निबंध – नवयुग का संदेश (लेखक – गणेशशंकर विद्यार्थी)
वर्तमान युग में बड़े बल और वेग के साथ संसार के सामने जनसत्ता की समस्या उपस्थित की है। एक समय था कि लाखों और करोड़ों आदमियों पर केवल एक आदमी की मनमानी हुकूमत चलती थी। सत्यता और शिष्टता के आचरण में बढ़े-चढ़े कहे जाने वाले धन और बल से संपन्न लाखों और करोड़ों आदमियों के भाग्य का निपटारा केवल एक व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर था। वे उसकी मनमानी आज्ञाओं का सुनना और उसका चुपचाप बहुधा बड़ी श्रद्धा के साथ पालन करना अपने जीवन का परम धर्म समझते थे। उसकी मूर्खता से लोगों का सर्वनाश भले अपने जीवन का परम धर्म समझते थे। उसकी मूर्खता से लोगों का सर्वनाश भले ही हो जाता, तो भी उसकी ऊँगली के इशारे तक पर चलने से इंकार करने की इच्छा बहुत ही कम लोगों में पैदा होती। वह उनका मालिक था, वे उसके बंदे। वह उसका रक्षक था, वे उसकी भेड़ें। वे धन और माल के उत्पादक थे, वह उनका भोक्ता। वे अपने शरीरों के धारण करने वाले थे, वह उनसे काम लेने वाला। बात यहीं समाप्त नही होती। प्रभुता के इस देवता के चबूतरे जगह-जगह पर स्थापित थे। ऊँची जाति और छोटी जाति के बची बड़ी गहरी खाई थी। उस श्रेणी के आदमी के भी वैसे ही हाथ और वैसे ही पैर होते। उसके भी वैसी ही आँखें और वैसे ही कान होते। आवाज में भी कोई फर्क न होता और चितवन में भी कोई खास बात न होती। वह बीमार भी पड़ता और अंत में उसकी मृत्यु भी होती, परंतु निम्न श्रेणी के आदमी की मजाल न थी कि कुलीनता की अवहेलना की इच्छा तक करता। लोगों के दिलों में कुलीनता की धाक ऐसी गहरी बैठी हुई थी कि कुलीन उन्हें अपना सेवक समझना अपना धर्म मानते और वे इसी में अपने को धन्य समझते कि अपने-से ही नहीं, बहुत-सी हालतों में स्वभाव, चरित्र, बल इत्यादि में अपने से बहुत ही हीन मुट्ठी-भर आदमियों की सेवा प्रसन्न मन से करते रहें। इस युग में मानव आत्मा की उन्नति और स्वाधीनता के भी संदेश मिले। धर्म ने इन संदेशों को सुनाया। परंतु धार्मिक आडंबर ने घोर अज्ञान फैलाया। धर्म ने मनुष्य के सामने धर्म का सर्वश्रेष्ठ आदर्श रखा, धार्मिक आडंबरों ने उसे पग-पग पर पीछे ढकेला। धर्म ने कहा, मनुष्य-मात्र समान है, धार्मिक आडंबरों ने इस व्यवस्था पर मुहर लगाई कि उच्च कुल वाले लोग अन्य लोगों पर शासन करने के लिए जन्मे हैं। धर्म ने आकश में सिर उठाकर चलने वालों को पृथ्वी पर पैर रखकर चलने का आदेश दिया।
धार्मिक आडंबरों ने उन्हीं में मनुष्यता मानी जो दूसरों के सिरों पर पैर रखकर चलें। इस प्रकार संसार दो बड़े भागों में बँटा हुआ था। एक तो वे जो संसार के सुखों को भोगना और दूसरों पर शासन करना अपना ईश्वरदत्त स्वत्व समझते थे, दूसरे वे जो यह समझते थे कि मनमाने ढंग से शासित होने और बड़े आदमियों की सेवा करने के लिए ही हमारा जन्म हुआ है। शताब्दियों तक संसार की यही गति रही। फिर धीरे-धीरे हवा का रुख पलटा। अनेक कारणों से जीवन संग्राम की गहरी चोटें सीधे अपने ही वक्ष-स्थल पर पड़ने तथा अपने कुलीन और महान संरक्षकों के वक्त पर बिगड़ जाने या उनके अपने ही जैसे व्यर्थ सिद्ध होने या अपने से तनिक भी अधिक उपयेागी सिद्ध न होने के कारण लोगों के सिरों पर से कुलीनता और श्रेष्ठता के भ्रम का भूत धीरे-धीरे उतर चला। श्रेष्ठता के इस तिलिस्म को तोड़ने के लिए जिन लोगों ने सबसे पहले युद्ध ठाना, नि:संदेह उन्होंने अत्यंत निर्भीकता से काम लिया और उन्हें मानव धर्म के इस काम में उतना ही भयंकर कष्ट उठाना पड़ा, जितना कि संसार के बड़े-से-बड़े धर्म प्रचारक को। वे काँटों पर चले और सत्ता के पुजारियों ने उनके पद-चिन्हों तक के मिटा देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, परंतु संसार भर के कल्याण के भाव कुछ ही काल के लिए दबाये जा सकते हैं। वे नष्ट नहीं किये जा सकते। स्वेच्छाचारियों के घरों तक में स्वाधीनता की मधुर तान गूँज उठी। दासता की श्रृंखला में जकड़े हुए लोगों की अंतरात्मा तक में उनका यह संदेश पहुँच गया, जिन्होंने उनके पहुँचाने के लिए स्वेच्छाचारियों के पैरों तले अपने को पिसवा दिया था कि संसार के सारे मनुष्य मुट्ठी-भर आदमियों की सेवा करने, उनके पैरों की धूल सिर पर चढ़ाने, उनके लिए जीने और उनके लिए ही मरने को पैदा नहीं हुए है। वायुमंडल में यह ध्वनि व्याप गयी कि जनता के भाग्य का मालिक कोई एक आदमी या एक दल नहीं हो सकता, कोई आदमी या कोई दल, चाहे वह कितना कुलीन क्यों न हो, जनता की किस्मतों का फैसला मनमाने ढंग से नहीं कर सकता। जनता अपने भाग्य की आप मालिक है। वह स्वयं अपने कामों को आप करेगी, व्यक्ति या समूह उस पर आज्ञा नहीं चला सकेंगे। उसकी आज्ञा के सामने सम्राट और भिखारी दोनों बराबर होंगे।
भावों के इस संग्राम का यह फल हुआ कि संसार में आज युगांतर उपस्थित है। भुकुटी के तनाव पर दृष्टि पड़ते ही जिनके घुटने पृथ्वी पर टिक जाते थे, ऐसे अवसर पर जिनकी जिव्हा बारम्बार क्षमा प्रार्थना करने की आदी थी, वे आज किसी के रोष की परवाह नहीं करते। संसार के बहुत-से देशों में आज भी राजा राज्य करते हैं, परंतु आज का राजा उस समय का राजा नहीं है। पहले राजा प्रजा की दृष्टि में ईश्वर तुल्य था, आज प्रजा के दरबार में राजा को जवाबदेह होना पड़ता है। राजाओं को घमंड था कि ईश्वर से उन्हें शासन करने का स्वत्व मिला है। आज जनता कहती है कि इस युग में जनता ही ईश्वर की विभूति की परम प्रत्यक्ष अवतरणिका है। आज राजा का राज्य उस समय तक है, जब तक वह प्रजा के अनुसार चलता है। स्वेच्छाचारी राजा को सिंहासन से उतारे जाते देर नहीं लगती। कुलीनता के दिन लद गये। वर्तमान युग का आदमी इस बात पर विश्वास नहीं करता कि संसार के सारे सदगुण उन्हीं लोगों में भरे पड़े हैं या भरे हो सकते हैं, जिन्हें इसके सिवा और कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ा कि गरीब और साधारण हम उन्हें ‘नीच जाति’ का नहीं कह सकते, क्योंकि ‘नीच’ और ‘ऊँच’ शब्द वर्तमान संसार के सामने पहले के अर्थ नहीं रखते, आदमी के यहाँ जन्म लेने के बजाय उन्होंने एक धनवान और कुलीन परिवार में जन्म लिया। उसके लिए इस बात का मान लेना कठिन है कि कुलीन का रक्त और भाँति का होता है और अकुलीन का और भाँति का, कुलीन के शरीर की बनावट और ढंग की होती है और गरीब-अकुलीन की और ढंग की। वर्तमान युग का आदमी स्पष्ट शब्दों में कहता है कि यह कोई जरूरी बात नहीं कि गरीब में केवल दोष-ही-दोष हो और अमीर कुलीन में गुण-ही-गुण, या गरीब आदमी अवसर पाने पर समाज के लिए बहुत उपयोगी न बन जाये और कुलीन आदमी निकम्मे पाने पर समाज के लिए बहुत उपयोगी न बन जाये और कुलीन आदमी निकम्मे और हानिकारक होने पर भी आदर का पात्र बना रहे। वह प्रतिभा और सदाचार की सत्ता से इंकार नहीं करता, परंतु उसका विश्वास है कि ये गुण किसी वर्ग के बाँटे में नहीं पड़े। ईश्वरदत्त महत्व से उसका कोई झगड़ा नहीं, परंतु मनुष्य-कृत महत्व से उसका घोर संग्राम है। वह उन सभी प्रकार के महत्वों का विरोधी है, जो एक वर्ग अपने लिए रखना चाहता है, परंतु दूसरों को समान अवसरों पर महत्व नहीं मिलने देता। मुँह देख-देख कर रियायत करने के इस ढंग ने आज तक संसार में न मालूम कितनी विकसित होकर कुछ कर सकने वाली आत्माओं को तनिक भी बढ़ने और उठने का अवसर न दिया होगा और इसी अनरीति से न मालूम कितने अयोग्य और बिल्कुल निकम्मे आदमी अग्रगण्य बनकर संसार की छाती पर कोदो दल चुके हैं। वर्तमान युग का मनुष्य इस विष व्यापार को अधिक काल तक जारी रहने नहीं दे सकता। वह पूरी जिम्मेदारी के साथ उन सारी आज्ञाओं की अवहेलना करता है, जो जनता की ओर से, जनता के कल्याण के नाम पर नहीं हैं। वह स्पष्ट रूप से घोषित करता है कि केवल जनता ही अपने भाग्य की निर्णयकर्त्री है और प्रत्येक व्यक्ति को कुलीनता और अकुलीनता के भाव को अलग रखकर अपनी उन्नति का पूरा अवसर मिलना चाहिए। किसी राजा या कुलीन का स्वार्थ किसी की उन्नति का बाधक न हो, यदि धर्माचार्य मानव-समाज के आत्मिक कल्याण की चिंता छोड़कर उसके सांसारिक कल्याण में हस्तक्षेप करें, तो उसे इन मामलों में हस्तक्षेप करने का उतना ही हक है, जितना कि जनता की एक इकाई को। पुरानी सत्ता के विरोध की यह दुदुभि संसार भर में बज उठी है। आज उसकी ध्वनि इतनी स्पष्ट और सबल है कि किसी की ताब नहीं कि उसे रोक दे। संसार ने उसके सामने सिर झुका दिया है और स्वेच्छाचारी से स्वेच्छाचारी व्यक्ति या समूह को जनसत्ता की इस घोषण की अवेहलना करते हुए डर लगता है।
इस समय जनसत्ता संसार के प्रत्येक देश के दरवाजे पर दस्तक दे रही है और आज वह अपने मजबूत हाथों में भारतवर्ष के दरवाजे की जंजीर भी खटखटाती हुई उस अत्यंत प्राचीन भूमि के निवासियों से प्रश्न करती है कि बतलाओ, तुम नवयुग का स्वागत किस प्रकार करना चाहते हो? इस देश के युवकों से और उन सभी प्रकार के लोगों से जो कर्मक्षेत्र में अवतीर्ण हो चुके हैं, उसका संसार के अत्याचारों और अनाचारों की ओर ऊँगली उठाते हुए स्पष्ट प्रश्न है कि क्या उस समय, जबकि संसार में न्याय और अन्याय का ऐसा घमासान युद्ध छिड़ा हुआ है, तुम निष्क्रिय और चुपचाप हाथ पर हाथ रखे हुए बैठे रहना ही उचित समझते है? क्या उस समय जबकि राष्टों के होनहार नैनिहाल केवल ‘निकृष्ट’ श्रेणियों में जन्म लेने के कारण जबर्दस्तों की स्वार्थ वेदी पर बेदर्दी से बलिदान किये जा रहे हैं, जब केवल जाति या रंग के कारण मनुष्य, मनुष्य की गर्दन काट रहा है, तुम चुपचाप बैठे हुए इस विभीषिका को देखते रहना अपना धर्म समझते हो? क्या उस समय जब व्यक्तियों के स्वेच्छाचारों के अंत की घोषणा संसार भर में गूँज उठी है और स्वेच्छाचार अपनी धाक की समाप्ति के पश्चात् अब अपने जाने की गंभीरतापूर्वक तैयारी कर रहा है, तब उन घटनाओं को चुपचाप देखना ही तुम्हारा कर्तव्य है?
संसार में भावों का एक तूफान चल रहा है। पुराने भावी के पैर हिल गये हैं। संसार के प्रत्येक देश में ऐसा हुआ है, इस देश में भी ऐसा ही हो रहा है। नये भावों का स्वागत न करना आसान है, परंतु बुरा है। जिन भावों की जड़ हिल गयी है, यदि उनका स्थान ग्रहण करने के और उपयोगी भावों को अवसर न दिया गया तो, हृदय-हृदय नहीं रह जायेगा। वह अज्ञान की गर्त में गिर जायेगा, या सिद्धांतहीन शुष्क तर्क के मायाजाल में जो लोग पुराने खंडहरों की रक्षा के लिए इस आदर्शहीनता का युग अपने देश में अवतरित करना चाहते हैं, वे याद रखे कि उनके इस काम से देश के सामने महान आदर्श लोप हो जायेंगे। नि:संदेह खंडहर बच जायेंगे, परंतु इसलिए नहीं कि वे उत्सुक आत्माओं को ऊँचे आदर्शों का संदेश सुनावें, किंतु इसलिए कि पुरातत्ववेता उन्हें देखकर उनके प्राचीन महत्व की दाद दें।
यह संतोष की बात है कि भारतवर्ष की जागृत आत्माओं ने समय के शुभ चिन्हों को परख लिया है। उनहें विश्वास है कि जिस भारतवर्ष ने प्राचीन युगों में विश्व की उन्नति में अपनी शक्तियाँ लगाकर मानव-जाति का कल्याण किया, वह आज अभी तक अन्य अनेक प्राचीन जातियों और देशों के विलीन हो जाने पर भी इसलिए बचा हुआ है कि विश्व के कल्याण में वह अपनी शक्तियों को उसी प्रकार लगावे जिस प्रकार अतीत काल में लगा चुका है। बहुत-से अंशों में इसी विश्वास के कारण आज हमें देश में स्वराज्य आंदोलन का अस्तित्व दिखाई दे रहा है। स्वराज्य आंदोलन भारतवर्ष में जनसत्ता के वर्तमान उदय का प्रकाशमान चिन्ह है। कुछ थोड़े आदमियों के हाथ में देश के करोड़ों आदमियों की मौत-जिंदगी का भार है। भारतीय जनता अपनी इस अवस्था पर असंतुष्ट है। वह अपने कामों की मालिक स्वयं बनना चाहती है। वह श्रेष्ठों की धाक उठाकर उन्हें साधारण आदमियों की श्रेणियों में ला बैठाने और पिसते जाने, दब जाने और दबाये जाने वाले प्राणियों को उठाकर मनुष्योचित अवस्था में लाने के लिए कटिबद्ध हो रही है। यह शुभ लक्षण हैं। देश की आत्माएँ इस बात पर बधाई पावें, परंतु यह नवयुग के महाकार्य का शतांश भी नहीं है। देश की क्रियाशील आत्माओं, चौंको नहीं, तुम्हारे काम को क्षुद्र बनाने के लिए यह बात नहीं की जा सकती, परंतु यथार्थ में जो स्थिति है, उसका प्रकट करना इसलिए परम कर्तव्य है कि कहीं उस समय, जब तुम्हारा हाथ में लिया हुआ काम किसी अंत पर पहुँच जाये, तब तुम यह न समझो कि तुमने स्वाधीनता की लड़ाई फतह कर ली और तुम्हारा काम समाप्त हो गया। राजनैतिक पराधीनता को तो बुरा समझते हो और अन्य पराधीनता को वैसा नहीं। यह कैसी बात है कि तुम राजनैतिक स्वाधीनता का तो उपदेश करो, परंतु जब उस स्वाधीनता प्रश्न उठो, जिससे तुम्हारे करोड़ों अछूत भाई तुम्हारी भाँति मनुष्यत्व का स्वत्व पा जायें, जिससे तुम्हारी माँ और बहनों, पतियों और पुत्रियों का मानसिक विकास और शारीरिक कल्याण हो सके, जिससे तुम्हारे अन्नदाता किसानों और देहातियों की कलाओं का प्रस्फुरण हो सके, जिससे तुम्हारे साहित्य में स्वाधीनता की लहर उठा सके, जिससे धार्मिक आडंबरों के अत्याचार से पीड़ित लोगों की मानसिक प्रवृत्तियों के बंधन टूट सकें, तो तुम अधिकांश अवस्था में चुप रह जाते हो या बोलते भी हो तो बड़े ही धीमे स्वर से। स्वाधीनता की लड़ाई इस प्रकार आधे दिल से नहीं लड़ी जा सकती और न मनुष्य की उन्नति अलग-अलग कोठरियों में बंद की जा सकती है। स्वाधीनता के लिए संग्राम क्षेत्र में अवतीर्ण होना है तो मनुष्य के पूरे विकास के लिए युद्ध-शंख बजाओ। क्या जीवन के अन्य विभागों में स्वाधीनता का होना ठीक नहीं? क्या स्वाधीनता के लिए विदेशियों ही से लड़ना ठीक है, उनसे भिड़ना ठीक नहीं, जो हमारे घर के हैं और घर की शक्ति को अपनी सत्ता के नीचे पीस रहे है? देश के नवयुवक कम-से-कम तुम तो स्वाधीनता के भाव की इस प्रकार ख़्वारी मत करो। यदि स्वाधीनता का भाव तुम्हें प्यारा है, यदि तुम ईश्वर के ना पर, विश्व के कल्याण के लिए इसकी आवश्यकता समझते हो कि हम स्वधीन हों, देश के प्रत्येक बच्चे की शक्ति की बेदी पर अर्पित होने के लिए विकास का मार्ग पा सकें, हमारे करोड़ों भाइयों का भाग्य एक व्यक्ति या व्यक्तियों के एक या दो समूह के हाथ में न रहे, तो तुम्हारे लिए नवयुक का यह संदेश है कि तुम्हारे उद्योग की गति जीवन के किसी एक ही विभाग में परिमित न हरे, हर विभाग में तुम अपने प्रत्येक देश भाई के आगे बढ़ने के लिए मार्ग प्रशस्त करो, राजनैतिक बंधनों को तोड़ो तो धार्मिक आडंबर भी तुम्हारे बाधक न रहें, सत्ताधारियों की सत्ता टूटे तो उस घृणा और उपेक्षा का बाँध भी टूट जाये जो करोड़ों आत्माओं को तुमसे विलग रखता है और तुम यह सब भली-भाँति कर सकोगे और कर सकोगे उसी समय, जब तुम्हारा हृदय नवयुग के स्वागत के लिए तैयार होगा और तुम कर्मण्यता के मंत्र की प्राप्ति के लिए किसी भी वर्ग की महत्ता या किसी जाति की श्रेष्ठता को एकमात्र सत्ताधारी न मानकर विश्व-संचालिनी महाशक्ति अखिल विश्वबंधुता और उसकी सत्ता ही की ड्योढ़ी पर अटल भाव से अलख जगाओगे।
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