अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 3 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
नवाब साहब के दरबार में दिनोंदिन आजाद का सम्मान बढ़ने लगा। यहाँ तक कि वह अक्सर खाना भी नवाब के साथ ही खाते। नौकरों को ताकीद कर दी गई कि आजाद का जो हुक्म हो, वह फौरन बजा लाएँ, जरा भी मीनमेख न करें। ज्यों-ज्यों आजाद के गुण नवाब पर खुलते जाते थे, और मुसाहबों की किर-किरी होती जाती थी। अभी लोगों ने अच्छे मिर्जा को दरबार से निकलवाया था, अब आजाद के पीछे पड़े। यह सिर्फ पहलवानी ही जानते हें, गदके और बिनवट के दो-चार हाथ कुछ सीख लिए हैं, बस, उसी पर अकड़ते फिरते हैं कि जो कुछ हूँ, बस, मैं ही हूँ। पढ़े-लिखे वाजिबी ही वाजिबी हैं, शायरी इन्हें नहीं आती, मजहबी मुआमिलों में बिलकुल कोरे हैं।
एक दिन नवाब साहब के सामने एक साहब बोल उठे – हुजूर, इस शहर में एक आलिम आया है, जो मंतिक (न्याय) के जोर से झूठ को सच कर दिखाता है। मगर खुदा को नहीं मानता, पक्का मुनकिर (नास्तिक) है। मियाँ आजाद को तो मंतकी बनने का दावा है। कहिए, उस आलिम को नीचा दिखाएँ।
आजाद – हाँ! हाँ, जब कहिए तब, मुझे तो ऐसे मुनकिरों की तलाश रहती है। लाइए मंतकी साहब को, खुदा का वह पक्का सबूत दूँ कि वह खुद फड़क जायँ, जरा यहाँ तक लाइए तो सही, भागे राह न मिले। जो फिर इस शहर में मुँह दिखाएँ, तो आदमी न कहना।
नवाब – हाँ! हाँ! मीर साहब, जरा उनको फाँस-फूँस कर लाइए, तो मियाँ आजाद के जौहर तो खुलें।
मीर साहब ने जोर से हुक्के के दो-चार दम लगाए और झप से उस आलिम को बुला लाए। हजारों आदमी बहस सुनने के लिए जमा हो गए, गोया बटेरों की पाली है। इतनी भीड़ थी कि थाली उछालिए तो सिर ही सिर जाय। आलिम ने आते ही पूछा कि कौन साहब बहस करेंगे? मियाँ आजाद बोले – हम हैं! अब सब लोग बेकरार हो रहे हैं कि देखें, क्या सवाल-जवाब होते हैं, चारों तरफ खिचड़ी पक रही है।
आलिम – जनाब, आप तो किसी अखाड़े के पट्ठे मालूम होते हैा, सूरत से तो ऐसा मालूम होता है कि आपको मंतिक छू भी नहीं गई।
आजाद – जी, सूरत पर न जाइएगा, कोई सवाल कीजिए, तो हम जवाब दें।
आलिम – अच्छा, पहले इन तीन सवालों का जवाब दीजिए –
(1) खुदा है, तो हमें नजर क्यों नहीं आता?
(2) शैतान दोजख में जलाया जायगा। भला नारी (आग से बने हुए) को आग का क्या डर? आग आग में नहीं जल सकती।
(3) जो करता है, खुदा करता हैं, फिर इनसान का कसूर क्या।
चारों तरफ सन्नाटा पड़ गया कि वाह, क्या आलिम है, कैसे कड़े सवाल किए हैं कि कुछ जवाब ही नहीं सूझता। बिगड़े दिल लोग दाँत पीस रहे हैं कि बाहर निकले तो गरदन भी नापें। मियाँ आजाद कुछ देर तक तो चुपचाप खड़े रहें, फिर एक ढेला उठा कर उस आलिम की खोपड़ी पर मारा, बेचारा हाय करके बैठ गया। अच्छे जंगली से पाला पड़ा, मैं बहस करने आया था या लप्पा-डुग्गी। जब कुछ जवाब न सूझा तो पत्थर मारने लगे। जो मैं भी एक पत्थर खींच मारूँ तो कैसी हो? नवाब साहब, आप ही इन्साफ कीजिए।
नवाब – भाई आजाद, हमें यह तुम्हारी हरकत पसंद नहीं आई। इस ढेलेबाजी के क्या माने? माना कि मुनकिर गरदन मारने लायक होता है; मगर बहस करके कायल कीजिए, यह नहीं कि जूता खींच मारा या ढेला तान कर मारा।
कमाली – हुजूर, आलिम का जवाब देना कारेदारद है। ढेलेबाजी करना दूसरी बात है।
झम्मन – अजी, इसने बड़े-बड़े आलिमों को सर कर दिया, भला आजाद क्या इसके मुँह आएँगे।
नवाब – यह पत्थर क्यों फेंका जी, बोलते क्यों नहीं।
आजाद – हुजूर, मैंने तो इनके तीनों सवालों का वह जवाब दिया कि अगर कोई कदरदाँ होता तो गले से लगा लेता और करोड़ों रुपए इनाम भी देता, सुनिए –
(1) खुदा है, सो हमें नजर क्यों नहीं आता?
जवाब – अगर उस ढेले से उनको चोट लगी, तो चोट नजर क्यों नहीं आती?
सुभान अल्लाह का दौंगडा बरस गया। वाह उस्ताद! क्या जवाब दिया है कि दाँत खट्टे कर दिए।
(2) शैतान को जहन्नुम में जलाना बेकार है, वह तो खुद नारी (अग्निमय) है।
जवाब – इनसे पूछिए कि यह मिट्टी के ही पुतले हैं या नहीं? इनकी खोपड़ी मिट्टी की बनी है या रबड़ की? फिर मिट्टी का ढेला लगा, तो सिर क्यों भन्ना गया?
तमाशाइयों ने गुल मचाया – सुभान अल्लाह! वाह मियाँ आजाद! क्या मुँह तोड़ जवाब दिया है।
(3) जो करता है खुदा करता है।
जवाब – फिर ढेले मारने का इलजाम हम पर क्यों है?
चारों तरफ टोपियाँ उछलने लगीं – वाह मेरे शेर! क्या कहना है! कहिए, अब तो आप खुदा के कायल हुए, या अब भी कुछ मीनमेख है? लाख बातों की एक बात यह है कि जब आपका सिर मिट्टी का है और मिट्टी ही का ढेला मारा, तब आपकी खोपड़ी क्यों भन्नाई? मियाँ मुनकिर बहुत झेपें, समझ गए कि यहाँ शोहदों का जमघट है, चुपके से अपने घर की राह ली। आजाद की और भी धाक बँधी। अब तक तो पहलवान और फिकैत ही मशहूर थे, अब आलिम भी मशहूर हुए। नवाब ने पीठ ठोंकी – वाह, क्यों न हो! पहले तो मैं झल्लाया कि ढेलेबाजी कैसी; मगर फिर तो फड़क गया।
मुसाहबों का यह वार भी खाली गया, तो फिर हँड़िया पकने लगी कि आजाद को उखाड़ने की कोई दूसरी तदबीर करनी चाहिए। अगर यह यहाँ जम गया; तो हम सभी को निकलवा कर छोड़ेगा। यह राय हुई कि नवाब साहब से कहा जाय, हुजूर, आजाद को हुक्म दें कि बटेरों को मुठियाएँ, बटेरों को लड़ाएँ। फिर देखें, बचा क्या करते हैं। बगलें न झाँकने लगें तो सही। यह हुनर ही दूसरा है।
आपस में यह सलाह कर एक दिन मियाँ कमाली बोले – हुजूर, अगर मियाँ आजाद बटेर लड़ाएँ, तो सारे शहर में हुजूर की धूम हो जाय।
नवाब – क्यों मियाँ आजाद, कभी बटेर भी लड़ाए हैं?
झम्मन – आज हमारी सरकार में जितने बटेर हैं, उतने तो मिटयाबुर्ज के चिड़ियाखाने में भी न होंगे। एक-एक बटेर हजार-हजार की खरीद का, नोकदम के बनाने में तोड़े-के-तोड़े उड़ गए, सेरों मोती तो पीस कर मैंने अपने हाथों खिला दिए हैं, कुछ दिनों रोज खरल चलता था। मगर आप भी कहेंगे कि हम आदमी हैं! इस ड्योढ़ी पर इतने दिनों से हो, अब तक बटेरखाना भी न देखा? लो आओ, चलो, तुमको सैर कराएँ।
यह कह कर आजाद को बटेरखाने ले गए। मियाँ आजाद क्या देखते हैं कि चारों तरफ काबुकें ही काबुकें नजर आती हैं, और काबुकें भी कैसी, हाथीदाँत की तीलियाँ, उन पर गंगाजमुनी कलस, कारचोबी छतें, कामदार मखमली गिलाफें, रंगबिरंग सोने-चाँदी की नन्हीं-नन्हीं कटोरियाँ, जिनमें बटेर अपनी प्यारी-प्यारी चोंचों से पानी पिएँ, पाँच-पाँच छह-छह सौ लागत की काबुकें थीं, खूँटियाँ भी रंग-बिरंगी। दुन्नी मियाँ एक-एक काबुक उतार कर बटेर की तारीफ करने लगे, तो पुल बाँध दिए। एक बटेर को दिखा कर कहा – अल्लाह रखें, क्या मझोला जानवर है! सफशिकन (दलसंहार) जो आपने सुना हो, तो यही है। लंदन तक खबर के कागज में इनका नाम छप गया। मेरी जान की कसम, जरा इसकी आनबान तो देखिएगा। हाय, क्या बाँका बटेर है! यह नवाब साहब के दादाजान के वक्त का है। ऐसे रईस पैदा कहाँ होते हैं! दम के दम में लाखों फूँक दिए, रुपए को ठीकरा समझ लिया। पतंगबाजी का शौक हुआ, तो शहर भर के पतंगबाजों को निहाल कर दिया, कनकौवेवाले बन गए। अजी, और तो और, लौंडे, जो गली-कूचों में लंगर और लग्गे ले कर डोर लूटा करते हें, रोज डोर बेच-बेच कर चखौतियाँ करते थे। अफीम का शौक हुआ, तो इतनी खरीदी कि टके सेर से सोलह रुपए सेर तक बिकने लगी। मालवा खाली, चीन खुक्खल, बंबई तक के गन्ने आते थे।
आजाद – ऐसे ही कितने रईस बिगड़ गए!
कमाली – रइसों के बनने-बिगड़ने की क्या फिक्र! यहाँ तो जो शौक किया, ऐसा ही किया; फिर भला बटेरबाजी में उनके सामने कौन ठहरता। उनके वक्त का अब यह एक सफशिकन बाकी रह गया है। बुजुर्गों की निशानी है। बस, यह समझिए कि मुहम्मदअली शाह के वक्त में खरीदा गया था। अब कोई सौ वर्ष का होगा, दो कम या दो ऊपर, मगर बुढ़ापे मे भी वह दमखम है कि मुर्ग को लपक कर लात दे तो वह भी चें बोल जाय। पारसल की दिल्लगी सुनिए, नवाब साहब के मामूँ तशरीफ लाए। उनमें भी रियासत की बू है। कनकौवा तो ऐसा लड़ाते हें कि मियाँ विलायत उनके आगे पानी भरें। दो-दो तोले अफीम पी जायँ और वही खमदम! बटेरबाजी का भी परले सिरे का शौक है। उनका जफरपैकर तो बला का बटेर है, बटेर क्या है, शेर है। मेरे मुँह से निकल गया कि हुजूर को तो बटेरों का बहुत शौक है, करोड़ों ही बटेर देख डाले होंगे, मगर सफशिकन सा बटेर तो हुजू्र ने भी न देखा होगा। बोले, इसकी हकीकत क्या है, जफरपैकर को देखो तो आँखें खुल जायँ, बढ़कर एक लात दे, तो सफशिकन क्या, आपको नोकदम पाली बाहर कर दे। हौसला हो, तो मँगवाऊँ। ‘दूसरे दिन पाली हुई। हजारों आदमी आ पहुँची। शहर भर में धूम थी कि आज बड़े मार्के का जोड़ है। जफरपैकर इस ठाट से आया कि जमीन हिल गई, और मेरा तो कलेजा दहलने लगा। मगर शफशिकन ने उस दिन आबरू रख ली, जभी तो नवाब साहब इसको बच्चों से भी ज्यादा प्यार करते हैं। पहले इसको दाना खिलवा लेते हैं, फिर कहीं आप खाते हैं। एक दिन खुदा जाने; बिल्ली देखी या क्या हुआ कि अपने आप फड़कने लगा। नवाब समझे कि बूँदा हो गया, फिर तो ऐसे धारोधार रोए कि घर भर में कुहराम मच गया। मैंने नवाब साहब को कभी रोते नहीं देखा। मुहर्रम की मजलिसों में एक आँसू नहीं निकलता। जब बड़े नवाब साहब सिधारे तो आँसू की एक बूँद न गिरी। यह बटेर ही ऐसा अनमोल है। सच तो यह है कि उसने उस दिन नवाब की सात पीढ़ियों पर एहसान किया। वल्लाह, जो कहीं घट जाता, तो मैं तो जंगल की राह लेता। मियाँ, जग में आबरू ही आबरू तो है, और क्या। खैर साहब, जैसे ही दोनों चक्की खा चुके, जफरपैकर बिजली की तरह सफशिकन की तरफ चला! आते ही दबोच बैठा, चोटी को चोंच से पकड़ कर ऐसा झपेटा कि दूसरा होता तो एक रगड़े में फुर्र से भाग निकलता। नवाब का चेहरा फक हो गया, मुँह पर हवाइयाँ छूटने लगीं कि इतने में सफशिकन लौट ही तो पड़ा। वाह मेरे शेर! खूब फिरा!! पाली भर में आवाज गूँजने लगी कि वह मारा है! एक लात ऐसी जमाई कि जफरपैकर ने मुँह फेर लिया। मुँह का फेरना था कि सफशिकन ने उचक कर एक झँझौटी बतलाई। वाह पट्ठे, और लगा! आखिर जफरपैकर नोकदम पाली बाहर भागा। चारों तरफ टोपियाँ उछल गईं। आज यह बटेर अपना सानी नहीं रखता। मियाँ आजाद, अब आप बटेरखाना अपने हाथ में लीजिए।’
नवाब – वल्लाह, यही मैं भी कहनेवाला था।
झम्मन – काम जरा मुश्किल है।
दुन्नी – बटेरों का लड़ाना दिल्लगी नहीं, बड़े तजरबे की जरूरत है।
आजाद – हुजूर फरमाते हैं, तो बटेरखाने की निगरानी मैं ही करूँगा।
कहने को तो आजाद ने यह कह दिया; मगर न कभी बटेर लड़ाए थे, न जानते थे कि इनको कैसे लड़ाया जाता है। घबराए, अगर कहीं नवाब के बटेर हारे तो सारी बला मेरे सिर पर पड़ेगी। कुछ ऐसी तदबीर करनी चाहिए कि यह बला टल जाय। जब शाम हुई तो वह सबकी नजरें बचा कर बटेरखाने में गए और काबुकों की खिड़कियाँ खोल दीं बटेर सब फुर्र से भाग गए। पिंजरे खाली हो गए। कई पुस्तों की बसाई हुई बस्ती उजड़ गई। बटेरों को उड़ा कर आजाद ने घर की राह ली।
दूसरे दिन मियाँ आजाद सबेरे मुँह अँधेरे बाजार में मटरगस्त करते हुए नवाब साहब की तरफ चले। बाजार भर में सन्नाटा! हलवाई भट्ठी में सो रहा है, नानबाई बरतन धो रहा है, बजाजा बंद, कुँजड़ों की दुकान पर अरुई न शकरकंद, जौहरियों की दुकान में ताला पड़ा हुआ है। मगर तंबाकू वाला जगा हुआ है। मेहतर सड़क पर झाड़ू दे रहा है। मैदेवाला पिसनहारियों से आटा ले रहा है। इतने में देखते क्या है कि एक आदमी लुंगी बाँधे, हाथ में चिलम लिए, बौखलाया हुआ घूम रहा है कि कहीं से एक चिनगारी मिल जाय तो दम लगे, धुआँधार हुक्का उड़े। जहाँ जाते हैं, ‘फिर’,’भाग’ की आवाज आती है। भाई, ऐसा शहर नहीं देखा जहाँ आग माँगे न मिले, जानों इसमें छप्पन टके खर्च होते हैं। मुहल्लेवालों को गालियाँ देते हुए नानबाई की दुकान पर पहुँचे और बोले – बड़े भाई, एक जरी आग तो झप से दे देना, मेरा यार, ला तो झटपट।
नानबाई – अच्छा,अच्छा, तो दुकान से अलग रहो, छाती पर क्यों चढ़े बैठते हो? यहाँ सौ धंधे करने हैं, आपकी तरह कोई बेफिकर तो हूँ नहीं कि तड़का हुआ, चिलम ली, और लगे कौड़ी दुकान माँगने! मिल गई तो खैर, नहीं तो गालियाँ देनी शुरू कीं। सबेरे-सबेरे अल्लाह का नाम न रामराम। चिलम लिए दुकान पर डट गए। वाह, अच्छी दिल्लगी है! ऐसी ही तलब है तो एक कंडी क्यों नहीं गाड़ रखते कि रात भर आग ही आग रहे। ऐसे ही उचक्के तो चोरी करते है। आँख चूकी, और माल गायब! क्या सहला लटका है कि चिलम ले कर आग माँगने आए हैं। किसी दिन मैं चिलमविलम न तोडताड़ कर फेंक दूँ। तुम तड़के-तड़के दुकान पर न आया करो जी, नहीं तो किसी दिन ठायँ-ठायँ हो जाएगी।
हजरत की आँखों से खून टपकने लगा, दाँत पीस कर रह गए। यहाँ से चले, तो हलवाई की दुकान पर पहुँचे और बोले – मियाँ एक जरा सी आग देना, भाई हो न! हलवाई का दूध बिल्ली पी गई थी, झल्लाया बैठा था, समझा कि कोई फकीर भीख माँगने आया है। झिड़क कर बोला कि और दुकान देखो। सबेरे-सबेरे कौड़ी की पड़ गई। जाता है, कि दूँ धक्का! रहे कहीं, मरे कहीं, कौड़ी माँगने यहाँ मौजूद। दुनिया भर के मुर्दे नानामऊ घाट! अब खड़ा घूरता क्या है?
चिलमबाज – कुछ वाही हुआ है बे! अबे, हम कोई फकीर हैं, कहीं मैं आ कर एक घस्सा दूँ न! लो साहब! हम तो आग माँगने आए हैं, यह हमको भिख-मंगा बनाता है! अंधा है क्या?
हलवाई – भिखमंगा नहीं, तू है कौन? लँगोटी बाँध ली और चले आग माँगने! तुम्हारे बाबा का कर्ज खाया है क्या!
बेचारे यहाँ से भी निराश हुए, चुपके से कान दबाए चल खड़े हुए। आज तड़के-तड़के किसका मुँह देखा था कि जहाँ जाते हैं, झौड़ हो जाती है। इतने में देखा कि एक सुनार की दुकान पर आग दहक रही है। उधर लपके। सुनार दुकान पर न था। यह तो हुक्के की फिक्र में चौंधियाए हुए थे ही, झप से दुकान पर चढ़ गए। सुनार भी उसी वक्त आ गया और इनको देख कर आगभभूका हो गया। तू कौन है बे? वाह, खाली दुकान पर क्या मजे से चढ़ आए! (एक धप जमा कर) और जो कोई अदद जाता रहता? इतने में दस-पाँच आदमी जमा हो गए। क्या है मियाँ, क्या है? क्यों भले आदमी की आबरू बिगाड़े देते हो?
सुनार – है क्या! यह हमारी दुकान पर चोरी करने आए थे।
चिलमबाज – मैं चोर हूँ, चोरी की ऐसी ही सूरत होती है?
एक आदमी – कौन! तुम! तुम तो हमें पक्के चोर मालूम होते हो। अच्छा, तुम फिर उनकी दुकान पर गए क्यों? दुकानदार नहीं था, तो वहाँ तुम्हारा क्या काम? जो कोई गहना ले भागते, तो यह तुम्हें कहाँ ढूँढ़ते फिरते।
सुनार – साहब, इनका फिर पता कहाँ मिलता, जाते जमुना उस पार। चलो थाने पर।
लोगों ने सुनार को समझाया, भाई, अब जाने दो। देखो जी, खबरदार, अब किसी की दुकान पर न चढ़ना, नहीं पथे जाओगे। सुनार ने छोड़ दिया। जब आप चलने लगे, तो उसे इन पर तरस आ गया। बोला, अच्छा आग लेते जाओ। हजरत ने आग पाई और घर की राह ली। तड़के-तड़के अच्छी बोहनी हुई, चोर बने, मार खाई, झिड़के गए, थाने जाते-जाते बचे, तब कहीं आग मिली।
मियाँ आजाद यह दिल्लगी देख कर आगे बढ़े और नवाब की ड्योढ़ी पर आए।
नवाब – आज इतना दिन चढ़ गया, कहाँ थे?
आजाद – हुजूर, आज बड़ी दिल्लगी देखने में आई, हँसते-हँसते लोट जाइएगा। तलब भी क्या बुरी चीज है।
यह कह कर आजाद ने सारी दास्तान सुनाई।
नवाब – खूब दिल्लगी हुई। आग के बदले चपलें पड़ीं। अरे मियाँ, जरा खोजी को बुलाना। हाँ, जरा खोजी के सामने सुनाना। किसी दिन यह भी न पिटें।
खोजी नवाब के दरबार में मसखरे थे। ठेंगना कद, काले कौए का सा रंग, बदन पर माँस नहीं, पर आँखों में सुरमा लगाए हुए। लुढ़कते हुए आए और बोले – गुलाम को हुजूर ने याद किया है?
नवाब – हाँ, इस वक्त किस फिक्र में थे?
खोजी – खुदाबंद, अफीम घोल रहा था, और कोई फिक्र तो हुजूर की बदौलत करीब नहीं फटकने पाती। मैं फिक्र क्या जानूँ, ‘जोरू न जाँता, अल्लाह मियाँ से नाता।’
नवाब – अच्छा खोजी, इस हौज में नहाओ तो एक अशर्फी देता हूँ।
खोजी – हुजूर, अशर्फियाँ तो आपकी जूतियों के सदके से बहुत सी मिल जायँगी, मगर फिर जीना कठिन हो जाएगा। न मरे सही, लकिन ‘नकटा जिया बुरे हवाल!’ न साहब, मुझे तो कोई एक गोते पर एक अशर्फी दे, तो भी पानी में न पैठूँ, पानी की सूरत देखे बदन काँप उठता है।
दुन्नी – कैसे मर्द हो कि नहाने से डरते हो!
खोजी – हम नहीं नहाते तो आप कोई काजी हैं?
आजाद – अजी, सरकार का हुक्म है।
खोजी – चलिए, आपकी बला से। कहने लगे सरकार का हुक्म है। फिर कोई अपनी जान दे।
आजाद – हुजूर, जो इस वक्त यह हौज में धम से न कूद पड़ें, तो अफीम इन्हें न मिले।
खोजी – आप कौन बीच में बोलनेवाले होते हैं? अरसठ बरस से तो मैं अफीम खाता आया हूँ, अब आपके कहने से छोड़ दूँ, तो कहिए, मरा या जिया?
नवाब – अच्छा भाई, जाने दो। दूध खाओगे?
खोजी – वाह खुदावंद, नेकी और पूछ-पूछ। लेकिन जरी मिठास खूब हो। शाहजहाँपुर की सफेद शक्कर या कालपी की मिश्री घोलिएगा। अगर थोड़ा सा केवड़ा भी गबड़ दीजिए तो पीते ही आँखें खुल जाएँ।
इतने में एक चोबादार घबराया हुआ आया और बोला – खुदावंद, गजब हो गया। जाँबख्शी हो तो अर्ज करूँ, सब बटेर उड़ गए।
नवाब – अरे! सब उड़ गए?
चोबदार – क्या कहूँ, हुजूर, एक का भी पता नहीं।
मुसाहबों ने हाय-हाय करनी शुरू की, कोई सिर पीटने लगा, कोई छाती कूटने लगा। नवाब ने रोए हुए कहा, भाई और जो गए सो गए, मेरे सफशिकन को जो कोई ढूँढ़ लाए, हजार रुपए नकद दूँ। इस वक्त मैं जीते जी मर मिटा। अभी साँड़नी सवारों को हुक्म दो कि पचकोसी दौरा करें। जहाँ सफशिकन मिले, समझा-बुझा कर ले ही आएँ।
झम्मन – उनको समझाना, हुजूर, मुश्किल है। वह तो अरबी में बातें करते हैं। सारा कुरान उन्हें याद है। उनसे कौन बहस करेगा?
नवाब – मुझे तो उससे इश्क हो गया था जी, वह नोकीली चोंच, वह अकड़-अकड़ कर काकुन चुनना! सैकड़ों पालियाँ लड़ीं, मगर कोरा आया।
किस बाँकपन से झपट कर लात देता था कि पाली भर थर्रा उठती थी। उसकी विसात ही क्या थी, मझोला जानवर, लेकिन मैदान का शेर। यह तो मैं पहले ही से जानता था कि यह बटेर की सूरत में किसी फकीर की रूह है। अब सुना कि नमाज भी पढ़ता था।
झम्मन – हुजूर को याद होगा कि रमजान के महीने में उसने दिन के वक्त दाना तक न छुआ; हुजूर समझे थे कि बूँदा हो गया, मगर मैं ताड़ गया कि रोजे से है।
खोजी – खुदावंद, अब मैं हुजूर से कहता हूँ कि दस-पाँच दफा मैंने अफीम भी पिला दी; मगर वल्लाह, जो जरा भी नशा हुआ हो।
कमाली – हुजूर, यकीन जानिए, पिछले पहर से सुबह तक काबुक से हक-हक की आवाज आया करती थी। गफूर, तुमको भी तो हमने कई बार जगा कर सुनाया था कि सफशकिन खुदा को याद कर रहे हैं।
नवाब – अफसोस, हमने उसे पहचाना ही नहीं। दिल डूबा जाता है, कोई पंखा झलना।
मुसाहब – जल्दी पंखा लाओ।
नवाब –
प्रीतम जो मैं जानती कि प्रीत किए दुख होय;
नगर ढिंढोरा पीटती कि प्रीत करै जनि कोय।
खोजी – (पिनक से चौंक कर) हाँ उस्ताद, छेड़े जा। इस वक्त तो मियाँ शोरी की रूह फड़क गई होगी।
नवाब – चुप, नामाकूल। कोई है? इसको यहाँ से टहलाओ। यह रईसों की सोहबत के काबिल नहीं। मुझको भी कोई गवैया समझा है। यहाँ तो जी जलता है, इनके नजदीक कौवाली हो रही है।
खोजी – खुदावंद, गुलाम तो इस दम अपने आपे में नहीं। हाय, सफशिकन की काबुक खाली हो और मैं अपने आपे में रहूँ! हुजूर ने इस वक्त मुझ पर बड़ा जुल्म किया।
नवाब – शाबाश खोजी, शाबास! मुआफ करना, मैं कुछ और ही समझा था। क्यों जी, साँड़नी-सवार दौड़ाया गया कि नहीं?
सवार – हुजूर, जाता तो हूँ, मगर वह मेरी क्या सुनेंगे, कोई मौलवी भी तो साथ भेजिए, मैं तो कुछ ऊँट ही चढ़ना जानता हूँ, उनसे दलील कौन करेगा भला!
आजाद – किसी अच्छे मोलवी को बुलवाना चाहिए।
मुसाहिबों ने एक मौलाना साहब को तजवीजा। मगर यारों ने उनसे कुल दास्तान नहीं बयान की। चोबदार ने मकान पर जा कर सिर्फ इतना कहा कि नवाब साहब ने आपको याद किया है। मौलवी साहब उसके साथ हो लिए और दरबार में आ कर नवाब साहब को सलाम किया।
नवाब – आपको इसलिए तकलीफ दी कि मेरी आँखों का नूर, मेरे कलेजे का टुकड़ा नाराज होकर चला गया है। बड़ा आलिम और दीनदार है, बहस करने में कोई उससे पेश नहीं पाता, आप जाइए और उसको माकूल करके ले आइए।
मौलाना – माँ-बाप का कड़ा हक होता है। वह कैसे नादान आदमी हैं?
खोजी – मौलाना साहब, वह आदमी नहीं हैं, बटेर हैं। मगर इल्म और अक्ल में आदमियों के भी कान कटते हैं।
कमाली – सफशिकन का नाम तो मौलाना साहब, आपने सुना होगा। वह तो दूर-दूर तक मशहूर थे। जनाब; बात यह है कि सरकार का बटेर सफशिकन कल काबुक से उड़ गया। अब यह तजबीज हुई है कि एक-एक साँड़नी-सवार जाय और उसे समझा-बुझा कर ले आए। मगर ऊँटवान तो फिर ऊँटवान, वह दलील करना क्या जाने, इसलिए आप बुलाए गए हैं कि साड़नी पर सवार हों, और उनको किसी तदबीर से ले आएँ।
मौलाना – ठीक, आप सब के सब नशे में तो नहीं हैं? होश की बातें करो। खुद मसखरे बनते हो। बटेर भी आलिम होता है, वह भी कोई मौलवी है, ला हौल! अच्छे-अच्छे गाउदी जमा हैं। बंदा जाता है।
नवाब – यह किस कोढ़मगज को लाए थे जी? खासा जाँगलू है।
आजाद – अच्छा, हुजूर भी क्या याद करेंगे कि इतने बड़े दरबार में एक भी मंतकी न निकला। अब गुलाम ने बीड़ा उठा लिया कि जाऊँगा और सफशिकन को लाऊँगा। मुझे एक साँड़नी दीजिए, मैं उसे खुद ही चला लूँगा। खर्च के लिए कुछ रुपए भी दिलवाइए, न जाने कितने दिन लग जायँ।
नवाब – अच्छा, आप घर जाइए और लैस हो कर आइए।
मियाँ आजाद घर गए तो और मुसाहिबों में खिचड़ी पकने लगी – यार, यह तो बाजी जीत ले गया। कहीं से एक आध बटेर पकड़ कर लाएगा और कहेगा, यही सफशिकन है। फिर तो हम सब पर शेर हो जाएगा। हमको आपको कोई न पूछेगा। खोजी जा कर नवाब साहब से बोले – हुजूर, अभी मियाँ आजाद दो दिन से इस दरबार में आए हैं, उनका एतबार क्या? जो साँड़नी ही लेकर रफूचक्कर हों, तो फिर कोई कहाँ उनका पता लगता फिरेगा।
कमाली – हाँ खुदावंद कहते तो सच हैं।
झम्मन – खोजी सूरत ही से अहमक मालूम होते हैं, मगर बात ठिकाने की कहते हैं। ऐसे आदमी का ठिकाना क्या?
दुन्नी – हम तो हुजूर को सलाह न देंगे कि मियाँ आजाद को साँड़नी और सफर-खर्च दीजिए। जोखिम की बात है।
नवाब – चलो, बस, बहुत न बको। तुम खुद जैसे हो, वैसा ही दूसरों को समझते हो। आजाद की सूरत कहे देती है कि कोई शरीफ आदमी है, और मान लिया कि साँड़नी जाती ही रहे, तो मेरा क्या बिगड़ जाएगा? सफशिकन पर से लाखों सदके हैं। साँड़नी की हकीकत ही क्या।
इतने में मियाँ आजाद घर से तैयार होकर आ गए। अशर्फियों की एक थैली खर्च के लिए मिली। नवाब ने गले लगा कर रुखसत किया। मुसाहब भी सलाम बजा आए। आजाद साँड़नी पर बैठे और साँड़नी हवा हो गई।
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