आत्मकथा – जीवन-संक्षेप – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
सन् 1921 ई. में जेल से आने के बाद नितान्त ग़रीबी में, ग़रीब रेट पर, ‘आज’ में मैं सन् 1924 के मध्य तक राष्ट्रीय आन्दोलन के पक्ष में प्रचारात्मक कहानियाँ, कविताएँ, गद्य-काव्य, एकांकी, व्यंग्य और विनोद बराबर लिखता रहा। सन् ’23 में ‘महात्मा ईसा’ नाटक लिखा, ‘भूत’ नामक हास्य-पत्र मेरे सम्पादन में चालू हुआ। मेरी समाज-सुधारक कहानियों पर काशी के कुछ गुण्डानुमा पंडे सख्त नाराज़ हुए, हाथ-पाँव तोड़ देने की धमकियाँ मिलने लगीं। बीच-बचाव कर रक्षा की श्री शिवप्रसाद मिश्र ‘रुद्र’ के पिता श्री महावीरप्रसाद मिश्र ने जो काशी के विख्यात डण्डेबाज़ दलपति तो थे ही, साथ ही, उत्तम साहित्यिक रुचि के पुरुष भी थे। ‘रुद्र’ जी के पिताश्री मेरा बहुत ही आदर करते थे और जब-जब मैं उनके यहाँ जाता और अक्सर जाता तब-तब चकाचक जलपान वह कराते, साथ ही, चलते समय रुपया-दो रुपया पान खाने को भी देते थे। शिवप्रसाद का यह ‘रुद्र’ नाम मेरे ही संकेत का परिणाम है। सन् ’24 के मध्य तक मैं हिन्दी में काफी चमकीला बन चुका था, लेकिन जीवन-यापन-भर रुपये काशी में कमाना असम्भव था। इस सन् में मैं काकनाडा कांग्रेस में भी शामिल हुआ था। वहाँ से कलकत्ता लौटने पर एक मित्र के साथ ‘मतवाला-मण्डल’ देखने गया। ‘मतवाला’ में मेरी भी कई रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी थीं। सन् ’24 ही में ‘मतवाला’-मण्डल में ही पहले-पहल (आचार्य) शिवपूजन (सहाय) और ‘निराला’ जी से मेरा आकर्षक परिचय हुआ था। सन् ’24 के आरम्भ में गोरखपुर के विख्यात साप्ताहिक ‘स्वदेश’ के दशहरा अंक का सम्पादन भी मैंने किया था, परम भयानक। पत्र छपा था प्रेमचन्दजी के सरस्वती प्रेस में। सारा अंक विस्फोटक आग्नेय मन्त्रों से भरा था। जैसे अनूप शर्मा की यह घनाक्षरी—
क्रान्ति की उषा से होगा रक्त भारतीय-व्योग
ताप-भरा तेह का तरणि तमकेहीगा।
भारो राजनीति के उदधि के उभारिवेको
चारु कालचक्र चन्द्रमा-सा चमकेहीगा।
वैरियों का दमन शमन होगा शक्ति ही से
युद्ध घोषणा को कोई धर धमकेहीगा।
कायरो! क्यों लेते हो कलंक को अकारथ ही
भारत के भाग्य का सितारा चमकेहीगा।
उतावले ‘उग्र’ द्वारा सम्पादित ‘स्वदेश’ में सन् ’24 में प्रचण्ड ब्रिटेन के विरुद्ध कहा गया कि ‘युद्ध-घोषणा कोई कर धमकेहीगा।’ राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसके दो वर्ष बाद सन् 1926 ई. ही में लाहौर में, पूर्ण स्वतन्त्रता का प्रस्ताव पास किया था। ‘स्वदेश’ के उस अंक को लेकर गोरी गवर्नमेंट में तहलका मचा, गवर्नर-इन-कौंसिल ने केस चलाने का निश्चय किया। प्रेमचन्द के भाई महताबराय पकड़े गए, सरस्वती प्रेस के प्रिण्टर। दशरथप्रसाद द्विवेदी गिरफ़्तार हुए ‘स्वदेश’ के संचालक, स्वदेश प्रेस रौंद डाला गया। लेकिन बन्देखाँ तब तक ‘मतवाला’— मण्डल में कलकत्ता थे। गोरखपुर का वारण्ट जब कलकत्ता आया, मैं बम्बई भाग गया। कलकत्ता पहली बार मैं घर से भागकर आया था। बम्बई पहली बार कलकत्ता से भागकर पहुँचा। और एक संगी के संग साइलेन्ट फिल्म कंपनी में काम करने लगा। पीछे वारण्ट था दफ़ा 124-ए बादशाह के विरुद्ध राजद्रोह (डिस अफ़ेक्शन) फैलाने के जुर्म का, लेकिन सामने थी बम्बई, फ़िल्म-कम्पनी, शराब, कबाब और जनाब क्या बतलाऊँ। मैं भूल ही गया जवानी के जोश में कि प्राणों के पीछे वारण्ट था जिसमें फँसने पर बड़ी-से-बड़ी सज़ा भी सहज ही मिल सकती थी। पाँचवे महीने पुलिस सी.आई.डी. ने मालाबार हिल पर मुझे गिरफ़्तार किया। तब गृहस्थ बनी हुई एक वेश्या मुझ पर आसक्त थी और एक अर्धवेश्या परसीक परम सुन्दरी पर मैं स्वयं बुरी तरह मोहित था। पाँव में बेड़ी, हाथ में हथकड़ी, भुजा पर सूती रस्सा बँधवाए तीन-तीन सशस्त्र पुलिसवालों के साथ मैं बम्बई से गोरखपुर भेजा गया। तीन महीने तक केस चलने के बाद मुझे नौ महीने की सख़्त सज़ा मिली। ‘स्वदेश’ संचालक को उसी केस में 27 महीने की सख़्त सज़ा मिली थी। सारी ग़लती मेरी थी, पर चूँकि मैं नाटा—नन्हा-सा दाढ़ी-न-मूँछ था और दशरथप्रसाद द्विवेदी उम्र-रसीदा दाढ़ीवाले सज्जन थे, अत: लोअर कोर्ट से हाईकोर्ट तक ने असल अपराधी बेचारे दशरथप्रसाद द्विवेदी को माना। तब अदालत ने मेरे बारे में घोषित किया था कि ‘यह तो इक्कीस साल का लल्ता है’ (He is a lad of twenty one years) सन् ’27 में जेल से आने के बाद मैंने ‘आज’ में ‘बुढ़ापा’ लिखा था और ‘रुपया’। सन् 26-27 की जेलों में होने पर भी प्राण मेरे अप्रसन्न नहीं थे। देखिए, जेल में क्या-क्या है—
‘बैरक’ है, ‘बर्थ’, ‘बेल’ बेड़ियाँ हैं, बावले हैं,
ब्यूटीफुल बालटी की दाल बे-मसाला है।
चट्टा है, चटाई, चारु-चीलर हैं चारों ओर
तौक़, तसली है, तसला है और ताला है।
जाहिर जहान जमा-मार जमादार भी हैं,
कच्ची–कच्ची रोटी सड़े साग का नेवाला है।
शाला, क़ैदियों की काला कम्बल दुशाला जहाँ…
‘उग्र’ ने वहीं पे फ़िलहाल डेरा डाला है।
1927, 28 और 29 मेरे लेखन-जीवन में ज़बरदस्त कोलाहलकारी रहे। विख्यात ‘मतवाला’-मण्डल से मेरा सम्बन्ध फिर से जुड़ा, गठा और परम दृढ़ हुआ था। इसी दरमियान मेरी पुस्तक ‘चाकलेट’ के वज़़न पर ‘घासलेट’ आन्दोलन मेरे विरुद्ध घनघोर चला था। इन्हीं दिनों में एक नहीं दो-दो बार गांधीजी ने मेरी पुस्तक ‘चाकलेट’ पढ़ी थी और उसके लेखक की सचाई का अनादर ‘चाकलेट’ की निन्दा करने से अस्वीकार कर दिया था। हिन्दीवालों के कौआरोर में एक प्रहार स्पष्ट यह था — आक्षेप मुझ पर — कि मैं अश्लील साहित्य टकों के लिए लिखता था। मेरा विश्वास आज भी यही है कि रुपये ही कमाना हो, तो कहानी-उपन्यास लिखने से कहीं सरल धन्धे और हैं। वही अहंकार। मैंने सोचा — परे करो इस हिन्दी को। चरने दो उन्हें जिन्हें चर्रा रही है मेरी चर्चा — चलो बम्बई चलें; जहाँ अपार समुद्र के तट पर कोई पारसीक नारी हाथ में नारिकेल, चन्द्रमुखी, सूर्योपासन रत होगी। मैं पुन: फ़िल्म कम्पिनयों में चला गया। सन् ’30 से ’38 तक मैं फ़िल्मों में लिखता रहा और मस्तियाँ लेता रहा। इसके बाद क़र्ज़दारों से भागकर पहली बार मैं मालवा — इन्दौर — गया। सन् 1945 तक इन्दौर और उज्जैन में तरह-तरह से लेकिन स्वान्त:सुखाय मैं वही काम करता रहा जो जानता हूँ करना — आग लगाना, कूड़ा जलाना। इसी अरसे में उज्जैन के विख्यात महाकाल मन्दिर में मेरी पहुँच हुई और साल-छह महीने बहुत ही निकट से महाकाल के दर्शन प्रसाद प्रसन्न प्राप्त हुए। इसी अरसे में खण्डवा के ‘स्वराख्य’, इन्दौर की ‘वीणा’, मध्य भारत साहित्य समिति, मालवा के राजनीतिक, सामाजिक जीवन, उज्जैन से ‘विक्रम’ सम्पादन, उज्जैन की राजनीति आदि से मेरा घनघोर सम्पर्क रहा है। सन् ’45 में मैं तीसरी बार बम्बई, इन्दौर से पहुँचा और स्वराज्य होने तक उसी महानगरी में गरजता-बरसता रहा। इस अरसे में भी दो साप्ताहिक मेरे नाम के नीचे आए 1. विक्रम और 2. ‘संग्राम’। स्वराज्य होते ही उत्तर प्रदेश लौटा और मिर्ज़ापुर से ‘मतवाला’ का सम्पादन करने लगा। सन् 1950-51-52 कलकत्ते में बहुत बुरी तरह कटे। ’53 के अन्त में दिल्ली आया। दिल्ली सब्ज़ी मण्डी, पंजाबी बस्ती में रहा 7-8 महीने, फिर तीन साल से ज़ियादा लोधी बस्ती में बसा। तीन ही बरसों से इधर जमुना पार कृष्णनगर में रह रहा हूँ। सागर विश्वविद्यालय आजकल ‘उग्र’ पर रिसर्च करा रहा है। उसी हनुमानचालीसा चुराने वाले पर।
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