्दा यह था कि आखिर प्रकृति ने मस्तिष्क के कोशों में अफीम से संयोग करने की विशिष्ट व्यवस्था क्यों बनायी? तब वैज्ञानिक द्वय जान ह्यूजेज एवं टासकोस्टर लिक्स (स्काटलैण्ड) ने अफीम से मिलती-जुलती रासायनिक संरचना वाले, पीड़ा नाशक एवं आनन्द की अनुभूति देने वाले (एनकेफेलीन) हारमोन्स की खोज की एवं सारे वैज्ञानिक जगत को भावनाओं की इस केमिस्ट्री का स्वरूप बनाकर शोध का एक नया आयाम ही खोल दिया।
जान हॉपकिन्स मेडिकल स्कूल के सोलोमन स्नीडर के अनुसार मनोरोगों एवं तनावजन्य व्याधियाँ में (एनकेफेलीन) की खोज में एक नयी दिशा मिली है। मनोवैज्ञानिक रूप से दबाव डालने वाली परिस्थितियाँ के विरुद्ध हम जिस प्रकार स्वयं को तैयार करते हैं, उसमें हमारे मनोबल को दृढ़ बनाने में, इस तनाव से मुक्ति दिलाने में इस हारमोन एनकेफेलीन की भूमा महत्वपूर्ण होती है।
जो अपने इस आन्तरिक स्राव का, अमृत कलश का सदुपयोग कर लेता है, वह इन बाह्य विभ्रमों से व्यवस्थित न होकर हर परिस्थिति में आनन्द लेता है। इन ‘एनकेफेलीन’ व “एण्डारफिन’ रसों की सघनता मस्तिष्क एवं सुषुम्ना के उन हिस्सों में अधिक होती है, जो प्रसन्नता एवं दर्द की अनुभूतियों से सम्बन्धित होते हैं, भाव सम्वेदनाओं के लिए उत्तरदायी केन्द्र माने जाते हैं।
वैज्ञानिकों की ऐसी मान्यता है कि एक्युपंक्चर की चिर पुरातन चीनी पद्धति, मस्तिष्क का इलेक्ट्रोडों के माध्यम से उत्तेजन अथवा हिप्नोसिस या योगनिद्रा की क्रियायें एवं आधुनिकतम तनाव निवारक वायोफिडबैक पद्धति में एनकेफेलीन रूपी दर्दनाशक- अफीम जैसे रसायनों का मस्तिष्क में स्राव और उत्सर्जन ही एक प्रमुख क्रिया है।
शरीर की ही बात करे तो लिंग भेद से सम्बन्धित हारमोनों में गड़बड़ी हो जाये तो मनुष्य की आकृति एवं प्रकृति दोनों ही बदल सकती हैं। नारी में भी मूंछें निकल सकती हैं- पुरुष मूँछ विहीन हो सकता है। नारी मनुष्य की तरह कठोर व्यवहार करने वाली और नर जनखों जैसे स्त्री स्वभाव के हो सकते हैं। यौन आकांक्षायें भी विपरीत वर्ग जैसी हो सकती हैं।
इतना ही कई बार हारमोन्स का उत्पात ऐसा हो सकता है कि प्रजनन अंगों की बनावट ही बदल जाये। सेक्स परिवर्तन के ऐसे समाचार समय-समय पर प्रकाशित होते रहते हैं।
हारमोनों की विकृति कितनी ही बार प्रकृति के निर्धारित नियमों का भी उल्लंघन करती देखी गयी है। 8 जनवरी 1910 को 8 वर्षीय एक चीनी बालिका ने एक बच्चे को जन्म दिया। अफ्रीका के कलावार नामक स्थान पर एक दंपत्ति रहते थे।
पत्नी की आयु मात्र 8 वर्ष तथा पति की 17 वर्ष थी। पत्नि ने इस छोटी आयु में ही एक स्वस्थ बच्चे की जन्म दिया। आश्चर्य यह है कि यह बालिका भी 9 वर्ष की आयु में माँ बन गयी। उल्लेखनीय है कि उस क्षेत्र में बाल-विवाह की परम्परा है।
पाश्चात्य वैज्ञानिक हारमोन्स की विलक्षणताओं के सम्बन्ध में कोई अभिमत निश्चय नहीं कर सके हैं पर भारतीय तत्त्ववेत्ताओं का विश्वास है कि सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर को अपने अनुदान इन हारमोन्स स्रावों के माध्यम से प्रदान करता है।
मनःशास्त्री एडलर ने काम प्रवृत्ति की शोध करते हुए पाया कि बाहर से अतीव सुन्दर आकर्षक और कमनीय दिखायी देने वाली अनेक महिलाएँ काम शक्ति से सर्वथा रहित हैं। उनमें न तो रमणी प्रवृत्ति पायी गयी न ही नारी सुलभ कोमलता व उमंग। खोज करने पर ज्ञात हुआ कि यौन हारमोन्स का सन्तुलन गड़बड़ हो जाने के कारण ही ऐसा होता है।
कितने ही युवकों का भी उन्होंने अध्ययन किया जो पूर्णतया स्वस्थ और सुन्दर थे पर उनमें न तो पुरुषत्व था और न ही काम के प्रति उमंग। वे पूर्णतया नपुँसक थे। कारण तलाशने पर उन्होंने उनमें सेक्स हारमोन का अभाव पाया। उसके विपरीत अध्ययन के दौरान एडलर को कितने ही वृद्ध नर-नारी भी मिले जो वृद्धावस्था में भी काम पीड़ित थे।
सोलन शहर की सुनीता का 4 वर्ष की अवस्था में छः डाक्टरों के दल ने आपरेशन किया तो बालिका बालक में परिवर्तित हो गई। चैकोस्लोवाकिया की कु. जेक्शन कौबकौवा यौवनावस्था में प्रवेश करते ही पेडू और पेट में दर्द की शिकायत अनुभव करने लगी। स्तन बढ़ने के बजाय घटने लगे। डाक्टरों से परीक्षण कराया तो ज्ञात हुआ कि वे तो पुरुष बनने जा रही हैं। आपरेशन के बाद पुरुष बन गईं।
ये घटनाएँ बताती हैं कि पुरुष शरीर का विकास करने वाला कोश (सेल) स्त्री, पुरुष दोनों की सम्भावनाओं से परिपूर्ण था। लिंग वाले लक्षण- बीज (जीन्स) में पहले उभार में आया पीछे दूसरे ने उभार लिया और उस मनुष्य ने इसी शरीर में यौन परिवर्तन कर लिया।
मनुष्य शरीर में सात अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ होती हैं जो सीधे ही अपने स्राव रक्त में मिला देती हैं। ये हारमोन्स शरीर में अनेक चमत्कार पूर्ण कार्य करते हैं।
शरीर की प्रत्येक क्रिया को और मनुष्य के पूरे व्यक्तित्व को ये प्रभावित करते हैं। ये ग्रन्थियाँ बारह से भी अधिक प्रकार के हारमोन्स छोड़ती हैं।
जब शरीर पर किसी रोग या कीटाणु का आक्रमण होता है तो इन ग्रन्थियों से कुछ ऐसे हारमोन्स पैदा होते हैं, जो रक्तकणों में कीटाणुओं से लड़ने की शक्ति गामा ग्लोबुलिन्स के रूप में उत्पन्न करते हैं और स्वयं भी कीटाणुओं से लड़ते हैं।
इस प्रकार शरीर युद्ध क्षेत्र बन जाता है। रुग्णावस्था में जो बेचैनी क्षोभ और अशान्ति उत्पन्न होती है, उसका यही कारण है। भावनाओं का ज्वार आने पर ही यह अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ कुछ विशेष प्रकार के हारमोन्स छोड़ती हैं।
ये हारमोन्स शरीर पर भावनाओं के पड़ने वाले भले-बुरे प्रभाव से मस्तिष्क में संघर्ष करते हैं और उसी कारण हर्ष, उत्साह अथवा क्लान्ति और थकान जैसे लक्ष्य उत्पन्न होते हैं।
‘हाइपोथैलेमस नामक मस्तिष्कीय केन्द्र से मनुष्य शरीर की अनैच्छिक गतिविधियाँ नियन्त्रित होती हैं और भावनाएँ उसी केन्द्र को प्रभावित करती हैं। इसलिए इनके द्वारा अनैच्छिक क्रियाओं पर, जो शरीर और जीवन रक्षा के लिए आवश्यक हैं, प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
पिछले तीस वर्षों में मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुए अनेकानेक अनुसंधानों से यह प्रामाणित हो गया है कि भावनाओं के द्वारा कई रोग उत्पन्न होते हैं, वहीं यह भी सिद्ध हो गया है कि मस्तिष्क को यदि ठीक ढंग से प्रशिक्षित किया जा सके, विचार पूर्वक नियन्त्रण द्वारा उसका उपयोग किया जा सके तो शरीर, स्वास्थ्य एवं जीवन विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त की जा सकती हैं।
यही नहीं, व्यक्ति का असाधारण रूप लम्बा, ठिगना, पतला या मोटा, कामासक्त या नपुँसक होना हारमोन्स की न्यूनाधिकता पर निर्भर है। नर में नारी और नारी में नर की प्रवृत्ति के उभार का कारण भी हारमोन्स ही हैं।
ऐसी अगणित विचित्रताएँ हैं जो हारमोन्स क्षेत्र में तनिक भी असाधारणता उत्पन्न होने पर काय संरचना से लेकर मानसिक स्तर तक में विस्मय कारक हेर-फेर हो सकता है। इनका राई रत्ती जैसा स्राव जादुई परिणति किस माध्यम से करता है यह अभी अनबूझ पहेली जैसा ज्यों का त्यों बना हुआ है।
नवीनतम शोधों से निष्कर्ष निकला है कि हारमोन्स की सूक्ष्मता एक रासायनिक विद्युत प्रवाह के रूप में जीवन कोश के अन्तराल का स्पर्श करती और पारस्परिक सहयोग से विचित्र परिणति उत्पन्न करती है।
यह ऐसी ही प्रक्रिया है जैसे शुक्राणु और डिम्ब जैसे छोटे भ्रूण की। इसी प्रकार हारमोन्स रासायनिक विद्युत रूप में जीव कोशों के अन्तराल में प्रवेश करते हैं।
कॉरनेल यूनिवर्सिटी मेडिकल कॉलेज के मूर्धन्य डॉक्टर जूलियन मैकगिलन ने लम्बी शोधों के उपरान्त यह सिद्ध किया है कि किस प्रकार जीवकोशों में विकृति आने पर अनेकानेक रोग उपजते हैं और बढ़ते हैं।
विषाणुओं का आक्रमण, आहार-विहार का व्यक्तिक्रम, आघात-विघात जैसे कारण ही अब तक रोगों के कारण माने जाते हैं। इनमें से एक के भी न होने पर रोग उपज पड़ने में जो असमंजस होता था उसका समाधान इस तथ्य से निकला है कि जीव कोश के अन्तराल में उत्पन्न विक्षेप बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के भयानक रोगों को जन्म दे सकते हैं।
वस्तुतः हारमोन्स की लीला विलक्षण है। इनके सूक्ष्म रसस्रावों में अनेकों महत्वपूर्ण संभावनायें छिपी पड़ी हैं। आत्मिकी के प्रयोगों में पंचकोश व षट्चक्र जागरण भेदन की साधनाएँ इन्हें जगाने व इनसे उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरा करने के लिये ही की जाती हैं।
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