अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 4 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
आजाद यह तो जानते ही थे कि नवाब के मुहाहबों में से कोई चौक के बाहर जानेवाला नहीं इसलिए उन्होंने साँड़नी तो एक सराय में बाँध दी और आप अपने घर आए। रुपए हाथ में थे ही, सवेरे घर से उठ खड़े होते, कभी साँड़नी पर, कभी पैदल, शहर और शहर के आस-पास के हिस्सों में चक्कर लगाते, शाम को फिर साँड़नी सराय में बाँध देते और घर चले आते। एक रोज सुबह के वक्त घर से निकले तो क्या देखते हैं कि एक साहब केचुललेट का धानी रँगा हुआ कुरता, उस पर रुपए गजवाली महीन शरबती का तीन कमरतोई का चुस्त अँगरखा, गुलबदन का चूड़ीदार घुटन्ना पहने, माँग निकाले, इत्र लगाए, माशे भर की नन्ही सी टोपी आलपीन से अटकाए, हाथों में मेहँदी, पोर-पोर छल्ले, आँखों में सुर्मा, छोटे पंजे का मखमली जूता पहने, एक अजब लोच से कमर लचकाते, फूँक-फूँक कर कदम रखते चले आते थे। दोनों ने एक दूसरे को खूब जोर से घूरा। छैले मियाँ ने मुसकराते हुए आवाज दी – ऐ, जरी इधर तो देखो, हवा के घोड़े पर सवार हो! मेरा कलेजा बल्लियों उछलता है। भरी बरसात के दिन, कहीं फिसल न पड़ो, तो कहकहा उड़े।
आजाद – आप अपना मतलब कहिए, मेरे फिसलने की फिक्र न कीजिए।
छैला – गिरिएगा, तो मुझसे जरूर पूछ लीजिएगा।
आजाद – बहुत खूब, जरूर पूछूँगा, बल्कि आपको साथ ले कर, गिरूँ तो सही।
छैला – खुदा की कसम, आपके, काले कपड़ों से मैं समझा कि बनैला कुसुम के खेत से निकल पड़ा।
आजाद – और मैं आपको देख कर यह समझा कि कोई जनाना मटकता जाता है।
छैला – वल्लाह, आपकी धज ही निराली है। यह डबल कोट और लक्कड़तोड़ बूट! जाँगलू मालूम होते हो! इस वक्त ऐसे बदहवास कहाँ बगटुट भागे जाते हो? सच कहिएगा, आपको हमारी जान की कसम।
आजाद – आज प्रोफेसर लॉक संस्कृत पर एक लेक्चर देनेवाले हैं, बड़े मशहूर आलिम हैं। योरप में इनकी बड़ी शोहरत है।
छैला – भाई, कसम खुदा की, कितने भोंड़े हो। प्रोफेसर के मशहूर होने की एक ही कही। हम इतने बड़े हुए, कसम ले लो, जो आज तक नाम भी सुना हो। क्या दुन्नीखाँ से ज्यादा मशहूर हैं? भाई, जो कहीं ‘तुम्हारे घूँघरवाले बाल’ एक दफा भी उसकी जबान से सुन लो, तो उम्र-भर न भूलो। वल्लाह, क्या टीपदार आवाज है; मगर तुम ऐसे कोढ़मगजों को गलेबाजी से क्या वास्ता, तुम तो प्रोफेसर साहब के फेर में हो।
आजाद – तुम्हारी जिंदगी राग और लै ही में गुजरेगी। इस नाच और रंग ने आपकी यह गति बनाई कि मूँछ और दाढ़ी कतरवाई, मेहँदी लगवाई और मर्द से औरत बन गए। अरे, अब तो मर्द बनो, इन बातों से बाज आओ।
छैला – जी, तो आपके प्रोफेसर लॉक के पास चला जाऊँ? अपने को आपकी तरह गड्डामी बनाऊँ। किसी गली-कूचे में निकल जाऊँ तो तालियाँ पड़ने लगें।
आजाद – अब यह फरमाइए कि इस वक्त आप कहाँ के इरादे से निकले हैं?
छैला – कल रात को तीन बजे तक एक रँगीले दोस्त के यहाँ नाच देखता रहा। वह प्यारी-प्यारी सूरतें देखने में आईं कि वाह जी वाह! किस काफिर का उठने को जी चाहता हो। जलसा बरखास्त हुआ तो बस, कलेजे को दोनों हाथों से थाम कर निकले; लेकिन रात भर कानों में छमाछम की आवाज आया की। परियों की प्यारी-प्यारी सूरत आँखों में फिरा की। अब इस वक्त फिर जाते हैं, जरा सेक आएँ, भैरवी उड़ रही होगी –
‘रसीले नैनों ने फंदा मारा।’
आजाद – कल फुरसत हो तो हमसे मिलिएगा।
छैला – कल तक तो मेरी नींद का खुमार ही रहेगा।
आजाद – अच्छा, परसों सही।
छैला – परसों? परसों तो खुदा भी बुलाए तो बंदा न जाने का। परसों नवाब साहब के यहाँ बटेरों की पाली है, महीनों से बटेर तैयार हो रहे हैं।
आजाद – अच्छा साहब, परसों न सही, मंगल को सही।
छैला – मंगल को तड़के से बाने की कनकइयाँ लड़ेंगी, अभी बनारस से बाना मँगाया है, माही जाल की कदकइयाँ ऐसी सधी हैं कि हरदम काबू में, मोड़ो, गोता दो, खींचो, जो चाहे सो करो, जैसे खेत का घोड़ा।
आजाद – अच्छा, बुद्ध को फुरसत है!
छैला – वाह-वाह, बुद्ध को तो बड़े ठाट से भठियारियों की लड़ाई होगी। देखिए तो, कैसी-कैसी भटियारियाँ किस बाँकी अदा से हाथ चमका कर, उँगलियाँ मटका कर लड़ती हैं और कैसी-कैसी गालियाँ सुनाती हैं कि कान के कीड़े मर जायँ।
आजाद – बिरस्पत को तो जरूर मिलिएगा?
छैला – जनाब, आप तो पीछे पड़ गए, मिलूँ तो सब कुछ, जब फुरसत भी हो। यहाँ मरने तक की तो फुरसत नहीं, अब की नौचंदी जुमेरात है, बरसों से, मन्नतें मानी हैं, आपको दीनदुनिया की खबर तो है नहीं।
आजाद – तो मालूम हुआ, आपसे मुलाकात नहीं होगी। आज मुर्ग लड़ाइएगा, कल पतंग लड़ाइएगा, कहीं गाना होगा, कहीं नाच होगा, आप न हों तो रंग क्योंकर जमे। मेला-ठेला तो आपसे कोई काहे को छूटता होगा फिर भला मिलने की कहाँ फुरसत? रुखसत।
छैला – ऐ, तो अब रूठे क्यों जाते हैं?
आजाद – अब मुझे जाने दीजिए, आपका और हमारा मेल जैसे गन्ना और मदार का साथ। जाइए, देखिए, भैरवी का लुत्फ जाता है।
छैला – जनाब, अब नाच-गाने का लुत्फ कहाँ, वह चमक-दमक अब कहाँ, दिल ही बुझ गया। जो लुत्फ हमने देखे हैं, वह बादशाहों को ख्वाब में नसीब न हुए होंगे। यह कैसरबाग अदन को मात करता था। परियों के झुंड, हसीनों के जमघट, रात को दिन का समाँ रहता था। अब यहाँ क्या रह गया! गली कूचों में कुत्ते लौटते हैं। एक वह जमाना था कि साकिनों के मिजाज न मिलते थे। बाँके-तिरछे, रईसजादे एक-एक दम की दो-दो अशर्फियाँ फेंक देते थे। अब तो शहर भर में इस सिरे से उस सिरे तक चिराग लेकर ढूँढ़िए तो मैदान खाली है। कल नई सड़क की तरफ जो निकला, तो नुक्कड़ पर एक हाथी बँधा देखा। पूछा, तो मालूम हुआ कि बी हैदरजान का हाथी है। कसम खुदा की, ऐसा खुश हुआ कि आँखों में आँसू आ गया।
खुदा आबाद रक्खे लखनऊ को फिर गनीमत है;
नजर कोई न कोई अच्छी सूरत आ ही जाती है।
आजाद – अच्छा, यह सब जलसे आपने देखे और अब भी आँखों सेका ही करते हैं; मगर सच कहिएगा, बने या बिगड़े, बसे या उजड़े, नेकनाम हुए या बदनाम? यहाँ तो नतीजा देखते हैं।
छैला – जनाब यह तो बड़ा कड़ा सवाल है। सच तो यों है कि उम्र भर इस नाचरंग ही के फदे में फँसे रहे, दिन रात तबला, सारंगी, बायाँ, ढोल, सितार की धुन में मस्त रहे। खुदा की यादत ताक पर, इल्म छप्पर पर, छटे हुए शोहदे बन बैठे; लेकिन अब तो पानी में डूब गए, ऊपर एक अंगुल हो तो, और एक हाथ हो तो, बराबर है। आप लोग इस भरोसे में हों कि हमें आदमी बनाएँ तो यह खैर-सलाह है। बूढ़ें तोते भी कहीं राम-राम पढ़ते हैं?
आजाद – खैर, शुक्र है कि आप अपने को बिगड़ा हुआ समझते तो हैं। कड़ुए न हूजिए तो कहूँ कि इस जनाने भेस पर लानत भेजिए, यह लोच, यह चलक, यह मेहँदी, यह मिस्सी, कुछ औरतों ही को अच्छी मालूम होती है। जरा तो इस दाढ़ी-मूँछ का खयाल करो।
छैला – यह भर्रे किसी ऐसे-वैसे को दीजिए, यहाँ बड़े-बड़ों की आँखें देखी हैं। आपके झाँसे में कोई अनारी आए, हम पर चकमा न चलने का।
आजाद – आपको डोम-डारियों ही की सोहबत पसंद आई या किसी और की भी? लखनऊ में तो हर फन के आदमी मौजूद हैं।
छैला – हम तो हमेशा ऐसी ही टुकड़ी में रहे। घर फूँक तमाशा देखा। लँगोटी में फाग खेला। मियाँ शोरी के टप्पे, कदर मियाँ की ठुमरियाँ, घसीटखाँ की टीपदार आवाज प्यारेखाँ का खयाल छोड़ कर जायँ कहाँ? सारंगी-मँजीरे की आवाज सुनी तो छप से घुस पड़े, मसजिद में अजान हुआ करे, सुनता कौन है। बहुत गुजर गई, थोड़ी बाकी है।
आजाद – लखनऊ में ऐसे-ऐसे आलिम पड़े हैं कि जिनका नाम आफताब की तरह सारी खुदाई में रोशन है। कर्बला और मदीने तक के समझदार लोग इन बुजुर्गों का कलाम शौक से पढ़ते हैं। मुफ्ती सादुल्लाह साहब, सैयद मुहम्मद साहब, वगैरह उल्मा का नाम बच्चे-बच्चे की जबान पर है। अब शायरों को देखिए, ख्वाजा हैदरअली आतश, शेख नासिख अपने फन के खुदा थे। मरसिया कहना तो लखनऊ वालों का हिस्सा है। मीर अनीस साहब को खुदा बख्शे, जबान की सफाई तो यहाँ खत्म हो गई। मिर्जा दबीर तो गोया अपने फन के मवज्जिद थे। नसीम और सबा ने आतश को भड़का दिया। गोया तो गोया शायरी के चमन का बुलबुल था। मिर्जा रज्जबअली बेग सरूर ने वह नस्र लिखी कि कलम तोड़ दिए। यहाँ के कारीगरों के भी झंडे गड़े हैं। कुम्हार तो ऐसे दुनिया के पर्दे पर न होंगे। मिट्टी की मूरतें ऐसी बनाई कि मुसब्बिरों की किर-किरी हो गई। बस, यही मालूम होता है कि मूरत बोलना ही चाहती है। जिस अजायबघर में जाइएगा, लखनऊ के कुम्हारों की कारीगरी जरूर पाइएगा। खुशनवीसों ने वह कमाल पैदा किया कि एक-एक हर्फ की पाँच-पाँच अशर्फियाँ लीं। बाँके ऐसे कि शेर का पंजा तोड़ डालें, हाथी को डपटें तो चिग्घाड़ कर मंजिलों भागे। रुस्तम और इस्फंदियार को चुटकियों में लड़ा दें। उस्ताद मुहम्मद अली खाँ फिकैत, छरहरा बदन, लेकिन गदका हाथ में आने की देर थी। परे के परे दम में साफ कर दिए। कड़क कर तमाचे का तुला हाथ लगाया, तो दुश्मन का मुँह फिर गया। अखाड़े में गदका लेकर खड़े हुए, तो मालूम हुआ, बिजली चमक गई। एक दफा ललकार दिया कि रोक, बैठ गई! देख सँभल। खबरदार, यह आई, वह आई, वह पड़ गई! वाह-वाह की आवाज सातवें आसमान जा पहुँची। बला की सफाई, गजब की सफाई थी। जो मुँह चढ़ा, उसने मुँह की खाई। सामने गया और शामत आई। कामदानी वह ईजाद की कि उड़ीसा और कोचीन तक धूम हो गई। लेकिन आपको तो न इल्म से सरोकार, न फन से मतलब; आप तो ताल-सुर के फेर में पड़े हैं।
छैला – हजरत, इस वक्त भैरवी सुनने जाता था और ‘जागे भाग प्यारा नजर आया’ सुनने का शौक चर्राया था;लेकिन आपने पादरियों की तरह बकवास करके काया पलट दी। आप जो हमें राह पर लाते हो, तो इतना मान जाओ कि जरा कदम बढ़ाए हुए, हमारे साथ हाथ में हाथ दिए हुए, पाटेनाले तक चले चलो; देखूँ तो परस्तिान से क्योंकर भाग आते हो? उन्हीं हसीनों का सिजदा ना करो, तो कुद जुर्माना दूँ। उस इंद्र के अखाड़े से कोरे निकल आओ, तो टाँग की राह निकल जाऊँ।
आजाद – (घड़ी जेब से निकाल कर) ऐं! आठ पर इक्कीस मिनट! इस खुशगप्पी ने आज बड़ा सितम ढाया, लेक्चर सुनने में न आया। मुफ्त की बकबक झकझक! लेक्चर सुनने काबिल था।
छैला – अल्लाह जानता है, इस वक्त कलेजे पर साँप लोट रहे हैं! न जाने तड़के-तड़के किस मनहूस का मुँह देखा है कि भैरवी के मजे हाथ से गए?
आजाद – आप भी निरे चोंच ही रहे। इतनी देर तक समझाया, सिरमगजन की, मगर वाह रे कुत्ते की दुम, बारह बरस बाद भी वह टेढ़ी ही निकली।
छैला – तो मेरे साथ आइए न, बगलें क्यों झाँकते हो? जब जाने कि निलोह निकल आओ।
आजाद – अच्छा चलिए, देखें, कौन सा हसीन अपनी निगाहों के तीर से हमें घायल करता है! बरसों के खयालों को कोई क्या मिटा देगा? हम, और किसी के थिरकने पर फिदा हो जायँ! तोबा! कोई ऐसा माशूक तो दिखाइए, जिसे हम प्यार करें। हमारा माशूक वह है जिसमें कमाल हो। जुल्फ और चोटी पर कोई और सिर धुनते हैं।
खुलासा यह कि आजाद छैले मियाँ के साथ हाफिज जी के मकान में जा पहुँचे। महफिल सजी हुई थी। तीन-चार हसीनें मिल कर मुबारकबाद गाती थीं। यही मालूम होता था कि राग और रागिनी हाथ बाँधे खड़ी हैं। जिसे देखो, गर्दन हिलाता है। पाजेब की छमाछम दिल को रौंदती है, कोई इधर से उधर चमक जाती है, कोई ऊँचे सुरों में तान लगाती है, कोई सीने पर हाथ रख कर ‘गहरी नदिया’ बताती है, कोई नशीली आँखों के इशारे से ‘नैना रसीले’ की छवि दिखाती है, धमा-चौकड़ी मची हुई है। छैले मियाँ ने एक हसीन से फरमाइश की कि हजरत मीर की यह गजल गाओ –
गैर के कहने से मारा उसने हम को बे-गुनाह;
यह न समझा वह कि वाकया में भी कुछ था या न था।
याद ऐयामे कि अपनी रोजोशब की जायबाश;
था दरे बाजे बयाबाँ, या दरे मयखाना था।
इस गजल ने वह लुत्फ दिखाया और ऐसा रंग जमाया कि मियाँ आजाद तक ‘ओ हो!’ कह उठते थे; इसके बाउद एक परी ने यह गजल गाई –
हाल खुले तो किस तरह यार की वज्दे-नाज का;
जो है यहाँ वह मस्त है अपनी ही सोजोसाज में।
इस गजल पर जलसे में कुहराम मच गया। एक तो गजल हक्कानी, दूसरे हसीना की उठती जवानी, तीसरे उसकी नाजुकबयानी। लोग इतने मस्त हुए कि झूम-झूम कर यही शेर बढ़ते थे –
हाल खुले तो किस तरह यार की वज्दे-नाज का;
जो है यहाँ वह मस्त है अपनी ही सोजोसाज में।
अब सबको शकी जगह यकीन हो गया कि अब किसी का रंग न जमेगा। हर तरफ से हक्काली गजलों की फरमाइश है। न धुर्पद का खयाल, न टप्पे की फिक्र, न भैरवी की धुन, न पक्के गाने का जिक्र, बस हक्कानी गजलों की धूम है।
अब दिल्लगी देखिए कि बुड्ढे-जवान सब के सब बेधड़क उस मोहनी को घूर रहे हैं। कोई उससे आखें लड़ाता है, कोई सिर धुनता है, कोई ठंडी आहें खींचता है। दो-चार मनचले रईसों ने हसीनों को बुला कर बड़े शौक से पास बैठाया। नोंक-झोंक, हँसी मजाक, चुहल-दिल्लगी, धोल-धप्पा होने लगा। हाफिज जी भी बेसींग के बछड़े बने हुए मजे से चौमुखी लड़ रहे हैं।
बूढ़े मियाँ – आजकल के लड़कों को भी हवा लगी है।
एक जवान – जनाब, अब तो हवा ही ऐसी चली है कि जवान तो जवान, बुड्ढों तक को बुढ़भस लगा है। सौ बरस का सिन, चार के कंधों पर लदने के दिन, मगर जवानी ही के दम भरते हैं।
बूढ़े मियाँ – अजी, हम तो जमाने भर के न्यारिये, हमें कोई क्या चंग पर चढ़ायगी; मगर तुम अभी जुमा-जुमा आठ दिन की पैदायश, ऐसा न हो, उनके फेर में आ जाओ; फिर दीन दुनिया दोनों को रो बैठो।
जवान – वाह जनाब, आपकी सोहबत में हम भी पक्के हो गए हैं; ऐसे कच्चे नहीं कि हम पर किसी के दाँव-पेंच चलें।
बूढ़े मियाँ – कच्चे-पक्के के भरोसे न रहिएगा, इन हसीनों का बड़े-बड़ें जाहिदों ने सिजदा किया है; तुम किस खेत की मूली हो।
जवान – इन बुतों को हम फकीरों से भला क्या काम है, ये तो तालिब जर के हैं और याँ खुदा का नाम है।
हसीना – इन बड़े मियाँ से कोई इतना तो पूछो कि बाल-बाल गल कर बर्फ सा सफेद हो गया और अब तक सियाहकारी न छोड़ी, यह समझाते किस मुँह से हैं? इनकी सुनता कौन है! जरा शेख जी, बहुत बढ़-बढ़ कर बातें न बनाया कीजिए; शाहछड़ेवाली गली में रोज बीस-बीस चक्कर होते हैं; ऐ, तुम थकते भी नहीं!
हाफिज जी – शेख जी जहाँ बैठते हैं, झगड़ा जरूर खरीदते हैं। आप हैं कौन? आए कहाँ से नासेह बन के! अच्छा, जी साहब, अपना कलाम सुनाइए; मगर शर्त यह है कि अब हम तारीफ करें तो झुक के सलाम कीजिए।
हसीना – आप हैं तो इसी लायक कि दूर ही से झुक कर सलाम कर लें।
इधर तों यह बातें हो रही थीं, उधर दूसरी टुकरी में गाली और फक्कड़ का छर्रा चलता था। तीसरे में धौल-धप्पा होता था। लड़के, जवान, बूढ़े बेधड़क एक दूसरे पर फबतियाँ कसते थे। इतने में दोपहर की तोप दगी, जलसा बरखास्त, तबल्चियों ने बोरिया-बँधना उठाया। चलिए, सन्नाटा हो गया।
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