उपन्यास – ठेठ हिंदी का ठाट – अध्याय 2 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
ललकि ललकि लोयनन तेहि, लखि लखि होहु निहाल।
लाली इत उत की लहत, लहे जीव जेहि लाल।
एक ग्यारह बरस की लड़की अपने घर के पास की फुलवारी में खड़ी हुई किसी की बाट देख रही है। सूरज डूबने पर है, बादल में लाली छाई हुई है, बयार जी को ठण्डा करती हुई धीरे-धीरे चल रही है। थोड़ी बेर में सूरज डूबा, कुछ झुट पुटा सा हो गया, फुलवारी के एक ओर से कोई उसी ओर आता दीख पड़ा, जिस ओर वह लड़की खड़ी थी। कुछ बेर में वह आकर उस लड़की के पास खड़ा हो गया, लड़की ने देखकर कहा,देवनंदन अब तक कहाँ थे? मैं बहुत बेर से यहाँ खड़ी तुम को अगोर रही हँ।
देवनंदन चौदह-पन्द्रह बरस का लड़का है, उस के सुडौल गोरे मुखड़े, अच्छे हाथ पाँव, छरहरी डील, ऊँचे और चौड़े माथे, लम्बी बाँहें, और जी लुभानेवाली बड़ी-बड़ी आँखों के देखने से जान पड़ता है जयंत सरग छोड़ कर धरती पर उतरा है। यह लड़का उसी गाँव में रहता है जहाँ वह लड़की रहती है, छोटेपन से ही दोनों, दोनों को चाहते आये हैं। देवनंदन तीसरे-चौथे जब छुट्टी पाता, इस लड़की से आकर मिलता। यह लड़की भी बड़े चाव से उससे मिलती और अपनी मीठी-मीठी बातों से उसके जी को लुभाती। लड़की जानती थी, आज देवनंदन आवेगा, इसी से पहले से उसकी बाट देख रही थी, वह आया भी, पर कुछ अबेर कर के, इसीलिए लड़की ने उससे पूछा, देवनंदन अब तक कहाँ थे?
उसकी बातों को सुनकर देवनंदन ने पहले प्यासी आँखों से उसको देखा,पीछे कहा-
”देवबाला! क्या मैं तुमको भूल सकता हूँ, पर क्या करूँ आज गुरु जी ने छुट्टी सूरज डूबने पर की, इसी से यहाँ आने में कुछ अबेर हो गयी,क्या मैं जो थोड़ी बेर और न आता, तो तू यहाँ से चली जाती?”
”हाँ भाई! क्या करती, अंधेरा होने पर यहाँ ठहर तो नहीं सकती, माँ जो कुढ़ने लगती हैं।”
देवनंदन-तो फिर हम से-तुमसे आज भेंट कैसे होती?
देवबाला-कैसे होती, इसी से तो कहती हूँ, तुम जैसे पहले मेरे घर आया करते थे, उसी भाँति अब भी आया करो। माँ भी एक दिन कहती थीं,बहुत दिन हुआ देवनंदन को मैंने नहीं देखा।
देवनंदन-तुमारे घर आने में मुझे कौन अटक है, पर देखो यही दिन पढ़ने-लिखने के हैं, जो इधर-उधर घूम फिर कर इन को बिता दूँगा, तो फिर पढ़ना-लिखना कैसे आवेगा?
देवबाला ने रूठ कर कहा, क्या हमारे घर आना इधर-उधर घूमना है। हमारे घर घड़ी आध घड़ी के लिए आओगे, तो क्या इसी में तुम्हारा पढ़ना-लिखना न हो सकेगा।
देवनंदन ने हँस कर कहा, अच्छा अब मैं फिर तुमारे घर कभी-कभी आया करूँगा। आँचल के नीचे क्या छिपाये हो देवबाला?
देवबाला-क्या देखोगे?
देवनंदन-हाँ देखूँ, क्या है।
देवबाला ने आँचल हटा कर दिखलाया। देवनंदन ने देखा फूलों से बनी हुई एक बहुत ही अच्छी माला है।
देवनंदन ने पूछा-”यह माला तुम ने क्यों बनाई है देवबाला?”
देवबाला-बतलाओ, देखें।
देवनंदन-हम कैसे बतलावें, हम तुमारे जी की बात कैसे जान सकेंगे।
देवबाला-क्या तुम हमारे जी की बात नहीं जानते, जो नहीं जानते तो हम से मिलने के लिए यहाँ कैसे आया करते हो।
देवनंदन ने देखा इन बातों के कहते-कहते लाज से उस की आँखें नीची हो गयीं। गाल की लाली कुछ और गहरी हो गयी। जिससे उसका आप ही सुहावना मुखड़ा और भला दिखलाई देने लगा।
देवनंदन ने कहा-हाँ यह तो जानते हैं, तुम हम को प्यार करती हो, हम को देखकर फूली नहीं समाती हो, और इसीलिए हम तुम से मिलने के लिए बड़े चाव से आते हैं। पर माला की बात तो निपट नई है, हम इस को भला कैसे बता सकते हैं।
देवबाला ने कहा-क्या जिस को कोई प्यार करता है, कुछ अच्छा मिलने पर वह उस को उसे देना नहीं चाहता।
देवनंदन-क्या यह माला तुम को यहीं मिली है?
देवबाला-नहीं माला नहीं, फूल मिला है, माला मैंने बनाई है।
देवनंदन-तुम ने मेरे लिए इतना कुछ किया है, अच्छा लाओ देखें?
देवबाला-क्या मेरे हाथ में तुम नहीं देख सकते हो, पहनो तो दूँ।
देवनंदन-अच्छा दो, पहनूँगा।
देवबाला ने धीरे-धीरे अपने बड़ के नए पत्ते से हाथों को बढ़ा कर वह फूल की माला देवनंदन के हाथों में दी। देवनंदन ने प्यार के साथ अपने हाथों से उस माला को लेकर गले में पहन लिया।
देवबाला ने देख कर कहा-देवनंदन! तुमारे गले में यह माला बहुत ही भली लगती है, अब जब जब तुम आओगे, मैं तुम को एक माला बना कर दिया करूँगी।
देवनंदन ने बहुत ही प्यार के साथ उस की इन बातों को सुना। इसी बीच अंधेरा होने लगा। देवबाला ने कहा, अब अंधेरा हुआ जाता है, मैं यहाँ ठहर नहीं सकती।
देवनंदन ने कहा-तो अच्छा तुम जाओ, अब मैं भी जाता हूँ।
यह सुन कर फुलवारी की ओर से धीरे-धीरे देवबाला घर चली गयी। पीछे देवनंदन भी कुछ सोचते-सोचते फुलवारी से बाहर हुआ।
दूसरा ठाट
देवबाला की माँ का नाम हेमलता है। यह देवनंदन को बहुत चाहती, जब वह घर आता, यह उसका बड़ा लाड़ प्यार करती, वह सोचती, फूल-सी मेरी लाड़िली के लिए, कौल से देवनंदन को छोड़ और कोई जोग बर नहीं हो सकता। घर में जब यह दोनों साथ खेलते, उस घड़ी हेमलता की आँखों को इन की जोड़ी देखकर बड़ा सुख मिलता। जब यह दोनों छोटे थे, उन दिनों हेमलता इन को कभी-कभी फूलों से सजाती, और दोनों को अपनी गोद में बैठाल कर सरग सुख लूटती। जब से देवनंदन सयाना हुआ है, लाज से बहुत हेमलता के घर न आता था, और इसीलिए फुलवारी में देवबाला को उलहना देना पड़ा था। पर जब कभी वह आता, हेमलता उसी भाँति उसको प्यार करती, उसी भाँति देवबाला के साथ उसको मिलने-जुलने और खेलने देती। हेमलता भले घर की पतोहू है, वह जानती थी ग्यारह बरस की लड़की का चौदह-पन्द्रह बरस के पराये लड़के के साथ मेल-जोल भलेमानसों की चाल नहीं है। पर जो बात उस के जी में थी, उससे वह दोनों के आपस के नेह में कोई बुराई न समझती। घर की फुलवारी में भी देवबाला के पास देवनंदन को आने-जाने से न रोकती।
एक दिन हेमलता अपने पती रामकान्त के पास बैठी हुई पंखा झल रही थी, इधर-उधर की बातें हो रही थीं, इसी बीच देवबाला की बात उठी। हेमलता ने कहा-”देवबाला ग्यारह बरस की हो गयी, अब उसका ब्याह हो जाना चाहिए, मैं चाहती हूँ इस बरस आप इस काम को कर डालें।”
रामकान्त ने कहा-”यह बात मेरे जी में भी बहुत दिनों से समाई है, मैं भी इस बरस उसका ब्याह कर देना चाहता हूँ, पर क्या करूँ कहीं जोग घर बर नहीं मिलता, एक ठौर ब्याह ठीक भी हुआ है, तो वह पाँच सौ रोक माँगते हैं, इसी से कुछ अटक है, नहीं तो इस बरस ब्याह होने में और कोई झंझट नहीं है।”
हेम-क्या आप मेरी बात न मानेंगे? मैं कई बार आप से कह चुकी हूँ, देवबाला के जोग देवनंदन ही है। आप क्यों नहीं देवबाला का ब्याह देवनंदन के साथ कर देते। देवनंदन से बढ़ कर बर कहाँ मिलेगा।
राम-मैं तुम को कहाँ तक समझाऊँ, देवनंदन का ब्याह हमारी लड़की के साथ नहीं हो सकता। यह मैं जानता हूँ, देवनंदन का बाप बड़ा धनी है;देवनंदन भी देखने-सुनने पढ़ने-लिखने सब बातों में अच्छा है, पर हाड़ में तो अच्छा नहीं है!
हेम-कैसा! हाड़ में अच्छा नहीं है कैसा! मैं तो जानती हँ उसके ऐसा सुघर सजीला लड़का इस गाँव भर में कोई दूसरा नहीं है।
राम-जो तुम को यही समझ होती, तो मुझ को इतनी सिरखप क्यों करनी पड़ती। मैं यह कहता हूँ, उस के घर की लड़की का ब्याह मेरे यहाँ हो सकता है, मेरे घर की लड़की उस के यहाँ नहीं दी जा सकती। वह जात में मुझ से उतर कर है।
हेम-यह कैसी बात! जिस की लड़की लेते हैं, जिस के यहाँ भात खाते हैं, वह जात में कैसे उतरा कहा जा सकता है। मैं समझती हूँ ऐसी ठौर लड़की देने में कोई बुराई नहीं है।
राम-तुमारी समझ ही कितनी! तिरिया ही न हो; बाप दादे से जो बात होती आती है, उसको कोई कैसे छोड़ सकता है। क्या लोगों के हँसने का डर तुम को नहीं है?
हेम-हँसने का डर कैसा? जान बूझ कर बुरा काम न करना चाहिए, भला काम करने पर कोई हँसे, हँसा करे। फिर जो समझवाले हैं, पढ़े-लिखे हैं, भले हैं, वह ऐसी बातों पर हँसते नहीं, कोई थोड़ी समझ का, अनपढ़, गँवार और नंगा लुच्चा हँसे, हँसा करे, इस में कोई बुराई नहीं। बाप दादे जो कर गये हैं,वही करना चाहिए, पर बाप दादे ने जो कुछ भूल की हो, कोई बुरा काम किया हो, उसको न करना ही सब लोग अच्छा समझते हैं। आप ने जहाँ देवबाला का ब्याह ठीक किया है, मैं जानती हूँ। देवपुर के दयासंकर पाण्डे के लड़के रमानाथ से आप देवबाला का गँठजोड़ करना चाहते हैं। भला बताइये तो रमानाथ-सा अनपढ़, काला-कलूटा, गाँव भर का नंगा लड़का ही देवबाला के लिए जोग बर है, दयासंकर के छप्पर के झोंपड़े ही देवबाला सी दुलारी और प्यारी लड़की के रहने जोग घर है। जनम भर के लिए लड़की धूल में मिला दी जावे, यह कोई हँसी की बात नहीं है। लड़की को अच्छा खाना न मिले,अच्छा कपड़ा न मिले वह अनपढ़, गँवार, मूफट्ट, लोहलट्ठ के पाले पड़ कर जनम भर जला करे, यह हँसी की बात नहीं है, दुख की बात नहीं है। पर जोग बर के साथ अच्छे घर में लड़की देना, सो भी उसके यहाँ जिस की लड़की लेते हैं, जिस का भात खाते हैं, हँसी की बात है। जो हँसी हँसनेवाले के मूँ तक ही रहती है, जिस हँसी से हमारा कुछ बिगाड़ नहीं हो सकता, उस ओर तो हमारा मन जाता है, पर कैसे पछतावे की बात है, जिस काम के करने से हमारी लड़की जनम भर बिपत की नदी में डूबती उतराती रहती है, उस काम के न करने की ओर हमारा मन नहीं जाता। आप मेरी इन बातों को सोचें और अपनी फूल ऐसी सुकुआरी लड़की को ऊसर में न फेंकें।
राम-आज तो तुम ने बातों की झड़ लगा दी। इतनी सी बात के लिए इतना पचड़ा, मैं तुमारी सब बातें समझता हूँ। पर जिस काम के करने से मुझ को अपनी मूँछ नीची करनी पड़ेगी, उस काम को मैं जी रहते कभी न कर सकूँगा। दयासंकर और बातों में कैसे ही होवें, पर हाड़ में बहुत अच्छे हैं, उनके यहाँ ब्याह करने ही में मेरी पत रहेगी। देवनंदन सोने का भी हो तो, हमारे काम का नहीं है।
हेम-भला काम करने में मूँछ नीची क्यों होगी, यह मैं नहीं समझती, पर जो आप नहीं मानते हैं, तो कोई अच्छा घर बर खोजिये। दयासंकर के यहाँ मैं अपनी लड़की का ब्याह कमी न होने दूँगी।
राम-न होने दोगी, तो गहने उतारो, घर दुआर बेचो, बारह चौदह सौ रोक दो, अच्छा घर बर मैं खोज देता हूँ। बेटी का ब्याह कर के घर-घर भीख माँगते फिरना।
हेम-बड़े दुख की बात है, जिन को आप हाड़ वाले कहते हैं, उनके यहाँ अच्छा घर बर मिलने से हम लोग आप कंगाल बनते हैं, जो देवनंदन का बाप सदासिव मिसिर भलेमानसों की भाँति बिना एक कौड़ी लिए हम से ब्याह करना चाहते हैं, उनके यहाँ देवबाला के देने से आप की मँछ नीची होती है। तो क्या दया-संकर के यहाँ ब्याह कर के लड़की को जनम भर के लिए मिट्टी में मिला देना ही आप अच्छा समझते हैं।
राम-किसी को कोई मिट्टी में नहीं मिलाता, जो जिस के भाग में होता है, वही होता है, देवबाला के भाग में दुख बदा है तो उसको सुख कैसे मिलेगा?
हेम-सच है, पर किसी को जान बूझ कर जब हम आग में फेंक देंगे तो वह क्यों न जलेगा, भाग वहीं माना जाता है जहाँ बस नहीं चलता।
राम-हुआ, बहुत हुआ, चुप रहो, दयासंकर भिखारी नहीं हैं, अब भी उनके पास दस पाँच बीघा खेत है, रोटी दाल चली जाती है। घर के बोझ पड़ने पर रमानाथ भी बहुत कुछ सुधार जावेगा।
हेम-नहीं नहीं मान जाओ, हठ न करो, हाड़ लेकर क्या करना होगा। अच्छा घर बर मिलता तो आप हाड़ ही वाले के यहाँ ब्याह करते, मैं न रोकती। पर जब अच्छा घर बर मिलना पैसा हाथ में न होने से कठिन है, तो मिले हुए जोग घर बर को न छोड़िये। सदासिव मिसिर भी बाम्हन ही हैं, सब बातों में हमारे जैसे हैं। हम ऊँचे हैं, वह हम से उतर के हैं, यह सब घमण्ड की बातें हैं, पढ़े-लिखे और समझ बूझवालों को ऐसी बातें नहीं सोहतीं।
रामकान्त अब की बार चिढ़ गये, बोले। देखो आज तुम ने मुझ को बहुत खिजाएा, पर चेत रखो, जो फिर मुझ से ऐसी बातें करोगी, मुझ को बिना समझे बूझे छेड़ोगी, तो तुम को ठीक करने के लिए हम को जतन करना होगा। तुमारी बातों में आकर हम अपनी जात नहीं गँवा सकते। तुम तिरिया हो,हठ करना छोड़ और कुछ तुम को नहीं आता।
यह कह कर खिजलाये हुए रामकान्त घर से बाहर हो गये।
तीसरा ठाट
रामकान्त के चले जाने पर हेमलता कुछ घड़ी वहीं बैठी रही, पीछे वहाँ से उठी आँगन में आयी, जी बहलाने के लिए इधर-उधर टहलने लगी, पर जी न बहला, आँखों में आँसू आते, धीरे-धीरे उनको वह पोंछ देती, रह-रह कर जी में घबराहट होती, उसको भी वह दबाना चाहती, पर न आँख के आँसुओं ने माना, और न जी की घबराहट ही ने पीछा छोड़ा। वह सोचती ”हाय! क्या से क्या हुआ जाता है; मेरी बहुत दिनों की आस, मेरा बहुत दिनों का भरोसा,सब धूल में मिला जाता है। मनाने से वह मानते नहीं, वह हठी हैं मैं जानती हूँ, जितना मैं उनको समझाऊँगी उरद के आटे की भाँति वह ऐंठते जावेंगे। फिर क्या करूँ, कैसे बात बने।” यही सब सोचते-सोचते उसका जी बहुत घबराया, आँख के आँसुओं ने भी झड़ बाँध। इसलिए वह आँगन से निकल कर घर की फुलवारी में आयी; कभी बेले, कभी चमेली, कभी दूसरे फूल के पौधों के पास घूमने लगी। जी कुछ ही बहला था, अचानक एक गीत से उसकी पीर और बढ़ गयी। गीत यह था।
गीत
>मान जा भँवर कही तू मेरी।
भूल न रस लै इन फूलन को पैयाँ लागत तेरी।
तोरि तोरि इनहीं को गजरा अपने हाथ बनैहों।
अपनावन को पहिनि गरे मैं मनवारे को दैहों।
कितने फूलन बारे यामें नहिं तेरो बिगरै है।
पै माने इतनी ही बतिया छतिया मोर सिरैहै।
कुछ ही बेर में उस ने यह दूसरा गीत भी कलेजा पकड़े हुए सुना।
गीत
>भौंर तू कही न मानी बात।
बेर बेर इनही फूलन पै आइ आइ मंडरात।
भौंरी कही मानती मेरी तू तो है मतवारो।
कानन पारि न सुनत याहि ते नेको बैन हमारो।
अरे ढीठ कारे मतवारे कहै क्यों न का पैहै।
आइ आइ मेरे फूलन को जो बिगारि तू जैहै।
अब की बार वह न रह सकी, भीतर के दुख और पछतावे से बावली सी बन गयी। पर इसी बीच उस ने यह तीसरा गीत फिर सुना, जिस से उसका मन एक दूसरी ही ओर गया।
गीत
भँवर अब कहा खिजावत मोही।
दौरत फिरत सु क्यों मो पाछे कहा भयो है तोही।
जानि गयी मैं रूसि गयो तू सुनि कै बतिया मेरी।
साँची है कछु सुनन, गुनन की अहै बानि नहिं तेरी।
लखि तेरे औगुन हठ एरे चुप साधे ही रहिहौं।
जा, बजमारे अब मैं तो सों भूलि कछू नहिं कहिहौं।
एक एक करके इन गीतों को फूल तोड़ते हुए देवबाला ने गाया था इसलिए पहले हेमलता का जी देवबाला के भोलेपन की ओर गया, रुलाई में हँसी आयी, पीछे वह सोचने लगी, जो बड़ों की भली चाल को छोड़ता है, वह कभी अच्छा नहीं करता, भले-मानसों की चाल है, वह अपने पाँच सात बरस की लड़की को भी लड़कों से मिलने-जुलने नहीं देते। मिलने-जुलने से ही हेलमेल होता है, हेलमेल ही से लगन लगती है। पर मैंने बड़ों की चाल छोड़ी, अपनी मनमानी बूझों के सहारे, देवबाला और देवनंदन के आपस के हेलमेल को न रोका, इसी से आज देखती हूँ देवबाला के जी में देवनंदन के नेह ने घर किया है। जिससे एक बहुत बड़ी बुराई होनी चाहती है, क्योंकि अब देवनंदन के साथ देवबाला के ब्याह की कोई आसा नहीं है। देवबाला को इस से कितनी पीड़ा, कितनी बिथा, कितना दुख होगा, सभी समझ सकता है। इस से मैं डर रही हूँ, ऐसा न होवे, जो देवबाला अपने जी पर खेले। भगवान तुम मुझ को बचाओ, मैंने जो बुराई की है, उस के लिए मैं देखती हूँ मुझे बहुत कुछ झेलनी होगी। जिस देस में लड़की अपना ब्याह आप नहीं कर सकती, जिस देस में माँ बाप के हाथों ही निबटारा है, उस देस के लिए यह पुरानी चाल कितनी अच्छी है, जो लड़की लड़कों का सब भाँत का मेल रोका जावे, लड़कपन ही से इस देस के भलों की लड़कियाँ ओट में रहना सीखती हैं, उसका कारण यही है, जिस में उनके जी में किसी का नेह घर न करने पावे। पर मैंने अपने हाथों सब बात बिगाड़ी है, जान बूझकर बुरा किया है, इस से भलाई के मग में काँटे पड़ें तो कौन अचरज है।
हेमलता इसी उधेड़बुन में थी, इसी बीच देवबाला के कानों में किसी के पाँव की चाप पड़ी, उस ने फिर कर देखा, हेमलता कुछ मन-ही-मन सोचती उसी की ओर आ रही है। इससे वह कुछ लजाई, कुछ डरी, आँचल के फूल को जहाँ खड़ी थी, वहीं डाल दिया, पर जो दो-चार फूल उस के हाथों में थे,उसको न फेंका, सोचा फेंकने से माँ को खुटक होगी, इससे इनका हाथों ही में रहना अच्छा है। अब हेमलता पास आ गयी थी, देवबाला भी अपनी ठौर से बहुत कुछ आगे बढ़ आयी थी। लाज और डर से देवबाला सिर ऊँचा न करती थी, वह जी में सोच रही थी, जो माँ ने मेरे गीतों को सुना होगा, तो अपने जी में क्या कहती होगी। इतने में हेमलता ने कहा, देवबाला तू ने ये फूल क्यों तोड़े हैं?
देवबाला-माँ! क्या फूल नहीं तोड़ते?
हेमलता-क्यों नहीं तोड़ते, पर तू फूल लेकर क्या करेगी, फिर साँझ को कोई फूल तोड़ता है!
देवबाला-अच्छा! अब न तोडूँगी।
हेमलता-हाँ! अब मत तोड़ियो। और देवबाला तू अब सयानी हुई, इससे देवनंदन से भी अब तू न मिला कर, क्योंकि ऐसा करने से लोग हँसेंगे,भलेमानसों की यह चाल नहीं है।
देवबाला कुछ डरी। कुछ अचरज में आयी, उससे कुछ बोला न गया। वह घबराई हुई आँखों से अपनी माँ के मूँ की ओर देखने लगी।
इस से हेमलता को बड़ी बिथा हुई, पर उसने अपने जी की छिपाकर, कहा, क्यों देवबाला, बोलती क्यों नहीं, इतनी घबराई क्यों?
देवबाला-माँ, घबराई तो नहीं, पर क्या बड़ों की सब बातों ही को सुनकर कुछ कहना पड़ता है।
हेमलता ने देखा इन बातों के कहते-कहते उस का मुंह गम्भीर हो गया, आँखें थिर हो गयीं, और घबराहट की वह पहली बातें जाती रहीं। वह अचानक उस का यह ढंग देखकर डरी, फिर कुछ न बोली, चुपचाप पहले की भाँति उधेड़बुन में लगी हुई घर की ओर चली, देवबाला भी उसी के पीछे-पीछे घर आयी। आज वह देवनंदन से न मिल सकी।
इसके कुछ दिनों पीछे रमानाथ के साथ देवबाला का ब्याह ठीक हो गया, चढ़ावा भी चढ़ गया। धीरे-धीरे गाँव के सब लोगों के साथ इस बात को देवबाला और देवनंदन ने भी जाना।
चौथा ठाट
आज देवबाला छिपकर फुलवारी में आयी है, डबडबायी आँखों घबरायी हुई इस पेड़ तले उस पेड़ तले घूम रही है। कभी रोती है, कभी आँचल से आँसुओं को पोंछ डालती है। न जाने मन-ही-मन क्या सोचती है, कैसी-कैसी बातें उसके जी में समा रही हैं, जिससे उसका मन थिर नहीं होता है। इतने में उसकी आँखें फूल की उन पंखड़ियों की ओर गयीं, जो अपने पौधों के पास कुम्हलाई हुई धरती पर पड़ी थीं, उनको देखकर उसके जी में बहुत सी बातें समाईं। उसने सोचा, ”इस धरती पर सुख ही नहीं दुख भी हैं, अभी दो दिन की बातें हैं, यह पंखड़ियाँ कैसी हँस रही थीं, इनमें कैसी सुघराई थी, कैसा अनोखापन था, कैसी जी लुभानेवाली छटा थी। पर आज न वह हँसी है, न सुघराई है, न वह अनोखापन है, न वह छटा। आज वह कुम्हला गयी हैं, सूख गयी हैं, मुरझाई हुई धरती पर पड़ी हैं। जग का यही ढंग है, सब दिन एक सा नहीं बीतता, फिर जिस पर जो पड़ता है, उसको वह भुगतना होता है,होनहार अपने हाथ नहीं, मानुख सोचता और है, होता और है, घबराने से क्या होगा, जो भाग में लिखा है मिटने का नहीं, फिर धीरज क्यों न करें,बावली हो होकर कहाँ तक मरें।” इसी भाँति उसने और भी बहुत सी बातें सोचीं, पर उसके मन को ढाढ़स न होता था। कुछ बेर तक धीरज करके वह थिर, बिना घबराहट, और बहली हुई जान पड़ती। पर कुछ ही बेर में वह फिर घबराई, उदास और बावली बन जाती। जिस घड़ी उसका मन इस भाँत डाँवा डोल था, उसने फुलवारी की एक ओर से देवनंदन को अपनी ओर आते देखा।
देवनंदन धीरे-धीरे उसके पास आया, धीरे-धीरे अपनी आँखें उठाकर उसकी ओर देखा, पीछे दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गये। कुछ घड़ी दोनों चुप रहे,मन-ही-मन न जानें क्या-क्या सोचते रहे। फुलवारी में सब ओर सन्नाटा था, बयार ही धीरे-धीरे चलकर पत्तों को खड़खड़ाती थी, कभी-कभी कोई चिड़िया कहीं बोल उठती थी, नहीं तो और किसी भाँत फुलवारी का सन्नाटा न टूटता था। इससे बढ़कर सन्नाटा इन दोनों पर छाया था, हाथ-पाँव तक न हिलता था, आँख की पलक भी न पड़ती थी। पर कुछ ही देर में देवबाला चौंक पड़ी, इस भाँत चुपचाप बैठे रहना उसको भला न जान पड़ा, अब झुटपुटा भी होने लगा था, इसलिए उसने जी कड़ा करके कहा, देवनंदन तुम जानते हो, तुम को आज हमने यहाँ क्यों बुलाया है?
देवनंदन-क्यों बुलाया है देवबाला?
देवबाला-यह कहने को, तुम हमको भूल जाओ!
देवनंदन-क्यों?
देवबाला-क्या यह भी कहना होगा, क्या सब बातें तुम ने नहीं सुनी हैं?
देवनंदन-हाँ! हमने सब बातें सुनी हैं, पर क्या इसीलिए तुम को भूलना होगा, चाह के भी तो कितने ढंग हैं, माँ बाप की चाह क्या बेटे के साथ निराली नहीं होती, बहिन भाई का आपस का नेह क्या नेह में नहीं गिना जाता? तुम मुझसे छोटी हो, क्या मैं छोटी बहिन की भाँत तुम को प्यार नहीं कर सकता?क्या धरती में यह नाता भी अनोखा नहीं है! क्या मानुख के लिए निरास होने से किसी आस का होना अच्छा नहीं है?
देवबाला ने देखा, यह कहते-कहते देवनंदन की आँखें थिर हो गयीं, मुँह पर धीरज दिखलाई देने लगा, और घबराहट का नाम तक उसमें न था।
देवबाला ने एक ठण्डी साँस भरी, कहा, देवनंदन! तुम्हारी बातों को सुनकर मुझे बहुत ढाढ़स हुआ। मेरे कलेजे का बोझ बहुत हलका हो गया, आप का धीरज, आप की भलमनसाहत, सराहने जोग है, मुझको तुम से इन बातों को सुनने की आस न थी, मैं तुमको समझाना चाहती थी, पर तुमारी बातों ने मुझ को आप समझा दिया।
देवनंदन-क्यों देवबाला! क्यों तुम्हें मुझसे इन बातों के सुनने की आस न थी, क्या मैं बाम्हन का बेटा नहीं हूँ? क्या मैं हिन्दू के घर में नहीं जनमा हूँ?क्या मैं धरम की मरजादा नहीं जानता, क्या धरम मुझको प्यारा नहीं है? क्या हिन्दू की बेटी माँ-बाप जो कहें वह न करके दूसरा कर सकती है? क्या हम लोग बड़ों की चाल छोड़ सकते हैं? क्या माँ बाप जो कहें उसको सिर झुका कर मान लेना ही हम लोगों का धरम नहीं है? क्या अपने बड़ों की मरजादा हम लोग बिगाड़ सकते हैं? कभी नहीं!!! फिर क्यों न ऐसी बातें हम कहें। देवबाला जिस दिन मैंने सुना, तुमारा ब्याह रमानाथ के साथ ठीक हुआ है, उसी दिन मैंने यह सब सोच लिया था, खटका यही था, कहीं तुमारे जी को ऐसा होने से कड़ी चोट न पहुँचे, पर भगवान की दया से मेरी यह खुटक जाती रही,अब अपना दिन मैं बहुत सुख से बिताऊँगा।
देवबाला ने कहा, देवनंदन जाओ, भगवान तुम्हारा भला करें, जो तुमने मुझको समझा है वही समझ कर मुझको भूलना न! अब मैं यह न कहूँगी तुम मुझको भूल जाओ। मैं भी तुमको अपना भाई समझती रहूँगी।
देवनंदन उठकर खड़ा हुआ, जाना चाहता था, इतने में देवबाला ने फिर कहा, तनिक ठहरो, कुछ और कहूँगी।
देवनंदन-क्या कहोगी देवबाला! कहो!!
देवबाला-यही कहती हूँ, अपना ब्याह करना!
देवनंदन-यह तुमने क्यों कहा देवबाला?
देवबाला-न जाने क्यों मेरे जी में अचानक यह बात आयी, इसीलिए मुझको तुमसे यह बात भी कहनी पड़ी, मुझको पूरा भरोसा है, तुम मेरी बात मानोगे।
देवनंदन कुछ बेर चुप रहा, फिर कहने लगा, देवबाला इस बीच में तुम कुछ न बोलो, मैं क्या करूँगा, ठीक नहीं कह सकता, मानुख के बस में कुछ नहीं है, वह खेलाड़ी जो नाच चाहता है, नचाता है, हमने सोचा था कुछ और, हुआ कुछ और, अब फिर सोचें कुछ और, हो कुछ और, तो इससे न सोचना ही अच्छा है, ऐसी बातें तुम न छेड़ो, इससे मेरा जी बहुत दुखता है, भगवान के लिए ऐसी बात कहने के लिए तुम अपना मुँह फिर न खोलना।
देवबाला-मैं आपका जी दुखाया नहीं चाहती, जिस बात के सुनने से आपको दुख होगा, वह मैं कभी न कहूँगी, पर अचानक मैं ऐसा क्यों कह पड़ी, मैं यह आप नहीं समझ सकती हूँ, भगवान ही के हाथ सब कुछ है, यह आप बहुत ठीक कहतेहैं।
इतना कहते-कहते देवबाला की आँखों में आँसू भर आया, इस बात को देवनंदन ने भी देखा, पर उसने धीरज को हाथ से जाने न दिया था। इसीलिए बात फेर कर कहा, देवबाला! अंधेरा हुआ जाता है, क्या जानें घर तुमको कोई खोजे, इसलिए अब तुम जाओ, भगवान तुम्हारा धरम बनाये रहे। इसके पीछे देवबाला ने आँख पोंछ कर देखा, पर देवनंदन को वहाँ न पाया।
पाँचवाँ ठाट
आज देवबाला ससुराल जा रही है, जिस दिन वह छिपकर फुलवारी में देवनंदन से मिली थी, उससे कुछ ही दिनों पीछे उसका ब्याह रमानाथ के साथ हुआ, आज तीसरा दिन है, देवबाला के बाप रमाकान्त उसका गौना करना चाहते थे, पर रमानाथ के बाप दयासंकर ने न माना, वह हठ करके देवबाला को लिए जाते हैं, दो घड़ी दिन आया है, अपने गाँव से एक कोस पर देवबाला की डोली आयी है, कहार सब उसको लम्बी डगों लिए जा रहे हैं, घर से चलते बेले देवबाला बहुत रोई है, अब तक रो रही है, पर धीरे-धीरे उसका दुख घट रहा है, डोली चलाकर कहार सब ज्यों-ज्यों उसकी जनमधरती को,उसके माँ बाप को, उसकी लड़कपन की सहेलियों को, पीछे छोड़ रहे हैं, वोंही वों उसका दुख भी पीछे पड़ रहा है, कुछ ही बेर में देवबाला का जी ठिकाने हुआ, वह कुछ सम्हली, पर इसी घड़ी उसकी आँखों पर एक जी लुभानेवाली, झलक नाचने लगी, पहले सुडौल गोरा-गोरा मुखड़ा देख पड़ा, फिर घुघुरारे बार, फिर बड़ी-बड़ी आँखें फिर मीठा मुसकिराहट, फिर ऊँचा चौड़ा माथा, फिर छरहरी डील, इसके पीछे ऐसा जान पड़ा किसी की प्यार भरी बातें कानों को सुन पड़ती हैं, कोई प्यार से कह रहा है देवबाला! देवबाला!! फिर क्या जान पड़ा, एक सुन्दर फुलवारी है, कहीं बेला फूला है, कहीं चमेली फूली है,कहीं पीले फूलों वाला गेंदा है, कहीं प्यारी-प्यारी नेवारी है, कहीं मोगरा है, कहीं चम्पा है, कहीं अनोखे फूल वाले हरसिंगार हैं, कहीं कचनार है, मैं उसमें खड़ी हूँ, फूल चुन रही हूँ, मन-ही-मन कुछ गा रही हूँ, इसी बीच उसी फुलवारी में धीरे-धीरे एक ओर से कोई आ रहा है, मैं उसको बड़े चाव से एक टक देख रही हूँ। एक दिन वह था जब देवबाला के सामने इस झलक का रखनेवाला घण्टों आकर खड़ा रहता, और वह फूली न समाती, एक दिन वह था जब वह सचमुच प्यारी-प्यारी बातों को सुनती, और रीझ-रीझ जाती, एक दिन था जब वह सच-ही-सच अपनी मनमोहने वाली फुलवारी में फूल चुनती फिरती, और उसकी एक ओर से अपने प्यारे को आता देखती, और उमंग से उछल-उछल पड़ती। पर आज देवनंदन की यह परछाँही की सी झलक, उसकी यह अनसुनी प्यार भरी बातें, यह धोखे की टट्टी की सी फुलवारी; उस में किसी का आना, देवबाला के जी को कुछ घड़ी के लिए बहुत ही दुखिया बनाने लगे। वह धीरे-धीरे अपनी प्यारी माँ अपने लाड़ प्यार करने वाले बाप सरग से भी भली जनम धरती से बिछुरने के दुख को कुछ भूल रही थी, अचानक इस बड़े दुख ने आकर उसके मन को घेर लिया, वह बहुत ही घबराई, बावली बन गयी। पर कुछ ही बेर में वह सम्हली, सोचने लगी, यह क्या!!! मैं दूसरे की तिरिया होकर दूसरे किसी की सूरत कैसे कर रही हूँ! क्या यह पाप नहीं है। बाम्हन की लड़की होकर हेमलता की कोख में जनम लेकर, हिन्दूनारी की मरजादा को जान कर, हिन्दुस्तान के पौन पानी से पलकर, बड़े घर की बहू बेटी कहलाकर, जो दूसरे पुरुख की परछाँही भी मेरे कलेजे में धंसती है;झलक भी आँखों में समाती है, तो क्या यह डूब मरने की बात नहीं है! आग में जल जाने की बात नहीं है!! पहाड़ से गिर कर काया के चूर-चूर कर डालने की बात नहीं है!!! छी:! छी!! छी!!! इससे बढ़कर भी कोई पाप है? फिर उसने सोचा, यह सब पचड़ा कैसा! बाप भाई की सुरत करना, उनकी झलक का आँखों के साम्हने आ जाना, कैसे पाप होगा! देवनंदन को भी तो मैंने बड़ा भाई माना है, फिर जो उसकी सुरत हो गयी तो इतना कुढ़ने की कौन बात है! धरम की दोहाई देने, पाप-पाप करने का कौन काम है। जिस घड़ी देवबाला इन सब बातों में उलझी हुई थी, उसने जाना कहार सब उसकी डोली को किसी ठौर रखना चाहते हैं, थोड़ी ही बेर में कहारों ने उसकी डोली एक ठौर उतारी। उसने थोड़ा ओहार हटा कर देखा, एक बहुत बड़े पोखरे की दूसरी ओर उसकी डोली उतारी गयी है, दोपहर हो गया है, और उसके साथ के सब लोग नहाने-धोने और खाने-पीने में लग रहे हैं।
देवबाला पोखरे की छटा देखने में लगी। उसने देखा उसमें बहुत ही सुथरा नीले काँच ऐसा जल भरा है, धीमी बयार लगने से छोटी-छोटी लहरें उठती हैं, फूले हुए कौंल अपने हरे-हरे पत्तों में धीरे-धीरे हिलते हैं। नीले आकास और आस-पास के हरे फूले, फले, पेड़ों की परछाँही पड़ने से वह और सुहावना और अनूठा हो रहा है। सूरज की किरनें उस पर पड़ती हैं, चमकती हैं, उसके जल के नीले रंग को उजला बनाती हैं, और टुकड़े-टुकड़े हो जाती हैं। आकास का चमकता हुआ सूरज, उसमें उतरा है, हिलता है, डोलता है, थर-थर काँपता है, और फिर पूरी चमक दमक के साथ चमकने लगता है। मछलियाँ, ऊपर आती हैं, डूब जाती हैं, नीचे चली जाती हैं, फिर उतराती हैं, खेलती हैं, उछलती हैं, कूदती हैं। चिड़ियाँ ताक लगाये घूमती हैं, पंख बटोर कर अचानक आ पड़ती हैं, डूब जाती हैं, दो एक को पकड़ती हैं, और फिर उड़ जाती हैं। कोई तैरता है, कोई नहाता है, कोई कपड़े फींचता है, कोई अंजुलियों में भर-भर कर उसके पानी से अपनी प्यास बुझाता है। गाय बछड़े पानी पीते हैं, बटोही सब घाट पर बैठे खा-पी रहे हैं। इन्हीं खाने-पीने वालों में से एक ने कहा, ‘डोली उठाओ’ देवबाला ने सुना, चौंक पड़ी, सम्हल कर बैठ गयी।
इसी बीच कहारों ने डोली उठाई, और फिर उसको चलाने लगे। देवबाला की ससुराल उसके नैहर से आठ कोस पर थी। दो घड़ी दिन रहे उसकी डोली वहाँ पहुँची, पर अभी बहुत लोग पीछे थे, दयासंकर भी पीछे ही थे, इसलिए डोली गाँव के पास एक अमराई में उतारी गयी। पहले गाँव में से एक लड़की आयी, फिर एक टहलुनी आयी, उसके पीछे एक और आयी, इसी भाँत कितनी आयीं; चहल-पहल मच गयी। वहाँ देवबाला की सास अपने घर के दुआरे पर गाँव की बहुत सी सुहागनों के साथ जमी गीतें गा रही थी। छोटे-बड़े सबके जी में उमंग भरा था। इसी बीच फिर डोली उठी, दुआरे पर आयी,देवबाला की सास दूसरी सुहागनों के साथ उसको डोली से उतार कर भीतर ले गयी। कहारों ने मुँह माँगी उतराई पाई।
पतोहू को घर में लिवा लाकर कुल की रीतियों के करने पीछे सास ने उसका मुँह गाँव घर की कितनी जनी को दिखाया। देवबाला को जो देखती वही मोह जाती। मैंने उनमें से दो एक को कहते सुना था, ‘रमानाथ की उस जनम की अच्छी कमाई रही है, जो उसको ऐसी सुघर घरनी मिली है।” दो एक को मैंने चुपचाप बातें करते भी सुना था, उनमें से एक ने कहा था, ”जीजी! दुलहिन के मुँह जोग बर नहीं है।” दूसरी ने कहा था, ”रमानाथ तो उस के पाँवों का धोअन भी नहीं है।”
छठवाँ ठाट
आधी रात का समा, बड़ी अंधियाली रात, सब ओर सन्नाटा, इस पर बादलों की घेरघार, पसारने पर हाथ भी न सूझता। किसी पेड़ का एक पत्ता तक न हिलता। काले-काले बादल चुपचाप पूरब से पच्छिम को जा रहे थे। बयार दबे पाँवों उन्हीं का पीछा किये बहुत ही धीरे-धीरे चलती थी और कहीं कोई आता जाता न था, पखेरू पंख तक हिलाते न थे। सब साँस खींचे, चुप साधे, डरावनी रात से सन्नाटे को और डरावना बना रहे थे। पर तनक थिर होकर सुनने से सूनसान और सन्नाटे में भी किसी की दुख भरी रुलाई सुनाई पड़ती है। और इसी रुलाई को सुनकर ऐसे कठिन बेले में एक मानुख कान उठाये लम्बी डगों उसी ओर जा रहा है।
धीरे-धीरे काले बादल और काले हुए। अंधियाली और गहरी हुई, बिजली कौंधने लगी, धीमी-धीमी गरज होने लगी, सन् सन् बयार चलने लगी। पहले नन्ही-नन्ही बूँदें पड़ीं, पीछे बड़ी-बड़ी बूँदों से झिप्-झिप् पानी बरसने लगा।
बापुरे बटोही पर बड़ी कड़ी बीती, अब वह किधर जावे, जिस रुलाई के सहारे वह आगे बढ़ रहा था, वह अब बहुत जी लगाने पर भी सुन नहीं पड़ती थी, बयार की सनसनाहट, बादलों की गड़गड़ाहट, पानी पड़ने की धुम में, उसका सुनना उसके बस की बात न थी। पानी पड़ते-पड़ते जानेवाले के सब कपड़े भींग गये, देह ठण्डी पड़ गयी, बयार की झोंकों से कँपकँपी ने भी उस में घर किया, ओलती की भाँत माथे से पानी गिर गया था, आँख फाड़कर देखने पर भी कहीं कुछ सूझता न था। पर इन बातों की ओर उसका मन भूलकर भी नहीं जाता है, उसको सुरत लग रही है, तो इसी की, कैसे उस रुलाई को सुनूँ, कैसे उस ठौर तक पहुँचूँ। पर यह बात उसके हाथ से जाती रही, वह जितना जनत करने लगा, उतना ही पीछे पड़ने लगा। तौ भी घबराया नहीं,उसी कठिन अंधियाली में, उसी कठोर बरखा में, आगे बढ़ता गया। किधर जाता है, कहाँ जाता है, वह यह समझ तक नहीं सकता है, पर उसका जी उस से यही कह रहा है, अब ले लिया है, थोड़े कड़े और हो, जहाँ जाना चाहते हो, वहीं पहुँचे जाते हो।
महीना असाढ़ का था, थोड़ी बेर के लिए ही यह सब धुमधाम थी। देखते-ही-देखते आकास का काया पलट हो गया, पानी रुक गया, बयार धीमी हुई,बादल एक-एक करके जाते रहे, तारे निकले, पूरब ओर चाँद भी निकलता दिखलाई पड़ा, कुछ ही बेर में चाँदनी भी निकली। अब उस जाने वाले के जी में जी आया, कुछ धीरज भी हुआ। गीले कपड़े उसने देह से उतारे, उनको भलीभाँत गारा, देह को पोंछा, पीछे उन्हीं कपड़ों को पहन लिया। कान लगाकर सुना तो वह दुख भरी रुलाई भी सुन पड़ी, पर अब यह बहुत पास सुन पड़ती थी। वह फिर आगे बढ़ने लगा, पर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, कलेजा उसका टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता था, रुलाई सही नहीं जाती थी। घबरा गया, पर तो भी एक परग पीछे न हटा, थोड़ी बेर में वहाँ जा पहुँचा।
देखा धरती पर पड़ी हुई एक सोरह बरस की तिरिया फूट-फूट कर रो रही है। सब कपड़े उसके भींग गये हैं, कीचड़ से देह भर गयी है, पर वह उसी भाँत कीचड़ में लोट रही है, उसी भाँत बिलख-बिलख कर रो रही है, आँखें मुँदी हैं, मूँ पर बाल बिखर रहे हैं, उनसे मोती की भाँत पानी की बूँदें टपक रही हैं। जाने वाला, कुछ घड़ी चुपचाप खड़ा रहा, उसकी दसा देख कर आँसू टपकाता रहा। पीछे उससे न रहा गया, बोला, ”तुम कौन हो? क्यों इतना बिलख कर कीच में पड़ी रो रही हो? क्या तुम्हारा दुख मैं सुन सकता हूँ, सुनने पर इस दुख के हाथ से तुम को छुड़ाने के लिए जतन करूँगा।”
तिरिया कुछ न बोली, उसी भाँत बिलख-बिलख कर आँसू बहाती रही, उसी भाँत अपनी पुकार से पत्थर के कलेजे को पिघलाती रही। और उसी भाँत तड़प-तड़प कर कीचड़ पानी में लोटती रही।
जानेवाले ने कड़ी बोल से कुछ और पास जाकर कहा, ”माँ! तुमारा दुख देखा नहीं जाता, कलेजा टूट रहा है, आँखों से चिनगारियाँ निकल रही हैं,धीरज हाथ से जाता रहा, मुझ बापुरे पर दया करो, आँखें खोलो, कहो कौन सा ऐसा दुख तुम पर पड़ा है, जो तुम इतना बिलख रही हो, जग में देह से बढ़कर कुछ प्यारा नहीं है, पर तुम्हारा दुख छुड़ाने में मेरी देह भी जाती रहेगी, तो मैं सह लूँगा।”
अब की बार इस की बोल उसके कानों पड़ी, उसने अपनी आँखों को खोला, बोली, ”हमारा दुख ऐसा नहीं जो उसको कोई छुड़ा सके, राम जिसको दुख देते हैं, उसके लिए मानुख क्या कर सकता है, तुम क्यों हमारे दुख से दुखिया बनते हो, जहाँ जाते हो जाओ, हमारे भाग में यही लिखा है, जब तक जीयेंगी, इसी भाँति कलेजा कूटती रहेंगी।”
उसने कहा, ”कोई दुख ऐसा नहीं है जो छूट न सके, राम किसी को दुख नहीं देते, उन्होंने कठिन-से-कठिन दुख के लिए भी जतन बनाया है, जतन करने से सब कुछ हो सकता है।”
वह बोली, ”न सताओ, हमें जी भर कर रोने दो, हमारा दुख इसी से हलका होता है, दूसरा कोई उपाय हमारे लिए नहीं है, हमारे कलेजे का घाव पूरा नहीं हो सकता।”
उसकी इन सब बातों से जाने वाले की आँखों में पानी आता था, उसने आँसू पोछ कर कहा, ”मैंने तुम को माँ कहा है, फिर कहता हूँ, माँ! जैसे होगा तुम्हारा दुख छुड़ाऊँगा, नहीं तो इस चार दिन के जीने से हाथ उठाऊँगा, तुमारे सामने यह टेक करता हूँ, साँस रहते इस टेक को निबाहूँगा, नहीं तो फूस की आग में जल मरूँगा।”
वह तिरिया इसकी बातें सुनकर भौचक बन गयी, बोली, ”तुम कौन हो भाई! बिना समझे बूझे क्यों इतना हठ करते हो? अपना जी सब को प्यारा होता है, दूसरे के लिए अपने जी पर जोखों क्यों उठाओगे?”
वह बोला-”हम कोई होवें, पर विपत में पड़े को उबारना ही हमारा धरम है, इस माटी के पुतले के लिए इससे अच्छा कोई दूसरा काम नहीं हो सकता।”
यह सुनकर वह और अचरज में आयी, बोली ”जो ऐसा ही है, तो आओ, हमारे पीछे आओ, पर जी कड़ा रखना, देखो मुझ दुखिया को और दुखिया न बनाना।”
यह कहकर वह उठी, और फटे, मैले, कपड़ों में अपने देह को छिपा कर एक ओर चली, जानेवाला भी उसी के पीछे उसी ओर चला गया।
सातवाँ ठाट
एक बहुत ही बड़ा टूटा, फूटा, गिरा पड़ा घर है, उसके पास दो जन घूम रहे हैं, एक वही बटोही और दूसरी वही दुख से बावली बनी तिरिया, उनके देखने से जान पड़ता है, वह दोनों जैसे कुछ खोज रहे हैं, थोड़ी बेर में उस दुखी तिरिया ने कहा मेरा जी ठिकाने नहीं, झूठे ही मैं इधर-उधर सिर मार रही हूँ, देखो दुआरा यही है, इसको खोलो, बटोही ने उसको खोला, दोनों भीतर गये। भीतर जाकर बटोही ने देखा एक अधगिरे घर में एक छोटी-सी खाट बिछी हुई है, उस पर चार बरस का एक फूल-सा लड़का लेटाया हुआ है, लड़का पहले बहुत सुन्दर रहा होगा, पर अब सूख कर काँटा हो गया है, अपने आप उठ तक नहीं सकता है, उस घड़ी उसकी साँसें चल रही थीं, और वह अधमरा हो रहा था। उसको देखकर वह तिरिया फिर फूट-फूट कर रोने लगी। बटोही ने कहा ठहरो, रोओ मत; मैं अभी इसको देखकर सब कुछ बतला देता हूँ, जहाँ तक मैं समझता हूँ यह बच जावेगा। इसके पीछे उसने अपनी झोली में से कोई औखद निकाली, लड़के के सिर, और छाती पर मला, फिर उसके हाथ पाँव को टटोल कर कहा, यह लड़का अभी अच्छा हुआ जाता है, तुम घबराओ मत, इसको और कोई रोग नहीं जान पड़ता, मैं सोच रहा हूँ भूख से इसकी ऐसी दसा हो रही है। यह कहकर उसने फिर कोई औखध निकाल कर लड़के को पिलाया, जिससे साँसों का चलना रुक गया। और लड़का करवट फेरकर सो रहा।
लड़के को कुछ अच्छा देखकर उस तिरिया को धीरज हुआ, वह अब कुछ सम्हली, उसका जी भी कुछ ठिकाने हुआ, इस लिए वह बटोही की ओर अचरज के साथ देखने लगी, बोली, आप कोई देवता हैं, नहीं तो मुझ ऐसी अभागिनी को इस धरती पर सहारा देनेवाला कौन हैं, चार बरस हुआ पती परदेस चला गया, आज तक न जान पड़ा, वह कहाँ हैं, क्या करते हैं, कैसे उनका दिन बीतता है, राम उनको सुख ही में रखें, पर यह भी नहीं जाना जाता,वह सुख में हैं, न जाने दुख में। खाने-पीने का ठिकाना तो बरसों से नहीं है। पर रहने का ठिकाना यही एक घर है, वह भी दिन-दिन गिर रहा है, समझती हूँ इस बरस की बरसात में यह न बचेगा। सब ओर से निरास तो थी ही, यही एक लड़का मुझ अभागिनी का सहारा है, आज उसकी भी बुरी दसा देख कर मैं आपे में न रही थी, जी बावला हो गया था, आधी रात को, इसको अकेले घर में छोड़ कर बैद के यहाँ भागी जाती थी, बीच ही में मेह आया, तब भी बढ़ती गयी, पर, अचानक फिसल कर ऐसी गिरी, जिससे कुछ घड़ी जहाँ की तहाँ पड़ी रह गयी। डोल हिल भी न सकी। पर जान पड़ता है भगवान को मुझ पर कुछ दया हुई, जो उन्होंने उस घड़ी आपको मेरी भलाई करने के लिए वहाँ भेजा। आप कोई देवता हैं, मेरा मन कहता है आप कोई देवता हैं,आपने मेरे लड़के का जी बचाया, जो लड़का मुझ निधनी का धन , मुझ कंगाल की पूँजी, मुझ दुखिया का सहारा है, उसका जी बचाया, यह काम देवता छोड़ मानुख का नहीं हो सकता, मैं समझती हूँ बिपत पड़ने पर किसी को सहारा देना मानुख का काम नहीं है।
इस दुखिया की इन बातों से बटोही का कलेजा मुँह को आ रहा था, आँख से टप-टप आँसू गिर रहे थे, मन-ही-मन वह मुरझा रहा था, बोला, बिपत पड़ने पर किसी को सहारा देना ही मानुख का काम है, जो दुखियों के दुख को नहीं जानता, पराई पीर से जिसका कलेजा नहीं कसकता, दुख में पड़े को जो नहीं उबारता, भूखों कंगालों पर जो नहीं पसीजता, वह मानुख नहीं पिसाच है। मैं देवता नहीं, एक छोटा मानुख हूँ, जिन औखधियों का गुन धरती पर सब जानता है, उसी के सहारे से इस घड़ी तुम्हारे लड़के का मैं कुछ भला कर सकता हूँ, मेरी इसमें कोई करतूत नहीं है। इतना कहकर वह थोड़ी बेर चुप रहा, फिर बोला, तुम को जो दुख न हो, मुझसे कहने में कोई अटक न हो, तो मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ?
अब तिरिया का जी बहुत ठिकाने हो गया था, पर न जाने क्यों वह अनमनी हो रही थी। एक-एक कर के कई बार उसने बटोही को देखा, उसकी बातों को सुना, उसकी बोली को परखा, और यही सब बातें ऐसी हुई हैं, जिससे वह अनमनी हो गयी है। पर अनमनी होने पर भी उसने बटोही की सब बातें सुनीं, और कहा, आप कुछ कहें पर मैं आपको देवता ही जानती हूँ, आप जो चाहें पूछें, मैं सब कहूँगी, मुझको कोई दुख न होगा। बिपत में पड़े हुए को उबारना ही जो अपना धरम समझता है, उससे अपनी बिथा कहने में किस को अटक होगी। बटोही ने कहा, मैंने आज तक तुमारे ऐसा दुखिया नारी आँखों नहीं देखी, तुम इतना क्यों दुखी हो, क्यों तुमारा घर इतना गिरा पड़ा है, क्यों तुमारे पास पहनने को कपड़ा नहीं है, खाने को अनाज नहीं है, पानी पीने के लिए पास लोटा तक नहीं है? पती जब से परदेस गया क्या तब से कोई चीठी भी तुमारे पास नहीं आयी?
वह बोली क्या कहूँ, इन सब बातों की सुरत होने से मेरा जी फिर बावला बन गया, फिर मैं पहले की भाँति दुखिया बन गयी, कलेजा फटता है, मुँह से बात भी नहीं निकलती, पर कहूँगी, आप से कहकर ही मैं अपने कलेजे के बोझ को हलका करूँगी। यह कहकर उसने एक ऊँची साँस भरी।
बटोही ने कहा, मैं समझता हूँ, तुमको अपनी पिछली बातों के कहने में बड़ा दुख होता है। ऐसी दसा में मैं भी उसको सुनना न चाहता, पर इसीलिए सुनना चाहता हूँ, क्या जाने मैं कोई ऐसा जतन कर सकूँ जिस से तुमारा दुख कुछ घटे। उसने फिर एक लम्बी साँस ली और कहा। मेरा ब्याह हुए पाँच बरस हुआ है, मैं ऐसी अभागिनी हूँ, जो ब्याह के छही महीने पीछे मेरे ससुर मर गये, घर का सब काम काज वही करते थे, उन्हीं की कमाई को हम लोगों को सहारा था, उनके मरते हीं हम लोगों के दुख का पार न रहा। पती, नारी का देवता है, वह कैसा ही क्यों न हो, पर तिरिया उसको अजोग और बुरा नहीं कह सकती, मैं भी अपने पती को बुरा नहीं कहती, और न वह बुरे हैं, पर हम लोगों के भाग की खुटाई से ऐसा संजोग हुआ। जिससे मेरे ससुर के मरने के पाँच ही छ महीने पीछे जो दस पाँच बीघा खेत था, वह बन्धक पड़ गया, घर में जो दस पाँच मन नाज था, वह सब उठ गया और दस पाँच थान गहने जो मेरे देह पर थे वह सब भी बिक गये। दिन बड़ी कठिनाई के साथ बीतने लगे, भूख बुरी होती है, जब कोई ब्योंत न रहा, तो घर की कड़ी और किवाड़ी तक बेंच दी गयी, पर ऐसे कितने दिन चल सकता है। उनको यह धुन समाई, मैं पूरब कमाने जाऊँगा, यह सुनकर मैं बहुत रोई, उनसे कहा, सब कुछ तो गया, अब आप भी आँखों के ओझल होंगे तो मैं कैसे जीऊँगी। बहुत कहने सुनने पर उन्होंने किसी भाँत मेरी बात मानी, पर बिपत के दिन टालने से नहीं टलते, इन्हीं दिनों इस लड़के का जन्म हुआ, एक दिन मेरी सास ने न जाने क्या उनसे लाने को कहा, पर वह कहाँ से लाते पास तो कुछ था ही नहीं, इस पर वह कुछ झुझलाई, यह बात उनको बहुत बुरी लगी, मैं उनसे मिल नहीं सकती थी, जो कुछ समझाती बुझाती। इसलिए दूसरे दिन मैंने सुना वह कमाने पूरब चले गये, मेरा भाग फूटा, मैं रोते-रोते बावली बन गयी, अब तक रोती हूँ, पर कोई आँसू का पोछनेवाला नहीं है, यह कहकर वह चिल्ला उठी और ढाढ़ मारकर रोने लगी।
बटोही के आँख से भी आँसू बह रहा था, हिचकी लग रही थी, पर उसने अपने को सम्हाला, और उस तिरिया को बहुत समझाया, समझाने से उसको भी बोध हुआ, वह फिर कहने लगी, आप समझते होंगे, मुझको इन बातों के कहने से दुख होता है, और इसी से मैं रो उठती हँ, पर नहीं, रोने ही से मेरा भला होता है, जो मैं रोती न, बावली हो जाती। पती का दुख भूली न थी, सास ने भी साथ छोड़ा, उनका कलेजा पती के मरने से चूर-चूर तो था ही बेटे का बिछोह फिर वह कैसे सहतीं, उन के पूरब चले जाने के बीस ही दिन पीछे वह भी मर गयीं, मैं इस धरती पर दुख भोगने के लिए अकेली रह गयी, न जाने मेरे प्रान कैसे हैं जो अब भी नहीं निकलते। अब मैं सब भाँत निरास हुई, खाने-पीने का कुछ ठिकाना न रहा, सूत कातकर दिन बिताने लगी। बड़े घर की बहू बेटी ठहरी, क्या करती, किसी के घर जाकर काम काज करने से बड़ों के नाम में बट्टा लगता। भीख माँग नहीं सकती, कौड़ी पास नहीं जो दूसरा कोई काम करती, फिर सूत कातकर दिन बिताने छोड़ मेरे पास कौन उपाय था। इस सूत के बेचने और रूई मोल लाने के लिए मैंने एक टहलुनी रखी थी,इस टहलुनी ने मेरे साथ जो किया, उसको मैं नहीं कह सकती, नारी हूँ लाज की बात कैसे मुँह पर ला सकती हूँ, पर हाय! क्या इस धरती पर बचकर चलने वाले ही को ठोकर लगती है! क्या पाप करने वाले सभी बुरे कामों को कर सकते हैं, उनको दुखियाओं के ऊपर भी दया नहीं आती!!! क्या कहँ, राम ऐसों का मुँह न दिखावें। जब मैंने देखा यह टहलुनी रहेगी तो मुझको अपना धरम निबाहने में बड़ी कठिनाई होगी तो मैंने उसको अपने यहाँ से निकाल दिया। पर ऐसा करके मैं बड़े झंझट में पड़ी, अब कौन सूत बेंचे, कौन रूई लावे, कौन मेरे पैसों का नाज ला दे, कौन मेरे दूसरे कामों को करे, इसका कुछ ठिकाना न रहा। पर राम ही बिगड़ी को बनाते हैं, मेरे पड़ोस में एक बूढ़ी बाम्हनी रहती हैं, उनसे मेरा दुख न देखा गया, तीन बरस से मुझ दुखिया की सहारा वही हैं, वही मेरा सब काम-काज कर देती हैं, उनको छोड़ मेरे घर में पखेरू पंख भी नहीं मारता। सच तो यह है, मेरे साथ अपने को कौन दुखिया बनावे, मुझको रोने छोड़ और कुछ आता नहीं, जो दिन रात रोया करता है, उसके पास कौन आता है। पाँच चार महीने से मेरी देह में रोग ने भी घर किया है, अब कुछ काम काज भी नहीं हो सकता, सूत भी नहीं कात सकती, इसी से दो-दो तीन-तीन दिन तक अन्न भी नहीं मिलता है, आप का कहना बहुत ठीक है, आप ने बहुत सोच कर कहा था, ”भूख से इस लड़के की दसा ऐसी हो रही है।” अब मैं सोच रही हूँ, भूख ही से मेरा बच्चा इस दसा को पहँच गया है, पर क्या करूँ, सब गँवा सकती हूँ। धरम और लाज तो नहीं गँवा सकती!!! इस के ननिहाल में भी तो कोई नहीं रह गया, जो वहीं चली जाऊँ,चार बरस से मेरे माँ बाप की भी खोज नहीं मिलती, वह दोनों जन जब से जगरनाथ जी गये, फिर न फिरे, न जाने वह लोग कहाँ हैं, जीते हैं या मर गये,यह भी नहीं जान पड़ता, धरती तू क्यों नहीं फटती? जो मैं समा जाऊँ, क्या मुझ सी दुखिया को तू भी ठौर नहीं दे सकती। यह कह कर वह फिर रोने,कलपने लगी, और थोड़ी ही बेर में मुरझा कर धरती पर गिर पड़ी।
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