अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 1 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
मियाँ आजाद के बारे में, हम इतना ही जानते हैं कि वह आजाद थे। उनके खानदान का पता नहीं, गाँव-घर का पता नहीं; खयाल आजाद, रंग-ढंग आजाद, लिबास आजाद दिल आजाद और मजहब भी आजाद। दिन भर जमीन के गज बने हुए इधर-उधर घूमना, जहाँ बैठना वहाँ से उठने का नाम न लेना और एक बार उठ खड़े हुए तो दिन भर मटरगश्त करते रहना उनका काम था। न घर, न द्वार; कभी किसी दोस्त के यहाँ डट गए, कभी किसी हलवाई की दुकान पर अड्डा जमाया; और कोई ठिकाना न मिला, तो फाका कर गए। सब गुन पूरे थे। कुश्ती में, लकड़ी-बिनवट में, गदके-फरी में, पटे-बाँक में उस्ताद। गरज, आलिमों में आलिम, शायरों में शायर, रँगीलों में रँगीले, हर फन मौला आदमी थे।
एक दिन मियाँ आजाद बाजार में सैर सपाटा कर रहे थे कि एक बुड्ढे ने एक बाँके से कहा कि मियाँ, बेधे आए हो, या जान भारी है, या छींकते घर से चले थे? यह अकड़ते क्यों चलते हो? यहाँ गरदन झुका कर चला कीजिए, नहीं तो कोई पहलवान गरदन नापेगा, सारी शेखी किरकिरी हो जायगी, ऐंड़ना भूल जाइएगा! इससे क्या वास्ता? यह शहर कुश्ती, पटे-बाँक और लकड़ी की टकसाल है। बहुत से लड़ंतिए आए, मगर पटकनी खा गए। हाथ मिलाते ही पहलवानों ने मारा चारों खाने चित्त। यह सुनते ही वह मियाँ बाँके आग-भभूका हो गए। बोले – जी, तो कहीं इस भरोसे भी न रहिएगा, यहाँ पटकनी खानेवाले आदमी नहीं हैं, बीच खेत पछाड़ें तो सही; बने रहें हमारे उस्ताद, जिन्होंने हमें लकड़ी सिखाई। टालों की लकड़ी फेंकना तो सभी जानते हैं, मैदान में ठहरना मर्दों ही का काम है। हमारे उस्ताद तीस-तीस आदमियों से गोहार लड़ते थे। और कौन लोग? गँवार-घामड़ नहीं, पले हुए पट्ठे, जिन पर उनको गरूर था। फिर यह खयाल कीजिए कि तीस गदके बराबर पड़े थे, मगर तीसों की खाली जाती थी। कभी आड़े हो गए, कभी गदके से चोट काट दी, कभी बनको समेट लिया, कभी पैंतरा बदल दिया। शागिर्दों को ललकारते जाते थे कि ‘लगा दे बढ़ के हाथ, आ घुसके।’ और वह झल्ला-झल्ला के चोटें लगाते थे, मगर मुँह की खाते थे। जब सके दम टूट गए और लगे हाँपने, तो गदके हाथ से छूट-छूट पड़े। मगर वाह रे उस्ताद! उनके वही खमदम, वही ताव-भाव, पहरों लकड़ी फेंकें, मगर दम न फूले; और जो कहीं भिड़ पड़े तो बात की बात में परे साफ थे। किसी पर पालट का हाथ जमाया, किसी को चाकी का हाथ लगाया। फिर यही मालूम होता था कि फुलझड़ी छूट रही है, या आतिशबाजी की छछूंदर नाच रही है, या चरखी चक्कर में है। जनेवा का हाथ तो आज तक कोई रोक ही न सका; वह तुला हुआ हाथ पड़ता था कि इधर इशारा किया, उधर तड़ से पड़ गया। बस, मौत का तीर था, गदका हाथ में आया और मालूम हुआ कि बिजली लौंकने लगी। मुमकिन नहीं कि आदमी की आँख झपकने पाए। ललकार दिया कि रोक चाकी, फिर लाख जतन कीजिए, भला रोक तो लीजिए। निशाना तो कभी खाली जाने ही नहीं पाता था। फरी उम्र-भर न छूटी। एक अंग ही लड़ा किए। छरहरा बदन, सीधे-सादे आदमी, सूरत देखे तो यकीन न आए कि उस्ताद हैं, मगर एक जरा सी बाँस की खपाच दे दीजिए, फिर दिल्लगी देखिए, कैसे जौहर दिखाते हैं! हम जैसे उस्तादों की आँखें देखे हुए हैं, किसी से दबनेवाले नहीं।
मियाँ आजाद तो ऐसे आदमियों को टोह में रहते ही थे, बाँके के साथ हो लिए और दोनों शहर में चक्कर लगाने लगे। चौक में पहुँचे, तो जिस पर नजर पड़ती है, बाँका-तिरछा; चुन्नटदार अँगरखे पहने, नुक्केदार टोपियाँ सिर पर जमाए, चुस्त घुटन्ने डाटे, ढाटे बाँधे हुए तने चने जाते हैं। तमंचे की जोड़ी कमर से लगी हुई, दो-दो विलायतियाँ पड़ी हुई, बाढ़ें चढ़ी हुई, पेशकब्ज, कटार, सिरोही, शेर-बच्चा, सबसे लैस। बाँके को देख कर एक दुकानदार की शामत आई, हँस पड़ा। बाँके ने आव देखा न ताव, दन से तमंचा दाग दिया। संयोग था, खाली गया। लोगों ने पूछा, क्यों भाई, क्यों बिगड़ गए? तीखे होकर बोले – हमको देख कर बचाजी मुसकिराए थे, हमने गोली लगाई कि दाँत पर पड़े और इनके दाँत खट्टे हो जायँ, मगर जिंदगी थी, बच निकले। मियाँ आजाद ने अपने दिल में सोचा। यह बाँके तो आफत के परकाले हैं, इनको नीचा न किया तो कुछ बात नहीं। एक तंबोली से पूछा – क्यों भाई, यहाँ बाँके बहुत हैं? उसने कहा – मियाँ, बाँका होना तो दिल्लगी नहीं, हाँ, बेफिक्रे बहुत हैं। और इन सबके गुरू-घंटाल वह हजरत हैं, जिन्हें लोग एकरंग कहते हैं। वह संदली रँगा हुआ जोड़ा पहन कर निकलते हैं, मगर मजाल क्या कि शहर भर में कोई संदली जोड़ा पहन तो ले एकरंग संदली जोड़ा कोई पहन नहीं सकता; कोई पहने तो गोली भी सर कर दे, इसके साथ यह भी है।
मियाँ आजाद ने सोचा कि इस एकरंग का टेटुआ न लिया, तो खाना हराम। दूसरे दिन आप भी संदली बूट, संदली घुटन्ना, संदली अँगरखा और टोपी डाटकर निकले। अब जिस गली-कूचे से निकलते हैं, उँगलियाँ उठती हैं कि यह आज इस ढब से कौन निकले हैं भाई! होते-होते एकरंग के चेले-चापड़ों ने उनके कान में भी भनक डाल दी। सुनते ही मुँह लाल चुकंदर हो गया। कपड़े पहन, हथियार लगा, चल खड़े हुए।
इधर आजाद तंबोली की दुकान पर टिक गए। उनका वेश देखते ही उसके होश उड़ गए। लगा हाथ जोड़ने कि भगवान के लिए मेरी ही टोपी ले लीजिए, या जूता बदल डालिए, नहीं तो वह आता ही होगा, मुफ्त की ठायँ-ठायँ से क्या वास्ता? इनको तो कच्चे घड़े की चढ़ी थी, कब मानते थे, गिलौरी ली और अकड़ कर खड़े हुए। शहर में धूम हो गई कि आज आजाद और एकरंग में तलवार चलेगी। तमाशा देखनेवाले जमा हो गए। इतने में मियाँ एकरंग भी दिखाई दिए। उनके आते ही भीड़ छट गई। कोई इधर कतरा गया, कोई गली में घुसा, कोई कोठे पर चढ़ गया। एकरंग ने जो इनको देखा, तो जल मरा। बोला – अबे ओ खब्ती, उतार टोपी, बदल जूता। हमारे होते तू संदली जोड़ा पहन कर निकले। उतार, उतार, नहीं तो मैं बढ़ कर काम तमाम कर दूँगा।
मियाँ आजाद पैंतरा बदल कर तीर की तरह झपट पड़े और बड़ी फुर्ती से एकरंग की तोंद पर तमंचा रख दिया। बस हिले और धुआँ उस पार! बोले और लाश फड़कने लगी! बेईमान, बड़ा बाँका बना है, सैकड़ों भले आदमियों को बेइज्जत किया। इतने चाबुक मारूँगा कि याद करेगा। अभी उतार टोपी, उतार, उतार, नहीं तो धुआँ उस पार! संयोग से एक दर्जी उधर से निकला, उसने एकरंग की टोपी उतार जेब में रखी। एकरंग की एक न चली। आजाद ने ललकारा – हौसला हो तो आओ, दो-दो हाथ भी हो जाएँ, खबरदार जो आज से सँदली जोड़ा पहना!
शहर भर में धूम हो गई कि मियाँ आजाद ने एकरंग के छक्के छुड़ा दिए, चुपचाप दर्जी से टोपी बदली। सच है, ‘दबे पर बिल्ली चूहे से कान कटाती है।’ मियाँ आजाद की धाक बँध गई। एक दिन उन्होंने मुनादी कर दी कि आज मियाँ आजाद छह बजे से आठ बजे तक अपने करतब दिखाएँगे, जिन्हें शौक हो आएँ। एक बड़े लंबे-चौड़े मैदान में आजाद अपने जौहर दिखाने लगे। लाखों आदमी जमा थे। मियाँ आजाद ने नीबू पर निशाना बनाया, और तलवार से उड़ाया, तो निशान के पास खट से दो टुकड़े। कसेरू उछाला और पाँच-छह बार में छील डाला! तलवार की बाढ़ से दस-बारह की आँखों में सुरमा लगाया। चिराग जलाया और खाँड़ा फेंकते-फेंकते गुल काट डाला, लौ अलग, बत्ती अलग। एक प्याले में दस कौड़ियाँ रखीं और दो पर निशान बना दिया। दोनों को तलवार से प्याले ही में काटा और बाकी कौड़ियाँ निलोह बच निकलीं। लकड़ी टेकी और बीस हाथ छत पर हो रहे। गदके का जरा इशारा किया और बीस हाथ उड़ गए। चालीस-चालीस आदमियों ने घेरा और यह साफ निकल भागे। पलंग के नीचे एक जंगली कबूतर छोड़ दिया गया। उन्होंने उसको निकलने न दिया। एक फिकैत ने ये करतब देखे तो बोला – अजी यह सब नट-विद्या है, मैदान में आएँ तो मालूम हो।
आजाद – अच्छा! अब तुम्हें भी मैदान में आने का दावा हुआ! तुम्हारे एकरंग का तो रंग फीका हो गया, अब तुम मुँह चढ़ते हो, तुम्हें भी देखूँगा।
फिकैत – चोंच सँभालो।
आजाद – तुम्हारी शामत ही आ गई है, तो मैं क्या करूँ। आजकल में तुम्हारी भी कलई खुली जाती है। तुम लोग बाँके नहीं, बदमाश हो; जिधर से निकल जाओ, उधर आदमी काँप उठें कि भेड़िया आया। कोई हँसा और तुमने बंदूक छतियाई, किसी ने बात की और तुमने चोट लगाई। भाई वाह, अच्छा बाँकपन है! तो बता क्या, जहाँ दस दिन डंड पेले और उबल पड़े, दो-चार दिन लकड़ी फेंकी और मोहल्लेवालों पर शेर हो गए। गुनी लोग सिर झुका ही के चलते हैं।
वही बातें हो रही थीं कि सामने से एक पहलवान ऐंड़ते हुए निकले, लँगोट बाँधे, मलमल की चादर ओढ़े दो-तीन पट्ठे साथ। एक कसेरूवाले के पास खड़े हो गए और उसके सिर पर एक धप लग दी। वह पीछे फिरकर देखता है, तो एक देव खड़े हैं। बोले, तो पथा जाय; कान दबा कर, धप खा कर, दिल ही दिल में कोसता हुआ चला गया।
थोड़ी ही देर में मियाँ पहलवान ने एक खोंचेवाले का खोंचा उलट दिया; तीन-चार रुपए कि मिठाई धूल में मिल गई। जब उसने गुल-गपाड़ा मचाया, तो पट्ठों ने दो-तीन गुद्दे, घूसे, मुक्के लगा दिए, दो-चार लप्पड़ जमा दिए। वह बेचारा रोता-चिल्लाता, दुहाई देता चला गया।
आजाद सोचने लगे, यह तो कोई बड़ा ही शैतान है, किसी के लप्पड़, किसी के थप्पड़, अच्छी पहलवानी है! सारे शहर में तहलका मचा दिया। इसकी खबर न ली, तो कुछ न किया। यह सोचते ही मेरा शेर झपट पड़ा और पहलवान के पास जाकर घुटने से ऐसा धक्का दिया कि मियाँ पहलवान ने इतना बड़ा डील-डौल रखने पर भी बीस लुढ़कनियाँ खाईं। मगर पहलवान सँभलते ही उनकी तरफ झपट पड़ा। तमाशाई तो समझे कि पहलवान आजाद को चुर्र-मुर्र कर डालेगा, लेकिन आजाद ने पहले ही से वह दाँव-पेंच किए कि पहलवान के छक्के छूट गए, ऐसा दबाया कि छठी का दूध याद आ गया। उसने जैसे ही आजाद का बायाँ हाथ घसीटा, उन्होंने दाहने हाथ से उसका हाथ बाँधा और अपना छुड़ा, चुटकियों में कूले पर लाद, घुटना टेक कर मारा – चारों खाने चित्त! पहलान अब तक कोरा था, किसी दंगल में आसमान देखने की नौबत न आई थी। आजाद ने जो इतने आदमियों के सामने पटकनी बताई, तो बड़ी किरकिरी हुई और तमाम उम्र के लिए दाग लग गया।
अब तो मियाँ आजाद जगत्-गुरु हो गए, एकरंग का रंग फीका पड़ गया, पहलवान ने पटकनी खाई, शहर भर में धूम हो गई। जिधर से निकल जाते, लोग अदब करते थे। जिससे चार आँखें हुई उसने जमीन चूम कर सलाम किया। अच्छे-अच्छे, बाँकों की कोर दबने लगी। जहाँ किसी शहजोर ने कमजोर को दबाया और उसने गुल मचाया – दोहाई मियाँ आजाद की, और यह बाँड़ी ले कर आ पहुँचे। किसी बदमाश ने कमजोर को दबाया और उसने डाँट बताई – नहीं मानते, बुलाऊँ मियाँ आजाद को? शोहदे-लुच्चे उनसे ऐसे थर्राते थे, जैसे चूहे बिल्ली से, या मरीज तिल्ली से। नाम सुना और बगलें झाँकने लगे; सूरत देखी और गली कूचों में दुबक रहे। शहर भर में उनका डंका बज गया।
एक दिन आजाद सिरोही लिए ऐंड़ते जा रहे थे कि एक दर्जी की दुकान के पास से निकले। देखते क्या हैं, रँगीले छैले, बाँके जवान छोटे पंजे का मखमली जूता पहने, जुल्फें लटकाए, छुरी कमर से लगाए दर्जी से तकरार कर रहे हैं। वाह मियाँ खजीफा! तुमने तो हमें उलटे छूरे मूड़ा! खुदा जाने, किस करतब्योंत में रहते हो। सीना-पिरोना तो नाम का है, हाँ, जबान अलबत्ता, करतनी की तरह चला करती है। तुमसे कपड़े सिलवाना अपनी मिट्टी खराब करना है। दम धागा देना खूब जानते हो। टोपी ऐसी मोंड़ी बनाई कि फबतियाँ सुनते-सुनते नाकों दम आ गया।
दर्जी – ऐ तो हुजूर, मैं इसको क्या करूँ? मेरा भला इसमें क्या कुसूर है? आपका सिर ही टेढ़ा है। मैं टोपी बनाता हूँ, सिर बनाना नहीं जानता।
बाँके – चोंच सँभाल, बहुत बढ़-बढ़ कर बातें न बना। बाँकों के मुँह लगता है? और सुनिए, हमारा सिर टेढ़ा है। अबे, तेरा सिर साँचे का ढला है? तेरे ऐसे दर्जी मेरी जेब में पड़े रहते हैं, मुँह बंद कर, नहीं दूँगा उल्टा हाथ, मुँह टेढ़ा हो जायगा। और तमाशा देखिए, हमारा सिर गोया कद्दू हो गया है।
दर्जी – आप मालिक हैं, मुल मेरी खता नहीं। जैसा सिर वैसी टोपी। ऐसा सिर तो मैंने देखा ही नहीं; यह नई गढ़ंत का सिर है, आप फरे लें, बस, मैं सी चुका। जब दाम देने का वक्त आया, तो यह झमेला किया।
यह सुनते ही बाँके ने दर्जी को इतना पीटा कि वह बेचारा बेदम हो गया। आखिर कफन फाड़ कर चीखा, दोहाई मियाँ आजाद की, दोहाई मेरे उस्ताद की। आजाद तो दूर से खड़े देख ही रहे थे, झट तलवार सैंत दुकान पर पहुँच गए। बाँके ने पीछे फिर कर देखा, तो मियाँ आजाद।
आजाद – वाह भाई बाँके, तुम सचमुच रुस्तम हो। बेचारे दर्जी पर सारी चोटें साफ कर दीं। कभी किसी कड़ेखाँ से भी पाला पड़ा है? कहीं गोहार भी लड़ा है? या गरीबों ही पर शेर हो? बड़े दिलेर हो तो आओ, हमसे भी दो-दो हाथ हो जाएँ। तुम ढेर हो जाओ, या हम नरका खायँ। आइए, फिर पैंतरा बदलिए, लगा बढ़ कर हाथ, इधर या उधर।
बाँके – हैं, हैं, उस्ताद, हमीं पर हाथ साफ करोगे, हम नौसिखिए तुम गुरू-घंटाल। मगर आप इस कमीने दर्जी की तरफ से बोलते हैं और शरीफों पर तलवार तौलते हैं! सुभान अल्लाह! आइए, आपसे कुछ कहना है।
आजाद – अच्छा, तोबा करो कि अब किसी गरीब को न धमकाएँगे।
बाँके – अजी हजरत, धमकाना कैसा, हम तो खुद ही बला में फँसे हैं; खुदा ही बचाए, तो बचें। यहाँ एक फिकैत है, उससे हमसे लाग-डाँट हो गई है। कल नौचंदी के मेले में हमें घेरेगा, कोई दो सौ बाँकों के जत्थे से हम पर हरबा करना चाहता है। हम सोचते हैं कि दरगाह न जायँ, तो बाँकपन में बट्टा लगता है, और जायँ, तो किस बिरते पर? यार, तुम साथ चलो तो जान बचे, नहीं तो बेमौत मरे।
आजाद – अच्छा, तुम भी क्या कहोगे! लो, बीड़ा उठा लिया कि कल तुमको ले चलेंगे और सबसे भिड़ पड़ेंगे, दो सौ हों, चाहे हजार, हम हैं और हमारी कटार, इतनी कटारें भोकूँ कि दम बंद हो जाय। मगर यह बता दो कि कुसूर तुम्हारा तो नहीं है?
बाँके – नहीं उस्ताद, कसम ले लो, जो मेरी तरफ से पहल हुई हो। मुझसे उन्होंने एक दिन अकड़ कर कहा कि तू तलवार न बाँधा कर। मैं भी, आप जानिए, इनसान हूँ। पित्ता तो मछली के भी होता है। मुझे भी गुस्सा आ गया। मैंने कहा, धत्! तू और हमसे हथियार रखवा ले? बस, बिगड़ ही तो गया और पंद्रह-बीस आदमी उसकी तरफ से बोलने लगे। मैंने भी जवाब दिया, दबा नहीं। मगर लड़ पड़ना मसलहत न थी। बाँका हूँ, तो क्या हुआ, बिना समझे बूझे बात नहीं करता। खैर, उसने ललकार कर कहा – अच्छा बचा, दरगाह में समझ लेंगे, अब की नौचंदी में हमीं न होंगे, या तुम्हीं न होंगे।
आजाद – अच्छा, तुम, लैस रहना, मैं दो घड़ी दिन रहे आऊँगा, घबराओ नहीं, तुम्हारा बाल-बाँका हो, तो मूँछ मुड़ा दूँ। ये दो सौ आदमी देखने ही भर के होंगे। सच्चे दिलेर उनमें दो-ही चार होंगे, जो आजाद की तलवार का सामना करें। मौत से लड़ना दिल्लगी नहीं है; कलेजा चाहिए!
दूसरे दिन आजाद हथियार बाँध कर चले, तो रास्ते में बाँके मिल गए और दोनों साथ-साथ टहलते हुए दरगाह पहुँचे।
नौचंदी जुमेरात, बनारस का बुढ़वामगल मात; चारों तरफ चहल-पहल; कहीं ‘तमाशाइयों’ का हुजूम, हटो-बचो की धूम; आदमी पर आदमी टूटे पड़ते हैं, कोसों का ताँता लगा हुआ है, मेवेवाले आवाज लगा रहे हैं, तंबोली बीड़े बना रहे हैं, गँड़ेरिया हैं केवड़े की, रेवड़ियाँ हैं गुलाब की। आजाद घूरते-घारते फाटक पर दाखिल हुए, तो देखा, सामने तीस-चालीस आदमियों का गोल है। बाँके ने कान में कहा कि यही हजरत हैं, देख लीजिए, दंगे पर आमादा हैं या नहीं।
आजाद – भला, यहाँ तुम्हारा भी कोई जान-पहचान है? हो, तो दस-पाँच को तुम भी बुला लो; भीड़-भड़क्का तो हो जाय। लड़नेवाले हम क्या कम हैं – मगर दो-चार जमाली खरबूजे भी चाहिए, डाली की रौनक हो जाय।
बाँके – अभी लाया, आप ठहरें; मगर बाहर टहलिए, तो अच्छा है, यहाँ जोखिम है।
आजाद फाटक के बाहर टहलने लगे। फिकैत ने जो देखा कि दोनों खिसके, तो आपस में हाँड़ियाँ पकने लगीं – वह भगाया! वह हटाया! भागा है! उनके साथियों में से एक ने कहा – अजी, वह भागा नहीं है, एक ही काइयाँ है, किसी टोह में गया है। एक बिगड़ेदिल बाहर गए, तो देखा, बाँके पश्चिम की तरफ गर्दन उठाए चले जाते हैं, और मियाँ आजाद फाटक से दस कदम पर टहल रहे हैं। उलटे पाँव आकर खबर दी – उस्ताद, बस, यही मौका है, चलिए, मार लिया है, बाएँ हाथ चला जाता है, और अकेला है। सब दूसरे फाटक से चढ़ दौड़े। ठहर बे, ठहर! बस, रुक जा, आगे कदम बढ़ाया, और ढेर हुए! हिले, और दिया तुला हुआ हाथ। याद है कि नहीं, आज नौचंदी है। लोगों ने चारों तरफ से घेर लिया। बाँके का रंग फक कि गजब ही हो गया! अब कुत्ते की मौत करे। किस-किससे लड़ूँगा? एक ही दवा दो कि सौ। मियाँ आजाद को कोई खबर कर देता, तो वह झपट ही पड़ते; मगर जब तक कोई जाय-जाय, हमारा काम तमाम हो जायगा। एक यार ने बढ़कर बेचारे मुसीबत के मारे बाँके के एक लठ लगा दिया, बाएँ हाथ की हड्डी टूट गई। गुल-गपाड़े की आवाज आजाद ने भी सुनी। भीड़ काट कर पहुँचे, तो देखा, बाँके फँसे हुए हैं। तलवार को टेका और दन से उस पार हुए। खबरदार खिलाड़ी! हाथ उठाया और मैंने टेटुआ लिया। बाँके के दिल में ढाढ़स हुआ, जान बची, नई जिंदगी हुई। इतने में मियाँ आजाद ने तलवार म्यान से निकाली और पिल पड़े। तलवार का चमकना था कि फिकैत के सब साथी हुर्र हो गए, मैदान खाली, मियाँ आजाद और बाँके एक तरफ, फिकैत और दो साथी दूसरी रफ, बाकी रफूचक्कर। एक ने आजाद पर तमंचा चलाया, मगर खाली गया। आजाद ने झपट कर उसको ऐसा चरका दिया कि तिलमिला कर गिर पड़ा। दूसरे जवान दस कदम पीछे हट गए। बाँके भी खिसक गए। अब आजाद और फिकैत आमने-सामने रह गए। वह कड़क कर झुका, इन्होंने चोट रोक कर सिर पर हाथ लगाना चाहा, उसने रोका और चाकी का हाथ दिया। आध घंटे तक शपाशप तलवार चला की। आखिर आजाद ने बढ़ कर ‘जनेऊ’ का वह हाथ लगाया कि ‘भंडारा’ तक खुल गया, मगर फिकैत भी गिरते-गिरते ‘बाहरा’ दे हो गया। इधर यह, उधर वह धम से गिरे। तब बाँके दौड़े और आजाद को उठा कर घर ले गए।
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