कविता – बोहित खंड, सात समुद्र खंड, सिंहलद्वीप खंड – पदमावत – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
सो न डोल देखा गजपती । राजा सत्ता दत्ता दुहँ सती॥
अपनेहि कथा, आपनेहि कंथा । जीउ दीन्ह अगुमन तेहि पंथा॥
निहचै चला भरम जिउ खोई । साहस जहाँ सिध्दि तहँ होई॥
निहचै चला छाँड़ि कै राजू । बोहित दीन्ह, दीन्ह सब साजू॥
चढ़ा बेगि, तब बोहित पेले । धानि सो पुरुष पेम जेइ खेले॥
पेम पंथ जौ पहुँचै पारा । बहुरि न मिलै आइ एहि छारा॥
तेहि पावा उत्तिाम कैलासू । जहाँ न मीचु, सदा सुख बासू॥
एहि जीवन कै आस का, जस सपना पल आधु।
मुहमद जियतहि जे मुए, तिन्ह पुरुषन्ह कह साधु॥1॥
जस बन रेंगि चलै गज ठाटी । बोहित चले, समुद गा पाटी॥
धावहिं बोहित मन उपराहीं । सहस कोस एक पल महँ जाहीं॥
समुद अपार सरगजनु लागा । सरग न घाल गनै बैरागा।
ततखन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परबत आवा॥
उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी । लहरि अकास लागि भुइँ बाजी॥
राजा सेंती कुँवर सब कहहीं । अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं॥
तेहि रेपंथहमचाहहिंगवना । होहु सँजूत बहुरि नहिं अवना॥
गुरु हमार तुम राजा, हम चेला तुम नाथ।
जहाँ पाँव गुरु राखै, चेला राखै माथ॥2॥
केवट हँसे सो सुनत गवेजा । समुद न जानु कुवाँ कर मेजा॥
यह तो चाल्ह न लागै कोहू । का कहिहौ जब देखिहौ रोहू?॥
सो अबहीं तुम्ह देखा नाहीं । जेहि मुख ऐसे सहस समाहीं॥
राजपंखि तेहि पर मेड़राहीं । सहस कोस तिन्ह कै परछाहीं॥
तेइ ओहि मच्छ ठोर भरि लेहीं । सावक मुख चारा लेइ देहीं॥
गरजै गगन पंखि जब बोला । डोल समुद्र डैन जब डोला॥
जहाँ चाँद औ सूर असूझा । चढ़ै सोइ ज अगुमन बूझा॥
दस महँ एक जाइ कोइ-करम, धारम, तप, नेम।
बोहित पार होइ जब, तबहि कुसल औ खेम॥3॥
राजै कहा कीन्ह मैं पेमा । जहाँ पेम कहँ कूसल खेमा॥
तुम्ह खेवहु जौ खेवै पारहु । जैसे आपु तरहु मोहिं तारहु॥
मोहिं कुसल कर सोच न ओता । कुसल होत जौ जनम न होता॥
धारती सरग जाँत पट दोऊ । जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ॥
हौं अब कुसल एक पै माँगौं । पेम पंथ सत बाँधिा न खाँगौं॥
जौ सत हिय तौ नयनहिं दीया । समुद्र न डरै पैठि मरजीया॥
तहँ लगि हेरौं समुद ढँढोरी । जहँ लगि रतन पदारथ जोरी॥
सप्त पतार खोजि कै, काढौं बेद गरंथ।
सात सरग चढ़ि धाावौं, पदमावति जेहि पंथ॥4॥
(1) सत्ता दत्ता दुहुँ सती=सत्य या दान दोनों में सच्चा या पक्का है। पेले=झोंक से चले।
(2) ठाटी=ठट्ट, झुंड। उपराहीं=अधिाक (वेग से)। घाल न गनै=पसंगे बराबर भी नहीं गिनता, कुछ नहीं समझता। घाल=घलुआ, थोड़ी सी और वस्तु जो सौदे के ऊपर बेचने वाला देता है। चाल्हा=एक मछली, चेल्हवा। नराजी=नाराज हुई। भुइँ बाजी=भूमि पर पड़ी। सँजूत=सावधाान, तैयार।
(3) गवेजा=बातचीत। मेजा=मेढक, (पूरब-मेजुका)। कोहू=किसी को।
(4) ओता=उतना। पट=पल्ला। खाँगौं=कसर न करूँ। मरजीया=जी पर खेलकर विकट स्थानों से व्यापार की वस्तु (जैसे, मोती, शिलाजतु, कस्तूरी) लाने वाले, जिवकिया। ढँढोरी=छानकर।
सायर तरै हिये सत पूरा । जौ जिउ सत, कायर पुनि सूरा॥
तेइ सत बोहित कुरी चलाए । तेइ सत पवन पंख जनु लाए॥
सत साथी, सत कर संसारू । सत्ता खेइ लेइ लावै पारू॥
सत्ता ताक सब आगू पाछू । जहँ जहँ मगरमच्छ औ काछू॥
उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा । चढ़ै सरग औ परै पतारा॥
डोलहिं बोहित लहरैं खाहीं । खिन तर होहिं, खिनहिं उपराहीं॥
राजै सो सत हिरदै बाँधाा । जेहि सत टेकि करै गिरि काँधाा॥
खार समुद सो नाँघा, आए समुद जहँ खीर।
मिले समुद वै सातौ, बेहर बेहर नीर॥1॥
खीर समुद का बरनौं नीरू । सेत सरूप, पियत जस खीरू॥
उलथहिं मानिक, मोती, हीरा । दरब देखि मन होइ न थीरा॥
मनुआ चाह दरब औ भोगू । पथ भुलाइ बिनासै जोगू॥
जोगी होइ सो मनहिं सँभारै । दरब हाथ कर समुद पवारै॥
दरब लेइ सोई जो राजा । जो जोगी तेहिक कहि काजा॥
पंथहि पंथ दरब रिपु होई । ठग, बटपार, चोर संग सोई॥
पँथी सो जो दरब सो रूसे । दरब समेटि बहुत अस मूसे॥
खीर समुद सो नाँघा, आए समुद दधिा माँह।
जो हैं नह क बाउर, तिन्ह कहँ धाूप न छाँह॥2॥
दधि समुद्र देखत तस दाधाा । पेम क लुबुधा दगधा पै साधाा॥
पेम जो दाधाा धानि वह जीऊ । दधिा जमाइ मथि काढैं घीऊ॥
दधिा एक बूँद जाम सब खीरू । काँजा बूँद बिनसि होइ नीरू॥
साँस डाँड़ि मन मथनी गाढ़ी । हिय चाटै बिनु फूट न साढ़ी॥
जेहि जिउ पेम चदन तेहि आगी । पेम बिहून फिरै डर भागी॥
पेम कै आगि जरै जौं कोई । दुख तेहि कर न ऍंबिरथा होई॥
जो जानै सत आपुहि जारै । निसत हिये सत करै न पारै॥
दधिा समुद्र पुनि पार भे, पेमहि कहा सँभार?॥
भावै पानी सिर परै, भावै परै अंगार॥3॥
आए उदधिा समुद्र अपारा । धारती सरग जरै तेहि झारा॥
आगि जो उपनी ओहि समुंदा । लंका जरी ओहि एक बुंदा॥
बिरह जो उपना ओहि तें गाढ़ा । खिन न बुझाइ जगत महँ बाढ़ा॥
जहाँ सो बिरह आगि कहँ डीठी । सौंह जरै, फिरि देइ न पीठी॥
जग महँ कठिन खड़ग कै धाारा । तेहि तें अधिाक बिरह कै झारा॥
अगम पंथ जो ऐस न होई । साधा सिए पावै कब कोई॥
तेहि समुद्र महँ राजा परा । जरा चहै पै रोवँ न जरा॥
तलफै तेल कराह जिमि, इमि तलफै सब नीर।
यह जो मलयगिरि प्रेम कर, बेधाा समुद समीर॥4॥
सुरा समुद पुनि राजा आवा । महुआ मद छाता दिखरावा॥
जो तेहि पियै सो भाँवरि लेई । सीस फिरै, पथ पैगु न देई॥
पेम सुरा जेहि के हिय माहाँ । कित बैठै महुआ कै छाहाँ॥
गुरु के पास दाख रस रसा । बैरी बबुर मारि मन कसा॥
बिरह के दगधा कीन्ह तन भाठी । हाड़ जराइ दीन्ह सब काठी॥
नैन नीर सौं पोता किया । तस मद चुवा बरा जस दिया॥
बिरह सरागन्हि भूँजै माँसू । गिरि गिरि परै रकत कै ऑंसू॥
मुहमद मद जो पेम कर, गए दीप तेहि साधा।
सीस न देइ पतंग होइ, तौ लगि लहै न खाधा॥5॥
पुनि किलकिला समुद महँ आए । गा धाीरज देखत डर खाए॥
भा किलकिल अस उठै हिलोरा । जनु अकास टूटै चहुँ ओरा॥
उठै लहरि परबत कै नाईं । फिरि आवै जोजन सौ ताईं॥
धारती लेइ सरग लहि बाढ़ा । सकल समुद जानहुँ भा ठाढ़ा॥
नीर होइ तर ऊपर सोई । माथे रंभ समुद जस होई॥
फिरत समुद जोजन सौ ताका । जैसे भँवै कोहाँर क चाका॥
भै परलै नियराना जबहीं । मरै जो जब परलै तेहि तबहीं॥
गै औसान सबन्ह कर, देखि समुद कै बाढ़ि।
नियर होत जनु लीलै, रहा नैन अस काढ़ि॥6॥
हीरामन राजा सौं बोला । एही समुद आए सत डोला॥
सिंहलदीप जो नाहिं निबाहू । एही ठाँव साँकर सब काहू॥
एहि किलकिला समुद्र गंभीरू । जेहि गुन होइ सौ पावै तीरू॥
इहै समुद्र पंथ मझधाारा । खाँड़े कै असि धाार निनारा॥
तीस सहस्र कोस कै पाटा । अस साँकर चलि सकै न चाँटा1॥
खाँडै चाहि पैनि बहुताई । बार चाहि ताकर पतराई॥
एही ठाँव कहँ गुरु सँग लीजिए । गुरु संग होइ पार तौ कीजिए॥
मरन जियन एहि पंथहि, एही आस निरास।
परा सो गयउ पतारहि, तरा सो गा कविलास॥7॥
राजै दीन्ह कटक कहँ बीरा । सुपुरुष होहु, करहु मन धाीरा॥
ठाकुर जेहिकसूर भा कोई । कटक सूर पुनि आपुहि होई॥
जौ लहि सती न जिउ सत बाँधाा । तौ लहि देइ कहाँर न काँधाा॥
पेम समुद महँ बाँधाा बेरा । यह सब समुद बूँद जेहि केरा॥
ना हौं सरग क चाहौं राजू । ना मोहिं नरक सेंति किछु काजू॥
चाहौं ओहि कर दरसन पावा । जेइ मोहि आनि पेम पथ लावा॥
काठहिं काह गाढ़ का ढीला । बूड़ न समुद, मगर नहिं लीला॥
कान समुद धाँसि लीन्हेसि, भा पाछे सब कोइ।
कोइ काहू न सँभारै, आपनि आपनि होइ॥8॥
कोइ बोहित जस पौन उड़ाहीं । कोई चमकि बीजु अस जाहीं॥
कोई जस भल धााव तुखारू । कोई जैस बैल गरियारू॥
कोइ जानहुँ हरुआ रथ हाँका । कोई गरुअ भरि बहु थाका॥
कोई रेंगहिं जानहुँ चाँटी । कोई टूटि होहिं तर माटी॥
कोई खाहिं पौन कर झोला । कोई करहिं पात अस डोला॥
कोई परहिं भौंर जल माहाँ । फिरत रहहिं, कोइ देइ न बाहाँ॥
राजा कर भा अगमन खेवा । खेवक आगे सुआ परेवा॥
कोइ दिन मिला सबेरे, कोइ आवा पछराति।
जाकर जस जस साजु हत, सो उतरा तेहि भँति॥9॥
सतएँ समुद मानसर आए । मन जो कीन्ह साहस, सिधिा पाए॥
देखि मानसर रूप सोहावा । हिय हुलास पुरइनि होइ छावा॥
गा ऍंधिायार, रैनि मसि छूटी । भा भिनसार किरिन रवि फूटी॥
‘अस्ति अस्ति’ सब साथी बोले । अंधा जो अहै नैन बिधिा खोले॥
कवँल बिगस तब बिहँसी देहीं । भौंर दसन होइ कै रस लेहीं॥
हँसहिं हँस औ करहिं किरीरा । चुनहिं रतन मुकुताहल हीरा॥
जो अस आव साधिा तप जोगू । पूजै आस, मान रस भोगू॥
भौंर जो मनसा मानसर, लीन्ह कँवलरस आइ।
धाुन जो हियाव न कै सका, झूर काठ तस खाइ॥10॥
(1) सायर=सागर। कुरी=समूह। बेहर बेहर=अलग-अलग।
(2) मनुआ=मनुष्य या मन। पवारै=फेंके। रूसे=विरक्त हुए। मूसे=मूसे गए, ठगे गए।
(3) दगधा साधाा=दाह सहने का अभ्यास कर लेता है। दाधाा=जला। डाँड़ि=डाँड़ी, डोरी। ऍंबिरथा=वृथा, निष्फल। निसत=सत्य विहीन। भावै=चाहे।
(4) झार=ज्वाला, लपट। उपनी=उत्पन्न हुई। आगि कह डीठी=आग को क्या धयान में लाता है। सौंह=सामने। यह जो मलयगिरि=अर्थात् राजा।
(5) छाता=पानी पर फैला फूल पत्ताों का गुच्छा। सीस फिरैं=सिर घूमता है। मन कसा=मन वश में किया। काठी=ईंधान। पोता=मिट्टी के लेप पर गीले कपड़े का पुचारा जो भबके से अर्क उतारने में बरतन के ऊपर दिया जाता है। सराग=सलाख, शलाका, सीखचा जिसमें गोदकर मांस भूनते हैं। खाधा=खाद्य, भोग।
(6) धरती लेइ=धारती से लेकर। माथे=मथने से। रंभ=घोर शब्द। औसान=होश-हवास।
(7) साँकर=कठिन स्थिति। साँकर=सकरा, तंग।
(8) सेंति=सेती, से। गाढ़=कठिन। ढीला=सुगम। कान=कर्ण, पतवार।
1. कुछ प्रतियों में इसके स्थान पर यह चौपाई है-‘एही पंथ सब कहँ है जाना। होइ दुसरै बिसवास निदाना।’ मुसलमानी धार्म के अनुसार जो वैतरणी का पुल माना गया है उसकी ओर लक्ष्य है। विश्वास के कारण यह दूसरा ही (अर्थात् चौड़ा) हो जाता है।
(9) गरियारू=मट्ठर, सुस्त। हरुआ=हलका। थाका=थक गया। झोला=झोंका, झकोरा। अगमन=आगे। पछराति=पिछली रात। हुत=था।
(10) पुरइनि=कमल का पत्ताा (सं. पुटकिनी, प्रा. पुड़इणी)। रैनिमसि=रात की स्याही। ‘अस्ति-अस्ति’=जिस सिंहलदीप के लिए इतना तप साधाा वह वास्तव में है, अधयात्मपक्ष में ‘ईश्वर या परलोक है।’ किरीरा=क्रीड़ा। मुकुताहल=मुक्ताफल। मनसा=मन में संकल्प किया। हियाव=जीवट, साहस।
पूछा राजै कहु गुरु सूआ । न जनौं आजु कहाँ दहुँ ऊआ॥
पौन बास सीतल लेइ आवा । कया दहत चंदनु जनु लावा॥
कबहुँ न ऐस जुड़ान सरीरू । परा अगिनि महँ मलय समीरू॥
निकसत आव किरिन रविरेखा । तिमिर गए निरमल जग देखा॥
उठै मेघ अस जानहुँ आगै । चमकै बीजु गगन पर लागै॥
तेहि ऊपर जनु ससि परगासा । औ सो चंद कचपची गरासा॥
और नखत चहुँ दिसि उजियारे । ठावहिं ठावँ दीप अस बारे॥
और दखिन दिसि नीयरे, कंचन मेरु देखाव।
जनु बसंत ऋतु आवै, तैसि बास जग आव॥1॥
तूँ राजा जस बिकरम आदी । तू हरिचंद बैन सतबादी॥
गोपिचंद तुइ जीता जोगू । औ भरथरी न पूज बियोगू॥
गोरख सिध्दि दीन्ह तोहि हाथू । तारो गुरू मछंदरनाथू॥
जीत पेम तुइँ भूमि अकासू । दीठि परा सिंघल कबिलासू॥
वह जो मेघ गढ़ लाग अकासा । बिजुरी कनय कोट चहुँ पासा॥
तेहि पर ससि जा कचपाच भरा । राजमंदिर सोने नग जरा॥
और जो नखत देख चहुँ पासा । सब रानिन्ह कै आहिं अवासा॥
गगन सरोवर, ससि कँवल, कुमुद तराइन्ह पास।
तू रवि ऊआ, भौर होइ, पौन मिला लेइ बास॥2॥
सो गढ़ देखु गगन तें ऊँचा । नैनन्ह देखा, कर न पहूँचा॥
बिजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी । और जमकात फिरै जम केरी॥
धााइ जो बाजा कै मन साधाा । मारा चक्र भयउ दुइ आधाा॥
चाँद सुरज औ नखत तराईं । तेहि डर अंतरिख फिरहिं सबाईं॥
पौन जाइ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस लाटि भुइँ रहा॥
अगिनिउठी,जरिबुझीनिआना । धाुऑं उठा, उठि बीच बिलाना॥
पानि उठा उठि जाइ न छूआ । बहुरा राइ, आइ भुइँ चूआ॥
रावन चहा सौंह होइ, उतरि गए दस माथ।
संकर धारा लिलाट भुइँ, और को जोगीनाथ?॥3॥
तहाँ देखु पदमावति रामा । भौंर न जाइ, न पंखो नामा॥
अब तोहिं देउँ सिध्दि एक जोगू । पहिले दरस होइ, तब भोगू॥
कंचन मेरु देखाव सो जहाँ । महादेव कर मंडप तहाँ॥
माघ मास, पाछिल पछ लागे । सिरी पंचमी होइहि आगे॥
उघरिहि महादेव कर बारू । पूजिहि जाइ सकल संसारू॥
पदमावति पुनि पूजै आवा । होइहि एहि मिस दीठि मेरावा॥
तुम्ह गौनहु ओहि मंडप, हौं पदमावति पास।
पूजै आइ बसंत जब, तब पूजै मन आस॥4॥
राजै कहा दरस जौ पावौं । परबत काह, गगन कहँ धाावौं॥
जेहि परबत पर दरसन लहना । सिर सौं चढ़ौं, पाँव का कहना॥
मोहूँ भावै ऊँचै ठाऊँ । ऊँचै लेउँ पिरीतम नाऊँ॥
पुरुषहि चाहिय ऊँच हियाऊ । दिन दिन ऊँचे राखै पाऊ॥
सदा ऊँच पै सेइय बारा । ऊँचै सौं कीजिय बेवहारा॥
ऊँचे चढ़ै, ऊँच खंड सूझा । ऊँचै पास ऊँच मति बूझा॥
ऊँचे सँग संगति नित कीजै । ऊँचे काज जीउ पुनि दीजै॥
दिन दिन ऊँच होइ सो, झेहि ऊँचे पर चाउ।
ऊँचे चढ़त जो सखि परै, ऊँच न छाड़िय काउ॥5॥
हीरामनि देइ बचा कहानी । चला जहाँ पदमावति रानी॥
राजा चला सँवरि सो लता । परबत कहँ जो चला परबता॥
का परबत चढ़ि देखै राजा । ऊँच मँडप सोने सब साजा॥
अमृत सदाफर फरे अपूरी । औ तहँ लागि सजीवन मूरी॥
चौमुख मंडप चहूँ केवारा । बैठे देवता चहूँ दुवारा॥
भीतर मँडप चारि ख्रभ लागे । जिन्ह वै छुए पाप तिन्ह भागे॥
संख घंट घन बाजहिं सोई । औ बहु होम जाप तहँ होई॥
महादेव कर मँडप, जग मानुस तहँ आव।
जस हींछा मन जेहि के, सो तैसै फल पाव॥6॥
(1) कचपची=कृत्तिाका नक्षत्रा।
(2) आदी=आदि, बिल्कुल (बँगला में ऐसा प्रयोग अब भी होता है)। बैन=वचन अथवा वैन्य (वेन का पुत्रा पृथु)। तारी=ताली, कुंजी। मछंदरनाथ=मत्स्येंद्रनाथ, गोरखनाथ के गुरु। कनय=कनक, सोना।
(3) जमकात=एक प्रकार का खाँड़ा (यमकत्ताीर)। बाजा=पहुँचा, डटा। तैस=ऐसा। निआन=अंत में। जोगीनाथ=योगीश्वर।
(4) पछ=पक्ष। उघरिहि=खुलेगा। बारू=बार, द्वार। दीठि मेरावा=परस्पर दर्शन।
(5) बूझा=बूझ, समझता है। खसि परै=गिर पड़े।
(6) बचा कहानी=वचन और व्यवस्था। लता=पर्लिंता, पदमावती। परबता=सुआ (सुए का प्यार का
नाम)। का देखे=क्या देखता है कि। हींछा=इच्छा।
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