हरिऔध् ग्रंथावली – खंड : 4 – प्रेमपुष्पोपहार (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)

download (4)आज ऐसा है न कोई दिन भला।

भाग से मिलते हैं ऐसे दिन कहीं।

हाय! किसने किसलिए हमको छला।

जो सदा मिलते हैं ऐसे दिन नहीं।

हैं परब त्योहार के कितने दिवस।

जिनमें करते हैं महा आमोद हम।

पर हमारे दिन हैं वह अतिही सरस।

देस का हम जिस दिवस भरते हैं दम।

मातृभाषा की सबिधिा परिसेवना।

देस हित इससे नहीं बढ़कर कहीं।

कौन सा है देस कब उन्नत बना।

मातृभाषा की जहाँ उन्नति नहीं।

आज उस ही मातृभाषा के लिए।

आप लोगों का हुआ है आगमन।

और वह उन्नत बनेगी क्या किये।

सोचते इसका भी जी से हैं जतन।

है इसी से आज का यह दिन भला।

लाड़ भी इसका इसी से है अधिाक।

दूर होवे ईस सब इसकी बला।

जो भला न गिने इसे उसको है धिाक।

बान कुछ ऐसी हमारी है पड़ी।

हम कभी करना नहीं कुछ चाहते।

मिल गयी पर जो कहीं ऐसी जड़ी।

जिससे हम हैं काम कोई ठानते।

काम तो लेते नहीं उतसाह से।

औ नियम से कुछ नहीं करते कभी।

जी जला करता है सब दिन डाह से।

यों मिला देते हैं मिट्टी में सभी।

जो कभी होता है कुछ उतसाह भी।

कुछ दिनों वह तो ठहरता है नहीं।

देख लो दो दिन भले ही जब कभी।

फिर नहीं उसका पता लगता कहीं।

नित हमारी ऑंख के ही सामने।

काम होते हैं नियम से अनगिनत।

जामिनी के वास्ते तारे बने।

दिन में सूरज है चमकता अनवरत।

वायु बहती है बरसती है घटा।

दस दिसा में फैलता है तेज तम।

है दिखाता चाँद भी अपनी छटा।

ओस से धारती हुआ करती है नम।

ऋतु हुआ करती है भीषण वो सरस।

फूल नाना रंग के हैं फूलते।

मोहता है मलय मारुत का परस।

कुंज पुंजों में भँवर हैं झूलते।

हम नहीं फिर भी नियम को मानते।

बिगड़ जावे काम सारा या बने।

हाय! इतना भी नहीं हम जानते।

और रहते हैं सदा सबसे तने।

एक के करने से कुछ होता नहीं।

काम दस का दस नहीं जब तक करें।

एक के बल है समर होता नहीं।

सैकड़ों लाखों नहीं जब तक लड़ें।

एक मधाुमक्खी करेगी क्या भला।

फूल का रस सैकड़ों लावें न जो।

कौन सी इक बूँद सीखेगा कला।

घन करोड़ों बूँद बरसावें न जो।

फिर परस्पर डाह करने की चलन।

भूल कर भी हो नहीं सकती भली।

पर घड़ी भर है हमें पड़ती न कल।

डाह की मिलती नहीं जब तक गली।

हो दसा जिस जाति की ऐसी बुरी।

बन गयी हो जो यहाँ तक बेखबर।

फिर भले ही जाय गरदन पर छुरी।

पर जो उहँ करने में करती है कसर।

आप ही जिसकी है इतनी बेबसी।

है तरसती हाथ हिलाने के लिए।

आस हो सकती है उससे कौन सी।

हो सके है क्या भला उसके किए।

पर अमावस के सितारों की तरह।

लोग जो इसमें चमकते हैं कहीं।

टूटती जिनसे ऍंधोरी कुछ है यह।

भूल सकता है समय जिनको नहीं।

कुछ सपूतों को इन्हीं में से सुरत।

नागरी दुखभागिनी की भी हुई।

देखकर उसकी भयानक बुरी गत।

चुभ गयी हर रोम में इनके सुई।

यह लगे उसके लिए करने जतन।

आज भी साहस है इनका वैसही।

वारते अपना हैं सब तन मन वो धान।

बैरियों की हैं नहीं सुनते कहीं।

इन भले लोगों से जितनी आजतक।

नागरी देवी की सेवा हो सकी।

आज भी उसकी दिखाती है झलक।

दूसरों ने कुछ मदद चाहे न की।

हम बता सकते हैं उस सेवा को भी।

पर बताते लाज लगती है बड़ी।

बीस कोटि मनुष्य की भाषा अभी।

इस तरह सब भाँति है पीछे पड़ी।

काम जो हैं आज के दिन तक हुए।

हैं न होने के बराबर वह सभी।

चार डग हमने भरे तो क्या किए।

है पड़ा मैदान कोसों का अभी।

सामने बहती है जो मंदाकिनी।

हमने उसमें से न पाया बूँद भी।

सच बता री तू दुरासा पापिनी।

आस क्या पूरी न होवेगी कभी।

देख करके बंगभाषा की छटा।

कौन सा जन मोह जाता है नहीं।

मरहठी की भी बनी ऊँची अटा।

है सजावट जिसकी बढ़ करके कहीं।

गुरजरी भाषा भी है फूली-फली।

है निराली आज उसकी भी फबन।

ढंग में उरदू भी देखो ढल चली।

हो गयी है ठीक उसकी भी गठन।

पर बिचारी नागरी ही है गिरी।

हैं सम्हलते देखते जिसको नहीं।

दैव तेरी दीठ है कैसी फिरी।

जो सहारा है नहीं मिलता कहीं।

बात क्या है यह नहीं अपकार की।

अपने घर में ही जगह मिलती नहीं।

कौन सी आसा है फिर उपकार की।

अपने होते हैं पराये भी कहीं।

पण्डितों की है नहीं होती कृपा।

नागरी पर भूल करके भी कभी।

भाव है नहिं ग्रेजुएटों का छिपा।

वह इसे बच्ची समझते हैं अभी।

हैं महाजन भी इसे नहिं चाहते।

धाुन उन्हें भी और ही कुछ है लगी।

काशमीरी हैं इसे न सराहते।

है तबीअत ठेठ से उनकी भगी।

है हमीं लोगों में ऐसी जाति भी।

मातृभाषा जो इसे कहती नहीं।

क्या रहा है शेष कुछ सुनना अभी।

है सरलता इससे बढ़कर भी कहीं।

हिन्द हिन्दू और हिन्दी के लिए।

छोड़ करके राज का सुखभोग भी।

प्रान हैं जिस कुल के बीरों ने दिये।

हाय! उस सुपुनीत कुल के लोग भी।

बाँह हिन्दी की पकड़ते हैं नहीं।

हाय! दुख इससे भला बढ़कर है क्या।

देखते हैं राज उरदू का वहीं।

हाय! क्या अब भी नहीं फटती धारा।

है हमारी पूज्य पण्डित मण्डली।

हैं समादरणीय ग्रेजुएट भी।

है महाजन से मेरी काया पली।

काशमीरी भी हमारे हैं सभी।

जाति भी वह है हमारे प्यार की।

है महाराजों से उज्जल मुख बना।

बात है क्या यह मेरे अधिाकार की।

भूल कर भी जो करें हम सामना।

पर बिथा अपनी सुनावें हम किसे।

हम सदा ही आह भरते हैं सरद।

कौन है बिन आप लोगों के जिसे।

नागरी दुखभागिनी की हो दरद।

जो गिरी इतनी हुई है नागरी।

और है बिगड़ी हुई उसकी दसा।

आप लोगों पास ही है तो जड़ी।

आपही लोग इसको सकते हैं बसा।

पर नहीं जो आप लोगों को हुआ।

आज भी इसकी दसा का धयान कुछ।

तो फिरेगी झाँकती सब दिन कुऑं।

हाय! होगा मान भी इसका न कुछ।

लाज की यह बात है कितनी बड़ी।

मातृभाषा आप लोगों की बिबस।

नित रहे सब भाँति झंझट में पड़ी।

औ फड़क करके भी फड़के है न नस।

है जगत के बीच जिसका पद बड़ा।

आन भी होती उसी की है बड़ी।

है कमर कसकर वही होता खड़ा।

है उसी के साथ रहती सुभ घड़ी।

कर दिखाता है वही संसार में।

काम जो सब से हैं बढ़ करके कठिन।

है उसीकी पूछ पर-उपकार में।

है बना देता वही उज्जल मलिन।

है इसीसे आप लोगों के लिए।

नागरी का हित नहीं कुछ भी कठिन।

हैं बिपत में दिन बहुत इसके गये।

उँगलियों पर भी न अब सकते हैं गिन।

मुँह सुधाा से धाोय कर सौ बार भी।

नाम जिनका ले नहीं सकते हैं हम।

ऐसे कुछ राजे महाराजे अभी।

कर चुके हैं प्रगट वह साहस असम।

जिसकी है समता नहीं मिलती कहीं।

काम जिसने है सजीवन का किया।

क्या कहीं अब वह रहा साहस नहीं।

नागरी को जिसने है जीवन दिया।

है, असम साहस वह है, अब भी बचा।

और महराजों वो राजों के निकट।

कल्पने तू मत बहुत हमको नचा।

है अभी भी सीस पर उनके मुकट।

ऐ हमारे देस के गौरव परम।

ऐ हमारे मान्यतम महिपाल गन।

आपही से नागरी का है भरम।

दीजिए दरबार में इसको सरन।

ऐ हमारी पूज्य पण्डित मण्डली।

आपको रुचती नहीं क्यों नागरी।

आपही के घर में यह सब दिन पली।

आपकी फिर दीठ इससे क्यों फिरी।

मौलवी ऐसा न होगा एक भी।

ख़ूब जो उर्दू न होवे जानता।

आप पढ़ते भी नहीं इसको कभी।

किस तरह है आपका मन मानता।

इसमें लिख सकते हैं चीठी तक नहीं।

जो लिखेंगे भूल होगी सौ जगह।

दुख बड़ा होता हमें भी है यहीं।

क्या नहीं कुछ लाज की है बात यह।

है धारम की हानि होती इस समय।

बात यह हम सुन रहे हैं हर घड़ी।

पर हमें कहने में होता है न भय।

आप ही की भूल इसमें है बड़ी।

हैं बहुत गहरे धारम के भाव सब।

उठ गया है संसकीरत का चलन।

नागरी ही एक है आधाार अब।

जिसमें कर सकते हैं कुछ इसका जतन।

संस्कृत के साथ पढ़ कर नागरी।

देस का औ धारम का हित कीजिए।

एक सी जाती नहीं सारी घरी।

मान इतनी बात मेरी लीजिए।

ऐ सुगौरववान ग्रेजुएट गन।

है भरोसा आपका हमको बहुत।

नागरी हो जायगी उज्जल रतन।

आप जो हो जायँ इसकी ओर रत।

है समय का ज्ञान पूरा आपको।

देखते हैं देस की भी सब दसा।

कौन मेटेगा हमारे ताप को।

नागरी को आप जो देंगे नसा।

सच है कुछ भी नागरी में है नहीं।

आपको वह है नहीं सकती लुभा।

पर कोई अपने को तजता है कहीं।

क्या वह जी में है नहीं रहता खुभा।

नागरी में जो हैं ऐसे गुन नहीं।

इसमें भी तो आप ही की चूक है।

आज तक तो यह पहुँच जाती कहीं।

पर किया कब हमने कौन सलूक है।

सकल विद्या से है ऍंग्रेजी भरी।

आप चुन चुन करके उसमें से रतन।

नागरी को कीजिए गुन आगरी।

कौन सा मन फिर न होवेगा मगन।

है सिखाती हमको ऍंग्रेजी यही।

मातृभाषा को सदा उन्नत करो।

क्यों नहीं करते हैं आप उसकी कही।

क्या है इसमें भी नरो वा कुंजरो।

ऐ हमारे काशमीरी बिबुधा गन।

ऐ समादरनीय कायथ मण्डली।

है जगत के बीच वह प्रानी रतन।

मातृभाषा जिसके हाथों हो पली।

इस हमारे प्रान्त में हैं आप लोग।

बुध्दि विद्या विनय में आगे बढ़े।

किसको सुन कर यह भला होगा न सोग।

आप हैं अपनी नहीं भाषा पढ़े।

मातृभाषा आप लोगों की यही।

नागरी है, जानता यह है सभी।

मान लेंगे आप भी मेरी कही।

क्या करेंगे सुरत भी इसकी कभी।

भूल कर भी दीठ जो फिरती इधार।

तो दसा होती न इसकी आज यह।

चाहिए घर की भी कुछ रखनी खबर।

आप कैसे घर का दुख सकते हैं सह।

कर हमारा काम सब सरकार दे।

कुछ पड़े हमको न करना भूल कर।

यह हमारे ढंग हैं ऐसे बुरे।

जिससे बस सकता नहीं अपना भी घर।

कम नहीं है, जो दया सरकार ने।

नागरी पर कर दिखाई गये दिन।

पर न हम लोगों से जो कुछ भी बने।

तो करे उसके लिए वह क्या जतन।

आप लोगों की कचहरी में है गति।

पूछ भी है आप लोगों की बड़ी।

दीजिए कर दूर हिन्दी की विपति।

जोहती मुँह आपका है वह खड़ी।

है सुकीरत हाथ जो जग में बिका।

उसके ऐसा है कोई प्रानी नहीं।

सच है प्यारी जीव से है जीविका।

पर सुकीरत उससे है प्यारी कहीं।

ऐ हमारे नागरी उन्नायको।

ऐ हमारी नागरी के प्रान धान।

ऐ हमारी नागरी के सहायको।

ऐ ऍंधोरी कान के उज्जल रतन।

काम ऐसा है कठिन कोई नहीं।

जो न òम करने से हो जावे सरल।

हैं असम्भव का भी सुनते नाम ही।

कर उसे देता है सम्भव बुध्दिबल।

जो सदुद्यम का मरम हैं जानते।

टूटता जिनका नहीं साहस कभी।

जो न इतना भाग को हैं मानते।

कर दिखाते हैं वही कारज सभी।

ऊसरों में वह खिलाते हैं कमल।

फूल होता है कुलिस उनके लिए।

आपदा उनकी सभी जाती है टल।

कितने ही उनके जिलाये हैं जिये।

एक नस में भी लहू जब तक बहे।

देह में जब तक रहे एक साँस भी।

आन करके क्यों न कुछ कोई कहे।

क्यों न होवें सैकड़ों उतपात भी।

भूलिए अपना नहीं उद्यम करम।

छोड़िए अपना यह साहस भी नहीं।

आपकी होगी विजय कहते हैं हम।

वह भी ऐसी जो नहीं देखी कहीं।

खोलते हैं आज मिलकर आप लोग।

एक हिन्दी का भवन करके जतन।

आएगा वह दिन कि जब मिल करकेलोग।

सैकड़ों खोलेंगे हिन्दी का भवन।

वह गिरे इसका करे जो सामना।

ऐस ही आवें सब इसके दिन भले।

हे प्रभो मेरी यही है कामना।

नित हमारी नागरी फूले-फले।

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