कविता – प्रेम खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
सुनतहि राजा गा मुरछाई । जानौं लहरि सुरुज कै आई॥
प्रेम धााव दुख जान न कोई । जेहि लागै जानै ते सोई॥
परा सो पेम समुद्र अपारा । लहरहिं लहर होइ बिसँभारा॥
बिरह भौर होइ भाँवरि देई । खिन खिन जीउ हिलोरा लेई॥
खिनहिं उसास बूड़ि जिउ जाई । खिनहि उठे निसरै बौराई॥
खिनहिं पीत, खिन होइ मुख सेता । खिनहिं चेत खिन होइ अचेता॥
कठिन मरन तें प्रेम बेबस्था । ना जिउ जियै, न दसवँ अवस्था॥
जनु लेनिहार न लेहिं जिउ, हरहिं तरासहिं ताहि॥
एतनै बोल आब मुख, करैं ‘तराहि तराहि’॥1॥
जहँ लगि कुटुँब लोग औ नेगी । राजा राय आए सब बेगी॥
जावत गुनी गारुड़ी आए । ओझा, बैद, सयान बोलाए॥
चरचहिं चेष्टा परिखहिं नारी । नियर नाहिं ओपद तहँ बारी॥
राजहिं आहि लखन कै करा । सकति कान मोहा है परा॥
नहिं सो राम, हनिवँत बड़ि दूरी । को लेइ आव सजीवन मूरी॥
बिनय करहिं जे जे गढ़पती । का जिउ कीन्ह, कौन मति मती॥
कहहु सो पीर, काह पुनि खाँगा । समुद सुमेरु आव तुम्ह माँगा॥
धाावन तहाँ पठावहु, देहिं लाख दस रोक।
होइ सो बेलि जेहि बारी, आनहिं सबै बरोक॥2॥
जब भा चेत उठा बैरागा । बाउर जानौं सोइ उठि जागा॥
आवत जग बालक जस रोआ । उठा रोइ ‘हा ज्ञान सो खोआ’॥
हौं तो अहा अमरपुर जहाँ । इहाँ मरनपुर आएउँ कहाँ॥
केइ उपकार मरन कर कीन्हा । सकति हँकारि जीउ हरि लीन्हा॥
सोवत रहा जहाँ सुख साखा । कस न तहाँ सोवत बिधिा राखा॥
अब जिउ उहाँ, इहाँ तन सूना । कब लगि रहै परान बिहूना॥
जौ जिउ घटहि काल के हाथा । घट न नीक पै जीउ निसाथा॥
अहुठ हाथ तन सरवर, हिया कवँल तेहि माँह।
नैनहिं जानहु नीयरे, कर पहुँचत औगाहँ॥3॥
सबन्ह कहा मन समुझहु राजा । काल सेंति कै जूझ न छाजा॥
तासौं जूझ जात जो जीता । जानत कृष्ण तजा गोपीता॥
औ न नेह काहू सौं कीजै । नाँव मिटै, काहे जिउ दीजै॥
पहिले सुख नेहहिं जब जोरा । पुनि होइ कठिन निबाहत ओरा॥
अहुठ हाथ तन जैस सुमेरू । पहुँचि न जाइ परा तस फेरू॥
ज्ञान दिस्टि सौं जाइ पहूँचा । पेम अदिस्ट गगन तें ऊँचा॥
धाुव तें ऊँच पेम धाुव ऊआ । सिर देइ पाँव देइ सो छूआ॥
तुम राजा औ सुखिया, करहु राज सुख भोग॥
एहि रे पंथ सो पहुँचै, सहै जो दु:ख बियोग॥4॥
सुऐ कहा मन बूझहु राजा । करब पिरीत कठिन है काजा॥
तुम राजा जेईं घर पोई । कवँल न भेंटेउ भेंटेउ कोई॥
जानहिं भौंर जौ तेहि पथ लूटै । जीउ दीन्ह औ दिएहु न छूटे॥
कठिन आहि सिंघल कर राजू । पाइय नाहिं जूझ कर साजू॥
ओहि पथ जाइ जो होइ उदासी । जोगी, जती, तपा, संन्यासी॥
भोग किए जौं पावत भोगू । तजि सो भोग कोइ करत न जोगू॥
तुम राजा चाहहु सुख पावा । भोगहि जोग करत नहिं भावा॥
साधान्ह सिध्दि न पाइय, जौ लगि सधौ न तप्प।
सो पै जानै बापुरा, करै जो सीस कलप्प॥5॥
का भा जोग कथनि के कथे । निकसै घिउ न बिना दधिा मथे॥
जौ लहि आप हेराइ न कोई । तौ लहि हेरत पाव न सोई॥
पेम पहार कठिन विधिा गढ़ा । सो पै चढ़ै जो सिर सौं चढ़ा॥
पंथ सूरि कै उठा ऍंकूरू । चोर चढ़ै, की चढ़ मंसूरू॥
तू राजा का पहिरसि कंथा । तोरे घरहिं माँझ दस पंथा॥
काम, क्रोधा, तिस्ना, मद, माया । पाँचौ चोर न छाँड़हिं काया॥
नवौ सेंधा तिन्ह कै दिठियारा । घर मूसहिं, निसि की उजियारा॥
अबहू जागु अजाना, होत आव निसि भोर।
तब किछु हाथ न लागिहिं, मूसि जाहिं जब चोर॥6॥
सुनि सो बात राजा मन जागा । पलक न मार, पेम चित लागा॥
नैनन्ह ढरहिं मोति औ मूँगा । जस गुर खाइ रहा होइ गूँगा॥
हिय कै जोति दीप वह सूझा । यह जो दीप ऍंधिायारा बूझा॥
उलटि दीठि माया सौं रूठी । पलटि न फिरी जानि कै झूठी॥
जौ पैं नाहीं अहथिर दसा । जग उजार का कीजिय बसा॥
गुरू बिरह चिनगी जो मेला । जो सुलगाइ लेइ सो चेला॥
अब करि फनिग भृंग कै करा । भौंर होहुँ जेहि कारन जरा॥
फूल फूल फिरि पूछौं, जौ पहुँचौं ओहि केत।
तन नेवछावरि कै मिलौं, ज्यों मधाुकर जिउ देत॥7॥
बंधाु मीत बहुतै समझावा । मान न राजा कोउ भुलावा॥
उपजी पेम पीर जेहि आई । परबोधात होइ अधिाक सो आई॥
अमृत बात कहत विष जाना । पेम क बचन मीठ कै माना॥
जो ओहि विषै मारि कै खाई । पूँछहु तेहि सन पेम मिठाई॥
पूँछहु बात भरथरिहि जाई । अमृत राज तजा विष खाई॥
औ महेस बड़ सिध्द कहावा । उनहूँ विषय कँठ पै लावा॥
होत आव रवि किरिनविकासा । हनुवँत होइ को देइ सुआसा॥
तुम सब सिध्दि मनावहु, होइ, गनेस सिधिा लेव।
चेला को न चलावै, तुलै गुरू जेहि भेव॥8॥
(1) बिसँभारा=बेसँभाल, बेसुधा। दसवँ अवस्था=दशम दशा, मरण। लेनिहार=प्राण लेने वाले। हरहिं=धाीरे-धाीरे। तरासहिं=त्राास दिखाते हैं।
(2) गारुड़ी=साँप का विष मंत्रा से उतारने वाला। चरचहिं=भाँपते हैं। करा=लीला, दशा। खाँगा=घटा। रोक=रोकड़, रुपया (सं. रोक=नकद) पाठांतर=’थोक’। बरोक=बरच्छा, फलदान।
(3) बिहूना=विहीन, बिना। घट=शरीर। निसाथा=बिना साथ के। अहुठ=साढ़े तीन (सं. अर्ध्द-चतुर्थ; कल्पित रूप ‘अधयुष्ठ’, प्रा. अङ्ढुट्ठ); जैसे-कबहुँ तो अहुठ परग करी बसुधाा, कबहुँ देहरी उलंघि न जानी।-सूर। ‘सरवर’-पाठांतर ‘तरिवर’।
(4) काल सेंति=काल से (प्रा. वि. सुंतो)। अहुठ=दे. 3। धाुव=धाु्रव। सिर देह…छूआ। सिर काटकर उसपर पैर रखकर खड़ा हो; जैसे-‘सीस उतारै भुइँ धारै तापर राखै पाँव। दास कबीरा यों कहै ऐसा होय तो आव।’
(5) पोई=पकाई हुई। तुम-पोई=अब तक पकी पकाई खाई अर्थात् आराम चैन से रहे। साधान्ह=केवल साध या इच्छा से। कलप्प करै=काट डाले (सं. क्लुप्त)।
(6) सूरि=सूली। दिठियार=देख में, देखा हुआ। मूसि जाहिं=चुरा ले जाएँ (सं. भूषण)।
(7) अहथिर=स्थिर। उजार=उजाड़। बसा=बसे हुए। फनिग=फनगा, फतिंगा, पतंग। भृंग=कीड़ा, जिसके विषय में प्रसिध्द है कि और फतिंगों को अपने रूप का कर लेता है। करा=कला, व्यापार। केत=कैत, ओर, तरफ अथवा केतकी।
(8) अमृत=संसार का अच्छा से अच्छा पदार्थ। विषै=विष तथा अधयात्म पक्ष में विषय। होत आव…सुआसा=लक्ष्मण को शक्ति लगने पर जब यह कहा गया था कि सूर्य निकलने के पहले यदि संजीवनी बूटी आ जाएगी तो वे बचेंगे, तब राम को हनुमान जी ने ही आशा बँधााई थी। तुलै गुरू जेहि भेव=जिस भेद तक गुरु पहुँचता है, जिस तत्तव का साक्षात्कार गुरु करता है।
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