अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 11– (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
एक दिन आजाद शहर की सैर करते हुए एक मकतबखाने में जा पहुँचे। देखा, एक मौलवी साहब खटिया पर उकड़ू बैठे हुए लड़कों को पढ़ा रहे हैं। आपकी रँगी हुई दाढ़ी पेट पर लहरा रही है। गोल-गोल आँखें, खोपड़ी घुटी-घुटाई, उस पर चौगोशिया टोपी जमी-जमाई। हाथ में तसबीह लिए खटखटा रहे हैं। लौंडे इर्द-गिर्द गुल मचा रहे हैं। हू-हक मची हुई है, गोया कोई मंडी लगी हुई है। तहजीब कोसों दूर, अदब काफूर, मगर मौलवी साहब से इस तरह से डरते हैं, जैसे चूहा बिल्ली से, या अफीमची नाव से। जरी चितवन तीखी हुई, और खलबली मच गई। सब किताबें खोले झूम-झूम कर मौलवी साहब को फुसला रहे हैं। एक शेर जो रटना शुरू किया, तो बला की तरह उसको चिमट गए। मतलब तो यह कि मौलवी साहब मुँह का खुलना और जबान का हिलना और उनका झूमना देखें, कोई पढ़े या न पढ़े, इससे मतलब नहीं। मौलवी साहब भी वाजबी ही वाजबी पढ़े-लिखे थे, कुछ शुद-बुद जानते थे। पढ़ाने के फन से कोरे। एक शागिर्द से चिलम भरवाई, दूसरे से हुक्का ताजा कराया; दम-झांसे में काम लिया, हुक्का गुड़-गुड़ाया और धुआँ उड़ाया। शामत यह थी कि आप अफीम के भी आदी थे। चीनी की प्याली आई, अफीम घोली और उड़ाई। एक महाजन के लड़के ने बर्फी मँगवाई, आपने खूब डट कर चखी, तो पिनक ने आ दबोचा। ऊँघे, हुक्का टेढ़ा हो गया, गरदन अब जमीन पर आई, और अब जमीन पर आई। हुक्का गिरा और चकनाचूर हो गया। दो-एक लड़कों की किताबों पर चिनगारियाँ गिरीं। अब पिनक से चौंके, तो ऐसे झल्लाए कि किसी लड़के के चपत लगाई, किसी की खोपड़ी पर धप जमाई, एक के कान गरमाए। पिनक में आ कर खुद तो हुक्का गिराया और शागिर्दों को बेकसूर पीटना शुरू किया। खैर, इतने में एक लड़का किताब ले कर पढ़ने आया। उसने पढ़ा –
दिलम कुसूद कुसादम चु नाता अत गोई,
कलीदे बागे गुलिस्तान दिल कुसाई बूद।
(जब मैंने तेरा खत खोला, तो मेरा दिल खुल गया; गोया वह पत्र खुशी के बाग के दरवाजे की कुंजी था।)
अब मौलवी साहब का तरजुमा सुनिए –
तरजुमा – दिल तेरा खुला, खोला मैंने जो खत तेरा, कहे तू कुंजी दरवाजे बागदिल खोलने की थी।
माशा-अल्लाह, क्या तरजमा था। न मौलवी साहब ने खुद समझा, न लड़के ने। और दिल्लगी सुनिए कि मौलवी साहब भी शागिर्द के साथ पढ़ते जाते है और दोनों हिलते जाते हैं। जब यह पढ़ चुके, तो दूसरे साहब किताब बगल में दबाए आ बैठे।
मौलवी साहब – अरे गावदी, नई किताबें शुरू कीं, और चिरागी नदारद, शुकराना छप्पर पर! जा, दौड़ कर दो आने घर से ले आ।
लड़का – मौलवी साहब, कल लेता आऊँगा। आप तो हत्थे ही पर टोक देते हैं। आपको अपनी मिठाई ही से मतलब है कि मुफ्त के झगड़े से?
मौलवी – ये झाँसे किसी और को देना! अच्छा, अपने बाप की कसम खा कि कल जरूर लाऊँगा।
लड़का – मौलवी साहब के बड़े सिर की कसम, चढ़ते चाँद तक जरूर लाऊँगा।
इस पर सब लड़के हँस पड़े कि कितना ढीठ लड़का है! कसम भी खाई तो मौलवी साहब के सिर की, और सिर भी छोटा नहीं, बड़ा।
मौलवी – चुप गधे, मेरा सिर क्या कद्दू है? अच्छा, पढ़।
लड़का तो ऊटपटाँग पढ़ने लगा, मगर मौलाना साहब चूँ भी नहीं करते। उन्हें मिठाई की फिक्र सवार है। सोच रहे हैं, जो कल दो आने न लाया, तो खूब कोड़े फटकारूँगा, तस्मा तक तो बाकी रखूँगा नहीं।
दस-पाँच लड़के एक दूसरे को गुदगुदा रहे हैं और मौलवी साहब को दिखाने के लिए जोर-जोर से चिल्ला कर कोई शेर पढ़ रहे हैं।
आजाद को मकतब की यह हालत और लौडों को यह चिल्ल-पों देख सुन कर ऐसा गुस्सा आया कि अगर पाते, तो मौलवी साहब को कच्चा ही खा जाते। दिल में सोचे, यह मकतबखाना है या पागलखाना? जिधर देखिए, गुल-गपाड़ा, धौल-धप्पा हो रहा है। मालूम होता है, भरी बर्सात में मेंढक गाँव-गाँव या पिछले पहर कौवे काँव-काँव कर रहे हैं। घर पर आते ही मकतबों की हालत पर यह कैफियत लिख डाली –
(1) नूर के तड़के से झुटपुटे तक लड़कों को मकतबखाने में कैद रखना बेहूदगी है। लड़के दस बजे आएँ, चार बजे छुट्टी पाएँ, यह नहीं कि दिन भर दाँता-किल-किल, पढ़ना भी अजीरन हो जाय, और यही जी चाहे कि पढ़ने-लिखने की दुम में मोटा सा रस्सा बांधे, मौलवी साहब को हवा बताएँ और दिल खोल कर गुलछर्रे उड़ाएँ।
(2) यह क्या हिमाकत है कि जितने लड़के हैं, सबका सबक अलग दो-दो चार-चार, दस-दस का एक-एक दर्जा बना लीजिए, मेहनत की मेहनत बचेगी और काम ज्यादा होगा।
(3) जिधर देखता हूँ, अदब (साहित्य) की तालीम ही रही है। तालीम में सिर्फ अदब ही शामिल नहीं, हिसाब है, तवारीख है, जुगराफिया है, उकलैदिस है; मगर पढ़ाए कौन? मौलवी साहब को तो सौ तक गिनती नहीं आती।
(4) सब लड़कों का गुल मचा-कचा कर आवाज लगाना महज फजूल है। कोई खोंचेवाला, गँड़ेरीवाला, चने-परमलवाला इस तरह चिल्लाए, तो मुजायका नहीं; मटर-सटर, गोल-गप्पे, मसालेदार बैगन, मूली, तुरई, लो तरकारी – यह तो फेरी देनेवालों की सदा है, मकतब को मंडी बनाना हिमाकत है।
(5) तरजुमे पर खुदा की मार और शैतान की फटकार। ‘जाता हूँ बीच एक बाग के; वास्ते लाने अच्छी चीजों के, मैंने देखा मैंने, तू जाता है तू।’ वाह, क्या तू-तू मैं-मैं है! तरजुमा सही होना चाहिए, यह तो न कोई आवाज कसे कि लड़के बँगला बोल रहे हैं।
(6) पढ़ते वक्त लड़कों को हिलना ऐब है। मगर कहें किससे? मौलवी साहब तो खुद झूमते हैं।
(7) मतलब जरूर समझाना चाहिए; लड़का मतलब ही न समझेगा, तो उसको फायदा क्या खाक होगा?
(8) सबक को बरजबान रटना बुरी बात है। किताब बंद की और फर-फर दस सफे सुना दिए। हाफिजा कुछ मजबूत हुआ सही, मगर सितम यह है कि फिर तोते की तरह बात के सिवा कुछ याद नहीं रहता।
(9) छोटे-छोटे लड़कों को बड़ी-बड़ी किताबें पढ़ाना उनकी जिंदगी खराब करना है। जरा से टट्टू पर जब दो हाथियों का बोझ लादोगे, तो टट्टू बेचारा आँखें माँगने लगेगा, या नहीं? जरा सा बच्चा और पढ़े ‘मीना बाजार’।
(10) लड़के को शुरू ही से फारसी पढ़ाना उसका गला घोटना है। पहले उर्दू पढ़ाइए इसके बाद फारसी। शुरू से ही करीमा-मामकीमाँ पढ़ाना उसकी मिट्टी खराब करना है।
(11) मौलवी साहब लड़कों से चिलम भरवाना, हुक्का ताजा करवाना छोड़ दें। इसकी जगह इनको बात-चीत करने और मिलने-जुलने का आदाब सिखाएँ।
(12) अफीमची मौलवी छप्पर पर रखे जायँ। मौलवी ने अफीम खाई और लड़कों को शामत आई। वह पिनक में झूमा करेंगे।
यह इश्तिहार मोटे कलम से लिख कर मियाँ आजाद रातोंरात मकतब के दरवाजे पर चिपका आए। झट से निकल करके शहर में भी दो-चार जगह चिपका दिया। दूसरे दिन इश्तिहार के पास लोग ठट के ठट जमा हुए। किसी ने कहा, सम्मन चिपकाया गया है; कोई बोला, ठेठर का इश्तिहार है। बारे एक पढ़े-लिखे साहब ने कहा – यह कुछ नहीं है, मौलवी साहब के किसी दुश्मन का काम है। अब जिसे देखिए, कहकहा उड़ाता है। भाई वल्लहा, किसी बड़े ही फिकरेबाज का काम है। मौलवी बेचारे को ले ही डाला, पटरा कर दिया। मकतबखाने में लड़कों के चेहरे गुलनार हो गए। धत तेरे की! बचा रोज कमचियाँ जमाते थे, चपतें लगाते थे, अफीम घोली और सिर पर शेख-सद्दों सवार। अब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। मौलवी साहब तशरीफ का बक्चा लाए, तो लड़के उनका कहना ही नहीं मानते। मौलवी साहब कहते हैं, किताब खोलो। शार्गिद जवाब देते हैं, बस मुँह बंद करो। फर्माया कि अब बोला, तो हम बिगड़ जाएँगे। शार्गिदों ने कहा, हम खूब बनाएँगे। तब तो झल्लाए और डपट कर कहा, मैं बड़ा गर्म मिजाज हूँ। एक गुस्ताख ने मुसकिरा कर कहा, फिर हम ठंडा बनाएँगे। दूसरा बोला, किसी ठंडे मुल्क में जाइए। तीसरा बोला, दिमाग में गर्मी चढ़ गई है। मौलवी साहब घबराए कि माजरा क्या है। बाहर की तरफ नजर डाली, तो देखा, गोल के गोल तमाशाई खड़े कहकहे लगा रहे हैं। बाहर गए, तो इश्तिहार नजर आया। पढ़ा, तो कट गए। दिल ही दिल से लिखनेवाले को गालियाँ देने लगे। पाऊँ, तो कच्चा ही खा जाऊँ। इतने डंडे लगाऊँ कि छठी का दूध याद आ जाय। बदमाश ने कैसा खाका उड़ाया है! जभी तो लड़के इतने ढीठ हो गए हैं। मैं कहता हूँ आम, वे कहते हैं इमली। अब इज्जत डूबी। मकतबखाने में जाता हूँ, तो खौफ है, कहीं लौंडे रोज की कसर न निकालें और अंजर-पंजर ढीले कर दें। भाग जाऊँ, तो रोटियों के लाले पड़ें। खाऊँ क्या, अंगारे? आखिर ठान ली कि बोरिया-बँधना छोड़ो मुल्लागीरी से मुँह मोड़ो। भागे, तो घर पर दम लिया। लड़कों ने जो देखा कि मौलवी साहब पत्ता-तोड़ भागे जाते हें, तो जूतियाँ बगल में दवा, तख्तियाँ और बस्ते सँभाल दुम के पीछे चले। तमाशाइयों में बातें होने लगीं –
एक – अरे मियाँ यह भागा कौन जाता है बगटुट?
दूसरा – शैतान है, शैतान। आज लड़कों के दाँव पर चढ़ गया है, कैसा दुम दबाए भाग जाता है!
अब सुनिए कि मोहल्ले भर में खलबली मच गई। अजी, ऐसे मकतब की ऐसी-तैसी। बरसों से लौंडे पीटते हैं, एक हरफ न आया। लड़कों की मिट्टी पलीद की। पढ़ाना-लिखाना खैरसल्लाह, चिलमें भरवाया किए। सबने मिल कर कमेटी की कि मौलवी साहब का आम जलसे में इम्तिहान लिया जाय और मुनादी हो कि जिन साहब ने यह इश्तिहार लिखा है, वह जरूर आएँ। ढिंढोरिया मोहल्ले भर में कहता फिरा कि खलक खुदा का, मुल्क सरकार का, हुक्म कमेटी का कि आज एक जलसा होगा और मौलवी साहब का इम्तिहान लिया जायगा। जिसने इश्तिहार लिखा है, वह भी हाजिर हो।
मियाँ आजाद बहुत खुश हुए, शाम को जलसे में जा पहुँचे। जब दो-तीन सौ आदमी, अहाली-मवाली, डोम-डफाली, ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे, सब जमा हुए, तो एक मेंबर ने कहा – हजरत, यह तो सब कुछ है; मगर मौलवी साहब इस वक्त नदारद हैं। एकतरफा डिगरी न दीजिए। उन्हें बुलवाइए, तब इम्तिहान लीजिए। यों तो वह आएँगे नहीं। हम एक तदबीर बताएँ, जो दौड़े न आएँ, तो मूँछ मुड़ा डालें, हाथ कलम करा डालें। कहला भेजिए कि किसी के यहाँ शादी है, निकाह पढ़ने के लिए अभी बुलाते हैं! लोगों ने कहा, खूब सूझी, दूर की सूझी। आदमी मौलवी साहब के दरवाजे पर गया और आवाज दी – मौलवी साहब, अजी मौलवी साहब! क्या मर गए? इस घर में कोई है, या सबको साँप सूँघ गया? दरवाजा धमधमाया, कुँडी खटखटाई, मगर जवाब नदारद। तब तो आदमी ने झल्ला कर पत्थर फेंकने शुरू किए। दो-एक मौलवी साहब के घुटे हुए सिर पर भी पड़े। मौलवी साहब बोले, कौन है? आदमी ने कहा – बारे आप जिंदा तो हुए। मैंने तो समझा था, कफन की जरूरत पड़ी। चलिए, ईदूखाँ के यहाँ शादी है, निकाह पढ़ दीजिए। निकाह का नाम सुनते ही मौलाना खमीरी रोटी की तरह फूल गए, अंगरखे का बंद तड़ से टूट गया। कफन फाड़ कर चिल्ला उठे – आया, आया, ठहरे रहो, अभी आया। शिमला खोपड़ी पर जमा, अकीक का कंठा हाथ में ले, सुरमा लगा घर से चले। आदमी साथ है, दिल में कहते जाते हैं, आज-पौ-बारह हैं, बढ़ाकर हाथ मारा है, छप्पन करोड़ की तिहाई, हाथी के हौदे में घुटे। लंबे-लंबे डग भरते आदमी से पूछते जाते हैं – क्यों मियाँ, अब कितनी दूर मकान है? पास ही है न? देखें, निकाह पढ़ाई क्या मिलती है? सवा रुपए तो मामूली है; मगर खुदा ने चाहा तो बहुत कुछ ले मरूँगा। आदमी पीछे-पीछे हँसता जाता है कि मियाँ हैं किस खयाल में! बारे खुदा-खुदा करके वह मंजिल तय हुई, मकान में आए, तो होश उड़ गए। यह कैसा ब्याह है भाई, न ढोल, न शहनाई, हमारी शामत आई। कनखियों से इधर-उधर देख रहे हैं, अक्ल दंग है कि ये सब के सब हमीं को क्यों घूर रहे हैं। इतने में मीर-मजलिस ने कहा – जिन साहब ने इश्तिहार लिखा था, वह अगर आए हों तो कुछ फर्माएँ।
आजाद ने खड़े हो कर कहा – यह जो मौलवी साहब आप लोगों के सामने खड़े है, इनसे पूछिए कि मकतबखाने में अफीम क्यों पीते हैं? जब देखिए, पिनक में ऊँघ रहे हैं या मिठाई टूँग रहे हैं। लड़कों का पढ़ाना खाला जी का घर नहीं कि सिर घुटाया और मुल्ला बन गए, चूड़ी निगली और पीर जी बन गए।
मौलवी साहब ताड़ गए कि यहाँ मेरी दुर्गति होनेवाली है। भागने ही को थे कि एक आदमी ने टाँग पकड़ कर आँटी बताई, तो फट से जमीन पर आ रहे। अच्छे फँसे। खूब निकाह पढ़ाया। मुफ्त में उल्लू बने। खैर, मियाँ आजाद ने फिर कहा –
‘मौलवी साहब को किसी मजार का मुजाविर या कहीं का तकिएदार बना दीजिए, तो खूब मीठे टुकड़े उड़ाएँ और डंड पेलें। यह मकतबखाने में उल्लू का दसहरा उनको क्यों बना दिया? लड़कों की कैफियत सुनिए कि दिन भर गुल्ली-डंडा खेला करते हैं, चीखते हैं, चिल्लाते हैं, और दिन भर में अठारह मर्तबा पेशाब करने और पानी पीने जाते हैं। कोई कहता है, मौलवी साहब, देखिए, यह हमारी नाक पकड़ता है, कोई कहता है, यह हमसे लड़ता है। मौलवी साहब को इससे कुछ मतलब नहीं कि लड़के पढ़ते हैं या नहीं। वहाँ तो हिलते जाओ और ऐसा गुल मचाओ कि कान पड़े आवाज न सुनाई दे, उसमें चाहे जो कुछ ऊल-जलूल बको।’
मौलवी साहब फिर रस्सी तुड़ा कर भागने लगे। लोग लेना-देना करके दौड़े। गए थे रोजे बख्शाने, नमाज गले पड़ी। चिल्ला कर बोले – तुम कौन होते हो जी हमारा ऐब निकालनेवाले, हम पढ़ाएँ या न पढ़ाएँ, तुमसे मतलब!
आजाद – हजरत, आज ही तो पंजे में फँसे हो। रोज तोंद निकाले बैठे रहा करते थे। यह तोंद है या बेईमान की कब्र? या हवा का तकिया? अब पचक जाय, तो सही। खुदा जाने, कहाँ का गँवार बिठा दिया है। कल सुबह को इनका इम्तिहान लिया जाय।
मौलवी साहब – आप बड़े शैतान हैं!
आजाद – आप लंगूर है; मगर हैरत है कि यह ठुट्डी से दुम की कोंपल क्योंकर फूटी!
इस तरह जलसा खतम हुआ। लोगों ने दिल में ठान ली कि कल चाहे ओले पड़ें, चाहे कड़कड़ाती धूप हो, चाहे भूचाल आए; मगर हम आएँगे और जरूर आएँगे। मौलवी साहब से ताकीद की गई कि हजरत, कल न आइएगा, तो यहाँ रहना मुश्किल हो जाएगा – मौलवी साहब का चेहरा उतर गया था, मगर कड़क कर बोले – हम और न आएँ, आएँ और बीच खेत आएँ। हम क्या कोई चोर हैं, या किसी का माल मारा है?
मौलवी साहब घर पहुँचे, तो आजाद को लगे पानी पी-पी कर कोसने। इसकी जबान सड़े, मुँह फूल जाय; सारी चौकड़ी भूल जाय; आसमान से अंगारे बरसें; ऐसी जगह मरे, जहाँ पानी न मिले; डंकू फीवर चट करे; एंजिन के नीचे दब कर मरे। मगर इन गालियों से क्या होता था। रात किसी तरह कटी, दूसरे रोज नूर के तड़के लोग फिर जलसे में आ पहुँचे। मगर मौलाना ऐसे गायब हुए, जैसे गधे के सिर से सींग। बारे यारों ने तत्तो-थंभो करके सिर सुहलाते, सब्ज बाग दिखलाते घसीट ही लिया। मियाँ आजाद ने पूछा – क्यों मौलवी साहब, किस मनसूबे में हो?
मौलवी साहब – सोचता हूँ कि अब कौन चाल चलूँ? सोच लिया है कि अब मुल्लागिरी छोड़ प्यादों में नौकरी करेंगे। बस, वतन से जाएँगे, तो फिर लौट कर घर न आएँगे। अमीर-गरीब सब पर मुसीबत पड़ती है। फिर हमारी बिसात क्या? चारखाने का अँगरखा न सही, गाढ़े की मिरजई सही। मगर आप एक गरीब के पीछे नाहक क्यों पड़े हुए हैं? ‘कहाँ राजा भोज, कहाँ गँगुआ तेली?’
आजाद – ये झाँसे रहने दीजिए, ये चकमे किसी और को दीजिए।
मौलवी साहब – खुदा की पनाह! मैं आपका गुलाम और आपको चकमे दूँगा? आपसे क्या अर्ज करूँ कि कितना जी तोड़ कर लड़कों को पढ़ाता हूँ। इधर सूरज निकला और मैंने मकतब का रास्ता लिया। दिन भर लड़कों को पढ़ाया। क्या मजाल कि कोई लड़का गरदन तक उठा ले। कोई बोला, और मैंने टोप जमाई, खेला और शामत आई। समझ-बूझकर चलता था, अगर कोई लड़का मकतब में खिलौना लाता, तो उसे तुरत अँगीठी में डलवा देता। मगर आपने सारी मेहनत पर पानी फेर दिया। आपके सामने मेरी कौन सुनता है।
मीर-मजलिस ने कहा – मियाँ आजाद इन्हें बकने दीजिए, आप इनका इम्तिहान लीजिए।
मियाँ आजाद तो सवाल पूछने के लिए खड़े हुए, उधर मौलवी साहब का बुरा हाल हुआ। रंग फक, कलेजा शक, आँखों में आँसू, मुँह पर हवाइयाँ छूट रही हैं, कलेजा धक-धक करता है, हाथ-पाँव काँपने लगे किसी तरह खड़े तो हुए, मगर कदम न जमा। पाँव डगमगाए और लड़खड़ा कर गिरे। लोगों ने उन्हें उठा कर फिर खड़ा किया।
आजाद – यह शेर किस बहर में है –
मैंने कहा जो उससे ठुकरा के चल न जालिम;
हैरत में आके बोला – क्या आप जी रहे हैं?
मौलवी साहब – बहर (दरिया) में आप ही गोते लगाइए, और खुदा करे, डूब जाइए। जिसे देखो, हमीं पर शेर है। नामाकूल इतना नहीं समझते कि हम मौलवी आदमी लौंडे पढ़ाना जानें या शायरी करना। हमें शेर से मतलब? आए वहाँ से बहर पूछने!
आजाद – बेशुनो अज नैचूँ हिकायत मी कुनद;
वज जुदाईहा शिकायत मी कुनद।
इस शेर का मतलब बतलाइए!
मौलवी साहब – इसका बताना क्या मुश्किल है? नै कहते हैं चंडू की नै को। बस, उस जमाने में लोग चंडू पीते थे और शिकायत करते थे।
आजाद – बकरी की पिछली टाँगों को फारसी में क्या कहते हैं?
मौलवी साहब – यह किसी अपने भाई-बंद, बूचड़-कस्साब से पूछिए। बंदा न छीछड़े खाय; न जाने। वाह, अच्छा सवाल है! अब मुल्लाओं को बूचड़ों की शागिर्दी भी करनी चाहिए!
आजाद – हिंदुस्तान के उत्तर में कौन मुल्क है?
मौलवी – खुदा जाने। मैं क्या देखने गया था कि आपकी तरह मैं भी सैलानी हूँ।
आजाद – सबसे बड़ा दरिया हिंदोस्तान में कौन है?
मौलवी – फिरात, नहीं, वह देखिए, भूला जाता हूँ, अजी वहीं, दजला, दजला, खूब याद आया।
हाजिरीन – वाह रे गावदी, अच्छी उलटी गंगा बहाई। फिरात और दजला हिंद में हैं? इतना भी नहीं जानता।
आजाद – चाँद के घटने-बढ़ने का सबब बताओ?
मौलवी – वाह, क्या खूब, खुदाई कारखानों में दखल दूँ? इतना तो किसी की समझ में आता नहीं कि फ्रीमिशन क्या है, फिर भला यह कौन जाने कि चाँद कैसे घढ़ता-बढ़ता है। खुदा का हुक्म है, वह जो चाहता है, करता है।
आजाद – पानी क्योंकर बरसता है?
मौलवी – यह तो दादीजान तक को मालूम था। बादल तालाबों, नदियों, कुओं, गढों, हौजों से घुस-पैठ कर दो-तीन रोज खूब पानी पीता है; जब पी चुका, तब आसमान पर उड़ गया, मुँह खोला तो पानी रिस-झिम बरसने लगा। सीधी-सी तो बात है।
हाजिरीन – वल्लाह, क्या बेपर की उड़ाई है! आदमी हो या चोंच! कहने लगे, बादल पानी पीता है।
आजाद – गिनती आपको कहाँ तक याद है और पहाड़े कहाँ तक?
मौलवी – जवानी में रुपए के टके गिन लेता था; अब भी आठ-आठ आने एक दफे में गिन सकता हूँ। मगर पहाड़े किसी हलवाई के लड़के से पूछिए।
आजाद – एक आदमी ने तीन सौ पछत्तर मन गल्ला खरीदा, रात को चोरों ने मौका ताक कर एक सौ पचीस मन उड़ा लिया, तो बताओ उस आदमी को कितना घाटा हुआ?
मौलवी – यह झगड़ा जौनपुर के काजी चुकाएँगे। मैं किसी के फटे में पाँव नहीं डालता। मुझे किसी के टोटे-घाटे से मतलब? चोरी-चकारी का हाल थानेदारों से पूछिए। बंदा मौलवी है। मुल्ला की दौड़ मसजिद तक।
आजाद – शाहजहाँ के वक्त में हिंदोस्तान की क्या हालत थी और अकबर के वक्त में क्या?
मौलवी – अजी, आप तो गड़े मुर्दे उखाड़ते हैं! अकबर और शाहजहाँ, दोनों की हड्डियाँ गल कर खाक हो गई होंगी। अब इस पचड़े से मतलब?
आजाद ने हाजिरीन से कहा – आप लोगों ने मौलवी साहब के जवाब सुन लिए, अब चाहे जो फैसला कीजिए।
हाजिरीन – फैसला यही है कि यह इसी दम अपना बोरिया-बँधना सँभाले। यह चरकटा है। इसे यही नहीं मालूम कि बहर किस चिड़िया का नाम है, बादल किसे कहते हैं, दो तक का पहाड़ा नहीं याद, गिनती जानता ही नहीं, दजला और फिरात हिंदोस्तान में बतलाता है! और चला है मौलवी बनने। लड़कों की मुफ्त में मिट्टी खराब करता है।
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