अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 5 – (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
मियाँ आजाद की साँड़नी तो सराय में बँधी थी। दूसरे दिन आप उस पर सवार हो कर घर से निकल पड़े। दोपहर ढले एक कस्बे में पहुँचे। पीपल के पेड़ के साये में बिस्तर जमाया। ठंडे-ठंडे हवा के झोंकों से जरा दिल को ढारस हुई, पाँव फैला कर लंबी तानी, तो दीन दुनिया की खबर नहीं। जब खूब नींद भर कर सो चुके, तो एक आदमी ने जगा दिया। उठे, मगर प्यास के मारे हलक में काँटे पड़ गए। सामने इंदारे पर एक हसीन औरत पानी भर रही थी। हजरत भी पहुँचे।
आजाद – क्यों नेकबख्स, हमें एक जरा सा पानी नहीं पिलातीं। भरते न बनता हो तो लाओ हम भरें। तुम भी पियो, हम भी पिएँ, एहसान होगा।
औरत ने कोई जवाब न दिया, तीखी चितवन से देखकर पानी भरती रही।
आजाद – ‘सखी से सूम भला, जो देवे तुरत जवाब।’ पानी न पिलाओ, जवाब तो दे दो। यह कस्बा तो अपने हक में कर्बला का मैदान हो गया। एक बूँद पानी को तरस गए।
औरत ने फिर भी जवाब न दिया। पानी भर कर चली।
आजाद – भई, अच्छा गाँव है! जो बात है, निराली! एक लुटिया पानी न मिला, वाह री किस्मत! लोग तो इस भादों की जलती-बलती धूप में पौसरे बैठाते हैं, केवड़ा पड़ा हुआ पानी पिलाते हैं, यहाँ कोई बात तक नहीं सुनता।
मियाँ आजाद को हैरत थी कि इस कमसिन नाजनीन का यहाँ इस बीराने मे क्या काम। साये की तरह साथ हो लिए। वह कनखियों से देखती जाती थी; मगर मुँह नहीं लगाती थी। बारे, सड़क से दाएँ हाथ पर एक फाटक के सामने वह बैठ गई और पेड़ के साये में सुस्ताने लगी। आजाद ने कहा अगर यह बर्तन भारी हो तो लाओ मैं ले चलूँ, इशारे की देर है। कसम लो, जो एक बूँद भी पीऊँ, गो प्यास के मारे कलेजा मुँह को आता है और दम निकला जाता है; लेकिन तुम्हारा दिल दुखाना मंजूर नहीं।
हसीना ने इसका भी जवाब न दिया। फिर हिम्मत करके उस बर्तन को उठाया और फाटक के अंदर हो रही। मियाँ आजाद भी चुपके-चुपके दबे पाँव उसके पीछे-पीछे गए। हसीना एक खुले हुए छोटे से बँगले में जा बैठी और आजाद दरख्तों की आड़ में दबक रहे कि देखें, यहाँ क्या गुल खिलता है। उस बँगले के चारों तरफ खाई खुदी हुई थी, इर्द-गिर्द सरपत बोई हुई थी, ऐसी घनी कि चिड़िया तक का गुजर न हो; और वह तेज कि तलवार मात। बड़ा ऊँचा मेहराबदार फाटक लगा हुआ था। वह जौहरदार शीशम की लकड़ी थी कि बायद व शायद। क्यारियाँ रोज सींची जाती थीं, रविशों पर सुर्खी कटी थी, हरे भरे दरख्त आसमान से बातें कर रहे थे। कहीं अनार की कतार, कहीं लखवट की बहार, इधर आम के बाग, अमरूद और चकोतरों से टहनियाँ फटी पड़ती थीं, नारँगियाँ शाखों पर लदी हुई थीं, फूलों की बू-बास, कहीं गुलमेहँदी, कहीं गुल-अब्बास, नेवाड़ी फूली हुई, ठंडी-ठंडी हवा, ऊदी-ऊदी घटा, कलियों की चिटक, जूही की भीनी महक, कनैल की दमक। बाग के बीचों-बीच में एक तीन फुट का ऊँचा पक्का चबूतरा बना था। यह तो सब कुछ था; मगर रहनेवाले का पता नहीं। उस हसीना की चालढाल से भी बेगानापन बरसता था। एकाएक उसने बर्तन जमीन पर रख दिया और एक नेवाड़ की पलंगरी पर सो रही। इनको दाँव मिला, तो खूब छक कर मेवे खाए और बर्तन को मुँह से लगाया, तो एक बूँद भी न छोड़ा। इतने में पाँव की आहट सुनाई दी। आजाद झट अंगूर की टट्टी में छिप रहे; मगर ताक लगाए बैठे थे कि देखें, है कौन! देखा कि फाटक की तरफ से कोई आहिस्ता-आहिस्ता आ रहा था। बड़ा लंबा-तड़ंगा, मोटा-ताजा आदमी था। लँगोट बाँधे, अकड़ता उस बँगले की तरफ जा रहा था। समझे कि कोई पहलवान अपने अखाड़े से आया है। नजदीक आया, तो यह गुमान दूर हो गया। मालूम हुआ कि कोई शाह जी हैं। वह लँगोट, जिससे पहलवान का धोखा हुआ था, तहमद निकला। शाह साहब सीधे बँगले में दाखिल हुए। औरत को पलंग पर सोता पाया, तो पलंग पर हाथ मार कर चिल्ला उठे – उठ। हसीना घबराकर उठ बैठी और शाह जी के कदम चूमे। शाह जी एक तिरपाई पर बैठ गए और उससे यों बातें करने लगे – बेटी, आज तुमको हमारे सबब से बहुत राह देखनी पड़ी। यहाँ से दस कोस पर एक गाँव में एक राजा रहता है। अस्सी बरस का हो गया; मगर अल्लाह ने न लड़का दिया, न लड़की। एक दिन मुझे बुलवाया। मैं कहीं आता-जाता तो हूँ नहीं, साफ कहला भेजा कि तुम्हें गरज हो तो आओ, खुदा के बंदे खुदा के सिवा और किसी के द्वार पर नहीं जाते। आखिर रानी को लेकर वह आप आया और मेरे कदमों पर गिर पड़ा। मैंने रानी के सिर पर एक बिना सूँघा गुलाब का फूल दे मारा। पाँचवे महीने अल्लाह ने लड़का दिया और राजा मेरे पास दौड़ा आता था कि मैं राह में मिला। देखते ही मुझे रथ पर बिठा लिया। अब कहता है, रुपया लो, जागीर लो, गाँव लो, हाथी-घोड़े लो। मगर मैं कब माँगता हूँ। फकीरों को दुनिया से क्या काम। इस वक्त जा कर पीछा छूटा। तुम पानी तो लाई होगी?
हसीना – मैं आपकी लौंडी हूँ, यह क्या कम है कि आप मेरा इतना खयाल रखते हैं। वह पानी रखा हुआ है। आप फूँक डाल दें, तो मैं चली जाऊँ।
यह कह कर वह उठी; मगर बर्तन देखा, तो पानी नदारत। ऐं! यह पानी क्या हुआ! जमीन पी गई, या आसमान। अभी पानी भर कर रखा था, देखते-देखते उड़ गया। गजब खुदा का, एक बूँद तक नहीं; लबालब भरा हुआ था!
शाह जी – अच्छा, तो बता दूँ; मुझे जोग-बल से मालूम हो गया कि तुम आती हो। जब तुम सो रहीं, तो मैंने आँख बंद की, और यहाँ पहुँच गया। पानी पिया, तो फिर आँख बंद की और फिर राजा साहब के पास हो रहा। फूँक डालने की साइत उसी वक्त थी। टल जाती, तो फिर एक महीने बाद आती। अब तुम यह इलायची लो और कल आधी रात को मरघट में गाड़ दो। तुम्हारी मुराद पूरी हो जाएगी।
युवती ने इलायची ले ली। मियाँ आजाद चुपके-चुपके सब सुन रहे थे। अब उन्हें खूब ही मालूम हो गया कि शाह जी रँगे सियार हैं। लोटे का पानी तो मैंने पिया, और आपने यह गढा कि आँख बंद करते ही यहाँ आए, और पानी पी कर फिर किसी तरकीब से चल दिए। खूब खिल-खिला कर हँस पड़े। वाह रे मक्कार! जालिए! इतना बड़ा झूठा न देखा, न सुना। ऐसे बड़े वली हो गए कि इनकी दुआ से एक रानी पाँचवें ही महीने बच्चा जन पड़ी। झूठ भी तो कितना! हद तो यों है कि झूठों के सरदार हैं। पट्टे बढ़ा लिए, तहमद बाँध कर शाहजी बन गए। लगे पुजने। कोई बेटा माँगता है, कोई तावीज माँगता है, कोई कहता है मेरा मुकदमा जितवा दो तो नयाज चढ़ाऊँ, कोई कहता है नौकरी दिलवा दीजिए तो मिठाई खिलाऊँ। संयोग से कहीं उसकी मुराद पूरी हो गई, तो शाह साहब की चाँदी है, वरना किसकी मजाल की शिकायत का एक हर्फ मुँह से निकाले। डर है कि कहीं जबान न सड़ जाय। अल्लाह री धाक! बहुत से अक्ल के दुश्मन इन बने हुए फकीरों के जाल में फँस जाते हैं। आजाद ऐसे बने हुए सिद्ध और रँगे सियार फकीरों की कब्र तक से वाकिफ थे। सोचे, इनकी मरम्मत कर देनी चाहिए।
शाह साहब ने चबूतरे पर लुंगी बिछाई और उस पर लेट कर दुआ पढ़ने लगे; मगर पढ़े-लिखे तो थे नहीं, शीन-काफ तक दुरुस्त नहीं, अनाप-शनाप बकने लगे। अब मियाँ आजाद से न रहा गया, बोल उठे – क्या कहना है शाह जी, वल्लाह, आपने तो कमाल कर दिया। अब तो शाह जी चकराए कि यह आवाज किसने कही, यह दुश्मन कौन पैदा हुआ। इधर-उधर आँखें फाड़-फाड़ कर देखा; मगर न आदमी, न आदमजाद, न इनसान, न इनसान का साया। या खुदा, यह कौन बोला? यह किसने टोका? समझे कि यह आसमानी ढेला है। किसी जिन्न की आवाज है। डरपोक तो थे ही, बदन थरथराने लगा, हाथ-पाँव फूल गए, करामातें सब भूल गए, हवास गायब, होश कलाबाजी खाने लगे। कुरान की आयतें गलत-सलत पढ़ने लगे। आखिर चिल्ला उठे – महजरूल अजायब। तो इधर यह बोल उठे – लुंगी मयशाह जी गायब। अब शाह जी की घबराहट का हाल न पूछिए, चेहरा फक, काटो तो लहू नहीं बदन में। मियाँ आजाद ने भाँप लिया कि शाह साहब पर रोब छा गया, झट निकल कर पत्तों को खूब खड़-खड़ाया। शाह जी काँप उठे कि प्रेतों का लश्कर आ खड़ा हुआ। अब जान से गए। तब आजाद ने एक फारसी गजल खूब लै के साथ पढ़ी, जैसे कोई ईरानी पढ़ रहा हो। शाह जी मस्त हो गए, समझे कि यह तो कोई फकीर है। अब तो जान में जान आई। मियाँ आजाद के कदम लिए। उन्होंने पीठ ठोंकी। शाह जी उस वक्त नशे की तरंग में थे; खयाल बँध गया कि कोई आसमान से उतरा है।
आजाद – कीस्ती वो अज कुजाई व वामनत चे कार अस्त। (कौन है, कहाँ से आता है और मुझसे क्या काम है?)
शाह जी के रहे-सहे हवास और गायब हो गए। जबान समझ में न आई। समझे कि जरूर आसमान का फरिश्ता है। हमारी जान लेने को आया है। दबे दाँतों बोले – समझता नहीं हूँगा कि आप क्या हुक्म देंगे। हमने बहुत गुनाह किए, अब माफ फरमाओ। कुछ दिन और जीने दो, तो यह ठगविद्या छोड़ दूँ। मैं समझ गया कि आप मेरी जान लेने आए हैं।
आजाद – यह बुढ़ापा और इतनी बदकारी, यह सिन और साल और यह चाल-ढाल। याद रख कि जहन्नुम के गड्ढे में गिरेगा और दोजख की आग में जलाया जाएगा। सुन, मैं न आसमान का फरिश्ता हूँ, न कोई जिन्न हूँ। मैं हकीम बलीनास की पाक रूह हूँ, हकीम हूँ, खुदा से डरता हूँ, मेरे कब्जे में बहुत से तिलस्म हैं, मेरा मजार इसी जगह पर था जहाँ तेरा चबूतरा है और जहाँ तू नापाक रहता है और शोरबा लुढ़काता है। खैर, तेरी जहालत के सबब से मैंने तुझे छोड़ दिया; लेकिन अब तूने यह नया फरफंद सीखा कि हसीनों को फाँसता है और उनसे कुछ ऐंठता है। उस जमाने में यह औरत मेरी बीवी थी। ले, अब यह हथकंडे छोड़, मक्र और दगा से मुँह मोड़, नहीं तो तू है और हम। अभी ठीक बनाऊँगा और नाच नचाऊँगा। तेरी भलाई इसी में है कि अपना कुल हाल कह चल, नहीं, तू जानेगा। मेरा कुछ न जायगा।
शाह जी ने शराब की तरंग में मारे डर के अपनी बीती कहानी शुरू की – चौदह बरस के सिन से मुझे चोरी करने की लत पड़ी और इतना पक्का हो गया कि आँख चूकी और गठरी उड़ाई, गाफिल हुआ और टोपी खिसकाई। पहले कुछ दिन तो लुटियाचोर रहे, मगर यह तो करती विद्या है, थोड़े ही दिनों में हम चोरों के गुरू-घंटाल हो गए। सेंद लगाना कोई हमसे सीखे, छत की कड़ियों में यों चिमट रहूँ, जैसे कोई छिपकली, उचकफाँद में बंदर मेरे मुकाबले में मात है, दबे पाँव कोसों निकल जाऊँ, क्या मजाल किसी को आहट हो। शहर भर के बदमाश, लुक्के, लुच्चे, शोहदे हमारी टुकड़ी में शामिल हुए। जिसने हेकड़ी की उसको नीचा दिखाया; जो टेढ़ा हुआ उसको सीधा बनाया। खूब चोरियाँ करने लगे। आज इसका माल मारा, कल उसकी छत काटी, परसों किसी नवाब के घर में सेंद दी। यहाँ तक कि डाके मारने लगे, सड़कों पर लूटमार शुरू कर दी। गोल में दुनियाभर के बेफिक्रे जमा हैं, कोई चंडू उड़ाता है, कोई चरस के दम लगाता है। गाँजे, भाँग, ठर्रे सबका शौक है। तानें उड़ रही हें, बोतलें चुनी हुई हैं, गड़ेरियों के ढेर लगे हुए हैं, मक्खियाँ भिन-भिन करती हैं, सबको यही फिक्र है कि किसी का माल ताकें। एक दिन शामत आई, एक नवाब साहब के यहाँ चोरी करने का शौक चर्राया। उनके खिदमतगार को मिलाया, नौकरानियों को भी कुछ चटाया, और एक बजे के वक्त घर से निकले। उसी मुहल्ले में एक महीने पहले ही एक मकान किराए पर ले रखा था। पहले उसी मकान में बैठे। नवाब का मकान कोई पचास ही कदम होगा। तीन आदमी दस कदम पर और पाँच बीस कदम पर खड़े हुए। हम, खिदमतगार और एक चोर साथ चले कि घर में धँस पड़ें। करीब गए तो ड्योढ़ी पर चौकीदार ने पुकारा, कौन? सन से जान निकल गई! उम्रभर में यही खता हुई कि चौकीदार को पहले से न मिला लिया। अब क्या करें। ‘पिली बुद्धि गँवार की!’ फिर चौकीदार ने ललकारा, कौन आता है? हमने कहा – हम हैं भाई। चौकीदार बोला – हम की एक ही कही, हम का कुछ नाम भी है? आखिर हमने चौकीदार को उसी दम कुछ चटा कर सेंद दी। घर में घुसे, तो क्या देखते हें कि एक पलंग पर नवाब साहब सोते हैं, और दूसरे पलंग पर उनकी बेगम साहबा मीठी नींद में मस्त हैं, मगर शमा रोशन है। अपने साथी से इशारा किया कि शमा को गुल कर दे। वह ऐसा घबराया कि बड़े जोर से फूँक मारी। मैंने कहा, खुदा ही खैर करे, ऐसा न हो कि नवाब जाग उठें तो लेने के देने पड़ें। आगे बढ़कर मैंने बत्ती को तेल में खिसका दिया, चलिए, चिराग गुल, पगड़ी गायब। बेगम साहबा के सिरहाने जेवर का संदूक रखा था, मगर आड़ में। हम तो महरी की जबानी कच्चा चिट्ठा सुन चुके थे, ‘घर का भेदी लंका ढाय’, फौरन संदूक उठाया और दूसरे साथी को दिया कि बाहर पहुँचाए। वह कुछ ऐसा घबराया कि मारे बौखलाहट के काँपने लगा और धम से गिर पड़ा। धमाके की आवाज सुनते ही नवाब चौंक पड़े, शेरबच्चा सिरहाने से उठा, पैतरे बदल-बदल कर फिकैती के हाथ दिखाने लगे। मैंने एक चाकी का हाथ दिया, और झट कमरे से निकल, दीवाल पर चढ़, पिछवाड़े कूदा और ‘चोर-चोर’ चिल्लाता हुआ नाके बाहर। बे दोनों सिरबोझिए नौसिखिए थे, पकड़ लिए गए। मगर वाह रे नवाब! बड़ा ही दिलेर आदमी है। दोनों को घेर लिया। वे तो जेल खाने गए, मैं बेदाग बच गया। अब मैंने वह पेशा छोड़ा और खून पर कमर बाँधी। एक महीने में कई खून किए। पहले एक सौदागार के घर में घुस कर उसे चारपाई पर ढेर कर दिया; जमा-जथा हमारे बाप की हो गई। फिर रेल पर एक मालदार जौहरी का गला घोट डाला और जवाहिरात साफ उड़ा लिए। तीसरा दफा दो बनजारे सराय में उतरे थे। हमें खबर मिली कि उनके पास सोने की ईंटें हैं। उनको सराय ही में अंटा-गफील करना चाहा। भठियारे ने देख लिया पकड़े गए और कैदखाने गए। वहाँ आठ दिन रहे थे, नवें दिन रात को मौका पा कर कालकोठरी का दरवाजा तोड़ा, एक बदकंदाज का सिर ईंट से फोड़ा, पहरे के चौकीदार को उसी की बंदूक से शहीद किया और साफ निकल भागे। अब सोचा, कोई नया पेशा अख्त्तियार करें, सोचते-सोचते सूझी कि शाह जी बन जाओ। चट फकीरों का भेस बदल कर एक पेड़ के नीचे बिस्तर जमा दिया। पुजने लगे। एक दिन इस गाँव के ठाकुर का लड़का बीमार हुआ। यहाँ हकीम, न डाक्टर! किसी ने कह दिया कि एक फकीर पकरिया के नीचे बैठे खुदा को याद किया करते हैं, चेहरे से नूर बरसता है, किसी से लेते हैं न देते हैं। ठाकुर ने सुनते ही अपने भाई को भेजा। हम साथ गए। खुशी से फूले न समाते थे कि आज पाला हमारे हाथ रहा तो उम्र भर चैन से गुजरेगी। हमारा पहुँचना था कि सब उठ खड़े हुए। हम किसी से बोले न चाले, जा कर लड़के के पास बैठ गए और कुछ बुदबुदा कर उठ खड़े हुए। देखा, लड़के का बुरा हाल है, बचना मुहाल है। ठाकुर कदमों पर गिर पड़ा। हमने पीठ ठोंकी और लंबे-लंबे डग बढ़ाते चल दिए। संयोग से एक योरोपियन डाक्टर दौरा करता हुआ उस गाँव में आया और उसकी दवा से मरीज चंगा हो गया। अब मजा देखिए, डाक्टर का कोई नाम भी नहीं लेता, सब हमारी तारीफ करते हैं। ठाकुर ने हमें एक हाथी और हजार रुपए दिए। यह हमने कबूल न किया। सुभान-अल्लाह! फिर तो हवा बँध गई। अब चारों तरफ हम ही हम हैं, कोई बीमार हो, तो हम पूछे जाएँ, कोई मरे तो हम बुलाए जाएँ। मियाँ-बीबी के झगड़ों में हम काजी बनते हैं, बाप-बेटे का झगड़ा हम फैसला करते हैं। सुबह से शाम तक डालियों पर डालियाँ आती रहती हैं।
आजाद ने यह किस्सा सुन कर शाह जी को खूब डाँटा – तू काफिर है, मलऊन है, तू अपनी मक्कारी से खुदा के बंदों को ठगता है, अब हमारी बात सुन, हमारा चेला बन जा, तो तुझे छोड़ दें। कल तड़के गजरदम गाँव भर में कह दे कि हमारे पीर आए हुए हैं। दो सौ ग्यारह बरस की उम्र बताना। जिसे जियारत करनी हो, आए। शाह जी की बाछें खिल गईं कि चलो, किसी तरह जान तो बची। नूर के लड़के गाँव भर में पुकार आए कि हमारे पीर आए हैं, जिसे देखना हो, देख ले। शाह जी की वहाँ धाक बँधी ही थी, जब लोगों ने सुना कि इनके भी बली-खंगड़ आए हैं, तो शौक चर्राया कि जियारत को चलें। दो दिन और दो रात मियाँ आजाद अपने घर पर आराम करते रहे। तीसरे दिन फकीराना भेस बदले हुए हरे-हरे पेड़ों के साये में आ बैठे। देखते क्या हैं, पौ फटते ही औरत-मर्द, ठट के ठट जमा हो गए। हिंदू और मुसलमान, जवान औरतें, गहनों से लदी हुई आ कर बैठी हुई हैं। तब आजाद ने खड़े हो कर कुरान की आयते पढ़ना शुरू कीं और बोले – ऐ खुदा के बंदो, मैं कोई वली नहीं हूँ, तुम्हारी ही तरह खुदा का एक नाचीज बंदा हूँ। अगर तुम समझते हो कि कोई इनसान चाहे कितना ही बड़ा फकीर क्यों न हो, खुदा की मरजी में दखल दे सकता है, तो तुम्हारी गलती है। होता वही है, जो खुदा को मंजूर होता है। हमारा फर्ज यही है कि तुम्हें खुदा की याद दिलाएँ। अगर कोई फकीर, कोई करामात दिखाकर अपना सिक्का जमाना चाहता हो, तो समझ लो कि वह मक्कार है। जाओ, अपना-अपना धंधा देखो।
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