कविता – देशयात्रा खंड, लक्ष्मी-समुद्र खंड,चित्तौर -आगमन खंड, – मलिक मुहम्मद जायसी – (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
बोहित भरे, चला लेइ रानी । दान माँगि सत देखै दानी॥
लोभ न कीजै, दीजै दानू । दान पुन्नि तें होइ कल्यानू॥
दरब दान देबै बिधिा कहा । दान मोख होइ, दु:ख न रहा॥
दान आहि सब दरब क जूरू । दान लाभ होइ बाँचे मूरू॥
दान करै रच्छा मँझ नीरा । दान खेइ कै लावै तीरा॥
दान करन दै दुइ जग तरा । रावन सँचा, अगिनि महँ जरा॥
दान मेरु बड़ि लागि अकासा । सैंति कुबेर मुए तेहि पासा॥
चालिस अंस दरब जहँ, एक अंस तहँ मोर।
नाहिं त जरै कि बूड़ै, की निसि मूसहिं चोर॥1॥
सुनि सो दान राजै रिसि मानी । केइ बौराएसि बौरे दानी॥
सोई पुरुष दरब जेइ सैंती । दरबहिं तै सुनु बातैं एती॥
दरब तँ गरब करै जे चाहा । दरब तें धारती सरग बेसाहा॥
दरब तें हाथ आव कबिलासू । दरब तें अछरी छाँड़ न पासू॥
दरब तें निरगुन होइ गुनवंता । दरब तें कुबुज होइ रूपबंता॥
दरब रहै भुइँ दिपै लिलारा । अस मन दरब देइ को पारा?॥
दरब तें धारम करम औ राजा । दरब तें सुध्द बुध्दि, बल गाजा॥
कहा समुद, रे लोभी! बैरी दरब, न झाँपु॥
भएउ न काहू आपन, मूँद पेटारी साँपु॥2॥
आधो समुद ते आए नाहीं । उठी बाउ ऑंधाी उतराहीं॥
लहरैं उठी समुद उलथाना । भूला पंथ, सरग नियराना॥
अदिन आइ जौ पहुँचै काऊ । पाहन उड़ै बहै सो बाऊ॥
बोहित चले जो चितउर ताके । भए कुपंथ, लंक दिसि हाँके॥
जो लेइ भार निबाहि न पारा । सो का गरब करै कँधाारा?॥
दरब भार सँग काहु न उठा । जेइ सैंता ताहीं सौं रुठा॥
गहे पखान पंखि नहिं उड़ै । ‘मोर मोर’ जो करै सो बुड़ै॥
दरब जो जानहिं आपना भूलहिं गरब मनाहिं।
जौ रे उठाइ न लेइ सके, बोरि चले जल माहिं॥3॥
केवट एक बिभीषन केरा । आव मच्छ कर करत अहेरा॥
लंका कर राकस अति कारा । आवैं चला होइ ऍंधिायारा॥
पाँच मूड़, दस बाहीं ताही । दहि भा साँव लंक जव दाही॥
धाुऑं उठै मुख साँस सँघाता । निकसै आगि कहै जौ बाता॥
फेंकरे मूँड़ चँवर जनु लाए । निकसि दाँत मुँह बाहर आए॥
देह रीछ कै, रीछ डेराई । देखत दिस्टि धााइ जनु खाई॥
राते नैन नियर जौ आवा । देखि भयावन सब डर खावा॥
धारती पायँ सरग सिर, जनहुँ सहस्राबाहु।
चाँद सूर औ नखत महँ, अस देखा जस राहु॥4॥
बोहित बहे, न मानहिं खेवा । राजहिं देखि हँसा मन देवा॥
बहुतै दिनहि बार भइदूजी । अजगर केरि आइ भुख पूजी॥
यह पदमावती बिभीषन पावा । जानहु आजु अजोधया छावा॥
जानहु रावन पाई सीता । लंका बसी राम कहँ जीता॥
मच्छ देखि जेसे बग आवा । टाइ टोइ भुइँ पाँव उठावा॥
आइ नियर होइ कीन्ह जोहारू । पूछा खेम कुसल बेवहारू॥
जो बिस्वासघात कर देवा । बड़ बिसवास करै कै सेवा॥
कहाँ, मीत! तुम भूलहु, औ आएहु केहि घाट?
हौं तुम्हार अस सेवक, लाइ देउँ तोहि बाट॥5॥
गाढ़ परे जिउ बाउर होई । जो भलि बात कहै भल सोई॥
राजै राकस नियर बोलावा । आगे कीन्ह, पंथ जनु पावा॥
करि बिस्वास राकसहि बोला । बोहित फेरु जाइ नहिं डोला॥
तू खेवक खेवकन्ह उपराहीं । बोहित तीर लाउ गहि बाहीं॥
ताहिं तें तीर घाट जौ पावौं । नौगिरिही तोड़र पहिरावौं॥
कुंडल स्रवन देउँ पहिराई । महरा कै सौंपौं महराई॥
तस मैं तोरि पुरावौं आसा । रकसाई कै रहै न बासा॥
राजै बीरा दीन्हा, नहिं जाना बिसबास॥
बग अपने भख कारन, होइ मच्छ कर दास॥6॥
राकस कहा गोसाईं विनाती । भल सवक राकस कै जाती॥
जहिया लंक दही श्रीरामा । सेव न छाँड़ा दहि भा सामा॥
अबहूँ सेव करौं सँग लागे । मनुष भुलाइ होउँ तेहि आगे॥
सेतुबंधा जहँ राघव बाँधाा । तहँवाँ चढ़ौं भार लेइ काँधाा॥
पै अब तुरत दान किछु पावौ । तुरत खेइ ओहि बाँधा चढ़ावौं॥
तुरत जो दान पानि हँसि दीजै । थोरै दान बहुत पुनि लीजै॥
सेव कराइ जौ दीजै दानू । दान नाहिं सेवा कर मानू॥
दिया बुझा, सत ना रहा, हुत निरमल जेहि रूप।
ऑंधाी बोहित उड़ाइ कै, लाइ कीन्ह ऍंधाकूप॥7॥
जहाँ समुद मझधाार मँड़ारू । फिरै पानि पातार दुआरू॥
फिरि फिरि पानि ठाँव ओहि मरै । फरि न निकसै जो तहँ परै॥
ओही ठाँव महिरावन पुरी । हलका तर जमकातर छुरी॥
ओही ठाँव महिरावन मारा । परे हाड़ जनु खरे पहारा॥
परी रीढ़ जो तेहि कै पीठी । सेतुबंधा अस आवै दीठी॥
राकस आइ तहाँ के जुरे । बोहित भँवर चक्र महँ परे॥
फिरै लगै बोहित तस आई । जस काहाँर धारि चाक फिराई॥
राजै कहा, रे राकस! जानि बूझ बौरासि।
सेतुबंधा यह देखै, कस न तहाँ लेइ जासि?॥8॥
‘सेतुबंधा’ सुनि राकस हँसा । जानहु सरग टूटि भुइँ खसा॥
को बाउर? बाउरतुम देखा । जो बाउर, भख लागि सरेखा॥
पाँखी जो बाउर घर माटी । जीभ बढ़ाइ भखै सब चाँटी॥
बाउर तुम जो भखै कहँ आने । तबहिं न समझै, पंथ भुलाने॥
महिरावन कै रीढ़ जा परी । कहहु सो सेतुबंधा, बुधिा छरी॥
यह तो आहि महिरावन पुरी । जहवाँ सरग नियर घर दुरी॥
अब पछिताहु दरब जस जोरा । कहहु सरग चढ़ि हाथ मरोरा॥
जो रे जियत महिरावन, लेत जगत कर भार॥
जो मरि हाड़ न लेइगा, अस होइ परा पहार॥9॥
बोहित भँवहिं भँवै सब पानी । नाचहिं राकस आस तुलानी॥
बूड़हिं हस्ती, घोर, मानवा । चहुँ दिस आइ जुरै मँसखवा॥
ततखन राजपंखि एकआवा । सिखर टूट जस डसन डोलावा॥
परा दिस्टि वह राकस खोटा । ताकेसि जैस हस्ति बड़ मोटा॥
आइ ओही राकस पर टूटा । गहि लेइ उड़ा, भँवर जल छूटा॥
बोहित टूट टूक सब भए । एहु न जाना कहँ चलि गए॥
भए राजा रानी दुह पाटा । दूनौं बहे चले दुइ बाटा॥
काया जीउ मिलाइ कै, मारि किए दुइ खंड।
तन रोवै धारती परा, जीउ चला बरम्हँड॥10॥
(1) जूरू=जोड़ना। सँचा=संचित किया। दान=दान से। सैंति=सहेजकर, संचित करके।
(2) सैंति=संचित किया। एती=इतनी। बेसाहा खरीदते हैं। कुबुज=कुबड़ा। दरब रहै…लिलारा=द्रव्य धारती में गड़ा रहता है और चमकता है माथा (असंगति का यह उदाहरण इस कहावत के रूप में भी प्रसिध्द है, ‘गाड़ा है भँडार; बरत है लिलार’)। देइ को पारा=कौन दे सकता है। मूँद=मूँदा हुआ, बंद।
(3) उतराहीं=उत्तार की हवा। अदिन=बुरा दिन। काऊ=कभी। मनाहिं=मन में
(4) सँघाता=संग। फेंकरे=नंगे, बिना टोपी या पगड़ी के (अवधाी)। चँवर जनु लाए=चँवर के से खड़े बाल लगाए हुए। चाँद, सूर, नखत= पदमावती, राजा और सखियाँ।
(5) देवा=देव, राक्षस (फारसी)। बग=बगला। लाइ देउँ तोहि बाट=तुझे रास्ते पर लगा दूँ।
(6) नौगिरिही=कलाई में पहनने का स्त्रिायों का एक गहना जो बहुत से दानों को गूँथकर बनाया जाता है। तोड़र=तोड़ा; कलाई में पहनने का गहना। महरा=मल्लाहों का सरदार। रकसाई=राक्षसपन। बासा=गंधा। बिसवास=विश्वासघात।
(7) जहिया=जब। पानि=हाथ से। हुत=था। जेहि=जिससे।
(8) मँड़ारू=दह, गङ्ढा। हलका=हिलोर, लहर। तर=नीचे। औरासि=बाबला होता है तू।
(9) जो बाउर…सरेखा=पागल भी अपना भक्ष्य ढूँढ़ने के लिए चतुर होता है। पाँखी=फतिंगा। घरमाटी=मिट्टी के घर में। छरी=छली गई, भ्रांत हुई।
(10) भवँहि=चक्कर खाते हैं। आस तुलसी=आशा जाती रही। मानवा=मनुष्य। डहन=डैना, पर।
मुरछि परी पदमावति रानी । कहाँ जीउ, कहँ पीउ न जानी॥
जानहु चित्रा मूर्ति गहि लाई । पाटा परी बही तस जाई॥
जनम न सहा पवन सकुवाँरा । तेइ सो परी दुख समुद अपारा॥
लछिमी नावँ समुद कै बेटी । तेहि कहँ लच्छि होइ जहँ भेंटी॥
खेलति अही सहेलिन्ह सेंती । पाटा जाइ लाग तेहि रेती॥
कहेसि सहेली ‘देखहु पाटा । मूरति एक लागि बहि घाटा॥
जो देखा, तीवइ है साँसा । फूल मुवा, पै मुई न बासा’॥
रंग जो राती प्रेम के, जानहु बीरबहूटि।
आइ बही दधिा समुद महँ, पै रँग गएउ न छूटि॥1॥
लछमी लखन बतीसौ लखी । कहेसि ‘न मरै, सँभारहु सखी॥
कागर पतरा ऐस सरीरा । पवन उड़ाइ परा मँझ नीरा॥
लहरि झकोर उदधिा जल भीजा । तबहूँ रूप रंग नहिं छीजा’॥
आपु सीस लेइ बैठी कोरै । पवन डोलावैं सखि चहुँ ओरै॥
बहुरि जो समुझि परा तन जीऊ । माँगेसि पानि बोलि कै पीऊ॥
पानी पियाइ सखी मुख धाोई । पदमावति जनहुँ कवँल संग कोई॥
तब लछिमी दुख पूछा ओही । ‘तिरिया! समुझि बात कहु मोहीं॥
देखि रूप तोर आगर, लागि रहा चित मोर।
केहि नगरी कै नागरी काह नावँ धानि तोर?’॥2॥
नैन पसार देख धान चेती । देखै काह, समुद कै रेती॥
आपन कोइ न देखेसि तहाँ । पूछेसि, तुम हौ को? हौं कहाँ?
कहाँ सो सखी कँवल सँग कोई । सो नाहीं मोहिं कहाँ बिछोई॥
कहाँ जगत महँ पीउ पियारा । जो सुमेरु बिधिा गरुअ सँवारा॥
ताकर गरुई प्रीति अपारा । चढ़ी हिये जनु चढ़ा पहारा॥
रहौं जो गरुइ प्रीति सौं झाँपी । कैसे जिऔं भार दुख चाँपी?॥
कँवल करी जिमि चूरी नाहाँ । दीन्ह बहाइ उदधिा जल माहाँ॥
आवा पवन बिछोह कर, पाट परी बेकरार।
तरिवर तजा जो चूरि कै, लागौं केहि कै डार?॥3॥
कहेन्हि ‘न जानहिं हम तोर पीऊ । हम तोहिं पाव रहा नहिंजीऊ॥
पाट परी आई तुम वही । ऐस न जानहिं दहुँ कहँ अही’॥
तब सुधिा पदमावति मन भई । सँवरि बिछोह मुरु छ मरि गई॥
नैनहिं रकत सुराही ढरै । जनहुँ रकत सिर काटे परै॥
खन चेतै खन होइ बेकरारा । भा चंदन बंदन सब छारा॥
बाउरि होइ परी पुनि पाटा । देहुँ बहाइ कंत जेहि घाटा॥
को मोहिं आगि देइ रचि होरी । जियत न बिछुरै सारस जोरी॥
जेहि सिर परा बिछोहा, देहु ओहि सिर आगि।
लोग कहैं यह सर चढ़ी, हौं सो जरौं पिउ लागि॥4॥
काया उदधिा चितव पिउ पाहाँ । देखौं रतन सो हिरदय माहाँ॥
जनहुँ आहि दरपन मोर हीया । तेहि महँ दरस देखावै पीया॥
नैन नियर पहुँचत सुठि दूरी । अब तेहि लागि भरौं मैं झूरी॥
पिउ हिरदय महँ भेंट न होई । को रे मिलाव, कहौं केहि रोई?॥
साँस पास निति आवै जाई । सो न सँदेस कहै मोहिं आई॥
नैन कौड़िया होइ मँड़राहीं । थिरकि मार पै आवै नाहीं॥
मन भँवरा भा कवँल बसेरी । होइ मरजिया न आनै हेरी॥
साथी आथि निआथि जो, सकै साथ निरबाहि।
जौ जिउ जारे पिउ मिलै, भेंटु रे जिउ! जरि जाहि॥5॥
सती होइ कहँ सीस उघारा । धान महँ बीजु घाव जिमि मारा॥
सेंदुर जरै आगि जनु लाई । सिर कै आगि सँभारि न जाई॥
छूटि माँग अस मोति पिरोई । बारहिं बार जरै जौं रोई॥
टूटहिं मोति बिछोह जो भरे । सावन बूँद गिरहिं जनु झरे॥
भहर भहर कै जोबन बरा । जानहुँ कनक अगिनि महँ परा॥
अगिनि माँग, पै देइ न कोई । पाहुन पवन पानि सब कोई॥
खीन लंक टूटी दुखभरी । बिनु रावन केहि बर होइ खरी॥
रोवत पंखि बिमोहे, जस कोकिला अरंभ।
जाकरि कनक लता सो, बिछुरा पीतम खंभ॥6॥
लछिमी लागि बुझावै जीऊ । ‘ना मरु बहिन! मिलहितोरपीऊ॥
पीउ पानि, होउ पवन अधाारी । जसि हौं तहूँ समुद कै बारी॥
मैं तोहि लागि लेउँ खटबाटू । खोजहि पिता जहाँ लगि घाटू॥
हौं जेहि मिलौं ताहि बड़भागू । राजपाट औ देउँ सोहागू’॥
कहि बुझाइ लेइ मँदिर सिधाारी । भइ जेवनार न जेंवै बारी॥
जेहि रे कंत कर होइ बिछोवा । कहँ तेहि भूख कहाँ सुख सोवा?
कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसा । को अस तेहि सौं कहै सँदेसा॥
लछिमी जाइ समुद पहँ, रोइ बात यह चालि।
कहा समुद ‘वह घट मोरे, आनि मिलावौं कालि’॥7॥
राजा जाइ तहाँ बहि लागा । जहाँ न कोइ सँदेसी कागा॥
तहाँ एक परबत असडूँगा । जहँवाँ सब कपूर औ गूँगा॥
तेहि चढ़ि हेर कोइ नहिं साथा । दरब सैंति किछु लाग न हाथा॥
अहा जो रावन लंक बसेरा । गा हेराइ, कोइ मिला न हेरा॥
ढाढ़ मारि कै राजा रोवा । केइ चितउरगढ़ राज बिछोवा!॥
कहाँ मोर सब दरब भँडारा । कहाँ मोर सब कटक ख्रधाारा॥
कहाँ तुरंगम बाँका बली । कहाँ मोर हस्ती सिंघली?॥
कहँ रानी पदमावति, जीउ बसै जेहि पाहँ।
‘मोर मोर’ कै खोएउँ, भूलि गरब अवगाह॥8॥
भँवर केतकी गुरु जो मिलावै । माँगै राजा बेगि सो पावै॥
पदमावतिचाह जहाँसुनि पावौं । परौं आगि औ पानि धाँसावौं॥
खोजौं परबत मेरु पहारा । चढ़ौं सरग औ परौं पतारा॥
कहाँ सो गुरु पावौं उपदेसी । अगम पंथ जो कहै गवेसी1॥
परेउँ समुद्र माहँ अवगाहा । जहाँ न वार पार, नहि थाहा॥
सीताहरन राम संग्रामा । हनुबँत मिला त पाई रामा॥
मोहिं न कोइ, बिनवौं केहि रोई । को बर बाँधिा गवेसी होई1॥
भँवर जो पावा कँवल कहँ, मन चीता बहु केलि।
आइ परा कोइ हस्ती, चूर कीन्ह सो बेलि॥9॥
काहि पुकारौं जा पहँ जाऊँ । गाढ़े मीत होइ एहि ठाऊँ॥
को यह समुद मथै बल गाढ़ै । को मथि रतन पदारथ काढ़ै?॥
कहाँ सो बरम्हा बिसुन महेसू । कहाँ सुमेरु, कहाँ वह सेसू॥
कोअस साज देइ मोहिं आनी । बासुकि दाम, सुमेरु मथानी॥
को दधिा समुद मथै जस मथा? । करनी सार न कहिए कथा॥
जौ लहि मथै न कोई देइ जीऊ । सूधाी ऍंगुरि न निकसै घीऊ॥
लेइ नग मोर समुद भा बटा । गाढ़ परै तौ लेइ परगटा॥
लीलि रहा अब ढील होइ, पेट पदारथ मेलि।
को उजियार करै जग, झाँपा चंद उघेलि?॥10॥
ए गोसाइँ! तू सिरजनहारा । तुइँ सिरजा यह समुद अपारा॥
तुइँ अस गगन अंतरिख थाँभा । जहाँ न टेक, न थूनि, न खाँभा॥
तुइँ जल ऊपर धारती राखी । जगत भार लेइ भार न थाकी॥
चाँद सुरुज औ नखतन्ह पाँती । तारे डर धााबहिं दिन राती॥
पानी पवन आगि औ माटी । सब के पीठ तोरि है साँटी॥
सो मूरुख औ बाउर अंधाा । तोहि छाँड़ि चित औरहि बंधाा॥
घट घट जगत तोरि है दीठी । हौं अंधाा जेहि सूझ न पीठी॥
पवन होइ भा पानी, पानि होइ भा आगि।
आगि होइ भा माटी, गोरखधांधौ लागि॥11॥
तुइँ जिउ तन मेरवसि देइ आऊ । तुही बिछोवसि, करसि मेराऊ॥
चौदह भुवन सो तोरे हाथा । जहँ लगि बिछुर आव एक साथा॥
सब कर मरम भेद तोहि पाहाँ । रोवँ जमावसि टूटै जाहाँ॥
जानसि सवैं अवस्था मोरी । जस बिछुरी सारस कै जोरी॥
एक मुए ररि मुवै जो दूजी । रहा न जाइ, आउ अब पूजी॥
झूरत तपत बहुत दुख भरऊँ । कलपौं। माँथ बेगि निस्तरऊँ॥
मरौं सौ लेइ पदमावति नाऊँ । तुइँ करतार करेसि एक ठाऊँ॥
दुख सौं पीतम भेंटि कै, सुख सौं सोब न कोइ।
एहि ठाँव मन डरपै, मिलि न बिछोहा होइ॥12॥
कहि के उठा समुद्र पहँआवा । काढ़ि कटार गीउ महँ लावा॥
कहा समुद्र, पाप अब घटा । बाम्हन रूप आइ परगटा॥
तिलक दुवादस मस्तककीन्हे । हाथ कनक बैसाखी लीन्हे॥
मुद्रा स्रवन, जनेऊ काँधो । कनकपत्रा धाोती तर बाँधो॥
पाँवरि कनक जराऊपाऊ । दीन्हि असीस आइ तेहि ठाऊँ॥
कहसि कुँवर मोसौं सब बाता । काहे लागि करसि अपघाता॥
परिहँस मरसि कि कौनिउ लाजा । आपनि जीउ देसि केहि काजा॥
जिनि कटार गर लावसि, समुझि देखु मन आप।
सकति जीउ जौं काढ़ै, महा दोष औ पाप॥13॥
को तुम्ह उतर देइ हो पाँडे । सो बोलै जाकर जिउ भाँड़े॥
जंबूदीप केर हौं राजा । सो मैं कीन्ह जो करत न छाजा॥
सिंघलदीप राजघर बारी । सो मैं जाइ बियाही नारी॥
बहु बोहित दायज उन दीन्हा । नग अमोल निरमर भरि लीन्हा॥
रतन पदारथ मानिक मोती । हुती न काहु के संपति ओती॥
बहल, घोड़ हस्ती सिंघली । औ सँग कुँबरि लाख दुइ चलीं॥
ते गोहने सिंघल पदमावति । एक सौं एक चाहि रूपमनी॥
पदमावति जग रूपमनि, कहँ लगि कहौं दुहेल।
तेहि समुद्र मह खोएउँ, हौं का जिऔं अकेल॥14॥
हँसा समुद, होइ उठा ऍंजोरा । जग बूड़ा सब कहि कहि ‘मोरा’॥
तोर होइ तोहि परे न बेरा । बूझि बिचारि तहूँ केहि केरा॥
हाथ मरोरि धाुनै सिर झाँखी । पै तोहि हिये न उघरै ऑंखी॥
बहुतै आइ रोइ सिर मारा । हाथ न रहा झूठ संसारा॥
जो पै जगत होति फुर माया । सैंतत सिध्दि न पावत राया!॥
सिध्दै दरब न सैंता गाड़ा । देखा भार चूमि कै छाँड़ा॥
पानी कै पानी महँ गई । तू जो जिया कुसल सब भई॥
जा कर दीन्ह कया जिउ, लेइ चाह जब भाव।
धान लछिमी सब ताकर, लेइ तका पछिताव?॥15॥
अनु, पाँड़े! पुरुषहि का हानी । जौ पावौं पदमावति रानी॥
तपि कै पावा, मिलि कै फूला । पुनि तेहि खोइ सोइ पथ भूला॥
पुरुष न आपनि नारि सराहा । मुए गए सँवरे पै चाहा॥
कहँ अस नारि जगत उपराहीं ? कहँ अस जीवन कै सुख छाहीं॥
कहँ अस रहस भोग अब करना । ऐसे जिए चाहि भल मरना॥
जहँ अस परा समुद नग दीया । तह किमि जिया चहै मरजीया?
जस यह समुद दीन्ह दुख मोकाँ । देह हत्या झगरौं सिवलोका॥
का मैं ओहि क नसावा, का सँवरा सो दाँव?।
जाइ सरग पर होइहि, एहि कर मोर नियाव॥16॥
जौ तु मुवा, कित रोवसि खरा? । ना मुइ मरै, न रोवै मरा॥
जो मरि भा औछाँड़ेसि काया । बहुरि न करै मरन कै दाँया॥
जो मरि भएउ न बूडै नीरा । बहा जाइ लागै पै तीरा॥
तुही एक मैं बाउर भेंटा । जैसे राम दसरथ कर बेटा॥
ओहू नारि कर परा बिछोवा । एहि समुद महँ फिरि फिरि रोवा॥
उदधिा आइ तेइ बंधान कीन्हा । हति दसमाथ अमरपद दीन्हा॥
तोहि बल नाहिं मूँदु अब ऑंखी । लावौं तीर टेक बैसाखी॥
बाउर अंधा प्रेम कर, सुनत लुबुधिा भा बाट।
निमिष एक महँ लेइगा, पदमावति जेहि घाट॥17॥
पदमावति कहँ दुख तस बीता । जस असोक बीरौ तर सीता॥
कनक लता दुइ नारँग फरी । तेहि के भार उठि होइ न खरी॥
तेहि पर अलक भुअंगिनि डसा । सिर पर चढ़ै हिये परगसा॥
रही मृनाल टकि दुखदाधाी । आधाी कँवल भई ससि आधाी॥
नलिनखंड दुइतस करिहाऊँ । रोमावली बिछूक कहाऊँ॥
रही टूटिजिमि कंचन तागू । को पिउ मेरवै देइ सोहागू॥
पान न खाइ करै उपवासू । फूल सूख तन रही न बासू॥
गगन धारति जल बुड़ि गए, बूड़त होइ निसाँस।
पिउ पिउ चातक ज्यों ररै, मरै सेवाति पियास॥18॥
लछमी चंचल नारि परेवा । जेहि सत होइ छरै कै सेवा॥
रतनसेन आवै जेहि घाटा । अगमन होइ बैठी तेहि बाटा॥
औ भइ पदमावति केरूपा । कीन्हेसि छाँह जरै जहँ धाूपा॥
देखि सो कँवल भँवर होइ धाावा । साँस लीन्ह वह बास न पावा॥
निरखत आइ लच्छमी दीठी । रतनसेन तब दीन्ही पीठी॥
जौ भलि होतिलच्छमी नारी । तजि महेस कित हो भिखारी?॥
पुनि धानि पिरि आगे होइ रोई । पुरुष पीठि कस दीन्ह निछोई?॥
हौं रानी पदमावति, रतनसेन तू पीउ।
आनि समुद महँ छाड़ेहु अब रोवौं देइ जीउ॥19॥
मैं हौं सोइ भँवर औ भोजू । लेत फिरौं मालति कर खोजू॥
मालति नारी, भँवरा पीऊ । लहि वह बास रहै थिर जीऊ॥
का तुइँ नारि बैठि अस रोई । फूल गोइ पै बास न सोई॥
भँवर जो सब फूलन कर । फेरावास न लेइ मालतिहि हेरा॥
जहाँ पाव मालति कर बासू । बारै जीउ तहाँ होइ दासू॥
कित वह वास पवन पहुँचावै । नव तन होइ, पेट जिउ आवै॥
हौं ओहि बास जीउ बलि देऊँ । और फूल कै बास न लेऊँ॥
भँवर मालतिहि पै चहै, काँट न आवै दीठि।
सौहैं भाल खाइ पै, फिरि कै देइ न पीठि॥20॥
तब हँसि कह राजा ओहि ठाऊँ । जहाँ सो मालति लेइ चलु जाऊँ॥
लेइ सो आइ पदमावति पासा । पानि पियावा मरत पियासा॥
पानी पिया कँवल जस तपा । निकसा सुरुज समुद महँ छपा॥
मैं पावा पिउ समुद के घाटा । राजकुँवर मनि दिपै लिलाटा॥
दसन दिपै जस हीरा जोती । नैन कचोर भरे जनु मोती॥
भुजा लंक उर केहरि जीता । मूरति कान्ह देख गोपीता॥
जस राजा नल दमनहि पूछा । तस बिनु प्रान पिंड है छूँछा॥
जस तू पदिक पदारथ, तैस रतन तोहि जोग।
मिला भँवर मालति कहाँ करहु दोउ मिलि भोग॥21॥
पदिक पदारथ खीन जो होती । सुनतहि रतन चढ़ी मुख जोती॥
जानहुँ सूर कीन्ह परगासू । दिन बहुरा, भा कँवल-बिगासू॥
कँवल जो बिहँसि सूर मुख दरसा । सूरुज कँवल दिस्टि सौं परसा॥
लोचन कँवल सिरीमुख सूरू । भएउ अनंद दुहूँ रस मूरू॥
मालति देखि भँवर गा भूली । भँवर देखि मालति बन फूली॥
देखा दरस, भए एक पासा । वह ओहिके बह ओहिके आसा॥
कंचन दाहि दीन्ह जनु जीऊ । ऊवा सूर, छूटिगा सीऊ॥
पायँ परी धानि पीउ के, नैनन्ह सौं रज मेट।
अचरज भएउ सबन्ह कहँ, भइ ससि कँवलहिं भेंट॥22॥
जिनि काहू कहँहोइ बिछोऊ । जस वै मिलै मिलै सब कोऊ॥
पदमावति जो पावा पीऊ । जनु मरजियहि परा तन जीऊ॥
कै नेवछावरि तन मन वारी । पाँयन्ह परी घालि गिउ नारी॥
नव अवतार दीन्ह बिधिा आजू । रही छार भइ मानुष साजू॥
राजा रोव घालि गिउपागा । पदमावति के पाँयन्ह लागा॥
तन जिउ महँ बिधिा दीन्ह बिछोऊ । अस न करै तौ चीन्ह नकोऊ॥
सोई मारि छार कै मेटा । सोइ जियाइ करावै भेंटा॥
मुहमद मीत जौ मन बसै, विधिा मिलाव ओहि आनि।
संपति बिपति पुरुष कहँ, काह लाभ, का हानि॥23॥
लछमी सौं पदमावति कहा । तुम्ह प्रसाद पाइउँ जो चहा॥
जौ सब खोइजाहिं हम दोऊ । जो देखै भल कहै न कोऊ॥
जे सब कुँवर आएहम साथी । औ जत हस्ति घोड़ औ साथी॥
जौ पावैं, सुख जीवन भोगू । नाहिं त मरन, भरन दुख रोगू॥
तब लछमी गइ पिता के ठाऊँ । जो एहि कर सब बूढ़ सो पाऊँ॥
तब सो जरी अमृत लेइ आवा । जो मरे हुत तिन्ह छिरिकि जियावा॥
एक एक कै दीन्ह सो आनी । भा सँतोष मन राजा रानी॥
आइ मिले सब साथी, हिलि मिलि करहिं अनंद।
भई प्राप्त सुख सँपति, गएउ छूटि दुख दंद॥24॥
और दीन्ह बहु रतन पखाना । सोन रूप तौ मनहिं न आना॥
जे बहु मोल पदारथ नाऊँ । का तिन्ह बरनि कहौं तुम्ह ठाऊँ॥
तिन्ह कर रूप भाव को कहै । एक-एक नग दीप जो लहै॥
हीर फार बहु मोल जो अहे । तेइ सब नग चुनि चुनि कै गहे॥
जौ एक रतन भंजावै कोई । करै सोइ जो मन महँ होई॥
दरब गरब मन गएउ भुलाई । हम सम लच्छ मनहिं नहिं आई॥
लघु दीरघ जो दरब बखाना । जो जेहि चाहि सोइ तेइ माना॥
बड़ औ छोट दोउ सम, स्वामी काज जो सोइ।
जो चाहिय जेहि काज कहँ, ओहि काज सो होइ॥25॥
दिन दस रहे तहाँ पहुनाई । पुनि भए बिदा समुद सौं जाई॥
लछमी पदमावति सौं भेंटी । औ तेहि कहा ‘मोरि तू बेटी’॥
दीन्ह समुद्र पान कर बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा॥
और पाँच नग दीन्हबिसेखे । सरवन सुना, नैन नहिं देखे॥
एक तौ अमृत दूसर हंसू । औ तीसर पंखी कर बंसू॥
चौथ दीन्ह सावक सादूरू । पाँचवँ परस जो कंचनमूरू॥
तरुन तुरंगम आनि चढ़ाए । जलमानुष अगुआ सँग लाए॥
भेंट घाँट कै समदि तब, फिरे नाइकै माथ।
जलमानुष तबहीं फिरे, जब आए जगनाथ॥26॥
जगन्नाथ कहँ देखा आई । भोजन रींधाा भात बिकाई॥
राजै पदमावति सौं कहा । साँठि नाठि किछु गाँठि न रहा॥
साँठि होइ जेहि तेहि सब बोला । निसँठ जो पुरुष पात जिमिडोला॥
साँठिहि रंक चलै झौंराई । निसँठ राव सब कह बौराई॥
साँठिहि आबगरब तन फूला । निसँठहि बोल, बुध्दि बल भूला॥
साँठिहि जागि नींद निसि जाई । निसँठहि काह होइ औंघाई॥
साँठिहि दिस्टि जोति होइ नैना । निसँठ होइ मुख आव न बैना॥
साँठिहि रहै साधिा तन, निसँठहि आगरि भूख।
बिनु गथ बिरिछ निपात जिमि, ठाढ़ ठाढ़ पै सूख॥27॥
पदमावति बोली सुनु राजा । जीउ गए धान कौने काजा?॥
अहा दरब तब कीन्ह न गाँठी । पुनि कित मिले लच्छि जौ नाठी॥
मुकती साँठि गाँठि जो करै । साँकर परे सोइ उपकरै॥
जेहि तन पंख, जाइजहँ ताका । पैग पहार होइ जौ थाका॥
लछमी दीन्ह रहामोहि बीरा । भरि कै रतन पदारथ हीरा॥
काढ़ि एक नग बेगिभँजाबा । बहुरी लच्छि, फेरि दिन पावा॥
दरब भरोस करै जिनि कोई । साँभर सोइ गाँठि जो होई॥
जोरि कटक पुनि राजा, धार कहँ कीन्ह पयान।
दिवसहि भानु अलोप भा, बासुकि इंद्र सकान॥28॥
(1) न जानी=न जानें। अही=थी। सेंती=से। रेती=बालू का किनारा। तीवइ=स्त्राी में।
(2) कागर=कागज। पतरा=पतला। उड़ाइ=उड़कर। कोरै=गोद में। बोलि कै=पुकारकर। समुझि=सुधा करके
।(3) चेती=चेत करके, होश में आकर। देखै काह=देखती क्या है कि। झाँपी=आच्छादित। चाँपी=दबी हुई। चूरी=चूर्ण किया। लागौं केहि कै डार=(मुहा.) किसकी डाल लगूँ अर्थात् किसका सहारा लूँ?
(4) पाव=पाया। सँवरि=स्मरण करके। सर=चिता।
(5) थिरकि मार=थिरकता या चारों ओर नाचता है। साथी…निरबाहि=साथी वही है जो धान और दरिद्रता दोनों में साथ निभा सके। आथि=सार, पूँजी। निआथि=निर्धानता।
(6) धान महँ…मारा-काले बालों के बीच माँग ऐसी है जैसे बिजली की दरार। भहर-भहर=जगमगाता हुआ। माँग=माँगती है। पाहुन पवन…सब कोई=मेहमान समझकर सब पानी देती हैं और हवा करती हैं। बर=बल, सहारा। अरंभ=रंभ, नाद, कूक।
(7) बुझावै लागि=समझाने-बुझाने लगी। बारी=लड़की। लेउँ खटवाटू=खटपाटी लूँगी, रूसकर काम-धांधाा छोड़ पड़ रहूँगी। (स्त्रिायों का रूसकर खाना-पीना छोड़ खाट पर इसलिए पड़ रहना कि जब तक मेरी बात न मानी जाएगी न उठँगी, ‘खटपाटी लेना’ कहलाता है)। सुख सोवा=सुख से सोना (साधाारण क्रिया का यह रूप बँगला से मिलता है)। कहाँ सुमेरु सेसा=आकाश-पाताल का अंतर। बात चालि-बात चलाई।
(8) डूँगा=टीला। ख्रधाारा=स्कंधाावार, डेरा, तंबू। अवगाह=अथाह (समुद्र) में।
1. पाठांतर-अगम पंथ कर होइ सँदेसी।
(9) चाह=खबर। धाँसावौं=धाँसू। गवेसी=खोजी, ढूँढ़नेवाला, गवेषणा करने वाला। बर बाँधिा=रेखा खींचकर, दृढ़ प्रतिज्ञा करके (आजकल ‘बरैया बाँधिा’ बोलते हैं)।
(10) मीत होइ=जो मित्रा हो। गाढ़ै=संकट के समय में। दाम=रस्सी। करनी सार…कथा=करनी मुख्य है, बात कहने से क्या है? बटा भा=बटाऊ हुआ, चल दिया। ढील होइ रहा=चुपचाप बैठ रहा। उघेलि=खोलकर।
(11) थाँभा=ठहराया, टिकाया। थूनि=लकड़ी का बल्ला जो टेक के लिए छप्पर के नीचे खड़ा दिया जाता है। भार न थाकी-भार से नहीं थाकी। सबके पीठि…साँटी=सबकी पीठ पर तेरी छड़ी है, अर्थात् सबके ऊपर तेरा शासन है।
1. पाठांतर-को सहाय उपदेसी होई।
(12) मेरवसि=तू मिलाता है। आउ=आयु। बिछोवसि=बिछोह करता है। मेराऊ=मिलाप। जाहाँ=जहाँ कलपौं=काटूँ। करेसि=तुम करना।
(13) पाप अब घटा=यह तो बड़ा पाप मेरे सिर पर घटा चाहता है। बैसाखी=लाठी। पाँवरि=खड़ाऊँ। पाऊँ=पाँव में। काहे लगि=किसलिए। अपघात=आत्मघात। परिहसर्=ईष्या।
(14) तुम्ह=तुम्हें। भाँडे घर में, शरीर में। ओती=उतनी। चाहि=बढ़कर। रूपमती=रूपवती। दुहेल=दुख।
(15) तोर होइ…बेरा=तेरा होता तो तेरा बेड़ा तुझसे दूर न होता। झाँखी=झींखकर। उघरै=खुलती है। सैंतत सिध्दि….राया=तौं हैं राजा! तुम द्रव्य संचित करते हुए सिध्दि पा न जाते। पानी कै…गई=जो वस्तुएँ (रतन आदि) पानी की थीं बे पानी में गईं। लेइ चाह=लिया ही चाहे। जब भाव=जब चाहे।
(16) अनु=फिर, आगे फूला, प्रफुल्ल हुआ। चाहि=अपेक्षा, बनिस्बत। मोकाँ=मोकहँ, मुझको। देइ हत्या=सिर पर हत्या चढ़ाकर। दाँव=बदला लेने का मौका।
(17) मरि भा=मर चुका। दायाँ=दाँव, आयोजन। बाट भा=रास्ता पकड़ा।
(18) बीरौ=बिरवा, पेड़। दाघी=जली हुई। करिहाउँ=कमर, कटि। बिछूक=बिच्छू। सेवाति=स्वाति नक्षत्रा में।
(19) छरै=छलती है। बाटा=मार्ग में। अगमन=आगे। दीठी=देखा। दीन्हीं पीठी=पीठ दी, मुँह फेर लिया।
(20) खोजू=पता। कर फेरा=फेरा करता है। हेरा=ढूँढ़ता है। वारै=निछावर करता है। नव=नया। भाल भाला।
(21) लेइ चलु, जाऊँ=यदि ले चले तो जाऊँ। छपा=छिपा हुआ। कचोर=कटोरा। गोफ्ता=गोपी। दमनहि=दमयंती को। पिंड=शरीर। छूँछा=खाली। पदिक=गले में पहनने का एक चौखूँटा गहनाजिसमें रत्न जड़े जाते हैं।
(22) पदिकपदारथ=अर्थात्पदमावती।बहुरा=लौटा,फिरा।मूरू=मूल,जड़।एक पासा=एक साथ। सीऊ=शीत। रज मेट=ऑंसुओं से पैर की धाूल धाोती है। भइ ससि कँवलहिंभेंट=शशि, पदमावती का मुख और कमल, राजा के चरण।
(23) घालि गिउ=गरदन नीचे झुकाकर।मानुष साजू=मनुष्य रूप में। घालि गिउ पागा=गले में दुपट्टा डालकर। पागा=पगड़ी। तन जिउ…चीन्ह न कोऊ=शरीर और जीव के बीच ईश्वर ने वियोग दिया; यदि वह ऐसा न करे तो उसे कोईनपहचाने।
(24) तुम्ह=तुम्हारे। आथी=पूँजी धान। जरी=जड़ी।
(25) पखाना=नग, पत्थर। सोन=सोना। रूप=चाँदी। तुम्ह ठाऊँ=तुम्हारे निकट, तुमसे। हीर फार=हीरे के टुकड़े। फार=फाल, कतरा, टुकड़ा। हम सम लच्छ=हमारे ऐसे लाखों हैं।
(26) पहुँनाई=मेहमानी। बिसेखे=विशेष प्रकार के। बंसू=वंश, कुल। सावक सादूरू=शार्दूल शावक, सिंह का बच्चा। परस=पारस पत्थर। कंचन-मूरू=सोने का मूल अर्थात् सोना उत्पन्न करनेवाला। जलमानुष=समुद्र के मनुष्य। अगुवा=पथ प्रदर्शक। सँग लाए=संग में लगा दिए। भेंटघाँट=भेंट मिलाप। समदि=बिदा करके।
(27) रींधाा=पका हुआ। साँठि=पूँजी, धान। नाठि=नष्ट हुई। झौंराई=झूमकर। कह=कहते हैं। औंघाई=नींद। साधिा तन=शरीर को संयत करके। आगरि=बढ़ी हुई, अधिाक। गथ=पूँजी।
(28) नाठी=नष्ट हुई। मुकती=बहुत सी, अधिाक। साँकर परे=संकट पड़ने पर। उपकरै=उपकार करती है, काम आती है। साँभर=संबल, राह का खर्च। सकान=डरा।
चितउर आइ नियर भा राजा । बहुरा जीति इंद्र अस गाजा॥
बाजन बाजहिं होइ ऍंदोरा । आवहिं बहल हस्ति औ घोरा॥
पदमावति चंडोल बईठी । पुनि गइ उलटि सरग सौं दीठी॥
यह मन ऐंठा रहै न सूझा । बिपति न सँवरै सँपति अरूझा॥
सहस बरिस दुख सहै जो कोई । घरी एक सुख बिसरै सोई॥
जोगी इहै जानि मन मारा । तौहुँ न यह मन मरै अपारा॥
रहा न बाँधाा बाँधाा जेही । तेलिया मारि डार पुनि तेही॥
मुहमद यह मन अमर है, केहुँ न मारा जाइ।
ज्ञान मिलै जौ एहि घटै, घटतै घटत बिलाइ॥1॥
नागमती कहँ अगम जनावा । गई तपनि बरखा जनु आवा॥
रही जो मुइ नागिनि जसि तुचा । जिउ पाएँ तन कै भइ सुचा॥
सब दुख जस केंचुरि गा छूटी । होइ निसरी जनु बीरबहूटी॥
जसि भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई । परहिं बूँद औ सोंधिा बसाई॥
ओहि भाँतिपलुही सुख बारी । उठी करिल नइ कोंप सँवारी॥
हुलसि गंग जिमि बाढ़िहि लेई । जोबन लाग हिलोरैं देई॥
काम धानुक सर लेइ भइ ठाढ़ी । भागेउ बिरह रहा जो डाढ़ी॥
पूछहिं सखी सहेलरी, हिरदय देखि अनंद।
आजु बदन तोर निरमल, अहै उवा जस चंद॥2॥
अब लगि रहा पवन, सखि ताता । आजु लाग मोहिं सीअर गाता॥
महि हुलसै जस पावस छाहाँ । तस उपना हुलास मन माहाँ॥
दसवँ दावँ के गा जो दसहरा । पलटा सोइ नाव लेइ महरा॥
अब जोबन गंगा होइ बाढ़ा । औटन कठिन मारि सब काढ़ा॥
हरियर सब देखौं संसारा । नए चार जनु भा अवतारा॥
भागेउ बिरह करत जो दाहू । भा मुख चंद छूटिगा राहू॥
पलुहे नैन बाँह हुलसाहीं । कोउ हितु आवै जाहि मिलाहीं॥
कहतहि बात सखिन्ह सौं, ततखन आवा भाँट।
राजा आइ निअर भा, मँदिर बिछावहु पाट॥3॥
सुनि तेहि खन राजा कर नाऊँ । भा हुलास सब ठाँवहिं ठाऊँ॥
पलटा जनु बरषा ऋतु राजा । जस असाढ़ आवै दर साजा॥
देखि सो छत्रा भई जग छाहाँ । हस्ति मेघ ओनए जग माहाँ॥
सेन पूरि आई घन घोरा । रहस चाव बरसै चहुँ ओरा॥
धारति सरग अब होइ मरावा । भरीं सरित औ ताल तलावा॥
उठी लहकि महि सुनतहि नामा । ठावहिं ठावँ दूब अस जामा॥
दादुर मोर कोकिला बोले । हुत जो अलोप जीभ सब खोले॥
होइ असवार जो प्रथमै मिलै चले सब भाइ।
नदी अठारह गंडा मिलीं समुद कहँ जाइ॥4॥
बाजत गाजत राजा आवा । नगर चहूँ दिसि बाज बधाावा॥
बिहँसि आइमाता सौं मिला । राम जाइ भेंटी कौसिला॥
साजे मदिर बंदनवारा । होइ लाग बहु मंगलचारा॥
पदमावति कर आवं बेवानू । नागमती जिउ महँ भा आनू॥
जनहुँ छाँह महँ धाूप देखाई । तैसइ भार लागि जौ आई॥
सही न जाइ सवति कै झारा । दुसरे मंदिर दीन्ह उतारा॥
भई उहाँ चहुँ खंड बखानी । रतनसेन पदमावति आनी॥
पुहुप गंधा संसार महँ, रूप बखानि न जाइ।
हेम सेत जनु उघरि गा, जगत पात फहराइ॥5॥
बैठ सिंहासन लोग जोहारा । निधानी निरगुन दरव बोहारा॥
अगनितदान निछावरि कीन्हा । मँगतन्ह दान बहुत कै दीन्हा॥
लेइ कै हस्ति महाउत मिले । तुलसी लेइ उपरोहित चले॥
बेटा भाइ कुँवर जत आवहिं । हँसि हँसि राजा कंठ लगावहिं॥
नेगी गए, मिले अरकाना । पँवरिहि बाजै घहरि निसाना॥
मिले कुँवर, कापर पहिराए । देह दरब तिन्ह घरहिं पठाए॥
सबकै दसा फिरी पुनि दुनी । दान डाँग सबही जग सुनी॥
बाजैं पाँच सबद निहित, सिध्दि बखानहिं भाँट।
छतिस कूरि, षट दरसन, आइ जुरे ओहि पाट॥6॥
सब दिन राजा दान दिआवा । भइ निसि, नागमती पहँ आवा॥
नागमती मुख फेरि बईठी । सौंह न करै पुरुष सौं दीठी॥
ग्रीषम जरत छाँड़ि जो जाई । सो मुख कौन देखावै आई?॥
जबहिं जरै परबत बन लागे । उठी झार पंखी उठि भागे॥
जब साखा देखै औ छाहाँ । को नहिं रहसि पसारै बाहाँ॥
को नहिं हरषिबैठ तेहि डारा । को नहिं करै केलि कुरिहारा?॥
तू जोगी होइगा बैरागी । हौं जरि छार भएउँ तोहि लागी॥
काह हँसौ तुम मोसौं, किएउ और सौं नेह।
तुम्ह मुख चमकै बीजुरी, मोहि मुख बरिसै मेह॥7॥
नागमती तू पहिलि बियाही । कठिन प्रीति दाहै जस दाही॥
बहुतै दिनन आव जो पीऊ । धानि न मिलै धानि पाहन जीऊ॥
पाहन लोह पोढ़ जग दोऊ । तेउ मिलहिं जौ होइ बिछोऊ॥
भलेहि सेत गंगाजल दीठा । जमुन जो साम, नीर अति मीठा॥
काह भएउ तन दिस दस दहा । जौ बरषा सिर ऊपर अहा॥
कोइ केहु पास आत कै हेरा । घनि ओहि दरस निरास न फेरा॥
कंठ लाइ कै नारि मनाई । जरी जो बेलि सींचि पलुहाई॥
फरे सहस साखा होइ, दारिउँ, दाख, जँभीर।
सबै पंखि मिलि आइ जोहारे, लौटि उहै भइ भीर॥8॥
जौ भा मेर भएउ रँग राता । नागमती हँसि पूछी बाता॥
कहहु कंत! ओहि देस लोभाने । कस धानि मिली, भोग कस माने॥
जौ पदमावति सुठि होइ लोनी । मोरे रूप कि सरवरि होनी?॥
जहाँ राधिाका गोपिन्ह माहाँ । चंद्रावलि सिर पूज न छाहाँ॥
भँवर पुरुष अस रहै न राखा । तजै दाख, महुआ रस चाखा॥
तजि नागेसर फूल सोहावा । कँवल बिसैंधाहिं सौं मन लावा॥
जौ अन्हवाइ भरै अरगजा । तौहुँ बिसायँधा वह नहिं तजा॥
काह कहौं हौं तोसौं, किछु न हिये तोहि भाव॥
इहाँ बात मुख मोसौं, उहाँ जीउ ओहि ठाँव॥9॥
कहि दुख कथा जो रैनि बिहानी । भयउ भोर जहँ पदमावतिरानी॥
भानु देख ससि बदन मलीना । कँवल नैन राते, तनु खीना॥
रैनि नखत गनि कीन्ह बिहानू । बिकल भई देखा जब भानू॥
सूर हँसै, ससि रोइ डफारा । टूट ऑंसु जनु नखतन्ह मारा॥
रहै न राखी होइ निसाँसी । तहँवा जाहु जहाँ निसि बासी॥
हौं कै नेह कुऑं महँ मेली । सींचौ लागि झुरानी बेली॥
नैन रहे होइ रहँट क घरी । भरी ते ढारी, छूँछी भरी॥
सुभर सरोवर हंस चल, घटतहि गए बिछोह।
कँवल न प्रीतम परिहरै, सूखि पंक बरु होइ॥10॥
पदमावति तुइँ जीउ पराना । जिउ तें जगत पियार न आना॥
तुइँ जिमि कँवल बसीहिय माहाँ । हौं होइ अलि बेधाा तोहि पाहाँ॥
मालति कली भँवर जो पावा । सो तजि आन फूल कित भावा?॥
मैं हौं सिंघल कैं पदमावति । सरि न पूज जंबू नागिनी॥
हौं सुगंधा निरमल उजियारी । वह विषभरी डेरावनि कारी॥
मोरी बास भँवर सँग लागहिं । ओहि देखत मानुष डर भागहिं॥
हौं पुरुषन्ह कै चितवन दीठी । जेहिक जिउ अस अहौं पईठी॥
ऊँचे ठाँव जो बैठे, करै न नीचहिं संग।
जहँ सो नागिनि हिरकै, करिया करै सो अंग॥11॥
पलुही नागमती कै बारी । सोने फूल फूलि फुलवारी॥
जावत पंखि रहे सब दहे । सबै पंखि बोलत गहगहे॥
सारिउँ सुवा महरि काकिला । रहसत आइ पपीहा मिला॥
हारिल सबद महोखसोहावा । काग कुराहर करि सुख पावा॥
भोग बिलास कीन्ह कै फेरा । बिहँसहिं, रहसहिं करहिं बसेरा॥
नाचहिं पंडुक मोर परेवा । बिफल न जाइ काहुकै सेवा॥
होइ उजियार सूर जस तपै । खूसट मुख न देखावै छपै॥
संग सहेली नागमति, आपनि बारी माहँ।
फूल चुनहिं, फल तूरहिं, रहसि कूदि सुख छाँह॥12॥
(1) ऍंदोरा=अंदोर, हलचल, शोर (आंदोल)। चंडोल=पालकी। सरग सौं=ईश्वर से। तेलिया=सींगिया विष। तेलिया=तेही=चाहे उसे तेलिया विष से न मारे। केहुँ=किसी प्रकार।
(2) तुचा=त्वचा, केंचली। सुचा=सूचना, सुधा, खबर। सोंधिा=सोंधी। सोंधिा बसाई=सुगंधा से बस जाती है या सोंधाी महकती है। करिल=कल्ला। कोंप=कोंपल।
(3) ताता=गरम। दसवँ दावँ=दशम दशा, मरण। महरा=सरदार। औटन=ताप। नए चार=नए सिर से।
(4) दर=दल। रहस चाव=आनंद, उत्साह। लहकि उठी=लहलहा उठी। हुत=थे। अठारह गंडा नदी=अवधा में जनसाधारण के बीच यह प्रसिध्द है कि समुद्र में अठारह गंडे (अर्थात् 72) नदियाँ मिलती हैं।
(5) बेवान=विमान। जिउ महँ भा आनू=जी में कुछ और भाव हुआ। झार=(क) लपट, (ख)र् ईष्या, डाह। जौ=जब। उतारा। दीन्ह=उतारा हेम सेत=सफेद पाला या बर्फ।
(6) बहुत कै=बहुत सा। जत=जितने। अरकाना=अरकाने दौलत, सरदार, उमरा। दूनी=दुनिया में। डाँग=डंका। पाँच सबद=पंच शब्द, पाँच बाजे-तंत्राी, ताल, झाँझ, नगाड़ा और तुरही । छतिस कूरि=छत्ताीसों कुल के क्षत्रिाय। षट दरसन=(लक्षण्ा से) छह शास्त्राों के वक्ता।
(7) दिआवा=दिलाया। कुरिहारा=कलरव, कोलाहल।
(8) पोढ़=दृढ़, मजबूत, कड़े। फरे सहस…भीर=अर्थात् नागमती में फिर यौवनश्री और रस आ गया और राजा के अंग-अंग उससे मिले।
(9) मेर=मेल, मिलाप। लोनी=सुगढ़। नागेसर=अर्थात् नागमती। कँवल=अर्थात् पद्मावती। बिसैधाा=बिसायँधा गंधावाला, मछली की सी गंधावाला। भाव=प्रेम भाव।
(10) देख=देखा। भानू=(क) सूर्य, (ख) रत्नसेन। डफारा=ढाढ़ मारती है। मारा=माला। कुऑं महँ मेली=मुझे तो कुएँ में डाल दिया, अर्थात् किनारे कर दिया। झुरान=सूखी। घरी=घड़ा। सुभर=भरा हुआ।
(11) बेधाा तोहि पाहाँ=तेरे पास उलझ गया हूँ। डेरावनि=डरावनी। हिरकै=सटे। करिया=काला।
(12) पलुही=पल्लवित हुई, पनपी। गहगहे=आनंदपूर्वक। कुराहर=कोलाहल। जस=जैसे ही। खूसट=उल्लू। तूरहिं=तोड़ती हैं।
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