लेख – मनोरंजन – (लेखक – रामचंद्र शुक्ल )
प्राय: सुनने में आता है कि कविता का उद्देश्य मनोरंजन है। पर जैसा कि हम पहले कह आए हैं कविता का अंतिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है। इतने गंभीर उद्देश्य के स्थान पर केवल मनोरंजन का हल्का उद्देश्य सामने रखकर जो कविता का पठन-पाठन या विचार करते हैं वे रास्ते में ही रह जानेवाले पथिक के समान हैं। कविता पढ़ते समय मनोरंजन अवश्य होता है, पर उसके उपरांत कुछ और भी होता है और वही और सब कुछ है। मनोरंजन वह शक्ति है जिससे कविता अपना प्रभाव जमाने के लिए मनुष्य की चित्तवृत्ति को स्थिर किए रहती है, उसे इधर उधर जाने नहीं देती। अच्छी से अच्छी बात को भी कभी लोग केवल कान से सुन भर लेते हैं, उसकी ओर उनका मनोयोग नहीं होता। केवल यही कहकर कि ‘परोपकार करो’, ‘दूसरों पर दया करो’, ‘चोरी करना महापाप है’, हमें यह आशा कदापि न करनी चाहिए कि कोई अपकारी उपकारी, कोई क्रूर दयावान् या कोई चोर साधु हो जाय। क्योंकि ऐसे वाक्यों के अर्थ की पहुँच हृदय तक होती ही नहीं, वह ऊपर ही ऊपर रह जाता है। ऐसे वाक्यों द्वारा सूचित व्यापारों का मानव जीवन के बीच कोई मार्मिक चित्र सामने न पाकर हृदय उनकी अनुभूति की ओर प्रवृत्त ही नहीं होता।
पर कविता अपनी मनोरंजन शक्ति द्वारा पढ़ने या सुननेवाले का चित्त रमाए रहती है, जीवन-पट पर उक्त कर्मों की सुंदरता या विरूपता अंकित करके हृदय के मर्मस्थलों का स्पर्श करती है। मनुष्य के कर्मों में जिस प्रकार दिव्य सौंदर्य और माधुर्य होता है उसी प्रकार कुछ कर्मों में भीषण कुरूपता और भद्दापन होता है। इसी सौंदर्य या कुरूपता का प्रभाव मनुष्य के हृदय पर पड़ता है और इस सौंदर्य या कुरूपता का सम्यक् प्रत्यक्षीकरण कविता ही कर सकती है।
कविता की इसी रमाने वाली शक्ति को देखकर जगन्नाथ पंडितराज ने रमणीयता का पल्ला पकड़ा और उसे काव्य का साध्य् स्थिर किया तथा यूरोपीय समीक्षकों ने ‘आनंद’ को काव्य का चरम लक्ष्य ठहराया। इस प्रकार मार्ग को ही अंतिम गंतव्य स्थल मान लेने के कारण बड़ा गड़बड़झाला हुआ। मनोरंजन या आनंद तो बहुत सी बातों में हुआ करता है। किस्सा-कहानी सुनने में भी पूरा मनोरंजन होता है; लोग रात-रात भर सुनते रह जाते हैं। पर क्या कहानी सुनना और कविता सुनना एक ही बात है? हम रसात्मक कथाओं या आख्यानों की बात नहीं कहते हैं; केवल घटना-वैचित्रयपूर्ण कहानियों की बात कहते हैं। कविता और कहानी का अंतर स्पष्ट है। कविता सुननेवाला किसी भाव में मग्न रहता है और कभी-कभी बार-बार एक ही पद्य सुनना चाहता है, पर कहानी सुननेवाला आगे की घटना के लिए आकुल रहता है।
कविता सुननेवाला कहता है, ”जरा फिर तो कहिए।” कहानी सुनने वाला कहता है, ”हाँ! तब क्या हुआ?”
मन को अनुरंजित करना, उसे सुख या आनंद पहुँचाना ही यदि कविता का अंतिम लक्ष्य माना जाय तो कविता भी केवल विलास की सामग्री हुई। परंतु क्या कोई कह सकता है कि वाल्मीकि ऐसे मुनि और तुलसीदास ऐसे भक्त ने केवल इतना ही समझकर श्रम किया कि लोगों को समय काटने का एक अच्छा सहारा मिल जायगा? क्या इससे गंभीर कोई उद्देश्य उनका न था? खेद के साथ कहना पड़ता है कि बहुत दिनों से बहुत से लोग कविता को विलास की सामग्री समझते आ रहे हैं। हिंदी के रीतिकाल के कवि तो मानो राजाओं-महाराजाओं की कामवासना उत्तेजित करने के लिए ही रखे जाते थे। एक प्रकार के कविराज तो रईसों के मुँह में मकरध्वनज रस झोंकते थे, दूसरे प्रकार के कविराज कान में मकरध्व ज रस की पिचकारी देते थे। पीछे से तो ग्रीष्मोपचार आदि के नुस्खे भी कवि लोग तैयार करने लगे। गर्मी के मौसम के लिए एक कविजी व्यवस्था करते हैं-
सीतल गुलाबजल भरि चहबच्चन में, डारि कै कमलदल न्हायबे को धँसिए।
कालिदास अंग अंग अगर अतर संग, केसर उसीर नीर घनसार धँसिए।
जेठ में गोविन्द लाल! चन्दन के चहलन, भरि भरि गोकुल के महलन बसिए।
इसी प्रकार शिशिर के मसाले सुनिए-
गुलगुली गिलमै, गलीचा हैं, गुनीजन हैं,
चिक हैं, चिराकैं हैं, चिरागन की माला है।
कहै पदमाकर है गजक गजा हूँ सजी,
सज्जा है, सुरा है, सुराही हैं, असु प्याला हैं।
सिसिर के पाला को न व्यापत कसाला,
तिन्हैं जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं।
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