कविता -देवपाल-दूती खंड, बादशाह-दूती खंड, पद्मावती-गोरा-बादल-संवाद खंड, गोरा-बादल-युध्द-यात्राा खंड, गोरा-बादल-युध्द खंड, बंधन-मोक्ष; पद्मावती-मिलन खंड,- (संपादन – रामचंद्र शुक्ल )
कुंभलनेर राय देवपालू । राजा केर सत्राु हिय सालू॥
वह पै सुना कि राजा बाँधाा । पाछिल बैर सँवरि छर साधाा॥
सत्राुसाल तब नेवरै सोई । जौ घर आव सत्राु कै जोई॥
दूती एक बिरिधा तेहि ठाऊँ । बाम्हनि जाति, कुमोदिनि नाऊँ॥
ओहि हँकारि कै बीरा दीन्हा । तोरे बर मैं बर जिउ कीन्हा॥
तुइ जो कुमोदिनि कँवल के नियरे । सरग जो चाँद बसै तोहिहियरे॥
चितउर महँ जो पदमावति रानी । कर बर छर सौ दे मोहिं आनी॥
रूप जगत मन मोहन, औ पदमावति नावँ।
कोटि दरब तोहि देइहौं, आनि करसि एहि ठावँ॥1॥
कुमुदिनि कहा देखु, हौं सो हौं । मानुष काह, देवता मोहौं॥
जस काँवरू चमारिनि लोना । को नहिं छर पाढ़त कै टोना॥
बिसहर नाचहिं पाढ़त मारे । औ धारि मूँदहिं घालि पेटारे॥
बिरिछ चलै पाढ़त कै बोला । नदी उलटि बह परबत डोला॥
पढ़त हरै पंडित मन गहिरे । और को अंधा, गूँग औ बहिरे॥
पाढ़त ऐस देवतन्ह लागा । मानुष कहँ पाढ़त सौं भागा?॥
चढ़ि अकास कै काढ़त पानी । कहाँ जाइ पदमावति रानी॥
दूती बहुत पैज कै, बोली पाढ़त बोल।
जाकर सत्ता सुमेरु है, लागे जगत न डोल॥2॥
दूती बहुत पकावन साधो । मोतिलाडू औ खरौरा बाँधो॥
माठ, पिराकैं, फेनी, पापर । पहिरे बूझि, दूति के कापर॥
लेइ पूरी भरि डाल अछूती । चितउर चली पैज कै दूती॥
बिरिधा बैस जो बाँधो पाऊ । कहाँ सो जोबन, कित बेवसाऊ?॥
तन बूढ़ा, मन बूढ़ न होई । बल न रहा, पै लालच सोई॥
कहाँ सो रूप जगत सब राता । कहाँ सो गरब हस्ति जस माता॥
कहाँ सो, तीख नयन, तन ठाढ़ा । सबै मारि जोबन पन काढ़ा॥
मुहमद बिरिधा जो नइ चलैं, काह चलै भुइँ टोइ।
जोबन रतन हेरान है, मकु धारती महँ होइ॥3॥
आइ कुमोदिनि चितउर चढ़ी । जोहन मोहन पाढ़त पढ़ी॥
पूछि लीन्ह रनिवास बरोठा । पैठी पँवरी भीतर कोठा॥
जहाँ पदमावति ससि उजियारी । लेइ दूती पकवान उतारी॥
हाथ पसारि धााइ कैं भेंटी । चीन्हा नहिं राजा कै बेटी॥
हौं बाम्हनि जेहि कुमुदिनि नाऊँ । हम तुम उपने एकै ठाऊँ॥
नावँ पिता कर दूबे बेनी । सोइ पुरोहित गँधारबसेनी॥
तुम बारी तब सिंघलदीपा । लीन्हे दूधा पियाइउँ सीपा॥
ठाँव कीन्ह मैं दूसर, कुंभलनेरै आइ।
सुनि तुम्ह कहँ चितउर महँ, कहिउँ कि भेंटौं जाइ॥4॥
सुनि निसचैं नैहर कै कोई । गरे लागि पदमावति रोई॥
नैन गगन रबि बिनु ऍंधिायारे । ससि मुख ऑंसु टूट जनु तारे॥
जग ऍंधिायार गहन धानि परा । कब लगि सखि नखतन्ह निसिभरा॥
माय बाप कित जनमी बारी । गीउ तूरि कित जनम न मारी?॥
कित बियाहि दुख दीन्ह दुहेला । चितउर पंथ कंत बँदि मेला॥
अब एहि जियन चाहि भल मरना । भयउ पहार जनम दुख भरना॥
निकसि न जाइ निलज यह जीऊ । देखौं मँदिर सून बिनु पीऊ॥
कुहुकि जो रोई ससि नखत, नैन हैं रात चकोर।
अबहूँ बोलैं तेहि कुहुक, कोकिल, चातक, मोर॥5॥
कुमुदिनि कंठ लागि सुठि रोई । पुनि लेइ रूप डार मुख धाोई॥
तुइ ससि रूप जगत उजियारी । मुख न झाँपु निसि होइ ऍंधिायारी॥
सुनि चकोर कोकिल दुख दुखी । घुँघुची भई नैन करमुखी॥
केतौ धााइ मरैं कोइ बाटा । सोइ पाव जो लिखा लिलाटा॥
जो बिधिा लिखा आन नहिं होई । कित धाावै, कित रोवै कोई॥
कित कोउ हींछ करै औ पूजा । जो बिधिा लिखा होइ नहिं दूजा॥
जेतिक कुमूदिनि बैंन करेई । तस पदमावति òवन न देई॥
सेंदुर चीर मैल तस, सूखि रही जस फूल।
जेहि सिंगार पिय तजिगा, जनम न पहिरै भूल॥6॥
तब पकवान उधाारा दूती । पदमावति नहिं छुवै अछूती॥
मोहि अपने पिय केर खभारू । पान फूल कस होइ अहारू?॥
मोकहँ फूल भए सब काँटे । बाँटि देहु जौ चाहहु बाँटे॥
रतन छुआ जिन्ह हाथन सेंती । और न छुबौं सो हाथ सँकेती॥
ओहि के रँग भा हाथ मँजीठी । मुकुता लेउँ तौ घुँघची दीठी॥
नैन करमुहें राती काया । माती होहिं घुँघची जेहि छाया॥
अस कै ओछ नैन हत्यारे । देखत गा पिउ, गहै न पारे॥
का तोर छुवौं पकवान, गुड़ करुवा, घिउ रूख।
जेहि मिलि होत सवाद रस, लेइ सो गयउ पिउ भूख॥7॥
कुमुदिनी रही कवँल के पासा । बैरी सूर, चाँद कै आसा॥
दिन कुँभिलानि रही, भइ चूरू । बिगसि रैनि बातन्ह कर भूरू॥
कस तुइ, बारि! रहसि कुँभलानी । सूखि बेलि जस पाव न पानी॥
अबही कँवल करी तुइँ बारी । कोवँरि बैस, उठत पौनारी॥
बेनी तोरि मैलि औ रूखी । सरवर माहँ रहसि कस सूखी?॥
पान बेलि बिधिा कया जमाई । सींचत रहै तबै पलुहाई॥
करु सिंगार सुख फूल तमोरा । बैठु सिंहासन, झूलु हिंडोरा॥
हार चीर नीति पहिरहु, सिर कर करहु सँभार।
भोग मानि लेहु दिन दस, जोबन जात न बार॥8॥
बिहँसि जोजोबन कुमुदिन कहा । कवँल न बिगसा, संपुट रहा॥
ए कुमुदिनि! जोबनतेहि माहाँ । जो आछै पिउ के सुख छाहाँ॥
जाकर छत्रा सो बाहर छावा । सो उजार घर कौन बसावा?॥
अहा न राजा रतन ऍंजोरा । केहिक सिंघासन, केहिक पटोरा?॥
को पालक पौढ़े को माड़ी? । सोवनहार परा बँदि गाढ़ी॥
चहुँ दिसियह घर भा ऍंधिायारा । सब सिंगार लेइ साथ सिधाारा॥
क्या बेलि तब जानौं जामी । सींचनहार आव घर स्वामी॥
तौ लहि रहौं झुरानी, जौ लहि आव सो कंत।
एहि फूल, एहि सेंदुर, नव होइ उठै बसंत॥9॥
जिनि तुइ, बारि! करसि अस जीऊ । जौ लहि जोबन तौ लहिपीऊ॥
पुरुष संग आपन केहि केरा । एक कोहाँइ, दुसर सहुँ हेरा॥
जोबन जल दिन दिन जस घटा । भँवर छपान, हंस परगटा॥
सुभर सरोवर जौ लहि नीरा । बहु आदर पंखी बहु तीरा॥
नीर घटे पुनि पूछ न कोई । बिरसि जो लीज हाथ रह सोई॥
जौ लगि कालिंदि, होहि बिरासी । पुनि सुरसरि होइ समुद परासी॥
जोबन भँवर, फूल तन तोरा । बिरिधा पहुँचि जस हाथ मरोरा॥
कृस्न जो जोबन कारनै, गोपीतन्ह के साथ।
छरि कै जाइहि बानपै, धानुक रहै तोरे हाथ॥10॥
जौ पिउ रतनसेन मोर राजा । बिनु पिउ जोबन कौने काजा॥
जौ पै जिउ तौ जोबन कहे । बिनु जिउ जोबन काह सो अहे?॥
जो जिउ तौ यह जोबन भला । आपन जैस करै निरमला॥
कुल कर पुरुष सिंह जेहि खेरा । तेहि थर कैस सियार बसेरा?॥
हिया फार कूकुर तेहि केरा । सिंघहिं तजि सियार मुख हेरा॥
जोबन नीर घटे का घटा? । सत्ता के बर जौ नहिं हिय फटा॥
सघन मेघ होइ साम बरीसहिं । जोबन नव तरिवर होइ दीस¯ह॥
रावन पाप जो जिउ धारा, दुवौ जगत मुहँ कार।
राम सत्ता जो मन धारा, ताहि छरै को पार?॥11॥
कित पावसि पुनि जोबन राता । मैमँत चढ़ा साम सिर छाता॥
जोबन बिना बिरिधा होइ नाऊँ । बिनु जोबन थाकै सब ठाऊँ॥
जोबन हेरत मिलै न हेरा । सो जौ जाइ, करै नहिं फेरा॥
हैं जो केस नग भँवर जो बसा । पुनि बग होहिं, जगत सब हँसा॥
सेंवर सेव न चित करु सूआ । पुनि पछितासि अंत जब भूआ॥
रूप तोर जग ऊपर लोना । यह जोबन पाहुन चल होना॥
भोग बिलास केरि यह बेरा । मानि लेहु, पुनि को केहि केरा?॥
उठत कोंप जस तरिवर, तस जोबन तोहि रात।
तौ लगि रंग लेहु रचि, पुनि सो पियर होइ पात॥12॥
कुमुदिनि बैंन सुनत हिय जरी । पदमावति उरहि आगि जनु परी॥
रँग ताकर हौं जारौं काँचा । आपन तजि जो पराएहि राँचा॥
दूसर करै जाइ दुइ बाटा । राजा दुइ न होहिं एक पाटा॥
जेहि के जीउ प्रीति दिढ़ होई । मुख सोहाग सौं बैठे सोई॥
जोबन जाउ, जाउ सो भँवरा । पिय कै प्रीति न जाइ, सो सँवरा॥
एहि जग जौ पिउ करहिं न फेरा । ओहि जग मिलहिंजौदिनदिनहेरा॥
जोबन मोर रतन जहँ पीऊ । बलि तेहि पिउ पर जोबन जीऊ॥
भरथरि बिछुरि पिंगला, आहि करत जिउ दीन्ह।
हौं पापिनि जो जियत हौं, इहै दोष हम कीन्ह॥13॥
पदमावति! सो कौन रसोई । जेहि परकार न दूसर होई॥
रस दूसर जेहि जीभ बईठा । सो जानै रस खाटा मीठा॥
भँवर बास बहु फूलन्ह लेई । फूल बास बहु भँवरन्ह देई॥
दूसर पुरुष न रस तुइ पावा । तिन्ह जाना जिन्ह लीन्ह परावा॥
एक चुल्लू रस भरै न हीया । जौ लहि नहिं फिर दूसर पीया॥
तोर जोबन जस समुद हिलोरा । देखि देखि जिउ बूड़ै मोरा॥
रंग और नहिं पाइय वैसे । जरे मरे बिनु पाउब कैसे?॥
देखि धानुष तोर नैना, मोहिं लाग बिष बान।
बिहँसि कँवल जो मानै, भँवर मिलावौं आन॥14॥
कुमुदिनि! तुइ बैरिनि, नहिं धााई । तुइ मसि बोलि चढ़ावसि आई॥
निरमल जगत नीर कर नामा । जो मसि परै होइ सो सामा॥
जहँवा धारम पाप नहिं दीसा । कनक सोहाग माँझ जस सीसा॥
जो मसि परे होइ ससि कारी । सो मसि लाइ देसि मोहिं गारी॥
कापर महँ न छूट मसि अंकू । सो मसि लेइ मोहि देसि कलंकू॥
साम भँवर मोर सूरुज करा । और जो भँवर साम मसि भरा॥
कँवल भँवर रबि देखे ऑंखी । चंदन बास न बैठै माखी॥
साम समुद मोर निरमल, रतनसेन जग सेन।
दूसर सरि जौ कहावै, सो बिलाइ जस फेन॥15॥
पदमावति!पुनि मसि बोल न बैना । सो मसि देखु दुहूँ तोरे नैना॥
मसि सिंगार, काजर सब बोला । मसिक बुंद तिल सोह कपोला॥
लोना सोइ जहाँ मसि रेखा । मसि पुतरिन्ह तिन्ह सौं जग देखा॥
जो मसि घालि नयन दुहुँ लीन्ही । सो मसि फेरि जाइ नहिं कीन्ही॥
मसि मुद्रा दुइ कुच उपराहीं । मसि भँवरा जे कँवल भँवाहीं॥
मसि केसहि, मसि भौंह उरेही । मसि बिनु दसन सोह नहिं देही॥
सो कस सेत जहाँ मसि नाहीं? । सो कस पिंड न जेहि परछाहीं?॥
अस देवपाल राय मसि, छत्रा धारा सिर फेर।
चितउर राज बिसरिगा, गयउ जो कुंभलनेर॥16॥
सुनि देवपाल जो कुंभलनेरी । पंकजनैन भौंह धानु फेरी॥
सत्राु मोरे पिउ करदेवपालू । सो कित पूत सिंघ सरि भालू?॥
दु:ख भरा तन जेत न केसा । तेहि का सँदेस सुनावसि बेसा?॥
सोन नदी अस मोर पिउ गरुवा । पाहन होइ परै जौ हरुवा॥
जेहि ऊपर अस गरुवा पीऊ । सो कस डोलाए डोलै जीऊ?॥
फेरत नैन चेरि सौ छूटीं । भइ कूटन कुटनी तस कूटीं॥
नाक कान काटेन्हि, मसि लाई । मूँड़ मूँड़ि कै गदह चढ़ाई॥
मुहमद बिधिा जेहि गरुड़ गढ़ा, का कोई तेहि फूँक।
जेहि के भाग जग थिर रहा, उड़ै न पवन के झूँक॥17॥
(1) राजा केर=राजा रत्नसेन का। हियसालू=हृदय में कसकनेवाला। पै=निश्चय। छर=छल। सत्राुसाल तब नेबरै=शत्राु के मन की कसर तब पूरी-पूरी निकलती है। नेवरै=पूरी होती है। जोइ=जोय, स्त्राी।
(2) का नहिं छर=कौन नहीं छला गया? पाढ़त कै=पढ़ते हुए। पाढ़त=पढ़ंत, मंत्रा जो पढ़ा जाता है, टोना, मंत्रा, जादू। भागा=बचकर जा सकता है। पैज=प्रतिज्ञा।
(3) पकावन=पकवान। साधो=बनवाए। खरौरा=ख्रडौरा, खाँड़ या मिòी के लड्डू। बूझि=खूब सोच समझकर। कापर=कपड़े। डाल=डला या बड़ा थाल। जौ बाँधो पाऊ=जब पैर बाँधा दिए अर्थात् बेबस कर दिया। बेबसाऊ=व्यवसाय, रोजगार। तन ठाढ़ा=तनी हुई देह।
(4) जोहन मोहन=देखते ही मोहनेवाला। बरोठा=बैठकखाना। चीन्हा नहिं=क्या नहीं पहचाना? जेहि=जिसका। उपने=उत्पन्न हुए। लीन्हे=गोद में लिये। सीपा=सीप में रखकर, शुक्ति में। (इधार स्त्रिायाँ छोटे बच्चों को ताल की सीपों में रखकर दूधा पिलाती हैं क्योंकि उसका आकार चम्मच का सा होता है)।
(5) नैहर=मायका, पीहर। नैन गगन=गगन नयन, नेत्रारूपी आकाश। जनमी=जनी, पैदा की। बारी=लड़की। तूरि=तोड़कर, मरोड़कर। जनम=जन्म काल में ही। कंत बँदि=पति की कैद में। जियन चाहि=जीने की अपेक्षा। कुहुकि=कूककर। तेहि कुहुक=उसी कूक से उसी कूक को लेकर।
(6) सुठि=खूब। रूपडार=चाँदी का थाल या परात। केतौ=कितना ही। हींछ=इच्छा बैन करेई=बकवाद करती है। भूल=भूल, भूलकर भी।
(7) उघारा=खोला। खभारू=खभार, शोक। हाथन्ह सेंती=हाथों से। हाथ सकेती=हाथ से बटोरकर। मुकता लेउँ दीठी=हाथ में मोती लेते ही हाथों की ललाई से (जो रत्नसेनरूपी रत्न या माणिक्य के स्पर्श के प्रभाव से है) वह लाल हो जाता है, फिर जब उसकी ओर देखती हूँ तब पुतली की छाया पड़ने से उसके ऊपर काला दाग भी दिखाई देने लगता है, इस प्रकार वह मोती घुँघची दिखाई पड़ता है अर्थात् उसका कुछ भी मूल्य मुझे नहीं मालूम होता। राती=लाल। छाया=लाल और काली छाया से।
(8) कँवल=अर्थात् पदमावती। बैरी सूर… आसा=कुमुदिनी का बैरी सूर्य है और वह कुमुदिनी चंद्र की आशा में है अर्थात् उस दूती का रत्नसेन शत्राु है और वह दूती पदमावती को प्राप्त करने की आशा में है। बिगसि रैनि…भूरू=रत्नसेन के अभावरूपी रात में विकसित या प्रसन्न होकर बातों से भुलाया चाहती है। रहसि=तू रहती है। कोवँरि=कोमल। पौनारि=मृणाल। बार=देर।
(9) ऍंजोरा=प्रकाशवाला। माढ़ी=मंच, मचिया। बँदि=बँदी में। एहि फूल=इसी फूल से
(10) कोहाँइ=रूठती है। सहुँ=सामने। भँवर=(क) पानी का भँवर, (ख) भौंरे के समान काले केश। भँवर छपान…परगटा=पानी का भँवर गया और हंस आया (जल की बरसाती बाढ़ हट जाने पर शरत् में हंस आ जाते हैं) अर्थात् काले केश न रह गए, सफेद बाल हुए। बिरसि जो लीज=जो बिलस लीजिए, जो विलास कर लीजिए। जौ लगि कालिंदि…परासी=जब तक कालिंदी या जमुना है विलास कर ले फिर तो गंगा में मिलकर, गंगा होकर, समुद्र में दौड़कर जाना ही पड़ेगा, अर्थात् जब तक काले बालों का यौवन है तब तक विलास कर ले फिर तो सफेद बालोंवाला बुढ़ापा आवेगा और मृत्यु की ओर झटपट ले जायगा। बिरासी=विलासी। परासी=तू भागती है अर्थात् भागेगी। जोबन भँवर…तोरा=इस समय जोबनरूपी भौंरा (काले केश) हैं और फूल सा तेरा शरीर है। बिरिधा=वृध्दावस्था। हाथ मरोरा=इस फूल को हाथ से मल देगा। बान=(क) तीर, (ख) वर्ण, कांति। धानुक=टेढ़ी कमर।
(11) आपन जैस=अपने ऐसा। खेरा=घर, बस्ती। थर=स्थल, जगह। फार=फाड़ै। सत्ता के…फटा=यदि सत्य के बल से हृदय न फटे अर्थात् प्रीति में अंतर न पड़े (पानी घटने से ताल की जमीन में दरारें पड़ जाती हैं) छरै को पार=कौन छल सकता है।
(12) राता=ललित। साम सिर छाता=अर्थात् काले केश। थाकै=थक जाता है। बग=बगुलों के समान श्वेत। चल होना=चल देनेवाला है। कोंप=कोंपल, कल्ला। रँग लेहु रचि=(क) रंग लो, (ख) भोग-विलास कर लो।
(13) काँचा=कच्चा। राँचा=अनुरक्त हुआ। जाइ दुइ बाटा=दुर्गति को प्राप्त होता है। जाउ=चाहे चला जाय। भँवरा=काले केश। सँवरा=जिसका स्मरण किया करती हूँ। जौ दिन दिन हेरा=यदि लगातार ढूँढ़ती रहूँगी।
(14) कौनि रसोई=किस काम की रसोई है! जेहि परकार…होई=जिसमें दूसरा प्रकार न हो, जो एक ही प्रकार की हो। दूसर पुरुष=दूसरे पुरुष का। बैसे=बैठे रहने से, उद्योग न करने से। आन=दूसरा।
(15) धााई=धााय, धाात्राी। मसि चढ़ावसि=मेरे ऊपर तू स्याही पोतती है। जस सीसा=जैसे सीसा नहीं दिखाई पड़ता है। लाइ=लगाकर। कापर=कपड़ा। सरि=(क) बराबरी का; (ख) नदी।
(16) घालि लीन्ही=डाल रखी है। मुद्रा=मुहर। उपराहीं=ऊपर। भँवाहीं=घूमते हैं। कँवल=कमल को, कमल के चारों ओर। सो कस…नाहीं=ऐसी सफेदी कहाँ जहाँ स्याही नहीं, अर्थात् स्याही के भाव के बिना सफेदी की भावना हो ही नहीं सकती। पिंड=साकार वस्तु या शरीर। जेंहि=जिसमें।
(17) भौंह धानु फेरी=क्रोधा से टेढ़ी भौं की। सरि पूज=बराबरी को पहुँच सकता है। दुख भरा तन…केसा=शरीर में जितने रोएँ या बाल नहीं उतने दु:ख भरे हुए हैं। सोन नदी…गरुवा=महाभारत में शिला नाम की एक ऐसी नदी का उल्लेख है जिसमें कोई हल्की चीज डाल दी जाए तो वह डूब जाती है और पत्थर हो जाती है। मेगस्थनीज ने भी ऐसा ही लिखा है। गढ़वाल के कुछ सोतों के पानी में इतना रेत और चूना रहता है कि पड़ी हुई लकड़ी पर क्रमश: जमकर उसे पत्थर के रूप में कर देता है। पाहन होइ…हरुवा=हलकी वस्तु भी हो तो उसमें पड़ने पर पत्थर हो जाती है। चेरि=दासियाँ। छूटीं=दौड़ीं। कूटन=कुटाई, प्रहार। कुटनी=कुट्टिनी, दूती। झूँक=झोंका।
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रानी धारमसार पुनि साजा । बंदि मोख जेहि पावहिं राजा॥
जावत परदेसी चलि आवहि । अन्नदान औ पानी पावहिं॥
जोगि जती आवहिं जत कंथी । पूछै पियहि, जान कोइ पंथी॥
दान कौ देत बाहँ भइ ऊँची । जाइ साह पहँ बात पहूँची॥
पातुरि एक हुति जोगि सवाँगी । साह अखारे हुँत ओहि माँगी।
जोगिनि भेस बियोगिनि कीन्हा । सींगी सबद मूल तँत लीन्हा॥
पदमावति पहँ पटई करि जोगिनि । बेगि आनु करि बिरह बियोगिनि॥
चतुर कला मनमोहन, परकाया परवेस।
आइ चढ़ी चितउर गढ़, होइ जोगिनि के भेस॥1॥
माँगत राजवार चलि आई । भीतर चेरिन्हं बात जनाई॥
जोगिनि एक बार है कोई । माँगै जैसि बियोगिनि सोई॥
अबहीं नव जोबन तप लीन्हा । फारि पटोरहि कंथा कीन्हा॥
बिरह भभूत, जटा बैरागी । छाला काँधा, जाप कँठ लागी॥
मुद्रा òवन, नाहिं थिर जीऊ । तन तिरसूल अधाारी पीऊ॥
छात न छाँह धाूप जनु मरई । पावँ न पवँरी, भूभुर जरई॥
सिंगी सबद धाँधाारी करा । जरै सो ठाँव पाँव जहँ धारा॥
किंगरी गहे बियोग बजावै, बारहि बार सुनाव।
नयन चक्र चारिउ दिसि (हेरहिं) दहुँ दरसन कब पाव॥2॥
सुनि पदमावति मँदिर बोलाई । पूछा कौन देस तें आई?॥
तरुन बैस तोहिं छाज न जोगू । केहि कारन अस कीन्ह बियोगू?॥
कहेसि बिरह दुख जान न कोई । बिरहिन जान बिरह जेहि होई॥
कंत हमार गयउ परदेसा । तेहि कारन हम जोगिनि भेसा॥
काकर जिउ जोबन औ देहा । जौ पिउ गयउ, भयउ सब खेहा॥
फारि पटोर कीन्ह मैं कंथा । जहँ पिउ मिलहिं लेउँ सो पंथा॥
फिरौं, करौं चहुँ चक्र पुकारा । जटा परीं का सीस सँभारा?॥
हिरदय भीतर पिउ बसै, मिलै न पूछौं काहि?
सून जगत सब लागै, ओहि बिनु किछु नहिं आहि॥3॥
òवन छेद महँ मुद्रा मेला । सबद ओनाउँ कहाँ पिउ खेला॥
तेहि बियोग सिंगी निति पूरौं । बार बार किंगरी लेइ झूरौं॥
को मोहिं लेइ पिउ कंठलगावै । परम अधाारी बात जनावै॥
पाँवरि टूटि चलत, पर छाला । मन न मरै तन जोबन बाला॥
गयउँ पयाग मिला नहिं पीऊ । करबत लीन्ह, दीन्ह बलि जीऊ॥
जाइ बनारस जारिउँ कया । पारिउँ पिंड नहाइउँ गया॥
जगन्नाथ जगरन कै आई । पुनि दुवारिका जाइ नहाई॥
जाइ केदार दाग तन, तहँ न मिला तिन्ह ऑंक।
ढूँढ़ि अयोधया आइउँ, सरग दुवारी झाँक॥4॥
गउमुख हरिद्वार फिर कीन्हिउँ । नगरकोट कटि रसना दीन्हिउँ॥
ढूँढ़िउँ बालनाथ कर टीला । मथुरा मथिउँ, न सो पिउ मीला॥
सुरुजकुंड महँ जारिउँ देहा । बद्री मिला न जासौं नेहा॥
रामकुंड, गोमति, गुरुद्वारू । दाहिन वरत कीन्ह कै बारू॥
सेतुबंधा, कैलास, सुमेरू । गइउँ अलकपुर जहाँ कुबेरू॥
बरम्हावरत ब्रह्मावति परसी । बेनी संगम सीझिउँ करसी॥
नीमषार मिसरिख कुरुछेता । गोरखनाथ अस्थान समेता॥
पटना पुरुब सो घर घर, हाँड़ि फिरिउँ संसार॥
हेरत कहूँ न पिउ मिला, ना कोइ मिलवनहार॥5॥
बन बन सब हेरेउँ नवखंडा । जल जल नदी अठारह गंडा॥
चौंसठ तीरथ के सब ठाऊँ । लेत फिरिउँ ओहि पिउ कर नाऊँ॥
दिल्ली सब देखिउँ तुरकानू । औ सुलतान केर बँदिखानू॥
रतनसेन देखिउँ बँदि माहाँ । जरै धाूप, खन पाव न छाहाँ॥
सब राजहि बाँधो औ दागे । जोगिनि जान राज पग लागे॥
का सो भोग जेहि अंत न केऊ । यह दुख लेइ सो गएउ सुखदेऊ॥
दिल्ली नावँ न जानहुँ ढीली । सुठि बँदि गाढ़ि निकस नहिं कीली॥
देखि दगधा दुख ताकर, अबहुँ कया नहिं जीउ।
सो धानि कैसे दहुँ जियै, जाकर बँदि अस पीउ?॥6॥
पदमावति जौ सुना बँदि पीऊ । परा अगिनि महँ मानहुँ घीऊ॥
दौरि पायँ जोगिनि के परी । उठी आगि अस जोगिनि जरी॥
पायँ देहि, दुइ नैनन्ह लाऊँ । लेइ चलु तहाँ कंत जेहि ठाऊँ॥
जिन्ह नैनन्ह तुइ देखा पीऊ । मोहिं देखाउ, देहुँ बलि जीऊ॥
सत औ धारम देहुँ सब तोहीं । पिउ कै बात कहै जौ मोहीं॥
तुइ मोर गुरु, तोरि हौं चेली । भूली फिरत पंथ जेहि मेली॥
दंड एक माया करु मोरे । जोगिनि होउँ, चलौं सँग तोरे॥
सखिन्ह कहा, सुनु रानी, करहु न परगट भेस।
जोगी जोगवै गुपुत मन, लेइ गुरु कर उपदेस॥7॥
भीख लेहु, जोगिनि! फिरि माँगू । कंत न पाइय किए सवाँगू॥
यह बड़ जोग बियोग जो सहना । जेहुँ पीउ राखै तेहुँ रहना॥
घर ही महँ रहु भई उदासा । ऍंजुरी खप्पर, सिंगी साँसा॥
रहै प्रेम मन अरुझा गटा । विरह धाँधाारि, अलक सिर जटा॥
नैन चक्र हेरै पिउ पंथा । कया जो कापर सोई कंथा॥
छाला भूमि, गगन सिर छाता । रंग करत रह हिरदय राता॥
मन माला फेरै तँत ओही । पाँचौ भूत भसम तन होहीं॥
कुंडल सोइ सुनु पिउ कथा, पँवरि पाँव पर रेहु।
दंडक गोरा बादलहि, जाइ अधाारी लेहु॥8॥
(1) धारमसार=धार्मशाला, सदावर्त, खैरातखाना। मोख पावहिं=छूटें। जत=जितन। हुँत=थी। जोगि सवाँगी=जोगिन का स्वाँग बनानेवाली। अखारे हुँत=रंगशाला से, नाचघर से। माँगी=बुला भेजा। तंत=तत्तव। कला मनमोहन=मन मोहने की कला में।
(2) राजवार=राजद्वार। बार=द्वार। तन तिरसूल…पीऊ=सारा शरीर ही त्रिाशूलमय हो गया है और अधाारी के स्थान पर प्रिय ही है अर्थात् उसी का सहारा है। पवरी=चट्टी या खड़ाऊँ। भूभुर=धाूप से तपी धाूल या बालू। धाँधाारी=गोरखधांधाा।
(3) छाज न=नहीं सोहाता। खेहा=धाूल, मिट्टी। चहुँ चक्र=पृथ्वी के चारों ओर खूँट में। आहि=है।
(4) ओनाउँ=झुकती हूँ, झुककर कान लगाती हूँ। सबद ओनाउँ…खेला=आहट लेने के लिए
कान लगाए रहती हूँ कि प्रिय कहाँ गया। झूरौं=सूखती हूँ। अधाारी=सहारा देनेवाली। पर=पड़ता
है। बाला=नवीन। जगरन=जागरण। दाग=दागा, तप्त मुद्रा ली। तिन्ह=उस प्रिय का। ऑंक=चिद्द, पता। सरगदुवारी=अयोधया में एक स्थान।
(5) गउमुख=गोमुख तीर्थ, गंगोत्तारी का वह स्थान जहाँ से गंगा निकलती है। नगरकोट=नागरकोट, जहाँ देवी का स्थान है। कटि रसना दीन्हिउँ=जीभ काटकर चढ़ाई। बालनाथ कर टीला=पंजाब में सिंध और झेलम के बीच पड़नेवाले नमक के पहाड़ों की एक चोटी। मील=मिला। सुरुजकुंड=अयोधया, हरिद्वार आदि कई तीर्थों में इस नाम के कुंड हैं। बद्री=बदरिकाश्रम में। कै बारू कई बार। अलकपुर=अलकापुरी। ब्रम्हावति=कोई नदी। करसी=करीषाग्नि में, उपलों की आग में। हाँडि फिरिउँ=छान डाला, ढूँढ़ डाला, टटोल डाला।
(6) राज पग लागे=राजा ने प्रणाम किया। न केऊ=पास में कोई न रह जाय। (यह दुख) लेइ गयउ=लेने या भोगने गया। सुखदेऊ=सुख देनेवाला तुम्हारा प्रिय। दिल्ली नावँ=दिल्ली इस नाम से (पृथ्वीराज रासो में किल्ली ढिल्ली कथा है)। सुठि=खूब। कीली=कारागार के द्वार का अर्गल। अबहुँ क्या नहिं जीउ=अब भी मेरे होश ठिकाने नहीं।
(7) माया=मया, दया।
(8) फिरि माँगू=जाओ, और जगह घूमकर माँगो। सवाँग=स्वाँग, नकल, आडंबर। यह बड़…सहना=वियोग का जो सहना है यही बड़ा भारी योग है। जेहुँ=जैसे, ज्यों, जिस प्रकार। तेहुँ=त्यों, उस प्रकार। सिंगी साँसा=लंबी साँस लेने को ही सिंगी फूँकना (बजाना) समझो। गटा=गटरमाला। रहै प्रेम…गटा=जिसमें उलझा हुआ मन है उसी प्रेम को गटरमाला समझो। छाल=मृगछाला। तँत=तंत, तत्व या मंत्रा। पाँचौ भूत…होहीं=शरीर के पंचभूतों को ही रमी हुई भभूत या भस्म समझो। पँवरि पाँच पर रेहु=पाँव पर जो धाूल लगे उसी को खड़ाऊँ समझ। अघारी=अव्े के आकार की लकड़ी जिसे सहारे के लिए साधाु रखते हैं। अधाारी लेहु=सहारा लो।
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सखिन्ह बुझाई दगधा अपारा । गइ गोरा बादल के बारा॥
चरन कँवल भुइँ जनम न धारे । जात तहाँ लगि छाला परे॥
निसरि आए छत्राी सुनि दोऊ । तस काँपे जस काँप न कोऊ॥
केस छोरि चरनन्ह रज झारा । कहाँ पावँ पदमावति धाारा?॥
राखा आनि पाट सोनबानी । बिरह बियोगिनि बैठी रानी॥
दोउ ठाढ़ होइ चँवर डोलावहिं । माथे छात, रजायसु पावहिं॥
उलटि बहा गंगा कर पानी । सेवक बार आइ जो रानी॥
का अस कस्ट कीन्ह तुम, जो तुम्ह करत न छाज।
अज्ञा होइ बेगि सो, जीउ तुम्हारे काज॥1॥
कही रोइ पदमावति बाता । नैनन्ह रकत दीख जग राता॥
उथल समुद जस मानिक भरे । रोइसि रुहिर ऑंसु तस ढरे॥
रतन के रंग नैन पै वारौं । रती रती कै लोहू ढारौं॥
भँवरा ऊपर कँवल भवावौं । लेइ चलु तहाँ सूर जहँ पावौं॥
हिय कै हरदिबदन कै लोहू । जिउ बलि देउँ सो सँवरि बिछोहू॥
परहिं ऑंसु जस सावन नीरू । हरियरि भूमि, कुसुंभी चीरू॥
चढ़ीं भुअंगिनि लट लट केसा । भइ रोवति जोगिन के भेसा॥
बीर बहूटी भइ चलीं, तबहुँ रहहिं नहिं ऑंसु।
नैनहिं पंथ न सूझे, लागेउ भादौं मासु॥2॥
तुम गोरा बादल ख्रभ दोऊ । जस रन पारथ और न कोऊ॥
दुख बरखा अब रहै न राखा । मूल पतार, सरग भइ साखा॥
छाया रही सकल महि पूरी । बिरह बेलि भइ बाढ़ि खजूरी।
तेहि दुख लेत बिरिछ बन बाढ़े । सीस उघारे रोवहिं ठाढ़े।
पुहुमि पूरि सायर दुख पाटा । कौड़ी केर बेहरि हिय फाटा॥
बेहरा हिये खजूर क बिया । बेहर नाहिं मोर पाहन हिया॥
पिय जेहि बँदि जोगिनि होइ धाावौं । हौं बँदि लेउँ, पियहिं मुकरावौं॥
सूरुज गहन गरासा, कँवल न बैठे पाट।
महूँ पंथ तेहि गवनब, कंत गए जेहि बाट॥3॥
गोरा बादल दोउ पसीजे । रोवत रुहिर बूड़ि तन भीजे॥
हम राजा सौं इहै कोहाँने । तुम न मिलौ, धारिहै तुरकाने॥
जा मति सुनि हम गए कोहाँई । सो निआन हम्ह माप आई॥
जौ लगि जिउ, नहिं भागहिं दोऊ । स्वामि जियत कित जोगिनिहोऊ॥
उए अगस्त हस्ति जब गाजा । नीर घटे घर आइहि राजा॥
बरषा गए, अगस्त जो दीठिहि । परिहि पलानि तुरंगम पीठिहि॥
वेधाौं राहु, छोड़ावहुँ सूरू । रहै न दुख कर मूल ऍंकूरू॥
सोइ सूर, तुम ससहर, आनि मिलावौं सोइ।
तस दुख महँ सुख उपजै, रैनि माहँ दिन होइ॥4॥
लीन्ह पान बादल औ गोरा । केहि लेइ देउँ उपम तुम्ह जोरा?॥
तुम सावंत, न सरवरि कोऊ । तुम्ह हनुवंत ऍंगद सम दोऊ॥
तुम अरजुन और भीम भुवारा । तुम बल रन दल मंडनहारा॥
तुम टारन भारन्ह जग जाने । तुम सुपुरुष जस करन बखाने॥
तुम बलबीर जैस जगदेऊ । तुम संकर औ मालकदेऊ॥
तुम अस मोरे बादल गोरा । काकर मुख हेरौं, बँदिछोरा?॥
जस हनुवँत राघव बँदि छोरी । तस तुम छोरि मेरावहु जोरी॥
जैसे जरत लखाघर, साहस कीन्हा भीउँ।
जरत खम्भ तस काढ़हु, कै पुरुषारथ जीउ॥5॥
राम लखन तुम दैत सँघारा । तुमहीं घर बलभद्र भुवारा॥
तुमहीं द्रोन और गंगेऊ । तुम्ह लेखौं जैसे सहदेऊ॥
तुमहिं युधिाष्ठिर और दुरजोधान । तुमहिं नील नल दोउ संबोधान॥
परसुराम राघव तुम जोधाा । तुम्ह परतिज्ञा तें हिय बोधाा॥
तुमहिं सत्राुहन भरतकुमारा । तुमहिं कृस्न चानूर सँघारा॥
तुम परदुम्न औ अनिरुधा दोऊ । तुम अभिमन्यु बोल सब कोऊ॥
तुम्ह सरि पूज न बिक्रम साके । तुम हमीर हरिचँद सत ऑंके॥
जस अति संकट पंडवन्ह, भयउ भीवँ बँदिछोर।
तस परबस पिउ काढ़हु, राखि लेहु भ्रम मोर॥6॥
गोरा बादल बीरा लीन्हा । जस हनुवँत ऍंगद बर कीन्हा॥
सजहु सिंघासन, तानहु छातू । तुम्ह माथे जुग जुग अहिवातू॥
कँवल चरनभुइँ धारि दुख पावहु । चढ़ि सिंघासन मँदिर सिधाावहु॥
सुनतहि सूर कँवल हिय जागा । केसरि बरन फूल हिय लागा॥
जनु निसि महँ दिन दीन्ह देखाई । भा उदोत, मसि गई बिलाई॥
चढ़ी सिंघासन झमकति चली । जानहु चाँद दुइज निरमली॥
औ सँग सखी कुमोद तराईं । ढारत चँवर मँदिर लेइ आईं॥
देखि दुइज सिंघासन, संकर धारा लिलाट।
कँवल चरन पदमावति, लेइ बैठारी पाट॥7॥
(1) बारा=द्वार पर। काँपे=चौंक पड़े। सोनवानी=सुनहरी। माथे छात=आपके माथे पर सदा छत्रा बना रहे। बार=द्वार पर। का=क्या। तुम्ह न छाज=तुम्हें नहीं सोहाता।
(2) दीख=दिखाई पड़ा। राता=लाल। उथल=उमड़ता है। रुहिर=रुधिर। रँग=रंग पर। पै=अवश्य, निश्चय। भँवरा=रत्नसेन। कँवल=नेत्रा (पद्मावती के)। हरदि=कमल के भीतर छाते का रंग पीला होता है। बदन कै लोहू=कमल के दल का रंग रक्त होता है।
(3) ख्रभ=खंभे, राज्य के आधाार स्वरूप। पारथ=पार्थ, अर्जुन। बरखा=वर्षा में। तेहिं दुख लेत…बाढ़े=उसी दु:ख की बाढ़ को लेकर जंगल के पेड़ बढ़कर इतने ऊँचे हुए हैं। बेहरि=बिदीर्ण होकर। जेहि बँदि=जिस बंदीगृह में। मुकरावौं=मुक्त कराऊँ, छुड़ाऊँ।
(4) तुरकान=मुसलमान लोग। उए अगस्त=अगस्त्य के उदय होने पर, शरत् आने पर। हस्ति जब गाजा=हाथी चढ़ाई पर गरजेंगे, या हस्त नक्षत्रा गरजेगा। आइहि=आएगा। दीठिहि=दिखाई पड़ेगा। परिहि पलानि…पीठिहि=घोड़ों की पीठ पर जीन पड़ेगी, चढ़ाई के लिए घोड़े कसे जाएँगे। ऍंकूरू=अंकुर। ससहर=शशधार, चन्द्रमा।
(5) लीन्ह पान=बीड़ा लिया, प्रतिज्ञा की। केहि…जोरा=यहाँ से पदमावती के वचन हैं। सावंत=सामंत। भुवारा=भूपाल। टारन भारन्ह=भार हटानेवाले। करन=कर्ण। मालकदेऊ=मालदेव (?)। बँदिछोर=बंधान छुड़ानेवाले। लखाघर=लाक्षागृह। खंभ=राज्य का स्तंभ, रत्नसेन।
(6) दैत सँघारा=दैत्यों का संहार करनेवाले। गंगेऊ=गांगेय, भीष्म पितामह। तुम्ह लेखौं=तुमको समझती हूँ। संबोधान=ढाँढ़स देने वाले। तुम्ह परतिज्ञा=तुम्हारी प्रतिज्ञा से। बोधाा=प्रबोधा, तसल्ली। सत ऑंके=सत्य की रेखा खींची है। भ्रम=प्रतिष्ठा, सम्मान।
(7) बर=बल। अहिवातू=सौभाग्य, सोहाग। उदोत=प्रकाश। देखि दुइज…लिलाट=दूज के चंद्रमा को देख उसे बैठने के लिए शिवजी ने अपना लिलाटरूपी सिंहासन रखा अर्थात् अपने मस्तक पर रखा।
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बादल केरि जसौवै माया । आइ गहेसि बादल कर पाया॥
बादल राय! मोर तुइ बारा । का जानसि कस होइ जुझारा॥
बादसाह पुहुमीपति राजा । सनमुख होइ न हमीरहि छाजा॥
छत्तिास लाख तुरय दर साजहिं । बीस सहस हस्ती रन गाजहिं॥
जबहीं आइ चढ़ै दल ठटा । दीखत जैसि गगन घन घटा॥
चमकहिं खड़ग जो बीजु समाना । घुमरहिं गलगाजहिं नीसाना॥
बरिसहिं सेल बान घनघोरा । धाीरज धाीर न बाँधिाहि तोरा॥
जहाँ दलपती दलि मरहिं, तहाँ तोर का काज।
आजु गवन तोर आवै, बैठि मानु सुख राज॥1॥
मातु! न जानसि बालक आदी । हौं बादला सिंह रनबादी॥
सुनि गजजूह अधिाक जिउ तपा । सिंघ क जाति रहै किमिछपा?॥
तौ लगि गाज न गाज सिंघेला । सौंह साह सौं जुरौं अकेला॥
को मोहिं सौंह होइ मैमंता । फारौं सूँड़, उखारौं दंता॥
जुरौं स्वामि सँकरे जस ढारा । पेलौं जस दुरजोधान भारा॥
अंगद कोपि पाँव जस राखा । टेकौं कटक छतीसौ लाखा॥
हनुवँत सरिस जंघ बर जोरौं । दहौं समुद्र, स्वामि बँदि छोरौं॥
सो तुम, मातु जसौवै। मोंहि न जानहु बार।
जहँ राजा बलि बाँधाा छोरौं पैठि पतार॥2॥
बादल गवन जूझ कर साजा । तैसेहि गवन आइ घर बाजा॥
का बरनौं गवने कर चारू । चंद्रबदनि रुचि कीन्ह सिंगारू॥
माँग मोति भरि सेंदुर पूरा । बैठ मयूर, बाँक तस जूरा॥
भौंहैं धानुक टकोरि परीखे । काजर नैन, मार सर तीखे॥
घालि कचपची टीका सजा । तिलक जो देख ठाँव जिउ तजा॥
मनि कुंडल डोलैं दुइ òवना । सीस धाुनहिं सुनि सुनि पिउ गवना॥
नागिनि अलक, झलक उर हारू । भयउ सिंगार कंत बिनु भारू॥
गवन जो आवा पँवरि महँ, पिउ गवने परदेस।
सखी बुझावहिं किमि अनल, बुझै सो केहि उपदेस?॥3॥
मानि गवन सो घूँघुट काढ़ी । बिनवै आइ बार भइ ठाढ़ी॥
तीखे हेरि चीर गहि ओढ़ा । कंत न हेर, कीन्हि जिउ पोढ़ा॥
तब धानि बिहँसि कीन्ह सहुँ दीठी । बादल ओहि दीन्हि फिरिपीठी॥
मुख फिराइ मन अपने रीसा । चलत न तिरिया कर मुख दीसा॥
भा मिन मेष नारि के लेखे । कस पिउ पीठि दीन्हि मोहिं देखे॥
मकु पिउ दिस्टि समानेउसालू । हुलसी पीठि कढ़ावौं फालू॥
कुच तूँबी अब पीठि गड़ोवौं । गहै जो हूकि, गाढ़ रस धाोवौं॥
रहौं लजाइ त पिउ चलै, गहौं त कह मोहिं ढीठ।
ठाढ़ि तेवानि कि का करौं, दूभर दुऔ बईठ॥4॥
लाज किए जौ पिउ नहिं पाबौं । तजौं लाज कर जोरि मनावौं॥
करि हठ कंत जाइ जेहि लाजा । घूँघुट लाज आवा केहि काजा॥
तब धानि बिहँसि कहा गहि फेंटा । नारि जो बिनबै कंत न मेटा॥
आजु गवन हौं आई नाहाँ । तुम न, कंत! गवनहु रन माहाँ॥
गवन आव धानि मिलै के ताईं । कौन गवन जौ बिछुरै साईं॥
धानि न नैन भरि देखा पीऊ । पिउ न मिला धानि सौं भरि जीऊ॥
जहँ अस आस भरा है केवा । भँवर न तजै बास रसलेवा॥
पायँन्ह धारा लिलाट धानि, बिनय सुनहु, हो राय!।
अलकपरी फँदवार होइ, कैसेहु तजै न पाय॥5॥
छाँड़घ फेंट धानि! बादल कहा । पुरुष गवन धानि फेंट न गहा॥
जो तुइ गवन आइ, गजगामी । गवन मोर जहँवा मोर स्वामी॥
जौ लगि राजा छूटि न आवा । भावै बीर, सिंगार न भावा॥
तिरिया भूमि खड़ग कै चेरी । जीत जो खड़ग होइ तेहि केरी॥
जेहि घर खड़ग मोंछ तेहिं गाढ़ी । जहाँ न खड़ग मोंछ नहिं दाढ़ी॥
तब मुँह मोछ, जीउ पर खेलौं । स्वामि काज इंद्रासन पेलौं॥
पुरुष बोलि कै टरै न पाछू । दसन गयंद, गीउ नहिं काछू॥
तुइ अबला धानि! कुबुधिा बुधिा, जानै काह जुझार।
जेहि पुरुषहि हिय बीररस, भावै तेहि न सिंगार॥6॥
जौ तुम चहहु जूझि, पिउ! बाजा । कीन्ह सिंगार जूझ मैं साजा॥
जोबन आइ सौंह होइ रोपा । बिखरा बिरह, काम दल कोपा॥
बहेउ बीररस सेंदुर माँगा । राता रुहिर खड़ग जस नाँगा॥
भौंहैं धानुक नैन सर साधो । काजर पनच, बरुनि बिष बाँधो॥
जनु कटाछ स्यों सान सँवारे । नखसिख बान सेल अनियारे॥
अलक फाँस गिउ मेल असूझा । अधार अधार सौं चाहहिं जूझा॥
कुंभस्थल कुच दोउ मैमंता । पेलौं सौंह, सँभारहु, कंता?॥
कोप सिंगार, बिरह दल, टूटि होइ दुइ आधा।
पहिले मोहिं संग्राम कै, करहु जूझ कै साधा॥7॥
एकौ बिनति न मानै नाहाँ । आगि परी चित उर धानि माहाँ॥
उठा जो धाूम नैन करवाने । लागे परै ऑंसु झहराने॥
भीजै हार, चीर हिय चोली । रही अछूत कंत नहिं खोली॥
भीजी अलक छुए कटि मंडन । भीजे कँवल भँवर सिर फुंदन॥
चुइ चुइ काजर ऑंचर भीजा । तबहुँ न पिउ कर रोवँ पसीजा॥
जौ तुम कंत! जूझ जिउ कांधाा । तुम किय साहस, मैं सत बाँधाा1॥
रन संग्राम जूझि जिति आवहु । लाज होइ जौ पीठि देखावहु॥
तुम्ह पिउ साहस बाँधाा, मैं दिय माँग सेंदूर।
दोउ सँभारे होइ सँग, बाजै मादर तूर॥8॥
(1) जसौवै=यह ‘यशोदा’ शब्द का प्राकृत या अप्रभंश रूप है। पाया=पैर। जुझारा=युध्द। ठटा=समूह बाँधाकर।
(2) आदी=नितांत, बिलकुल। सिंघेला=सिंह का बच्चा। मैमंता=मस्त हाथी। स्वामि सँकरे=स्वामी के संकट के समय में। जस ढारा=ढाल के समान होकर। पेलौं=जोर से चलाऊँ। भारा=भाला। टेकौं=रोक लूँ। जंघ बर जोरौं=जाँघों में बल लाऊँ। बार=बालक।
(3) जूझ=युध्द। गवन=वधाू का प्रथम प्रवेश। चारू=रीति-व्यवहार। बाँक=बाँका, सुंदर। जूरा=बँधाी हुई चोटी का गुच्छा। टकोरि=टंकार देकर। परीखे=परीक्षा की, आजमाया। घालि=डालकर, लगाकर। कचपची=कृत्तिाका नक्षत्रा; यहाँ चमकी।
(4) बार=द्वार। हेर=ताकता है। पोढ़ा=कड़ा। मिन मेष=आगा पीछा, सोच-विचार। मकु…सालू=शायद मेरी तीखी दृष्टि का साल उसके हृदय में पैठ गया है। हुलसी…फालू=वह साल पीठ की ओर हुलसकर जा निकला है इससे मैं वह गड़ा हुआ तीर का फल निकलवा दूँ। कूच तूँबी…गड़ोवौं=जैसे धाँसे हुए काँटे आदि को तूँबी लगाकर निकालते हैं वैसे ही अपनी कुचरूपी तुंबी जरा पीठ से लगाऊँ। गहै जौ…धाोवौं=पीड़ा से चौंककर जब वह मुझे पकड़े तब मैं गाढ़े रस से उसे धाो डालूँ अर्थात् रसमग्न कर दूँ। तेवानि=चिंता में पड़ी हुई। दुऔ=दोनों बातें।
(5) मिलै के ताईं=मिलने के लिए। फँदवार=फंदा।
(6) पुरुष गवन=पुरुष के चलते समय। बीर=वीर रस। मोंछ=मूँछें। दसन गयंद…काछू=वह हाथी के दाँत के समान है (जो निकलकर पीछे नहीं जाते), कछुए की गर्दन के समान नहीं, जो जरा सी आहट पाकर पीछे घुस जाता है।
(7) बाजा चहहु=लड़ना चाहते हो। पनच=धानुष की डोरी। अनियारे=नुकीले, तीखे। कोप=कोपा है। मोहिं=मुझसे।
(8) चित उर=(क) मन और हृदय में, (ख) चित्ताौर। आगि परी माहाँ=इस पंक्ति में कवि ने आगे चलकर चित्ताौर की स्त्रिायों के सती होने का संकेत भी किया है। करुवाने=कड़वे धाुएँ से दुखने लगे। कटिमंडन=करधानी। फुंदन=चोटी का फुलरा।
1. कई प्रतियों में यह पाठ है-
छाँडि चला, हिरदय देइ दाहू । निठुर नाह आपन नहिं काहू॥
सबै सिंगार भीजिभुइँ चूवा । छार मिलाइ कंत नहि छूवा॥
रोए कंत न बहुरै, तेहि रोए का काज?
कंत धारा मन जूझ रन, धानि साजा सर साज॥
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मतैं बैठि बादल औ गोरा । सो मत कीज परै नहिं भोरा॥
पुरुष न करहिं नारि मतिकाँची । जस नौशाबा कीन्ह न बाँची॥
परा हाथ इसकंदर बैरी । सो कित छोड़ि कै भई बँदेरी॥
सुबुधिा सौं ससा सिंघ कहँ मारा । कुबुधिा सिंघ कूऑं परि हारा॥
देवहि छरा आइ अस ऑंटी । सज्जन कंचन, दुर्जन माटी॥
कंचन जुरै भए दस खंडा । फूटि न मिलै काँच कर भंडा॥
जस तुरकन्ह राजा छर साजा । तस हम साजि छोड़ावहिं राजा॥
पुरुष तहाँ पै करै छर, जहँ बर किए न ऑंट।
जहाँ फूल तहँ फूल है, जहाँ काँट तहँ काँट॥1॥
सोरह सै चंडोल सँवारे । कुँवर सँजोइल कै बैठारे॥
पदमावति कर सजा बिवानू । बैठ लोहार न जानै भानू॥
रचि बिवान सो साजि सँवारा । चहुँ दिसि चँवर करहिं सब ढारा॥
साजि सबै चंडोल चलाए । सुरँग ओहार, मोति बहु लाए॥
भए सँग गोरा बादल बली । कहत चले पदमावति चली॥
हीरा रतन पदारथ झूलहिं । देखि बिवान देवता भूलहिं॥
सोरह सै सँग चलीं सहेली । कँवल न रहा, और को बेली?॥
राजहिं चलीं छोड़ावै, तहँ रानी होइ ओल।
तीस सहस तुरि खिंचीं सँग, सोरह सै चंडोल॥2॥
राजा बँदि जेंहि के सौंपना । गा गोरा तेहि पहँ अगमना॥
टका लाख दस दीन्ह ऍंकोरा । बिनती कीन्हि पायँ गहि गोरा॥
बिनवा बादसाह सौं जाई । अब रानी पदमावति आई॥
बिनती करै, आइ हौं दिल्ली । चितउर कै मोहिं स्यो है किल्ली॥
बिनती करै, जहाँ है पूँजी । सब भँडार कै मोहिं स्यो कूँजी॥
एक घरी जौ अज्ञा पावौं । राजहिं सौंपि मँदिर महँ आवौं॥
तब रखवार गए सुलतानी । देखि ऍंकोर भए जस पानी॥
लीन्ह ऍंकोर हाथ जेहि, जीउ दीन्ह तेहि हाथ।
जहाँ चलावै तहँ चलै, फेरे फिरै न माथ॥3॥
लोभ पाप कै नदी ऍंकोरा । सत न रहै हाथ जौ बोरा॥
जहँ ऍंकोर तहँ नीक न राजू । ठाकुर केर बिनासै काजू॥
भा जिउ घिउ रखवारन्ह केरा । दरब लोभ चंडोल न हेरा॥
जाइ साह आगे सिर नावा । ए जगसूर! चाँद चलि आवा॥
जावत हैं सब नखत तराईं । सोरह सैं चँडोल सो आईं॥
चितउर जेति राज कै पूँजी । लेइ सो आइ पदमावति कूँजी॥
बिनती करै जोरि कर खरी । लेइ सौंपौं राजा एक घरी॥
इहाँ उहाँ कर स्वामी! दुऔ जगत मोहिं आस।
पहिले दरस देखावहु, तौ पठवहु कबिलास॥4॥
आज्ञा भई, जाइ एक घरी । छूँछि जो घरी फेरि बिधिा भरी॥
चलि बिवान राजा पहँआवा । सँग चंडोल जगत सब छावा॥
पदमावति के भेस लोहारू । निकसि काटि बँदि कीन्ह जोहारू॥
उठा कोपि जस छूटा राजा । चढ़ा तुरंग सिंघ अस गाजा॥
गोरा बादल खाँड़ै काढ़े । निकसि कुँवर चढ़ि चढ़ि भए ठाढ़े॥
तीख तुरग गगन सिर लागा । केहुँ जुगुति करि टेकी बागा॥
जो जिउ ऊपर खड़ग सँभारा । मरनहार सो सहसन्ह मारा॥
भई पुकार साह सौं, ससि औ नखत सो नाहिं।
छरकै गहन गरासा, गहन गरासे जाहिं॥5॥
लेइ राजा चितउर कहँ चले । छूटेउ सिंघ मिरिग खलभले॥
चढ़ा साहि चढ़ि लागि गोहारी । कटक असूझ परी जग कारी॥
फिरि गोरा बादल सौं कहा । गहन छूटि पुनि चाहै गहा॥
चहुँ दिसि आवै लोपत भानू । अब इहै गोइ इहै मैदानू॥
तुइ अब राजहि लेइ चलु गोरा । हौं अब उलटि जुरौं भा जोरा॥
वह चौगान तुरुक कस खेला । होइ खेलार रन जुरौं अकेला॥
तौ पावौं बादल अस नाऊँ । जो मैदान गोइ लेइ जाऊँ॥
आजु खड़ग चौगान गहि, करौं सीस रिपु गोइ।
खेलौं सौंह साह सौं, हाल जगत महँ होइ॥6॥
तब अगमन होइ गोरामिला । तुइ राजहि लेइ चलु, बादला॥
पिता मरै जो सँकरे साथा । मीचु न देइ पूत के माथा॥
मैं अब आउ भरी औ भूँजी । का पछिताव आउ जौ पूजी?॥
बहुतन्ह मारि मरौं जौ जूझी । तुम जिनि रोयहु तौ मन बूझी॥
कुँवर सहस सँग गोरालीन्हे । और बीर बादल सँग कीन्हे॥
गोरहि समदि मेघ अस गाजा । चला लिए आगे करि राजा॥
गोरा उलटि खेत भा ठाड़ा । पुरुष देखि चाव मन बाढ़ा॥
आव कटक सुलतानी, गगन छपा मसि माँझ।
परति आव जग कारी, होत आव दिन साँझ॥7॥
होइ मैदान परी अब गोई । खेल हार दहुँ काकरि होई॥
जोबन तुरी चढ़ी जो रानी । चली जीति यह खेल सयानी॥
कटि चौगान, गोइ कुच साजी । हिय मैदान चली लेइ बाजी॥
हाल सो करै गोइ लेइ बाढ़ा । कूरी दुवौ पैंज कै काढ़ा॥
भइँ पहार वै दूनौ कूरी । दिस्टि नियर, पहुँचत सुठि दूरी॥
ठाढ़ बान अस जानहु दोऊ । सालै हिथे न काढ़ै कोऊ॥
सालहिं हिय, न जाहि सहि ठाढ़े । सालहिं मरै चहै अनकाढ़े॥
मुहमद खेल प्रेम कर, गहिर कठिन चौगान।
सीस न दीजै गोइ जिमि हाल न होइ मैदान॥8॥
फिरि आगे गोरा तब हाँका । खेलौं, करौं आजु रन साका॥
हौं कहिए धाौलागिरि गोरा । टरौं न टारे, अंग न मोरा॥
सोहिल जैस गगन उपराहीं । मेघ घटा मोहि देखि बिलाहीं॥
सहसौ सीस सेस सम लेखौं । सहसौ नैन इंद्र सम देखौं॥
चारिउ भुजा चतुरभुज आजू । कंस न रहा और को साजू॥
हौं होइ भीम आजु रन गाजा । पाछे घालि डुँगवै राजा॥
होइ हनुवँत जमकातर ढाहौं । आजु स्वामि साँकरे निबाहौं॥
होइ नल नील आजु हौं, देहुँ समुद महँ मेंड़।
कटक साह जर टेकौं, होइ सुमेरु रन बेंड़॥9॥
ओनई षटा चहूँ दिसि आई । छूटहिं बान मेघ झरि लाई॥
डोलै नाहिं देब अस आदी । पहुँचै आइ तुरुक सब बादी॥
हाथन्ह गहे खडग हरद्वानी । चमकहिं सेल बीजु कै बानी॥
सोझ बान जस आवहिं गाजा । बासुकि डरै सीस जनु बाजा॥
नेजा उठे डरै मन इंदू । आइ न बाज जानि कै हिंदू॥
गोरै साथ लीन्ह सब साथी । जस मैमंत सूँड़ बिनु हाथी॥
सब मिलि पहिलि उठौनी कीन्ही । आवत आइ हाँक रउन दीन्ही॥
रुंड मुंड अब टूटहिं, स्यो बखतर और कूँड़।
तुरय होंहिं बिनु काँधो, हस्ति होहिं बिनु सूँड़॥10॥
ओनवत आइ सेन सुलतानी । जानहुँ परलय आव तुलानी॥
लोहे सेन सूझ सब कारी । तिल एक कहूँ न सूझ उधाारी॥
खड़ग फोलाद तुरुक सब काढ़े । धारे बीजु अस चमकहिं ठाढ़े॥
पीलवान गज पेले बाँके । जानहुँ काल करहिं दुइ फाँके॥
जनु जमकात करसि सब भवाँ । जिउ लेइ चहहिं सरग अपसवाँ॥
सेल सरप जनु चाहहिं डसा । लेहिं काढ़ि जिउ मुख विष बसा॥
तिन्ह सामुहँ गोरा रन कोपा । अंगद सरिस पाँव भुइँ रोपा॥
सुपुरुष भागि न जानै, भुइँ जौ फिरि फिरि लेइ।
सूर गहे दोऊ कर, स्वामि काज जिउ देइ॥11॥
भइ बगमेल, सेल घनघोरा । औ गज पेल, अकेल सो गोरा॥
सहस कुँवर सहसौ सत बाँधाा । भार पहार जूझ कर काँधाा॥
लगे मरै गोरा कै आगे । बाग न मोर घाव मुख लागे॥
जैस पतंग आगि धाँसि लेई । एक मुवै, दूसर जिउ देई॥
टूटहिं सीस, अधार धार मारै । लोटहिं कंधाहिं कंधा निरारै॥
कोई परहिं रुहिर होइ राते । कोई घायल घूमहिं माते॥
कोइ खूरखेह गए भरि भोगी । भसम चढ़ाइ परे होइ जोगी॥
धारी एक भारत भा, भा असवारन्ह मेल।
जुझि कुँवर सब निबरे, गोरा रहा अकेल॥12॥
गोरै देख साथि सब जूझा । आपन काल नियर भा, बूझा॥
कोपि सिंघ सामुहँ रन मेला । लाखन्ह सौं नहिं मरै अकेला॥
लेइ हाँकि हस्तिन्ह कै ठटा । जैसे पवन बिदारै घटा॥
जेहि सिर देइ कोपि करवारू । स्यो घोड़े टूटै असवारू॥
लोटहिं सीस कबंधा निनारे । माठ मजीठ जनहुँ रन ढारे॥
खेलि फाग सेंदुर छिरकावा । चाँचरि खेलि आगि जनु लावा॥
हस्ती घोड़ धाइ जो धाूका । ताहि कीन्ह सो रुहिर भभूका॥
भइ अज्ञा सुलतानी, बेगि करहु एहि हाथ।
रतन जोत है आगे, लिये पदारधा साथ॥13॥
सबै कटक मिलि गोरहि छेका । गूँजत सिंघ जाइ नहिं टेका॥
जेहि दिसिउठै सोइ जनु खावा । पलटि सिंघ तेहि ठावँ न आवा॥
तुरुक बोलावहिं, बोलै बाहाँ । गोरै मीचु धारी जिउ माहाँ॥
मुए पुनि जूझिजाज, जगदेऊ । जियत न रहा जगत महँ केऊ॥
जिनि जानहु गोरा सो अकेला । सिंघ के मोंछ हाथ को मेला?॥
सिंघ जियत नहिं आपु धारावा । मुए पाछ कोई घिसियावा॥
करै सिंघ मुख सौहहिं दीठी । जौ लगि जियै देइ नहिं पीठी॥
रतनसेन जो बाँधाा, मसि गोरा के गात।
जौ लगि रुधिार न धाोवौं, तौ लगि होइ न रात॥14॥
सरजा बीर सिंह चढ़ि गाजा । आइ सौंह गोरा सौं बाजा॥
पहलबान सो बखाना बली । मदद मीर हमजा औ अली॥
लँधाउर धारा देव जस आदी । और को बर बाँधौ, को बादी?॥
मदद अयूब सोस चढ़ि कोपे । महामाल जेइ नावँ अलोपे॥
औ ताया सालार सो आए । जेइ कौरव पंडव पिंड पाए॥
पहुँचा आइ सिंघ असवारू । जहाँ सिंघ गोरा बरियारू॥
मारेसि साँग पेट महँ धाँसी । काढ़ेसि हुमुकि ऑंति भुइँ खसी॥
भाँट कहा, धानि गोरा! तू भा रावन राव।
ऑंति समेटि बाँधिा कै, तुरय देत है पाव॥15॥
कहेसि अंत अब भा भुइँ परना । अंत न खसे खेह सिर भरना॥
कहि कै गरजिसिंघ अस्र धाावा । सरजा सारदूल पहँ आवा॥
सरजै लीन्ह साँग पर धााऊ । परा खड़ग जनु परा निहाऊ॥
बज्र क साँग, बज्र कैडाँड़ा । उठा आगि तस बाजा खाँड़ा॥
जानहु बज्र बज्र सौं बाजा । सबही कहा परी अब गाजा॥
दूसर खड़ग कंधा पर दीन्हा । सरजै ओहि ओड़न पर लीन्हा॥
तीसर खड़ग कूँड़ पर लावा । काँधा गुरुज हुत, घाव न आवा॥
तस मारा हठि गोरै, उठी बज्र कै आगि।
कोइ नियरे नहिं आवै, सिंघ सदूरहि लागि॥16॥
तब सरजा कोपा बरिबंडा । जनहु सदूर केर भुजदंडा॥
कोपि गरजि मारेसि तस बाजा । जानहु परी टूटि सिर गाजा॥
ठाँठर टूट, फूट सिर तासू । स्यो सुमेरु जनु टूट अकासू॥
धामकि उठा सब सरग पतारू । फिरि गइ दीठि, फिरा संसारू॥
भइ परलय अस सबही जाना । काढ़ा खड़ग सरग नियराना॥
तस मारेसि स्यो घोड़ै काटा । धारती फाटि, सेस फन फाटा॥
जौ अति सिंह बरी होइ आई । सारदूल सौं कौंनि बड़ाई?॥
गोरा परा खेत महँ, सुर पहुँचावा पान।
बादल लेइगा राजा, लेइ चितउर नियरान॥17॥
(1) मतैं=सलाह करते हैं। कीज=कीजिए। नौशाबा=सिकंदरनामा के अनुसार एक रानी जिसके यहाँ सिकंदर पहले दूत बनकर गया था। उसने सिकंदर को पहचानकर भी छोड़ दिया। पीछे सिकंदर ने उसे अपना अधाीन मित्रा बनाया और उसने बड़ी धाूमधााम से सिकंदर की दावत की। देवहि छरा=राजा को उसने (अलाउद्दीन ने) छला। आइ अस ऑंटी=इस प्रकार अंटी पर चढ़कर अर्थात् कब्जे में आकर भी। भंडा=भाँड़ा, बरतन। न ऑंट=नहीं पार पा सकते।
(2) चंडोल=पालकी। कुँवर=राजपूत सरदार। सजोइल=हथियारों से तैयार। बैठ लोहार…भानू=पदमावती के लिए जो पालकी बनी थी, उसके भीतर एक लुहार बैठा; इस बात का सूर्य को भी पता न लगा। ओहार=पालकी ढाँकने का परदा। कँवल…बेली=जब पदमावती ही नहीं रही, तब और सखियों का क्या? ओल होइ=ओल होकर, इस शर्त पर बादशाह के यहाँ रहने जाकर कि राजा छोड़ दिए जाएँ (कोई व्यक्ति जमानत के तौर पर यदि रख लिया जाता है तो उसे ओल कहते हैं)। तुरि=घोड़ियाँ।
(3) सौंपना=देखरेख में, सुपुर्दगी में। अगमना=आगे, पहले। ऍंकोर=भेंट, घूस, रिश्वत। स्यो=साथ, पास। किल्ली=कुंजी। पानी भए=नरम हो गए। हाथ जेहि=जिसके हाथ से।
(4) घिउ भा=पिघलकर नरम हो गया। न हेरा=तलाशी नहीं ली, जाँच नहीं की। इहाँ-उहाँ कर स्वामी=मेरा पति राजा। कबिलास=स्वर्ग, यहाँ शाही महल।
(5) छूँछि भरी=जो घड़ा खाली था ईश्वर ने फिर भरा, अर्थात् अच्छी घड़ी फिर पलटी। जस=जैसे ही। जिउ ऊपर=प्राण रक्षा के लिए। छर कै गहन…जाहिं=जिनपर छल से ग्रहण लगाया था वे ग्रहण लगाकर जाते हैं।
(6) कारी=कालिमा, अंधाकार। फिरि=लौटकर, पीछे ताककर। गोइ गोय, गेंद। जोरा=खेल का जोड़ा या प्रतिद्वंद्वी। गोइ लेइ जाऊँ=बल्ले से गेंद निकाल ले जाऊँ। सीस रिपु=शत्राु के सिर पर। चौगान=गेंद मारने का डंडा। हाल=कंप, हलचल।
(7) अगमन=आगे। सँकरे साथ=संकट की स्थिति में। समदि=विदा लेकर। पूरुष=योध्दा। मसि=अंधाकार।
(8) गोई=गेंद। खेल=खेल में। काकरि=किसकी। हाल करै=हलचल मचावे, मैदान मारे। कूरी=धाुस या टीला जिसे गेंद को लाँघना पड़ता है। पैज=प्रतिज्ञा। अनकाढ़े=बिना निकाले।
(9) हाँका=ललकारा। गोरा=(क) गोरा सामंत, (ख) श्वेत। सोहिल=सुहेल, अगस्त्य तारा। डुँगवै=टीला या धाुस्स। पीछे घालि…राजा=रत्नसेन को पहाड़ या धाुस्स के पीछे रखकर। साँकरे=संकट में। निबाहौं=निस्तार करूँ। बेंड=बेंडा, आड़ा।
(10) देव=दैत्य। आदी=बिलकुल, पूरा। बादी=शत्राु। हरद्वानी=हरद्वान की तलवार प्रसिध्द थी। बानी=कांति, चमक। गाजा=वज्र। इंदू=इंद्र। आइ न बाज… हिंदू=कहीं हिंदू जानकर मुझपर न पड़े। गोरै=गोरा ने। उठौनी=पहला धाावा। स्यो=साथ। कूँड=लोहे की टोपी जो लड़ाई में पहनी जाती है।
(11) ओनवत=झुकती और उमड़ती हुई। लोह=लोहे से। सूझ=दिखाई पड़ती है। फौलाद=फौलाद। करहिं दुइ फाँके=चीरना चाहते हैं। फाँके=टुकड़े। जमकात=यम का खाँड़ा, एक प्रकार का खाँड़ा। भवाँ करहिं=घूमते हैं। अपसवाँ चहहिं=चल देना चाहते हैं। सेल=बरछे। सरप=साँप। भुइँ लेइ=गिर पड़े। सूर=शूल, भाला।
(12) बगमेल=घोड़ों का बाग से बाग मिलाकर चलना, सवारों की पंक्ति का धाावा। अधार धार मारै=धाड़ या कबंधा अधार में वार करता है। कंधा=धाड़। निरारै=बिलकुल, यहाँ से वहाँ तक (अवधा)। भोगी=भोग-विलास करनेवाले सरदार थे। भारत=घोर युध्द। कुँवर=गोरा के साथी राजपूत। निबरे=समाप्त हुए।
(13) गोरै=गोरा ने। करवारू=करवाल, तलवार। स्यो=साथ। टूटै=कट जाता है। निनारे=अलग। धाूका=झुका। रुहिर=रुधिार से। भभूका=अंगारे सा लाल। एहि हाथ करहु=इसे पकड़ो।
(14) गूँजत=गरजता हुआ। टेका=पकड़ा। पलटि सिंह…आवा=जहाँ से आगे बढ़ता है वहाँ पीछे हटकर फिर नहीं आता। बोलै बाहाँ=वह मुँह से नहीं बोलता है। उसकी बाँहें खड़कती हैं। गोरै=गोरा ने। जाज, जगदेऊ=जाजा और जगदेव कोई ऐतिहासिक वीर जान पड़ते हैं। घिसियावा=घिसियावे, घसीटे। रतनसेन जो…गात=रतनसेन जो बाँधो गए इसका कलक गोरा के शरीर पर लगा हुआ है। रुहिर=रुधिार से। रात=लाल अर्थात् कलंकरहित।
(15) मीर हमजा=मीर हमजा मुहम्मद साहब के चाचा थे जिनकी वीरता की बहुत सी कल्पित कहानियाँ पीछे से जोड़ी गईं। लँधाउर=लंधाौर देब नामक एक कल्पित हिन्दू राजा जिसे मीर हमजा ने जीत कर अपना मित्रा बनाया था; मीर हमजा के दास्तान में यह बड़े डील-डौल का और बड़ा भारी वीर कहा गया है। मदद…अली=मानो इन सब वीरों की छाया उसके ऊपर थी। बर बाँधो=हठ या प्रतिज्ञा करके सामने आए। बादी=शत्राु। महामाल=कोई क्षत्रिाय राजा या वीर। जेइ=जिसने। सालार=शायद सालार मसऊद गाजी (गाजीमियाँ)। बरियारू=बलवान्। हुमुकि=जोर से। काढ़ेसि हुमुकि=सरजा ने जब भाला जोर से खींचा। खसी=गिरी।
(16) सरजै=सरजा ने। जनु परा निहाऊ=मानो निहाई पर पड़ा (अर्थात् साँग को न काट सका)। डाँड़ा=दंड या खंग। ओड़न=ढाल। कूँड़=लोहे का टोप। गुरुज=गुर्ज, गदा। काँधा गुरुज हुत=कंधो पर गुर्ज था (इससे)। लागि=मुठभेड़ या युध्द में।
(17) बरिबंडा=बलवान। सदूर=शार्दूल। तस बाजा=ऐसा आघात पड़ा। ठाँठर=ठठरी। फिरा संसारू=ऑंखों के सामने संसार न रह गया। स्यो=सहित। सुर पहुँचावा पान=देवताओं ने पान का बीड़ा अर्थात् स्वर्ग का निमंत्राण दिया।
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पदमावति मन रही जो झूरी । सुनत सरोवर हिय गा पूरी॥
अद्रा महि हुलासजिमि होई । सुख सोहाग आदर भा सोई॥
नलिन नोक दल कीन्ह ऍंकूरू । बिगसा कँवल उवा जब सूरू॥
पुरइनि पूर सँवारे पाता । औ सिर आनि धारा बिधिा छाता॥
लागेउ उदय होइ जस भोरा । रैनि गई, दिन कीन्ह ऍंजोरा॥
अस्ति अस्ति कै पाई कला । आगे बली कटक सब चला॥
देखि चाँद अस पदमावति रानी । सखी कुमोद सबै बिगसानी॥
गहन छूट दिनिअर कर, ससि सौं भयउ मेराव।
मँदिर सिंघासन साजा, बाजा नगर बधााव॥1॥
बिहँसि चाँद देइ माँग सेंदूरू । आरति करै चली जहँ सूरू॥
औ गोहन ससि नखत तराईं । चितउर कै रानी जहँ ताईं॥
जनु बसंत ऋतु पलुही छूटी । की सावन महँ बीर बहूटी॥
भा आनंद, बाजा घन तूरू । जगत रात होइ चला सेंदूरू॥
डफ मृदंग मंदिर बहु बाजे । इंद्र सबद सुनि सबै सो लाजे॥
राजा जहाँ सूर परगासा । पदमावति मुख कँवल बिगासा॥
कँवल पाँय सूरुज के परा । सूरुज कँवल आनि सिर धारा॥
सेंदुर फूल तमोल सौं, सखी सहेली साथ।
धानि पूजे पिउ पायँ दुइ, पिउ पूजा धानि माथ॥2॥
पूजा कौनि देउँ तुम्ह राजा ? सबै तुम्हार, आव मोहि लाजा॥
तन मन जोबनआरति करऊँ । जीव काढ़ि नेवछावरि धारऊँ॥
पंथ पूरि कै दिस्टि बिछावौं । तुम पग धारहु, सीस मैं लावौं॥
पायँ निहारत पलक न मारौं । बरुनी सेंति चरन रज झारौं॥
हिय सो मंदिर तुम्हरै नाहा । नैन पंथ पैठहु तेहि माहाँ॥
बैठहु पाट छत्रा नव फेरी । तुम्हरे गरब गरुइ मैं चेरी॥
तुम जिउ, मैं तन जौ लहि मया । कहै जो जीव करै सो कया॥
जौ सूरज सिर ऊपर, तौ रे कँवल सिर छात।
नाहिं त भरे सरोवर, सूखे पुरइन पात॥3॥
परसि पायँ राजा के रानी । पुनि आरति बादल कहँ आनी॥
पूजे बादल के भुजदंडा । तुरय के पायँ दाब कर खंडा॥
यह गजगवन गरब जो मोरा । तुम राखा, बादल औ गोरा॥
सेंदुर तिलक जो ऑंकुस अहा । तुम राखा, माथे तौ रहा॥
काछ काछि तुम जिउ पर खेला । तुम जिउ आनि मँजूषा मेला॥
राखा छात, चँवर औधाारा । राखा छुद्रघंट झनकारा॥
तुम हनुवँत होइ धाुजा पईठे । तब चितउर पिय आइ बईठे॥
पुनि गजमत्ता चढ़ावा, नेत बिछाई खाट।
बाजत गाजत राजा, आइ बैठ सुखपाट॥4॥
निसि राजै रानी कँठ लाई । पिउ मरि जिया नारि जनु पाई॥
रति रति राजै दुख उगसारा । जियत जीउ नहिं होउँ निनारा॥
कठिन बंदि तुरकन्ह लेइ गहा । जो सँवरा जीउ पेट न रहा॥
घालि निगड़ ओबरी लेइमेला । साँकरि औ ऍंधिायार दुहेला॥
खन खन करहिं सड़ासन्ह ऑंका । औ निति डोम छुअवहिंबाँका॥
पाछे साँप रहहिं चहुँ पासा । भोजन सोइ, रहै भर साँसा॥
राँधा न तहँवा दूसर कोई । न जनौं पवन पानि कस होई॥
आस तुम्हारि मिलन कै, तब सो रहा जिउ पेट।
नाहिं त होत निरास जौ, कित जीवन कित भेंट!॥5॥
तुम्हपिउ! आइ परी असि बेरा । अब दुख सुनहु कँवल धानिकेरा॥
छोड़ि गयउ सरवर महँ मोहीं । सरवर सूखि गयउ बिनु तोहीं॥
केलि जो करत हंस उड़िगयऊ । दिनिअर निपट सो बैरी भयऊ॥
गईं तजि लहरैं पुरइन पाता । मुइउँ धाूप, सिर रहेउ न छाता॥
भइउँ मीन, तन तलफै लागा । बिरह आइ बैठा होइ कागा॥
काग चोंच, तस साल, नाहा । जब बँदि तोरि साल हिय माहाँ॥
कहौं ‘काग! अब तहँ लेइ जाही । जहँवा पिउ देखै मोहिं खाही’॥
काग औ गिध्द न खंडहिं, का मारहिं, बहु मंदि?।
एहि पछितावै सुठि मुइउँ, गइउँ न पिउ सँग बंदि॥6॥
तेहि ऊपर का कहौ जो भारी । बिषम पहार परा दुख भारी॥
दूती एक देवपाल पठाई । बाम्हनि भेस छरै मोहिं आई॥
कहै तोरि हौं आहुँ सहेली । चलि लेइ जाउँ भँवर जहँ, बेली॥
तब मैं ज्ञान कीन्ह, सत बाँधाा । ओहि कर बोल लाग बिष साँधाा॥
कहूँ कँवल नहिं करत अहेरा । चाहे भँवर करै से फेरा॥
पाँच भूत आतमा नेवारिउँ । बारहि बार फिरत मन मारिउँ॥
रोइ बुझाइउँ आपन हियरा । कंत न दूर, अहै सुठि नियरा॥
फूल बास, घिउ छीर जेउँ नियर मिलै एक ठाइँ।
तस कंता घट घर कैं, जिइउँ अगिनि कहँ खाइ॥7॥
(1) झूरी रही=सूख रही थी। अस्ति, अस्ति=वाह-वाह। दिनिअर=दिनकर, सूर्य।
(3) आरति=आरती। पूरि कै=भरकर। सेंति=से। तुम्हरै=तुम्हारा ही। गरुइ=गरुई, गौरवमयी। छात=छत्रा (कमल के बीच छत्ताा होता भी है)।
(4) तुरय के…कर खंडा=बादल के घोड़े के पैर भी दाबे अपने हाथ से। सेंदुर तिलक अहा=सिंदूर की रेखा जो मुझ गजगामिनी के सिर पर अंकुश के समान है अर्थात् मुझपर दाब रखनेवाले मेरे स्वामी का (अर्थात् सौभाग्य का) सूचक है। तुम जिउ…मेला=तुमने मेरे शरीर में प्राण डाले। औधाारा=ढारा। छुद्रघंट=घुँघरूदार करधानी। नेत=रेशमी चादर; जैसे, ओढ़े नेत पिछौरा-गीत।
(5) रति रति-रत्ताी रत्ताी, थोड़ा-थोड़ा करके सब। उगसारा=निकाला, खोला, प्रकट किया। निगड़=बेड़ी। ओबरी=तंग कोठरी। ऑंका करहिं=दागा करते थे। बाँका=हँसिए की तरह झुका हुआ टेढ़ा औजार जिससे धारकार (बीजन, मोढ़े आदि बनानेवाले) बाँस छीलते हैं। भोजन सोइ=साँसा…भोजन इतना ही मिलता था जितने से साँस या प्राण बना रहे। राँधा=पास, समीप।
(6) तुम्ह पिउ…बेरा=तुमपर तो ऐसा समय पड़ा। न खंडहिं=नहीं खाते थे, नहीं चबाते थे। का मारहिं, बहु मंदि=वे मुझे क्या मारते, मैं बहुत क्षीण हो रही थी।
(7) मारी=मार, चोट। साँधाा=सना, मिला। कहूँ कँवल…सै फेरा=चाहे भौंरा (पुरुष) सौ जगह फेरे लगाए पर कमल (स्त्राी) दूसरों को फँसाने नहीं जाता। पाँच भूत…मारिउँ=फिर योगिनी बनकर उस योगिनी के साथ जाने की इच्छा हुई पर अपने शरीर और आत्मा को घर बैठे ही वश किया और योगिनी होकर द्वार द्वार फिरने की इच्छा को रोका। जेउँ=ज्यों, जिस प्रकार। फूल बास…खाइ-जैसे फल में महँक और दूधा में घी मिला रहता है वैसे ही अपने शरीर में तुम्हें मिला समझकर इतना संताप सहकर मैं जीती रही।
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