अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 12– (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
आजाद तो इधर साँड़नी को सराय में बाँधे हुए मजे से सैर-सपाटे कर रहे थे, उधर नवाब साहब के यहाँ रोज उनका इंतिजार रहता था कि आज आजाद आते होंगे और सफशिकन को अपने साथ लाते होंगे। रोज फाल देखी जाती थी, सगुन पूछे जाते थे। मुसाहब लोग नवाब को भड़काते थे कि अब आजाद नहीं लौटने के; लेकिन नवाब साहब को उनके लौटने का पूरा यकीन था।
एक दिन बेगम साहबा ने नवाब साहब से कहा – क्यों जी, तुम्हारा आजाद किस खोह में धँस गया? दो महीने से तो कम न हुए होंगे।
महरी – ऐ, वह चंपत हुआ, मुआ चोर।
बेगम – जबान सँभाल, तेरी इन्हीं बातों पर तो मैं झल्ला उठती हूँ। फिर कहती है कि छोटी बेगम मुझसे तीखी रहती हैं।
नवाब – हाँ, आजाद का कुछ हाल तो नहीं मालूम हुआ; मगर आता ही होगा।
बेगम – आ चुका।
नवाब – चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, मेरा आजाद सफशिकन को ला ही छोड़ेगा। दोनों में इल्मी बहस हो रही होगी। फिर तुम जानो, इल्म तो वह समंदर है, जिसका ओर न छोर।
बेगम – (कहकहा लगा कर) इल्मी बहस हो रही होगी? क्यों साहब, मियाँ सफशिकन इल्म भी जानते हैं? मैं कहती हूँ, आखिर अल्लाह ने तुमको कुछ रत्ती, तोला, माशा अक्ल भी दी है? मुआ बटेर, जरी सी जानवर, काकुन के तीन दानों में पेट भर जाय, उसे आप आलिम कहते हैं। मेरे मैके पड़ोस में एक सिड़ी सौदाई दिन-रात वाही-तवाही बका करता है। उसकी और तुम्हारी बातें एक सी हैं।
महरी – क्या कहती हो बीबी, उस सौदाई निगोड़े को इन पर से सदके कर दूँ!
नवाब – तुम समझी नहीं महरी, अभी तो अल्हड़पने ही के न दिन हैं इनके। खुदा की कसम, मुझे इनकी ये ही बातें तो भाती हैं। यह कमसिकनी का सुभाव है और दो-तीन बरस, फिर यह शोखी और चुलबुलापन कहाँ? यह जब झिड़कती या घुड़कती हैं, तो जी खुश हो जाता है।
महरी – हाँ, हाँ, जवानी तो फिर बावली होती ही है।
बेगम -अच्छा, महरी, तुझे अपने बुढ़ापे की कसम, जो झूठ बोले, भला बटेर भी पढ़े-लिखे हुआ करते हैं? मुँह देखी न कहना, अल्लाह लगती कहना।
महरी – बुढ़ापा! बुढ़ापा कैसा? बीबी, बस ये ही बातें तो अच्छी नहीं लगतीं, जब देखो, तब आप बूढ़ी कह देती हैं! मैं बूढ़ी कहो से हो गई? बुरा न मानिए तो कहूँ, आपसे भी टाँठी हूँ।
इतने में गफूर खिदमतगार ने पुकारा हुजूर, पेचवान भरा रखा है, वहाँ भेज दूँ, या बगीचे में रख दूँ?
नवाब – यह चाँदीवाली छोटी गुड़गुड़ी बेगम साहबा के वास्ते भर लाओ। कल बिसवाँ तंबाकू आया है, वही भरना। और पेचवार बाहर लगा दो, हम अभी आए।
यह कह कर नवाब ने बेगम साहबा के हँसी-हँसी में एक चुटकी ली और बाहर आए। मुसाहबबों ने खड़े हो-हो कर सलाम किए। आदाब बजा लाता हूँ हुजूर, तसलीमात अर्ज करता हूँ, खुदाबंद। नवाब साहब जा कर मसनद पर बैठे।
खोजी – उफ् ! मौत का सामना हुआ, ऐसा धचका लगा कि कलेजा बैठा जाता है, हत तेरे गीदी चोर की।
नवाब – क्यों, क्यों, खैर तो है?
खोजी – हुजूर, इस वक्त बटेरखाने की ओर गया था।
नवाब – उफ, भई, दिल बेकरार है, खोजी मियाँ, तुमको तो हमारी तसल्ली करनी चाहिए थी, न कि उल्टे खुद ही रोते हो, जिसमें हमारे हाथ-पाँव और फूल जायँ। सब सफशिकन से हाथ धोना चाहिए। हम जानते हैं कि वह खुदा के यहाँ पहुँच गए।
मुसाहब – खुदा न करे, खुदा न करे।
खोजी – (पिनक से चौंक कर) इसी बात पर फिर कुछ मिठाई नहीं खिलवाते।
नवाब – कोई है, इस मरदक की गरदन तो नापता। हम तो अपनी किस्मतों को रो रहे हैं, यह मिठाई माँगता है। बेतुका, नमकहराम!
खोजी – देखिए, देखिए, फिर मेरी गरदन कुंद छुरी से रेती जाती है। मैं मिठाई कुछ खाने के वास्ते थोड़े ही मँगवाता हूँ। इसलिए मँगवाता हूँ कि सफशिकन का फातिहा पढ़ूँ।
नवाब – शाबाश, जी खुश हो गया! माफ करना, बेअख्तियार नमकहराम का लफ्ज मुँह से निकल गया, तुम बड़े…
मुसाहब – तुम बड़े हलालकोर हो।
इस पर वह कहकहा पड़ा कि नवाब साहब भी लोटने लगे, और बेगम ने घर से लौंड़ी को भेजा कि देखना तो, यह क्या हँसी हो रही है।
नवाब – भई, क्या आदमी हो, वल्लाह, रोते को हँसाना इसी का नाम है। खोजी बेचारे को हलालखोर बना दिया।
खोजी – हुजूर, अब मैं यहाँ न रहूँगा। क्या बेवक्त की शहनाई सब के सब बजाने लगे! अफसोस, सफशिकन का किसी को खयाल तक नहीं।
नवाब साहब मारे रंज के मुँह ढाँप कर लेट रहे। मुसाहबकों में से कोई चंडूखाने पहुँचा, कोई अफीम घोलने लगा।
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