अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 7– (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
मियाँ आजाद साँड़नी पर बैठे हुए एक दिन सैर करने निकले, तो एक सराय में जा पहुँचे। देखा, एक बरामदे में चार-पाँच आदमी फर्श पर बैठे धुआँधार हुक्के उड़ा रहे हैं, गिलौरी चबा रहे हैं और गजलें पढ़ रहे हैं। एक कवि ने कहा, हम तीनों के तखल्लुस का काफिया एक है – अल्लामी, फहामी और हामी; मगर तुम दो ही हो – वकाद और जवाद। एक शायर और आ जायँ, तो दोनों तरफ से तीन-तीन हो जायँ। इतने में मियाँ आजाद तड़ से पहुँच गए।
एक ने पूछा – आप कौन?
आजाद – मैं शायर हूँ।
आप तखल्लुस क्या करते हैं?
आजाद ने कहा – आजाद। तब तो इन सबकी बाँछें खिल गईं। जवाद, वकाद और आजाद का तुक मिल गया। अब लोग गजलें पढ़ने लगे। एक आदमी शेर पढ़ता है, बाकी, तारीफ करते हैं – सुभान-अल्लाह, क्या तबीयत पाई है, वाह-वाह! फिर फरमाइएगा; कलम तोड़ दिए, कितनी साफ जबान है! इस बोल-चाल पर कुरबान। कोई झूमता है, कोई टोपियाँ उछालता है।
आजाद – मियाँ, सुनो, हम शायरी के कायल नहीं। आप लोग तो जबान पर मरते हैं और हम खयालों पर जान देते। हमें तो नेचर की शायरी पसंद है।
फहामी – अख्खाह, आप नेचरिए हैं! अनीसिए और दबीरिए तो सुनते थे, अब नेचरिए पैदा हुए। गजब खुदा का! आपको इन उस्तादों का कलाम पसंद नहीं आता, जो अपना सानी नहीं रखते थे?
आजाद – मैं तो साफ कहता हूँ, यह शायरी नहीं, खब्त है, बेतुकापन है, इसका भी कुछ ठिकाना है, झूठ के छप्पर उड़ा दिए। अब कान खोल कर नेचरी शायरी सुनो।
यह कह कर आजाद ने अंगरेजी की एक कविता सुनाई तो वह कहकहा पड़ा कि सराय भर गूँज उठी।
फहामी – वाह जनाब, वाह, अच्छी गिट-पिट है! इसी को आप शायरी कहते हैं?
आजाद – ‘शेख क्या जाने साबुन का भाव!’ ‘भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस खड़ी पगुराय।’
आजाद तो नेचरल शायरी की तारीफ करने लगे, उधर वे पाँचों उर्दू की शायरी पर लोट-पोट थे। आतश और मीर की जबान, नासिख, अनीस, जौक, गालिब, मोमिन-जैसे उस्तादों के कलाम पढ़-पढ़ कर सुनाते थे। अब बताइए, फैसला कौन करे? भठियारिन झगड़ा चुकाने से रही, भठियारा घास ही छीलना जाने, आखिर यह राय तय पाई कि शहर चलिए! जो पढ़ा-लिखा आदमी पहिले मिले, उसी का फैसला सबको मंजूर। सबने हाथ पर हाथ मारा। चलने ही को थे कि भठियारिन ने इनको ललकारा और चमक कर मियाँ जवाद का दामन पकड़ा – मियाँ, यह बुत्ते किसी और को बताना, हम भी इसी शहर में बढ़ कर इतने बड़े हुए हैं। हूँ तो अभी आपकी लड़की के बराबर, मुल सैकड़ों ही कुओं का पानी पी डाला। पहले कौड़ी-कौड़ी बाएँ हाथ से रख जाइए, फिर असबाब उठाइए।
अल्लामी – नेकबख्त, हम शरीफ भलेमानस हैं। शरीफ लोग कहीं दो पैसे के लिए ईमान बेचा करते हैं? चलो, दामन छोड़ दो, अभी दम के दम में आए।
भठियारिन – इस दाम में बंदी न आएगी। ऐसे बड़े साहूकार खरे असामी हो, तो एक गंडा चुपके से निकाल दो न?
वकाद – यह मुड़चिरी है या भठियारिन? साहब, इससे पीछा छुड़ाओ। ऐसी भठियारिन तो कहीं देखी न सुनी।
भठियारिन – मियाँ, कुछ बेधे तो नहीं हुए हो, या बिल्ली नाँघ कर घर से चले थे? चुपके से पैसे रख कर तब कदम उठाइए।
मियाँ जवाद सीधे-सादे आदमी थे। जब उन्होंने देखा कि मुफ्त में घेरे गए, तो कहा – भाई, तुम पाँचों जाओ, हम यहाँ भी भठियारिन की खातिर से बैठे हैं। तुम लोग निपट आओ। वे सब तो उधर चले और जवाद सराय ही में भठियारिन की हिरासत में बैठे, मगर एक आने पैसे न दे सके। दो-चार मिनट के बाद पुकारा – भठियारी-भठियारी! मैं लेटा हूँ। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे पेट में चूहे दौड़े कि रफू-चक्कर हुए। फिर तीन मिनट के बाद गला फाड़-फाड़ चिल्लाने लगे – भठियारिन, हम भागनेवाले असामी नहीं है, तुम मजे से अपनी दाल बघारो। जब इन्होंने बार-बार छेड़ना शुरू किया, तो वह आग-भभूका हो गई और बोली – मियाँ, ऐसे दो पैसे से दरगुजरी, तुमने तो गुल मचा-मचा कर मेरा कलेजा पका दिया। आप जायँ, बल्कि खटिया समेत दफन हों, तो मैं खुश, मेरा अल्लाह खुश। ऐ वाह, ‘देखी तेरी कालपी और बावन पुरे उजाड़।’ मियाँ, हूँ तो अभी जुमा-जुमा आठ दिन की, मुल नाक पर तो मक्खी बैठने नहीं देती!
इधर मियाँ जवाद भठियारिन से चुहल कर रहे थे, उधर वे पाँचों आदमी सराय से चले, तो रास्ते में एक बुजुर्ग से मुलाकात हुई।
हामी ने कहा – या मौलाना, एक मसला हल कीजिए; तो एहसान होगा।
बुजुर्ग – मियाँ, मैं एक जाहिल, बेवकूफ, बेसमझ, गुमराह आदमी हूँ, मौलाना नहीं; मौलाना होना दुश्वार बात है। मुझे मौलाना कहना इस लफ्ज को बदनाम करना है।
हामी – अच्छा साहब, आप मौलाना न सही, मुंशी सही, मियाँ सही, आप एक झगड़े का फैसला कर दीजिए और घर का रास्ता लीजिए। आपका हमारे बुजुर्गों पर और बुजुर्गों के बुजुर्गों पर एहसान होगा। झगड़ा यह है कि यह साहब (आजाद की तरफ इशारा करके) नेचरी शायरी के तरफदार हैं, और हम चारों उर्दू-शायरी पर जान देते हैं। अब बतलाइए, हममें से कौन ठीक कहता है और कौन गलत?
बुजुर्ग – यह तो बहुत गौर करने की बात नहीं। आप चारों मुफ्त में झगड़ा करते हैं। आप सीधे अस्पताल जाइए और फस्द खुलवाइए, शायरी पर जान देना समझदारों का काम नहीं। जान खुदा की दी हुई है, उसी की याद में लगानी चाहिए। बाकी रही दूसरे किस्म की शायरी, मैंने उसका नाम भी नहीं सुना, उसके बारे में क्या अर्ज करूँ?
पाँचों आदमी यहाँ से निराश हो कर आगे बढ़े, तो एक मकतबखाना नजर से गुजरा। टूटा-फूटा मकान, पुरानी-धुरानी दालान, दीवारें बाबा आदम के वक्त की। एक मौलवी साहब लंबी दाढ़ी लटकाए, हाथ में छड़ी लिए, हिल हिल कर पढ़ा रहे हैं और बीच-पचीस लड़के जदल-काफिया उड़ा रहे हैं – एक लड़के ने दूसरे की चाँद पर तड़ से धप जमाई। मौलवी साहब पूछते हैं – अबे, यह क्या हुआ? लड़के कहते हैं – जी, कुछ नहीं, तख्ती गिर पड़ी। अबे, यह तख्ती की आवाज थी? जी हाँ, और नहीं तो क्या? इतने में दो-चार शरीर लड़कों ने मुँह चिढ़ाना शुरू किया। देखिए मौलवी साहब, यह मुँह चिढ़ाता है। नहीं मौलवी साहब, यह झक मारता है, मैं तो बाहर गया था। गुल-गपाड़े की आवाज ऐसी बुलंद है कि आसमान की खबर लाती है, कान-पड़ी आवाज नहीं सुनाई देती। जिधर देखो, चिल्ल-पों, जूती-पैजार! मगर सब के सब हिल-हिल कर बड़बड़ाते जाते हैं। किताब तो दो ही चार पढ़ रहे हैं; मगर वाही-तबाही, अनाप-शनाप बहुतों की जबान पर है।
एक – आज शाम को मैं बाने की कनकइया जरूर लड़ाऊँगा।
दूसरा – आगा तकी के बाग में कौवा हलाल है।
तीसरा – अरे माली, तुझे गुलबूटे की पहचान रहे।
चौथा – मौलवी साहब, गो पीर हुए, नादान रहे।
पाँचवाँ – पढ़ोगे-लिखोगे, तो होगे खराब,
खेलोगे-कूदोगे, होगे नवाब।
मगर सबकी आवाजें ऐसी मिल-जुल गई हैं कि खाक समझ में नहीं आता, क्या खुराफात बकते हैं। लौंडे तो जदल-काफिया उड़ा रहे हैं, उधर मौलवी साहब मजे से ऊँघते हैं। जब नींद खुली, तो एक लड़के को बुलाया – आओ, किताब लाओ, सबक पढ़ लो। वह सिर खुजलाता हुआ मौलवी साहब के करीब जा बैठा, और सबक शुरू हुआ, मगर न तो लड़के ने कुछ समझा कि मैंने क्या पढ़ा और न मौलवी साहब को मालूम हुआ कि मैंने क्या पढ़ाया। दोपहर के वक्त लड़के तख्ती ले कर बैठे, कोई गेंदे की पत्ती तख्ती पर मलता है, कोई कौड़ी से तख्ती को चिकनाता है। आध घंटे तक यही हुआ किया। फिर लड़के लिखने बैठे, मौलवी साहब कोठरी से मक्खियों को निकाल और दरवाजा बंद करके सो रहे। यहाँ खूब लप्पा-डुग्गी हुई। दो घंटे के बाद मौलवी साहब चौंके। कोठरी खोलते हैं, तो यहाँ दो लड़कों में चट-पट हो रही है, दोनों गुँथे पड़े हैं। निकलते ही एक के तमाचे लगाने शुरू किए। जो अमीर का लड़का था और मौलवी साहब की त्यवहारी और जुमेराती खूब दिया करता था, उससे तो न बोले, बेचारे गरीब पर खूब हाथ साफ किया। आजाद ने दिल में कहा –
गर हमीं मकतब अस्त वई मुल्ला,
कारे तिकलाँ तमाम ख्वाहद शुद।
(अगर यही मकतब है और यही मौलवी, तो लड़के पढ़ चुके।)
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