वैदेही-वनवास – सती सीता ताटंक कविता

नील-नभो मण्डल बन-बन कर विविध-अलौकिक-दृश्य निलय।

करता था उत्फुल्ल हृदय को तथा दृगों को कौतुकमय॥

नीली पीली लाल बैंगनी रंग बिरंगी उड़ु अवली।

बनी दिखाती थी मनोज्ञ तम छटा-पुंज की केलि-थली॥2॥

कर फुलझड़ी क्रिया उल्कायें दिवि को दिव्य बनाती थीं।

भरती थीं दिगंत में आभा जगती-ज्योति जगाती थीं॥

किसे नहीं मोहती, देखने को कब उसे न रुचि ललकी।

उनकी कनक-कान्ति लीकों से लसी नीलिमा नभ-तल की॥3॥

जो ज्योतिर्मय बूटों से बहु सज्जित हो था कान्त बना।

अखिल कलामय कुल लोकों का अति कमनीय वितान तना॥

दिखा अलौकिकतम-विभूतियाँ चकित चित्त को करता था।

लीलामय की लोकोत्तरता लोक-उरों में भरता था॥4॥

राका-रजनी अनुरंजित हो जन-मन-रंजन में रत थी।

प्रियतम-रस से सतत सिक्त हो पुलकित ललकित तद्गत थी॥

ओस-बिन्दु से विलस अवनि को मुक्ता माल पिन्हाती थी।

विरच किरीटी गिरि को तरु-दल को रजताभ बनाती थी॥5॥

राज-भवन की दिव्य-अटा पर खड़ी जनकजा मुग्ध बनी।

देख रही थीं गगन-दिव्यता सिता-विलसिता-सित अवनी॥

मंद-मंद मारुत बहता था रात दो घड़ी बीती थी।

छत पर बैठी चकित-चकोरी सुधा चाव से पीती थी॥6॥

थी सब ओर शान्ति दिखलाती नियति-नटी नर्तनरत थी।

फूली फिरती थी प्रफुल्लता उत्सुकताति तरंगित थी॥

इसी समय बढ़ गया वायु का वेग, क्षितिज पर दिखलाया।

एक लघु-जलद-खण्ड पूर्व में जो बढ़ वारिद बन पाया॥7॥

पहले छोटे-छोटे घन के खण्ड घूमते दिखलाए।

फिर छायामय कर क्षिति-तल को सारे नभतल में छाए॥

तारापति छिप गया आवरित हुई तारकावलि सारी।

सिता बनी असिता, छिनती दिखलाई उसकी छवि-न्यारी॥8॥

दिवि-दिव्यता अदिव्य बनी अब नहीं दिग्वधू हँसती थी।

निशा-सुन्दरी की सुन्दरता अब न दृगों में बसती थी॥

कभी घन-पटल के घेरे में झलक कलाधर जाता था।

कभी चन्द्रिका बदन दिखाती कभी तिमिर घिर आता था॥9॥

यह परिवर्तन देख अचानक जनक-नन्दिनी अकुलाईं।

चल गयंद-गति से अपने कमनीयतम अयन में आईं॥

उसी समय सामने उन्हें अति-कान्त विधु-बदन दिखलाया।

जिस पर उनको पड़ी मिली चिरकालिक-चिन्ता की छाया॥10॥

प्रियतम को आया विलोक आदर कर उनको बैठाला।

इतनी हुईं प्रफुल्ल सुधा का मानो उन्हें मिला प्याला॥

बोलीं क्यों इन दिनों आप इतने चिन्तित दिखलाते हैं।

वैसे खिले सरोज-नयन किसलिए न पाए जाते हैं॥11॥

वह त्रिलोक-मोहिनी-विकचता वह प्रवृत्ति-आमोदमयी।

वह विनोद की वृत्ति सदा जो असमंजस पर हुई जयी॥

वह मानस की महा-सरसता जो रस बरसाती रहती।

वह स्निग्धता सुधा-धरा सी जो वसुधा पर थी बहती॥12॥

क्यों रह गयी न वैसी अब क्यों कुछ बदली दिखलाती है।

क्या राका की सिता में न पूरी सितता मिल पाती है॥

बड़े-बड़े संकट-समयों में जो मुख मलिन न दिखलाया।

अहह किस लिए आज देखती हूँ मैं उसको कुम्हलाया॥13॥

पड़े बलाओं में जिस पेशानी पर कभी न बल आया।

उसे सिकुड़ता बार-बार क्यों देख मम दृगों ने पाया॥

क्यों उद्वेजक-भाव आपके आनन पर दिखलाते हैं।

क्यों मुझको अवलोक आपके दृग सकरुण हो जाते हैं॥14॥

कुछ विचलित हो अति-अविचल-मति क्यों बलवत्ता खोती है।

क्यों आकुलता महा-धीर-गम्भीर हृदय में होती है॥

कैसे तेज:-पुंज सामने किस बल से वह अड़ती है।

कैसे रघुकुल-रवि आनन पर चिन्ता छाया पड़ती है॥15॥

देख जनक-तनया का आनन सुन उनकी बातें सारी।

बोल सके कुछ काल तक नहीं अखिल-लोक के हितकारी॥

फिर बोले गम्भीर भाव से अहह प्रिये क्या बतलाऊँ।

है सामने कठोर समस्या कैसे भला न घबराऊँ॥16॥

इतना कह लोकापवाद की सारी बातें बतलाईं।

गुरुतायें अनुभूत उलझनों की भी उनको जतलाईं॥

गन्धर्वों के महा-नाश से प्रजा-वृन्द का कँप जाना।

लवणासुर का गुप्त भाव से प्राय: उनको उकसाना॥17॥

लोकाराधन में बाधायें खड़ी कर रहा है कैसी।

यह बतला फिर कहा उन्होंने शान्ति-अवस्था है जैसी॥

तदुपरान्त बन संयत रघुकुल-पुंगव ने यह बात कही।

जो जन-रव है वह निन्दित है, है वह नहीं कदापि सही॥18॥

यह अपवाद लगाया जाता है मुझको उत्तोजित कर।

द्रोह-विवश दनुजों का नाश कराने में तुम हो तत्पर॥

इसी सूत्र से कतिपय-कुत्साओं की है कल्पना हुई।

अविवेकी जनता के मुख से निन्दनीय जल्पना हुई॥19॥

दमन नहीं मुझको वांछित है तुम्हें भी न वह प्यारा है।

सामनीति ही जन अशान्ति-पतिता की सुर-सरि-धरा है॥

लोकाराधन के बल से लोकापवाद को दल दूँगा।

कलुषित-मानस को पावन कर मैं मन वांछित फल लूँगा॥20॥

इच्छा है कुछ काल के लिए तुमको स्थानान्तरित करूँ।

इस प्रकार उपजा प्रतीति मैं प्रजा-पुंज की भ्रान्ति हरूँ॥

क्यों दूसरे पिसें, संकट में पड़, बहु दुख भोगते रहें।

क्यों न लोक-हित के निमित्त जो सह पाएँ हम स्वयं सहें॥21॥

जनक-नन्दिनी ने दृग में आते ऑंसू को रोक कहा।

प्राणनाथ सब तो सह लूँगी क्यों जाएगा विरह सहा॥

सदा आपका चन्द्रानन अवलोके ही मैं जीती हूँ।

रूप-माधुरी-सुधा तृषित बन चकोरिका सम पीती हूँ॥22॥

बदन विलोके बिना बावले युगल-नयन बन जाएँगे।

तार बाँध बहते ऑंसू का बार-बार घबराएँगे॥

मुँह जोहते बीतते बासर रातें सेवा में कटतीं।

हित-वृत्तियाँ सजग रह पल-पल कभी न थीं पीछे हटतीं॥23॥

मिले बिना ऐसा अवसर कैसे मैं समय बिताऊँगी।

अहह! आपको बिना खिलाये मैं कैसे कुछ खाऊँगी॥

चित्त-विकल हो गये विकलता को क्यों दूर भगाऊँगी।

थाम कलेजा बार-बार कैसे मन को समझाऊँगी॥24॥

क्षमा कीजिए आकुलता में क्या कहते क्या कहा गया।

नहीं उपस्थित कर सकती हूँ मैं कोई प्रस्ताव नया॥

अपने दुख की जितनी बातें मैंने हो उद्विग्न कहीं।

आपको प्रभावित करने का था उनका उद्देश्य नहीं॥25॥

वह तो स्वाभाविक-प्रवाह था जो मुँह से बाहर आया।

आह! कलेजा हिले कलपता कौन नहीं कब दिखलाया॥

किन्तु आप के धर्म का न जो परिपालन कर पाऊँगी।

सहधार्मिणी नाथ की तो मैं कैसे भला कहाऊँगी॥26॥

वही करूँगी जो कुछ करने की मुझको आज्ञा होगी।

त्याग, करूँगी, इष्ट सिध्दि के लिए बना मन को योगी॥

सुख-वासना स्वार्थ की चिन्ता दोनों से मुँह मोडूँगी।

लोकाराधन या प्रभु-आराधन निमित्त सब छोड़ूँगी॥27॥

भवहित-पथ में क्लेशित होता जो प्रभु-पद को पाऊँगी।

तो सारे कण्टकित-मार्ग में अपना हृदय बिछाऊँगी॥

अनुरागिनी लोक-हित की बन सच्ची-शान्ति-रता हूँगी।

कर अपवर्ग-मन्त्र का साधन तुच्छ स्वर्ग को समझूँगी॥28॥

यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाऊँगी।

जीवनधन पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगी॥

है लोकोत्तर त्याग आपका लोकाराधन है न्यारा।

कैसे सम्भव है कि वह न हो शिरोधार्य मेरे द्वारा॥29॥

विरह-वेदनाओं से जलती दीपक सम दिखलाऊँगी।

पर आलोक-दान कर कितने उर का तिमिर भगाऊँगी॥

बिना बदन अवलोके ऑंखें ऑंसू सदा बहाएँगी।

पर मेरे उत्प्त चित्त को सरस सदैव बनाएँगी॥30॥

आकुलताएँ बार-बार आ मुझको बहुत सताएँगी।

किन्तु धर्म-पथ में धृति-धारण का सन्देश सुनाएँगी॥

अन्तस्तल की विविध-वृत्तियाँ बहुधा व्यथित बनाएँगी।

किन्तु वंद्यता विबुध-वृन्द-वन्दित की बतला जाएँगी॥31॥

लगी लालसाएँ लालायित हो हो कर कलपाएँगी।

किन्तु कल्पनातीत लोक-हित अवलोके बलि जाएँगी॥

आप जिसे हित समझें उस हित से ही मेरा नाता है।

हैं जीवन-सर्वस्व आप ही मेरे आप विधाता हैं॥32॥

कहा राम ने प्रिये, अब ‘प्रिये’ कहते कुण्ठित होता हूँ।

अपने सुख-पथ में अपने हाथों मैं काँटे बोता हूँ॥

मैं दुख भोगूँ व्यथा सहूँ इसकी मुझको परवाह नहीं।

पडूं संकटों में कितने निकलेगी मुँह से आह नहीं॥33॥

किन्तु सोचकर कष्ट तुमारा थाम कलेजा लेता हूँ।

कैसे क्या समझाऊँ जब मैं ही तुम को दुख देता हूँ॥

तो विचित्रता भला कौन है जो प्राय: घबराता हूँ।

अपने हृदय-वल्लभा को मैं वन-वासिनी बनाता हूँ॥34॥

धर्म-परायणता पर-दुख कातरता विदित तुमारी है।

भवहित-साधन-सलिल-मीनता तुमको अतिशय प्यारी है॥

तुम हो मूर्तिमती दयालुता दीन पर द्रवित होती हो।

संसृति के कमनीय क्षेत्रा में कर्म-बीज तुम बोती हो॥35॥

इसीलिए यह निश्चित था अवलोक परिस्थिति हित होगा।

स्थानान्तरित विचार तुमारे द्वारा अनुमोदित होगा॥

वही हुआ, पर विरह-वेदना भय से मैं बहु चिन्तित था।

देख तुमारी प्रेम प्रवणता अति अधीर था शंकित था॥36॥

किन्तु बात सुन प्रतिक्रिया की सहृदयता से भरी हुई।

उस प्रवृत्ति को शान्ति मिल गयी जो थी अयथा डरी हुई॥

तुम विशाल-हृदया हों मानवता है तुम से छबि पाती।

इसीलिए तुममें लोकोत्तर त्याग-वृत्ति है दिखलाती॥37॥

है प्राचीन पुनीत प्रथा यह मंगल की आकांक्षा से।

सब प्रकार की श्रेय दृष्टि से बालक हित की वांछा से॥

गर्भवती-महिला कुलपति-आश्रम में भेजी जाती है।

यथा-काल संस्कारादिक होने पर वापस आती है॥38॥

इसी सूत्र से वाल्मीकाश्रम में तुमको मैं भेजूँगा।

किसी को न कुत्सित विचार करने का अवसर मैं दूँगा॥

सब विचार से वह उत्तम है, है अतीव उपयुक्त वही।

यही वसिष्ठ देव अनुमति है शान्तिमयी है नीति यही॥39॥

तपो-भूमि का शान्त-आवरण परम-शान्ति तुमको देगा।

विरह-जनित-वेदना आदि की अतिशयता को हर लेगा॥

तपस्विनी नारियाँ ऋषिगणों की पत्नियाँ समादर दे।

तुमको सुखित बनाएँगी परिताप शमन का अवसर दे॥40॥

परम-निरापद जीवन होगा रह महर्षि की छाया में।

धरा सतत रहेगी बहती सत्प्रवृत्ति की काया में॥

विद्यालय की सुधी देवियाँ होंगी सहानुभूतिमयी।

जिससे होती सदा रहेगी विचलित-चित पर शान्ति जयी॥41॥

जिस दिन तुमको किसी लाल का चन्द्र-बदन दिखलाएगा।

जिस दिन अंक तुमारा रवि-कुल-रंजन से भर जाएगा॥

जिस दिन भाग्य खुलेगा मेरा पुत्र रत्न तुम पाओगी।

उस दिन उर विरहांधाकार में कुछ प्रकाश पा जाओगी॥42॥

प्रजा-पुंज की भ्रान्ति दूर हो, हो अशान्ति का उन्मूलन।

बुरी धारणा का विनाश हो, हो न अन्यथा उत्पीड़न॥

स्थानान्तरित-विधान इसी उद्देश्य से किया जाता है।

अत: आगमन मेरा आश्रम में संगत न दिखाता है॥43॥

प्रिये इसलिए जब तक पूरी शान्ति नहीं हो जावेगी।

लोकाराधन-नीति न जब तक पूर्ण-सफलता पावेगी॥

रहोगी वहाँ तुम जब तक मैं तब तक वहाँ न आऊँगा।

यह असह्य है, सहन-शक्ति पर मैं तुम से ही पाऊँगा॥44॥

आज की रुचिर राका-रजनी परम-दिव्य दिखलाती थी।

विहँस रहा था विधु पा उसको सिता मंद मुसकाती थी॥

किन्तु बात-की-बात में गगन-तल में वारिद घिर आया।

जो था सुन्दर समा सामने उस पर पड़ी मलिन-छाया॥45॥

पर अब तो मैं देख रहा हूँ भाग रही है घन-माला।

बदले हवा समय ने आकर रजनी का संकट टाला॥

यथा समय आशा है यों ही दूर धर्म-संकट होगा।

मिले आत्मबल, आतप में सामने खड़ा वर-वट होगा॥46॥

 

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