अनुवाद – आजाद-कथा – भाग 9– (लेखक – रतननाथ सरशार, अनुवादक – प्रेमचंद)
आजाद को नवाब साहब के दरबार से चले महीनों गुजर गए, यहाँ तक कि मुहर्रम आ गया। घर से निकले, तो देखते क्या हैं, घर-घर कुहराम मचा हुआ है, सारा शहर हुसेन का मातम मना रहा है। जिधर देखिए, तमाशाइयों की भीड़, मजलिसों की धूम, ताजिया-खानों में चहल-पहल और इमामबाड़ों में भीड़-भाड़ है। लखनऊ की मजलिसों का क्या कहना! यहाँ के मर्सिये पढ़नेवाले रूम और शाम तक मशहूर हैं। हुसेनाबाद का इमामबाड़ा चौदहवीं रात का चाँद बना हुआ था। उनके साथ एक दोस्त भी हो लिए थे। उनकी बेकरारी का हाल न पूछिए। वह लखनऊ से वाकिफ न थे, लोटे जाते थे कि हमें लखनऊ का मुहर्रम दिखा दो; मगर कोई जगह छूटने न पाए। एक आदमी ने ठंडी साँस खींच कर कहा – मियाँ; अब वह लखनऊ कहाँ? वे लोग कहाँ? वे दिन कहाँ? लखनऊ का मुहर्रम रंगीले पिया जान आलम के वक्त में अलबत्ता देखने काबिल था। जब देखो, बाँकों की तलवार मियान से दो उंगल बाहर। किसी ने जरा तींखी चितवन की, और उन्होंने खट से सिरोही का तुला हुआ हाथ छोड़ा, भंडारा खुल गया। एक-एक घंटे में बीस-बीस वारदातों की खबर आती थी, दुकानदार जूतियाँ छोड़-छोड़ कर सटक जाते थे। वह धक्कमधक्का, वह भीड़-भड़ाका होता था कि वाह जी वाह! इंतजाम करना खालाजी का घर न था। अब कोई चूँ भी नहीं करता, तब छोटे-छोटे आदमी हजारों लुटाते थे, अब कोई पैसा भी खर्च नहीं करता। अब न अनीस हैं, न दबीर, न जमीर हैं, न दिलगीर।
अफसोस जहाँ से दोस्त क्या-क्या न गए;
इस बाग से क्या-क्या गुलेराना न गए।
था कौन सा बाग, जिसने देखी न खिजाँ,
वो कौन से गुल खिले जो मुरझा न गए।
दबीर का क्या कहना था, एक बंद पढ़ा और सुननेवाले लोट गए। अनीस को खुदा बख्शे, क्या कलाम था, गोया जवाहिरात के टुकड़े हैं। लेकिन हाथी लुटेगा भी, तो कहाँ तक! अब भी इस शहर की ऐसी ताजियादारी दुनियाँ भर में कहीं नहीं होती।
आजाद और उसके दोस्त चले जाते थे। राह में वह भीड़ थी कि कंधे से कंधा छिलता था। हवा भी मुश्किल से जगह पाती थी। गरीब-अमीर, बूढ़े-जवान उमड़े चले आते हैं। जिधर देखो, निराली ही सज-धज। कोई हुसेन के मातम में नंगे ही सिर चला जाता है, कोई हरा-हरा जोड़ा फड़काता है। हसीनों की मातमी पोशाक, बिखरे हुए बाल, कभी लजाना, कभी मुसकिराना। शोहदों का सौ-सौ चकफेरियाँ लगाना तमाशाइयों की बातें, दिहातिनें बेंदी लगाए, फरिया फड़काय, गोंद से पटिया जमाए बातें कर रही हैं। लीजिए, आगा बाकर के इमामबाड़े में खट से दाखिल। वाह मियाँ बाकर, क्यों न हो, नाम कर गए। चकाचौंध का आलम है। लेकिन गली तंग, तमाशाइयों की अक्ल दंग। मगर लोग घुस-पैठ कर देख ही आते हैं। नाक टूटे या सिर फूटे, आगा बाकर का इमामबाड़ा जरूर देखेंगे।
दोनों आदमी वहाँ से आगे बढ़े, तो कच्चे पुल पहुँचे। देखते क्या हैं, एक बाबा आदम के जमाने के बूढ़े अगले वक्तों के लोगों को रो रहे हैं। वाह-वाह! लखनऊ के कुम्हार, क्या कमाल है। बुड्ढा ऐसा बनाया कि मालूम होता है, पोपले मुँह से अब बोला, और अब बोला। वही सन के से बाल, वही सफेद भौंहें, वही चितवन, वही माथे की शिकन, वही हाथों की झुर्रियाँ, वही टेढ़ी कमर, वही झुका हुआ सीना। वाह रे कारीगर, तू भी अपने फन में यकता है। वहाँ से जो चले, तो दरोगा वाजिदअली के इमामबाड़े में आए। यहाँ सूरजमुखी पर वह जोबन था कि आफताब अगर एक नजर छिप कर देख पाता, तो शर्म के मारे मुँह छिपा लेता। बेधड़क जा कर कुर्सियों पर बैठ गए। इलायची, चिकनी डली पेश की गई। वहाँ से हुसेनाबाद पहुँचे। सुभान-अल्लाह! यह इमामबाड़ा है या जन्नत का मकान! क्या सजावट थी; बुर्जों पर कंदीलें रोशन थीं, मीनारों पर शमा जलती हुई चिरागों की कतार हवा के झोंकों से लहरा-लहरा कर अजब समाँ दिखाती थी। नजर जो देखी, तो आँखें ठंडी हो गईं।
अब इनके दोस्त को शौक चर्राया कि तवायफों के इमामबाड़ों की जियारत करें। पहले मियाँ आजाद झिझके और बोले – बंदा ऐसी जगह नहीं जाने का, अपनी शान के खिलाफ हैं। दोस्त ने कहा – भाई, तुम बड़े रूखे-फीके आदमी हो। हैदर, मुश्तरी, गौहर और आबादी के मर्सिये न सुने, तो किसी से क्या कहेंगे कि लखनऊ का मुहर्रम देखा। आजकल वहाँ जाना हलाल है! इन दस दिनों में मजे से जहाँ चाहे जाइए, रंगीन कमरों में दो गाल हँस-बोल आइए, कोई कुछ नहीं कह सकता।
आजाद – यह कहिए तो खैर, बंदा भी लहू लगा कर शहीदों में दाखिल हो जाय। पहले गौहर के यहाँ पहुँचे। अच्छे-अच्छे रईस-जादे बैठे हुए हैं। एक बड़े मालदार जौहरी साहब मटकते हुए आए। दस रुपए की कारचोबी टापी सिर पर, प्याजी अतलस की भड़कीली अचकन पहने हुए। खिदमतगार के कंधे पर कीमती दुशाला। यह ठाट-बाट, मगर बैठते ही टोके गए। बैठे तो जरीह (ताजिया) की तरफ पीठ करके! गौहर ने एक अजीब अदा से झिड़क दिया – ऐ वाह, बड़े तमीजदार हो। जरीह की तरफ पीठ कर ली। सीधे बैठो, आदमियत के साथ!
मियाँ आजाद ने चुपके से दोस्त के कान में कहा – मियाँ, इस टीम-टाम से तो आए, मगर घुड़की खा कर मिनके तक नहीं।
दोस्त – भाईजान, गौहर लखनऊ की जान है, लखनऊ की शान है। ऐसा खुशनसीब कोई हो तो ले कि इसकी घुड़कियाँ सहे।
लोग अदब से गदरन झुकाए बैठे कनखियों से आँखों को सेक रहे थे, लेकिन किसी के मुँह से बात न निकलती थी। यहाँ से उठे, तो फिरंगी-महल में हैदरजान के यहाँ पहुँचे। वहाँ मर्सिया हो रहा था –
निकले खेमे से जो हथियार लगाए अब्बास,
चढ़ के रहबार पर मैदान में आए अब्बास।
इस शेर को ऐसी प्यारी आवाज से अदा किया कि सुननेवाले लोटन कबूतर हुए जाते थे। राग और रागिनी तो उसकी लौंडियाँ थीं। सबके सब सिर धुनते थे, क्या प्यारा गला पाया है! मियाँ आजाद की बाँछें खिली जाती थीं और गरदन तो घड़ी का खटका हो गई थी!
यहाँ से उठे, तो मुश्तरी के कमरे में पहुँचे। देखने वालों का वह हुजूम था कि तिल रखने की जगह नहीं।
‘खंजर जो बेसा गाहे पयंबरा पै चल गया’ इसको झँझौटी की धुन में इस लुत्फ से पढ़ा कि लोग फड़क उठे।
दोस्त – क्यों यार, क्या लखनऊ में जेवर पहनने की कसम है?
आजाद – भाई, तुम बिलकुल ही गँवार हो। मातम में जेवर का क्या जिक्र है? गोरे-गोरे कानों में काले-काले करनफूल, हाथों में सियाह चूडियाँ, बस यही काफी है। लेकिन यह सादगी भी अजीब लुत्फ दिखाती है।
यहाँ से उठ कर दोनों आदमी मातम की मजलिसों में पहुँचे। जिधर जाते हैं, रोने-पीटने की आवाज आती है; जिसे देखिए, आँखों से आँसू बहा रहा है। सारी रात मजलिसों में घूमते रहे, सुबह अपने घर पहुँचे।
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