अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 8– (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
एक दिन मियाँ आजाद सराय में बैठे सोच रहे थे, किधर जाऊँ कि एक बूढ़े मियाँ लठिया टेकते आ खड़े हुए और बोले – मियाँ, जरी यह खत तो पढ़ लीजिए, और इसका जवाब भी लिख दीजिए। आजाद ने खत लिखा और पढ़ कर सुनाने लगे –
मेरे खूसट शौहर, खुदा तुमसे समझे!
आजाद – वाह! यह तो निराला खत है। न सलाम, न बंदगी। शुरू ही से कोसना शुरू किया।
बूढ़े – जनाब, आप खत पढ़ते हैं कि मेरे घर का कजिया चुकाते हैं? पराये झगड़े से आपका वास्ता? जब मियाँ-बीबी राजी है, तब आप कोई काजी हैं!
आजाद – अच्छा, तो यह कहिए कि आपकी बीवी-जान का खत है। लीजिए, सुनाए देता हूँ –
‘मेरे खूसट शौहर, खुदा तुमसे समझो! सिकंदर पाताल से प्यासा आया; मगर तुमने अमृत की दो-चार बूँदे जरूर पी ली हैं, जभी मरने का नाम नहीं लेते। कुछ ऊपर सौ बरस के हो हुए, अब आखिर क्या आकबत के बोरिए बटोरोगे? जरा दिल में शरमाओ, हजारों नौजवान उठते जाते हैं, और तुम टैयाँ से मौजूद हो। डंकू फीवर भी आया, मगर तुम मूँछों पर ताव ही देते रहे। हैजे ने लाखों आदमी चट किए, मगर आप तो हैजे को भी चट कर जायँ और डकार तक न लें। बुखार में हजारों हयादार चल बसे, मगर तुम और भी मोटे हो गए। तुम्हें लकवा भी नहीं मारता, लू के झोंके भी तुम्हें नहीं झुलसाते, दरिया में भी तुम नहीं फिसल जाते, और सौ बात की एक बात यह है कि अगर हयादार होते, तो एक चिल्लू काफी था; मगर तुम वह चिकने घड़े हो कि तुम पर चाहे हजारों ही घड़ें पड़ें; लेकिन एक बूँद न थम सके। वाह पट्ठे, क्यों न हो! किस बुरी साइत में तुम्हारे पाले पड़ी। किस बुरी घड़ी में तुम्हारे साथ ब्याह हुआ। माँ-बाप को क्या कहूँ, मगर मेरी गदरन तो कुंद छुरी से रेत डाली। इससे तो किसी कुएँ ही में ढकेल देते, कसाई के हवाले कर देते, तो यह रोज-रोज का कुढ़ना तो न होता। तुम खुद ही इंसाफ करो। तुम्हारे बुढ़भस से मुझ पर क्या गाज पड़ी। हाथ तो आपके काँपते हैं, पाँव में सकत नहीं, मुँह में दाँत न पेट में आँत, कमर कमान की तरह झुकी हुई, आँखों की यह कैफियत कि दिन को ऊँट नहीं सूझता। लाठी टेक कर दस कदम चले भी तो साँस फूल गई, दम टूट गया। सुस्ताने बैठे, तो उठने का नाम नहीं लेते। सुबह को नन्हीं-नन्हीं दो चपातियाँ खा लीं, तो शाम तक खट्टी डकारें आ रही हैं, तोला भर सिकंजवीन का सत्यानाश किया; मगर हाजमा ठीक न हुआ! हाफिजे का यह हाल कि अपने बाप का भी नाम याद नहीं। फिर सोचो तो कि ब्याह करने का शौक क्यों चर्राया। एक पाँव तो कब्र में लटकाया है और खयाल यह गुदगुदाया है कि दूल्हा बनें, दुलहिन लाएँ। खुदा-कसम, जिस वक्त तुम्हारा पोपला मुँह, सफेद भौंह, गालों की झुर्रियाँ, दोहरी कमर, गंजी चाँद और मनहूस सूरत याद आती हे, तो खाना हराम हो जाता है। वाह बड़े मियाँ, वाह! खुदा झूठ न बुलाए, तो हमारे अब्बाजान से पचास-साठ बरस बड़े होंगे, और अम्माजान को तुमने गोद में खिलाया हो तो ताज्जुब नहीं। खुदा गवाह है, तुम मेरे दादा के बाप से भी बड़े हो, मगर वाह री किस्मत, कि आप मेरे शौहर हुए! जमीन फट जाय, तो मैं धँस जाऊँ।
– तुम्हारी जवान बीबी
आजाद – जनाब, इसका जवाब किसी बड़े मुंशी से दिलवाइए।
बूढ़ा – बुढ़ापे में अब कभी शादी न करेंगे।
आजाद – वाह, क्या अभी शादी करने की हवस बाकी है? अभी पेट नहीं भरा!
बूढ़ा – अब इसका ऐसा जवाब लिखिए कि दाँत खट्टे हो जायँ।
आजाद – आप औरत के मुँह नाहक लगते हैं।
बूढ़ा – जनाब, उसने तो मेरी नाक में दम कर दिया, और सच पूछो, तो जिस दिन उसको ब्याह लाए, नाक ही कट गई। ऐसी चंचल औरत देखी न सुनी। मजाल क्या कि नाक पर मक्खी बैठ जाय।
आखिर, आजाद ने पत्र का जवाब लिखा –
‘मेरी अलबेली, छैल-छबीली, नादान बीवी को उसके बूढ़े शौहर की उठती जवानी देखनी नसीब हो। वह जुग-जुग जिए और तुम पूतों फलो, दूधों नहाओ, अठारह लड़के हों और अठारह दूनी छत्तीस छोकरियाँ। जब मैं दालान में कदम रखूँ, तो सब बच्चे, ‘अब्बा आए अब्बा आए, खिलौने लाए, पटाखा लाए’ कह कर दौड़ें। मगर डर यह है कि तुम भी अभी कमसिन हो, उनकी देखा-देखी कहीं मुझे अब्बा न कह उठना कि पास-पड़ोस की औरतें मुझे उँगलियों पर नचाएँ। मुझे तुमसे इतनी ही मुहब्बत है, जितनी किसी को अपनी बेटी से होती है। अपनी नानी को मैं ऐसा प्यारा न था, जितनी तुम मुझे प्यारी हो। और क्यों न हो, तुम्हारी परदादी को मैंने गोदियों में खिलाया है और मेरी बहन ने उसे दूध पिलाया है। मुझे तुम्हारी दादी का गुड़िया खेलना इस तरह याद है, जैसे किसी को सुबह का खाना याद हो। तुम्हारे खत ने मेरे दिल के साथ वह किया, जो बिजली खलिहान के साथ करती हे, लेकिन मुझमें एक बड़ी सिफत यह है कि परले सिरे का बेहया हूँ। और क्यों न हो, शर्म औरतों को चाहिए, मैं तो चिकना घड़ा हूँ। माना कि आँखों में नूर नहीं, मगर निगाह बड़ी बारीक रखता हूँ, बहरा सही, लेकिन मतलब की बात खूब सुनता हूँ, बुड्ढा हूँ, कमजोर हूँ, मगर तुम्हारी मुहब्बत का दम भरता हूँ। तुम्हारा प्यारा-प्यारा मुखड़ा, रसीली अँखियाँ, गोरी-गोरी बहियाँ जिस वक्त याद आती हें, कलेजे पर साँप लोटने लगता है। तुम्हारा चाँदनी रात में निखर कर निकलना, कभी मुसकिराना, कभी खिल-खिलाना-कितना शरमाना? कैसा लजाना? और तो और, तुम्हारी फुर्ती से दिल लोटपोट है, कलेजे पर चोट है। तुम्हारा फिरकी की तरह चारों ओर घूमना, मोरों की तरह झूमना, कभी खेलते-खेलते मेरी चपतगाह पर टीप जमाई, कभी शोखी से वह डाँट बताई कि कलेजा काँप उठा, कभी आप ही आप रोना, कभी दिन-दिन भर सोना, अल्हड़पन के दिन, बारह बरस का सिन, बीवीजान, तुम पर कुरबान, ले कहा मानो, हमें गनीमत जानो। मैं सुबह का चिराग हूँ, हवा चले या न चले, अब गुल हुआ, अब गुल हुआ। डूबता हुआ आफताब हूँ, अब डूबा, अब डूबा। मुझे सताना, मुए पर सौ दुर्रे! तुम खूब जानती हो कि मेरी बातें कितनी मीठी होती हैं। सत्तर बरस हो गए कि दाँत चूहे ले गए, तब से हलुए पर बसर है, फिर जो रोज हलुआ खायगा, उसकी बातें मीठी क्यों न होंगी। तुम लाख रूठो, फिर भी हमारी हो, बीवी हो, वह शुभ घड़ी याद करो; जब हम दूल्हा बने, पुराने सिर पर नई पगड़ी जमाए, सेहरा लटकाए, मेहँदी लगाए, मुर्गी के बराबर घोड़िया पर सवार, ‘मीठी पोई’ जाते थे, और तुम दुलहिन बनी, सोलह सिंगार किए पालकी में झाँक रही थीं। हमारे गालों की झुरियाँ, हमारा पोपला मुँह, हमारी टेढ़ी कमर देख कर खुश तो न हुई होगी? और क्या लिखूँ, एक नसीहत याद रखो, एक तो मेले-ठेले न जाना, दूसरे आस-पास की छोकरियों को गुइयाँ न बनाना। खुदा करे, जब तक जमीन और आसमान कायम है, तुम जवान रहो, और नादान रहो; हमारे सफेद बाल तुम्हें भाएँ, हासिद खार खाएँ।
– तुम्हारा बूढ़ा शौहर’
बूढ़ा – माशा-अल्लाह! आपने खूब लिखा, मगर इस खत को ले कौन जाय? अगर डाक से भेजता हूँ, तो गुम होने का डर, उस पर तीन दिन की देर। अगर आप इतना एहसान करें कि इसे वहाँ पहुँचा भी दें, तो क्या पूछना।
आजाद सैलानी तो थे ही, समझे, क्या हर्ज है, साँड़नी मौजूद है, चलूँ, इसी बहाने जरा दिल्लगी देख आऊँ। कुछ बहुत दूर भी नहीं, साँड़नी पर मुश्किल से दो घंटे की राह है। बोले – आप बुजुर्ग आदमी हैं। आपका हुक्म बजा लाना मेरा फर्ज है, लीजिए जाता हूँ।
यह कह कर साँड़नी पर बैठे और छुन-छुन करते जा पहुँचे। दरवाजे पर आवाज दी, तो एक कहारिन ने बाहर निकल कर पूछा – मियाँ कौन हो, कहाँ से आना हुआ किसकी तलाश है?
आजाद – बी महरी साहबा, सलाम। हम मुसाफिर परदेशी हैं।
कहारिन – वाह! अच्छे आए मियाँ, यह क्या कुछ सराय है?
आजाद – खुदा के लिए बेगम साहबा से कह दो कि बड़े मियाँ ने एक खत भेजा है।
महरी ने एक चौकड़ी भरी, तो घर के अंदर थी। जा कर बोली – बीबी, मियाँ के पास से एक साहब आए हैं, खत लाए हैं।
वह चौंक उठी – चल झूठी, किसी और को जा कर उड़ाना, यहाँ कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। मियाँ किसी कब्रस्तान में मीठी नींद सो रहे होंगे कि खत भेजेंगे?
महरी – जरी, झरोखे से झाँकिए तो; वह क्या सामने खड़े हैं।
बेगम साहबा झरोखो की तरफ चलीं, तो अपनी बूढ़ी अम्माँ को आईना सामने रखे, बाल सँवारते देखा। छेड़ कर बोलीं – ऐ अम्माँ, आज तो वेतौर चोटी-कंघी की फिक्र है। कोई घूरे; तो इनसान निखार करे। कोई मरे, तो आदमी शिकार करे। तुम दो ऊपर अस्सी बरस की हुई, मगर जवानी की हवस न गई। खुदा ही खैर करे।
अम्माँ – मुझ नसीबों-जली की किस्मत में यही बदा था कि बेटी की जबान से ऐसी-ऐसी बातें सुनूँ। कोई और कहती, तो उसकी जबान निकाल लेती; लेकिन तुम तो मेरी आँखों की पुतली हो। हाय! ममता बुरी चीज है! बेटा, तुम ये बातें क्या जानो, अभी जवान हो, नादान हो, बनावट-सजावट तो मेरी घूँटी में पड़ी थी, और मैं न बनती-ठनती, तो तुम्हारी आँखों को तिरछी चितपन कौन सिखाता? बाहर जाओ, तुम्हारे मियाँ का आदमी आया है।
बीबी ने झरोखे से जो देखा, एक आदमी सचमुच खड़ा है और है भी अलबेला, छैला, जवान, तो तुरंत महरी को भेजा कि जा कर उन्हें बैठने के लिए कुर्सी निकाल दे। आजाद तो कुर्सी पर बैठे और चिक के उधर आप जा बैठीं। आजाद की उन पर निगाह पड़ी, तो तीर सा लग गया। कमर ऐसी पतली कि साये के बोझ से बल खाए, मुखड़ा बिन घने चाँद को लजाए, उस पर सियाह रेशमी लिबास और हिना की बू-बास। जोबन फटा पड़ता था, निगाह फिसली जाती थी।
महरी ने आजाद से पूछा – बड़े मियाँ तो आराम से हैं?
आजाद – हाँ, मैं उनका खत लाया हूँ। अपनी बेगम साहबा से मेरा सलाम कहो और यह खत उनको दो।
महरी – बेगम साहबा कहती हैं, आप खत लाए हैं, तो पढ़ कर सुना भी दीजिए।
आजाद ने खत पढ़कर सुनाया, तो उस नाजनीन का चेहरा मारे गुस्से के सुर्ख हो गया। बिना कुछ कहे-सुने समझ कर वहाँ से उठीं और अपनी माँ के पास आ कर खड़ी हो गईं। अम्माँजान इस वक्त चाँदनी की बहार देखने में मसरूफ थीं। बोलीं – बेटी, देख तो क्या नूर की चाँदनी छिटकी हुई है, चाँद इस वक्त दुलहिन बना हुआ है!
बेटी – अम्मीजान, तुम्हारी भी अनोखी बातें हैं। सरदी की चाँदनी, जैसे बूढ़े की नसीबों-जली बीवी की जवानी। आज तो आसमान यौं ही झक-झक कर रहा है, आज निकला तो क्या, जब जानें कि अँधेरे-धुप में शक्ल दिखाए। बुढ़िया ताड़ गई। बोली – बेटी, जरा सब्र करो, अपनी जवानी की कसम, बुड्ढा तो कब्र में पाँव लटकाए बैठा है, आज मुआ, कल दूसरा दिन, फिर हम तुमको किसी अच्छे घर ब्याहेंगे। अबकी खुदाई भर की खाक छान कर वह ढूँढ़ निकालूँ, जो लाखों में एक हो। सुबह-शाम खबर आना ही चाहती है कि बुड्ढा चल बसा।
यह सुन कर बेटी खिलखिला कर हँस पड़ी। बोली – अम्माँ, जब तुम अपनी जवानी की कसम खाती हो, तो मुझे बेअख्तियार हँसी आती है। तुम तो अपने को बिलकुल नन्हीं सी समझती हो। करोड़ों तो आपके गालों पर झुर्रियाँ, बगुले के पर का सा सफेद जूड़ा, सिर घड़ी का खटका बना हुआ, कमर टेढ़ी, मगर मेहँदी का लगाना न छूटा, न छूटा। रंगीन दुपट्टा ही उम्र भर ओढ़ा, जब देखा, कंघी-चोटी से लैस। खुदा-कसम, ऐसी अनगढ़ बूढ़ी देखी न सुनी।
बुढ़िया ने टुइयाँ तोते की तरह पोपले मुँह से कहा – प्यारी, तुम्हारी बातों से मुझे हौल होता है, अल्लाह मेरी बच्ची पर रहम खाए, बूढ़े के मरने की खबर सुनाए।
महरी – बड़ी बेगम, आपके नमक की कसम, साहबजादी को दिलोजान से आपसे प्यार है; मगर भोली नादान हैं, जो अनाप-शनाप मुँह में आया, कह सुनाया। अल्हड़पने के तो इनके दिन ही हैं, जुमा-जुमा आठ दिन की पैदायस, नेक-बद, ऊँच-नीच क्या जानें। जब सयानी होंगी, तो शहूर आपी-आप सीख जायँगी। बुढ़िया ने एक ठंडी साँस भरके कहा – जो मुझे इनकी बातों से रंज हुआ हो, तो खुदा मुझे जन्नत न दे। मगर करूँ क्या, बुरा तो यह मालूम होता है कि मुझको यह आए-दिन ताने देती है कि तुम बुढ़िया हो, बुढ़ापे में निखरती क्यों हो? मैं किससे कहूँ कि इसके गम ने मेरी कमर तोड़ डाली, इसको कुढ़ते देख कर घुली जाती हूँ, नहीं, अभी मेरा सिन ही क्या है! अच्छा, तू ही ईमान से कह, कोई और भी मुझे बूढ़ी कहता है?
महरी दिल में तो हँसती थी कि इन्हें जवान बनने का शौक चर्राया है, हौवा के साथ खेली होंगी, मगर अभी नन्हीं ही बनी जाती हैं; लेकिन छटी हुई औरत थी, बात बना कर बोली – ऐ तोबा, बुढ़ापे की आप में तो छाँह भी नहीं, मेरा अल्लाह जानता है, अब आप और बिटिया को कोई साथ देख लेता है, तो पहले आप पर नजर पड़ती है, पीछे इन पर। बल्कि, एक मुई दिलजली ने परसों चुटकी ली थी कि ‘छोटी बी तो छोटी बी; बड़ी बी सुभान अल्लाह।’ लड़की तो खैर, इसकी माँ ने तो खूब काठी पाई है। आपका चेहरा कुंदन की तरह दमकता है, जो देखता है, तरसता है।
बुढ़िया तो खिल गई लेकिन बेटी जल उठी। कड़क कर बोली – चल, चुप खुशामदिन! अल्लाह करे, तेरा मियाँ भी मेरे मियाँ का सा बुड्ढा हो जाय। और तुम खुशामद न करो, तो खाओ क्या? अम्माँ पर लोगों की नजर पड़ती है! झूठे पर शैतान की फटकार! बूढ़ी औरत, कुछ ऊपर सौ बरस का सिन, लठिया टेक कर दस कदम चलती हैं, तो घंटों हाँफा करती हैं। दिन को ऊँट और सारस नहीं सूझता, इनके बूढ़े नखरे देख कर हमको हँसी आती है। जी जलता है कि यह किस बिरते पर इतराती हैं, मुँह में दाँत न पेट में आँतें; भला कमर तो मेरे सबब से झुक गई, और दाँत क्या हुए?
आखिर, महरी ने उसे समझा-बुझा कर बात टाल दी, और बोली – वह मियाँ बाहर बैठे हैं, उनके लिए आप क्या कहती हैं? उसने महरी की बात का कुछ जवाब न दिया। वहाँ से उठ कर बगीचे में आई और इठला-इठला कर टहलने लगी। बाल बिखरे हुए, यही मालूम होता था कि साँप लहरा रहा है। कमर लाखों बल खा रही हैं। मियाँ आजाद ने चिक की दराजों से जो उसे बेनकाब देखा, तो सन से जान निकल गई! कलेजे पर साँप लोटने लगा। संयोग से उस रमणी ने कहीं इनको देख लिया कि आँखें सेक रहे हैं और दूर ही से जोबन लूट रहे हैं, तो बदन को छिपाए, आँख चुराए, बिजली की तरह लौंक कर नजर से गायब हो गईं। आजाद हैरान कि अब क्या करूँ। आखिर, दिल की बेकरारी ने ऐसा मजबूर किया कि आठ-आठ आँसू रो कर यह गजल गाने लगे –
क्या जानिए कि वस्ल में क्या बात हो गई;
आँखें नहीं मिलाते हैं शरमाए जाते हैं।
दिल मेरा लेके क्या कहीं भूल आए हैं हुजूर?
खोए हुए से आप जो कुछ पाए जाते हैं।
काले डसें जो जुल्फ तुम्हारी कमी छुएँ!
लो, अब तुम्हारे सिर की कसम खाए जाते हैं।
तमकनत को न काम फरमाओ;
एक नजर मुड़के देखती जाओ।
आशिकों से न इस कदर शरमा;
एक निगह के लिए न आँख चुरा।
जाने-जाँ, कुछ तरस न खाओगी?
यों तड़पता ही छोड़ जाओगी?
वह इन-ऐसों की कब सुननेवाली थी, मुड़ कर देखना गाली थी। आजाद ने जब देखा कि यहाँ दाल गलने की नहीं, कोई यों टहलते हुए देख ले, तो लेने के देने पड़ें, तो बेचारे रोते हुए घर आए।
उधर उस नाजनीं ने जवानी की उमंग में यह ठुमरी भैरवी की धुन में लहरा-लहरा कर गाई –
पिया के आवन की भई बिरियाँ, दरवजवा ठाढ़ी रहूँ;
मोरे पिया को बेगि ले आओ री, निकसत जियरा जाय;
पिया दरवजवा ठाढ़ी रहूँ!
इसके जवाब में उनकी अम्माँजान टीपदार आवाज में कहती हैं –
जोबनवाँ हो, चार दिना दीन्हों साथ।
जोबन रितु जात सभी मुख मोरत, ‘कदर’न पूछे बात रे।
जोबनवाँ हो, चार दिना दीन्हों साथ।
मियाँ आजाद ने चलते-चलते बाहर से यह तान लगाई –
तेरे नैनों ने मुझे मारा, रसीली मतवारियों ने जादू डारा।
महरी ने देखा कि सबने अपने-अपने हाल के मुताबिक हाँक लगाई। एक मैं ही फिसड्डी रह गई, तो वह भी कफन फाड़कर चीख उठी –
जाओ-जाओ, काहे ठाढ़े डारे गल-बाहीं रे?
घेरे रहत नित नेरे जैसे छाई रे।
जानत हूँ जो हमसे चहत हो
नाहक इतनी बिनती करत हो,
‘कदर’ करत हो अरे नाहीं-नाहीं रे।
जाओ चलो, काहे ठाढ़े डारे गल-बाहीं रे!
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