उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 12 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
देवहूती और उसकी मौसी के घर के ठीक पीछे भीतों से घिरी हुई एक छोटी सी फुलवारी है। भाँत-भाँत के फूल के पौधे इसमें लगे हुए हैं, चारों ओर बड़ी-बड़ी क्यारियाँ हैं, एक-एक क्यारी में एक-एक फूल है-फुलवारी का समाँ बहुत ही निराला है। जो बेले पर अलबेलापन फिसला जाता है, तो चमेली की निराली छबि कलेजे में ठण्डक लाती है। नेवारी ने ही आँखों की काई नहीं निवारी है-जूही के लिए भी फुलवारी में तू ही तू की धुम है। कुन्द मुँह खोले हँस रहा है, सेवती फूली नहीं समाती। हरसिंगार की आनबान, केवड़े की ऐंठ, सूरजमुखी की टेक, केतकी का निराला जोबन, मोगरे की फबन, चंपे की चटक, मोतिये की अनूठी महँक-सब एक-से-एक बढ़कर हैं। इन फूल के पेड़ों से दूर जहाँ क्यारियाँ निबटती हैं-फूलों के छोटे-छोटे पौधे थे-इनके पीछे हरे-भरे केले के पेड़ अकड़े खड़े थे, जिनके लम्बे-लम्बे पत्ते बयार लगने से धीरे-धीरे हिल रहे थे। इन सबके पीछे फुलवारी की भीत थी, और उसके नीचे एक बहुत ही लम्बी चौड़ी खाई थी, खाई में जल भरा हुआ था, कई ओर कमल खिले हुए थे।
इस फुलवारी के बीच में एक पक्का चौतरा है, इस पर पारबती और देवहूती बैठी हुई हैं। भोर हो गया है, सूरज की सुनहली किरणें चारों ओर छिटक रही हैं। एक भौंरा एक फूल पर गूँज रहा है। गूँजता-गूँजता ठीक फूल की सीधा में आता है, ठिठकता है, सिकुड़े हुए पाँवों को फैलाकर फूल की ओर झुकता है। फिर ठिठकता है। और पहले की भाँत चक्कर लगा कर झूमने लगता है। कितने क्षण यों ही गूँजता रहा, फिर पंख समेट कर उस पर बैठ गया। कुछ बेर चुपचाप उसका रस पीता रहा। फिर अधरुँधे गले से भन्न-भन्न करने लगा। इस के पीछे गूँजता हुआ उसपर से उड़ गया। अब दूसरे फूल के पास गया, पहले इसके भी चारों ओर गूँजता रहा, फिर उसी भाँत इस पर बैठा, रस लिया, भन्नभन्न बोला, फिर गूँजता हुआ इस पर से भी उड़ गया। पारबती और देवहूती के देखते-देखते यह बीसियों फूल पर गया, पर इसका मन न भरा। धीरे-धीरे वह और फूलों पर जाकर गूँजता और रस लेता रहा। पर जिस फूल पर से एक बार वह रस लेकर उड़ा उसके पास फिर न गया।
पारबती ने कहा-देवहूती! इस भौंरे को देखती हो? जो गत इसकी है, ठीक वही कुचाली पुरुषों की है। वह अपने रस के लिए इधर-उधर चक्कर लगाते फिरते हैं। भोली-भाली स्त्रियों को झूठी-मूठी बातें बना कर ठगते हैं। जब काम निकल जाता है फिर उनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखते।
मीठे सुर से हमी लोग नहीं रीझते। चिड़ियाँ ही इसको सुनकर नहीं मतवाली बनतीं। कीड़े-मकोड़े ही पर इसका रंग नहीं जमता। यह पेड़ों तक को मोह लेता है। जो अच्छा बाजा मीठे सुर से बजता हो और पास ही कोई फूल का पौधा रखा हो, तो देखोगी उसकी पत्तियाँ सगबगा उठीं। उसका हरा रंग और गहरा हो गया। फूल खिल गये और उस पर जोबन छा गया। इसीलिए भौंरा आते ही फूल पर नहीं बैठ जाता। कुछ घड़ी फूल के आस पास गूँजता है। या अपनी मीठी गूँज से उसके रस को उभाड़ता है। और तब उस पर रस लेने के लिए बैठता है।
एक छोटा-सा कीड़ा जो अपना काम निकालने के लिए इतना कुछ कर सकता है-रस पाने के लिए जो वह ऐसी दूर की चाल चल सकता है, तो अपना काम निकालने के लिए मनुष्य क्या नहीं कर सकता। जिस स्त्री को वह फँसाना चाहता है, उसका सामना होने पर वह कहता है, तुम मेरी आँखों की पुतली हो, मेरे प्राण की प्यारी हो, तुमको देखकर मेरे कलेजे में ठण्डक होती है, जी में आनन्द की धारा बहती है। तुम्हीं से मेरा जीना है। तुम्हीं से मेरे अंधेरे जी में उँजाला है। जब तक आँखों के सामने रहती हो, समझता हूँ स्वर्ग में बैठा हूँ। आँखों से ओझल होते ही मुझ पर बिजली-सी टूट पड़ती है। जब उसके पास चीठी भेजता है, लिखता है-तुम्हारे बिना मेरा कलेजा जल रहा है। अनजान में ही न जाने कैसी एक पीर सी हो रही है। खाना-पीना कुछ नहीं अच्छा लगता। दिन-रात का कटना पहाड़ हो गया है। चारों ओर सूना लगता है। जी को न जाने कैसी एक चोट सी लग गयी है, हम सच कहते हैं जो तुम न मिलोगी, हम कभी न जीयेंगे। तुम्हारे बिना हमारा है कौन? हम जानते हैं तुम्हीं को, नाम जपते हैं तुम्हारा ही, जग में जहाँ देखते हैं, तुम्हीं को देखते हैं। खाते-पीते उठते-बैठते सूरत तुम्हारी ही रहती है। हम रहते हैं कहीं, पर मन हमारा तुम्हारे ही पास रहता है। उसकी सिखायी पढ़ायी कुटनियाँ आती हैं, तो कहती हैं-बहू तुम्हारा कलेजा न जाने कैसा है, पत्थर भी पसीजता है। पर कितनाहू कहो, तुम नहीं मानती हो। वह तुम्हारे लिए मर रहे हैं, पड़े तड़पते हैं, आठ आठ आँसू रोते हैं, खाना-पीना तक छूट गया है, पर तुम्हारे कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। भला इतना भी किसी को सताते हैं! जी की लगावट अपने हाथ नहीं, जो किसी भाँत तुम पर उनका जी आ गया, तो तुमको इतना कठोर न होना चाहिए। सबका सब दिन एक ही सा नहीं बीतता। क्या यह जोबन सदा ऐसा ही रहेगा? फिर थोड़े दिनों के लिए इतना क्यों इतराती हो? प्यासे ही को पानी पिलाया जाता है। भूखे ही को दो मूठी अन्न दिया जाता है। फिर न जाने, क्यों तुम इन बातों को नहीं समझती हो। इतना ही नहीं, गहने-कपड़े, रुपये-पैसे की अलग लालच दी जाती है। कभी-कभी हाथ जोड़ने और नाक रगड़ने से भी काम लिया जाता है। तलवे की धूल तक सर पर रख ली जाती है। पर ये सब धोखेधड़ी की बातें हैं। छल और कपट इन बातों में कूट-कूट कर भरा रहता है। सचाई और भलमनसाहत की इनमें गन्ध तक नहीं होती।
जिसकी हम भगवान के घर से हैं, जिसके लिए हम बनी हैं, जो हमारा जनम-संघाती है, आँखों की पुतली हम हैं तो उसकी, प्राणों की प्यारी हैं तो उसी की। हमारे लिए तड़प सकता है, आँसू बहा सकता है, खाना पीना छोड़ सकता है, जी सकता है, मर सकता है तो वही। जो ये सब गुण उसमें न हों तो भी जो कुछ है हमारा वही है। कहाँ तक वह हमारे काम न आवेगा। जो वह हमको छोड़ दे, जो ऐसा संयोग आन पड़े जिससे जन्म भर फिर उसके मिलने की आस न हो; तो भी उसी के नाम के सहारे हमको अपना दिन काट देना चाहिए। ऐसा होने पर यहाँ वहाँ हमारी और जैजैकार होगी। दूसरा हमारा कौन है? जिसकी परछाहीं पड़ते ही हमारा जनम बिगड़ता है, लोगों को मुँह दिखाना कठिन होता है, उससे हमको किस भलाई की आस हो सकती है? गहने कपड़े, रुपये पैसे देह और हाथ के मैल हैं! इनके पलटे क्या सतीपन ऐसा रतन मिट्टी में मिलाया जा सकता है!!! गहने कपड़े, रुपये पैसे फिर मिल सकते हैं, पर जब स्त्री का सतीपन एक बेर बिगड़ जाता है, तो वह इस जनम में फिर कभी हाथ नहीं आता। ऐसी दशा में क्या कोई भलेमानस स्त्री, क्या कोई अच्छे घर की बहू बेटी, गहने कपड़े, रुपये पैसे के लालच से अपना सतीपन गँवा सकती है?
हमने देखा है बहुत सी भोलीभाली स्त्रियों कुचाली पुरुषों के फंदे में फँस गयी हैं औेर उनका जनम बिगड़ गया है। ऐसे पुरुषों के हाथ जो स्त्रियों पड़ीं अपने पति के साथ फिर उनका अच्छा बरताव नहीं होता। यह एक मोटी बात है। जब अच्छा बरताव न होगा, पतिे का भी वह नेह उस स्त्री में न रह जावेगा। जब ये बातें हुईं, फूट की नींव पड़ी। जब फूट की नींव पड़ी, घर नरक हुआ, फिर सुख से दिन नहीं कट सकता, जिससे बढ़कर दुख की बात कोई हो नहीं सकती। तो क्या थोड़े से सुख के लिए एक अनजान नीच, खोटे और कुचाली पुरुष के लिए अपना घर यों बिगाड़ देना चाहिए? और जो कहीं कोई रोग लग गया, क्योंकि ऐसे पुरुष रोग से भरे रहते हैं, तो सब सत्यनाश हुआ। रोग ने देह में घर किया, लड़के बालों से मुँह मोड़ना पड़ा। जो लड़के बाले हुए भी, तो पहले तो जीते नहीं, जो जीये तो वह भी जनम भर झींखते रहे। कहीं किसी ने देख सुन लिया तो भी वही बात हुई। जग में नीचा अलग देखना पड़ता है और आँख तो किसी के सामने ऊँची हो ही नहीं सकती। ये तो यहाँ की बातें हुईं। वहाँ जो भगवान इस बुरे काम का पलटा देंगे सुरत करने से भी रोंगटे खड़े होते हैं।
पारबती इतना कहकर चुप हो गयी और देवहूती के मँह की ओर देखने लगी। उसने देखा, उसके मुखड़े पर एक अनूठी ललाई झलक रही है, आँखों से जीत फूट रही है और वह बहुत ही धीरी पूरी जान पड़ती है। पारबती यह देखकर मन-ही-मन बहुत सुखी हुई। इसके पीछे दोनों वहाँ से उठकर चली गयीं।
बारहवीं पंखड़ी
देवहूती माँ के साथ फुलवारी से घर आयी। कुछ घड़ी घर का काम-काज करती रही। पीछे अपनी कोठी में आकर चुपचाप बैठी। इस घड़ी कुछ काम इसके पास नहीं था; पर मन के लिए कुछ काम चाहिए, मन बिना काम नहीं बैठ सकता। जब सुनसान रात में हम गाढ़ी नींदों सोते हैं, जिस घड़ी हमारे हाथ-पाँव नाक-कान आँख मुँह किसी के लिए कोई काम नहीं रहता, मन उस घड़ी भी अपनी रूई-सूत में उलझा रहता है। जो बातें हम दिन में देखते सुनते हैं, जो काम हम जागते में करते हैं, उन्हीं को उलट-पलट कर वह उस समय ऐसी मूरतें गढ़ता है, ऐसे-ऐसे दिखलावे दिखलाता है, जो सोच-विचार में भी नहीं आ सकते। इसी का नाम सपना है। देवहूती का मन भी इस घड़ी एक काम में लगा। यह सोचने लगी-इस धरती पर भी कैसे-कैसे लोग हैं! दूसरे को छलने के लिए कैसी-कैसी बातें बनाते हैं! कामिनीमोहन की चीठी को पढ़कर मैंने उसका एक-एक अक्षर सच समझा था, पर आज उसका भण्डा फूटा। माँ की बातों को सुनकर मैंने समझा ऊपर से वह जैसा भला और अच्छा है, भीतर से वह वैसा ही बुरा और टेढ़ा है। राम ऐसे लोगों से काम न डालें। वह इन सब बातों को सोच ही रही थी, इतने में फूल तोड़ने का समय हुआ जानकर बासमती वहाँ आयी और उदास मन से देवहूती के पास बैठ गयी। देवहूती ने देखकर पूछा, बासमती आज इतनी उदास क्यों हो?
बासमती-बेटी! मैं उदास क्यों हूँ, मैं इसको क्या बताऊँ? न जाने मेरा जी कैसा है, जो दूसरे का दु:ख देख ही नहीं सकता। और न जाने तुमने मुझपर क्या कर दिया है, जो दिन रात तुम मेरे चित्त से उतरती ही नहीं हो। जब मैं तुम्हारी बातें सोचती हूँ, तभी मेरा जी भर आता है। इस घड़ी मैं यही सोच रही थी। इसी से उदास जान पड़ती हूँ-नहीं, तो और कोई दूसरी बात तो नहीं है।
देवहूती-क्यों? है क्या?
बासमती-क्या यह भी बताना होगा? बेटी! तू बड़ी भोली है। तेरा यह भोलापन ही तो मुझे और मार डालता है। न जाने तेरा दिन कैसे बीतेगा।
देवहूती-दिन तो सभी बीतते जाते हैं, क्या अब तक कोई नहीं बीता है?
बासमती-बेटी, तुम इन बातों को क्या समझोगी? हम लोगों ने इसी में बाल पकाये हैं। समय का फेरफार देखा है। हमी लोग इन बातों को समझती हैं। यह हम भी जानती हैं-सभी दिन बीत जाते हैं। कोई बीतने से नहीं रहता। पर क्या जैसे तुम्हारा दिन बीत रहा है, इसको इसी भाँत बीतना चाहिए? तुम्हारे ये ही दिन हँसने-बोलने और रंगरलियाँ मनाने के हैं। तुम्हारे ये दिन बनाव सिंगार और सजधज के हैं। ये ही दिन हैं जो आँख किसी चाँद से मुखड़े की ऐसी मतवाली होती है, जो एक पल का ओट भी नहीं सह सकती। कान किसी मिसरी से भी मीठी बातों के ऐसे प्यासे होते हैं, जो रात दिन उसका रस पीने पर भी प्यास नहीं उतरती। ये ही दिन हैं, जो घर में स्वर्ग की बयार चलती है, हाथों में चाँद आता है। थल में कमल फूलता है और पास ही कोकिल बोलता है, पर तुम्हारा दिन ऐसे कहाँ बीतता हैं? चमेली खिल गयी है, भँवर कहाँ है? तारों से सजकर रात की छबि दूनी हो गयी है, पर उसका मुँह उजला करनेवाला चाँद कहाँ है? तुम्हारा जोबन बन का फूल हो रहा है, जो सुनसान बन में खिलता है और वहीं कुम्हिला जाता है।
देवहूती-तो क्या दूसरे का सेंदुर देखकर लिलार फोड़ना होगा?
देवहूती ने इस बात को इस ढंग से कहा, और कहने के समय उसके मुखड़े पर कुछ ऐसा तेज दिखलायी पड़ा, जिसको देखकर बासमती काँप उठी। वह देवहूती की माँ से बहुत डरती थी, इसलिए चट बात पलट कर बोली-
बासमती-नहीं नहीं, बेटी! मैं यह नहीं कहती। मैं यह कहती हूँ जो आज बाबू साधु न हो गये होते, तो तुम्हारी यह दशा क्यों होती! मैं तुम्हारा दुख देखकर ही रोती हूँ। और क्या मैं कोई दूसरी बात कहती हूँ?
देवहूती-यह सच है, पर क्या तुमको ऐसी बातें मुझसे कहनी चाहिए, जिन बातों को सुनकर मेरे जी को गहरी चोट लगे? तुमको तो ऐसी बातें करनी चाहिए, जिससे मैं अपना दुख कुछ घड़ी भूल जाऊँ-मेरा जी कुछ बहले।
बासमती-बेटी! मैं बहुत सीधी हूँ-काट छाँट नहीं जानती। तुमको देखकर जो दुख मुझको होता है-उसको मैं तुमसे कह देती हूँ-पेट में नहीं रखती।
देवहूती-मैं यह नहीं कहती-पर वैसी बातों को सुनकर मेरे जी को बहुत बड़ी चोट लगती थी-इसीलिए मैंने तुमसे आज ये बातें कहीं-नहीं तो क्या काम था। देखो, बासमती! इस धरती पर हँसने, बोलने, रंगरँलियाँ मनाने, अच्छे गहने कपड़े पहनने, प्यार करने और कराने ही में सुख नहीं है, और बातों में भी सुख है। जिसका सुहाग बना है, जिसका जोड़ा नहीं बिछुड़ा है-जिसका पति आँखों में बसता है-कलेजे का हार है, वह रंगरँलियाँ मनावे, हँसे, बोले, अच्छे गहने कपड़े पहने, तो उसके लिए सब सजता है-जो वह ऐसा न करे तभी बुरा है। जो जो बातें एक दूसरे के सुख के लिए भगवान ने बनायी हैं-अपनी और अपने पति की भलाई के लिए उनको काम में न लाना भगवान की चलाई हुई बातों के मिटाने का जतन करना है। हमारे यहाँ पोथियों में लिखा है, ”पति स्त्री का देवता है।” सच है-जो जिसका देवता है-वही उसका सब कुछ है-स्त्री का पति ही सब कुछ है-जैसे बने उसी की होकर रहना चाहिए। इसी में सब सुख है। पर जिसका भाग फूट गया है-जिसका जोड़ा बिछुड़ गया है-जिसके सर का सेहरा उतर गया है-उसको इन बातों में सुख नहीं है-इन बातों को जी में लाना भी उसके लिए पाप है-उसके लिए सुख की दूसरी ही बातें हैं। इस धरती पर कितने बच्चे ऐसे हैं जिनकी माँ नहीं, कितने बाप हैं जिनको बेटी नहीं, कितने भाई हैं जिनकी बहन नहीं, कितने रोगी हैं जिनकी कोई सेवा करनेवाला नहीं-कितने दुखिया हैं जिनका कोई आँसू पोछनेवाला नहीं-कितने भूखे, कंगाल हैं जिनको कोई सहारा देनेवाला नहीं। क्या बिना माँ के बच्चों को पालने में, क्या बिना बेटी और बहन के बाप-भाई को धर्म की बेटी और बहन बनाने में, क्या रोगियों की सेवा करने में, दुखियों का आँसू पोछने में, भूखे और कंगालों को सहारा देने में, सुख नहीं है? बहुत बड़ा सुख है, और इसी सुख की खोज ऐसी स्त्रियों को करनी चाहिए। घर ही में कोई झगड़ालू है, किसी में ऐंठ बहुत है, किसी को अपनी ही पड़ी रहती है, कोई दूसरे की नहीं देख सकता, कोई थोड़े ही में बिगड़ जाता है, कोई मनाने पर भी नहीं मानता-कहीं कोई स्त्री पति से रूठ कर मुँह लपेटे पड़ी है-कहीं कोई बच्चा अपनी कड़वी माँ के थपेड़ों को खाकर पड़ा रो रहा है-कहीं भाई-भाई लड़ रहे हैं-कोई बाप बेटे में चल रही है-कहीं सास पतोहू में उलझी है-कहीं देवरानी जेठानी तड़प रही हैं-कहीं ननद भौजाई में तू तू मैं मैं हो रही है। इन सबसे एक रस बरतने में-समय-समय पर सबकी सम्हाल करने में-उलझते को सुलझाने में-बिगड़ते को बनाने में-क्या सुख नहीं है? और क्या हम सी स्त्रियों के लिए इस सुख से बढ़कर कोई और सुख हो सकता है? यह सुख ऐसा वैसा सुख नहीं है-इस सुख के मिलने पर-ऊसर में गंगा बहती है-अंधेरी रात में चाँद उठता है-जलती दोपहर में ठण्डी पवन चलती है-घूर पर पारस मिलता है-उकठा हुआ काठ हरा होता है-और रेतीली धरती पर वर्षा होती है। मैं इसी सुख की खोज में हूँ, इस धरती पर अब मेरे लिए कोई दूसरा सुख नहीं है।
पतिवाली स्त्रियों के पास बड़ा झंझट होता है, सबसे पहले उसको पति की सेवा टहल और सम्हाल करनी होती है, क्योंकि सबसे बड़ा धर्म उसका यही है, इसलिए वह जैसा चाहिए वैसा इस सुख को नहीं पा सकती। हमारी ही ऐसी स्त्रियों इस सुख को ठीक-ठीक पा सकती हैं। पति के संग स्त्रियों का कुछ स्वार्थ भी रहता है, इसी से उनके सुख में कभी-कभी दुख की झलक भी पायी जाती है। पर जिस सुख की बात हमने कही है, माँ कहती हैं इसमें स्वार्थ की छूत नहीं रहती। इसलिए इसमें दुख का लेश भी नहीं रहता। इसी ढंग का सुख कोई-कोई पतिवाली स्त्री भी पाती हैं, पर वे ही जो सब स्वार्थों से मुँह मोड़कर पति की सेवा टहल करती हैं।
बासमती देवहूती की बातों को सुनकर भौचक बन गयी और उसका मुँह तकने छोड़ उससे फिर कुछ कहते न बना। इसके पीछे दोनों फूल तोड़ने के लिए चली गयीं।
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