आत्मकथा – जी का लोभ (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
जिन दिनों माघ के महीने में मेरा स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था, उन्हीं दिनों की बात है, कि एक दिन दो घड़ी रात रहे मेरी नींद अचानक टूट गयी। इस घड़ी रोग का पारा पूरी डिगरी पर था। सर घूमता था, दिल घबराता था और जान पड़ता था कि कोई कीड़ा उसमें बैठकर उसे बुरी तरह से नोच रहा है। हाथ-पाँव ऐंठ रहे थे, बेबस हुए जाते थे, और उनमें एक तरह की झनक पैदा हो गयी थी। जी बैठता जाता था, दम फूल रहा था, ऑंखें तलमला रही थीं, और उनसे पानी निकल रहा था। साँस कभी नाकों की राह खर्राटे के साथ निकलती, कभी धीरे चलती, कभी टूटती हुई जान पड़ती, और फिर ऐसा ज्ञात होता कि सारी देह में एक सन्नाटा-सा छा रहा है। थोड़ी ही देर में ऐसा जान पड़ा कि मैं अब अचेत हो जाऊँगा, और एक-ब-एक सारा बदन पसीने से तर हो गया। मैंने समझा अब देर नहीं है, जी बहुत घबराया, घबराहट ही में रजाई मैंने फेंक दी, चारपाई पर उठ बैठा, और फिर कमरे का किवाड़ खोल कर बाहर निकल आया।
बाहर बड़ी सर्दी थी। हवा धीरे-धीरे बह रही थी, पर बहुत ही ठण्डी थी, बरफ को मात करती थी। बाहर आते ही जी ठिकाने हो गया, धीरे-धीरे और शिकायतें भी कम हुईं। जब दौरे का बेग जाता रहा, और जी बहुत कुछ सम्हल गया उस समय मेरी दृष्टि नीले आकाश पर पड़ी। आकाश इस समय धुंधला था, और उसका विचित्र समाँ था। रंग-रंग के तारे उसमें छिटके हुए थे, और खूब चमक रहे थे। शुक्र भी बहुत कुछ ऊपर चढ़ आया था, और अपनी ऊदी रंगता में बड़ी आन बान से जगमगा रहा था। मैंने इन तारों को बड़ी वेदनामयी दृष्टि से देखा, मेरी ऑंखों ने मेरे जी का गहरा दुख इन ताराओं को जतलाया, मानो उन्होंने बहुत ही चुपचाप उनसे कहा कि क्या हमारे दुखड़े पर तुमको रोना नहीं आता। पर तारे तनिक भी न हिले, वे वैसे ही खिले रहे, वैसे ही हँसते रहे। और उनमें वैसी ही ज्योति फूटती रही। मानो उन्होंने कहा-नादान! क्या कभी तू किसी कीड़े मकोड़े के दुखड़े की कुछ परवाह करता है। जब नहीं करता, तो हमारी ओर यह वेदना भरी दृष्टि क्यों? तू तो हम लोगों के सामने एक कीड़े-मकोड़े से भी गया-बीता है।
अब मैंने दूसरी ओर दृष्टि डाली। सामने ही एक शिवालय का ऊँचा बुर्ज दिखलायी पड़ा। यह शुक्र की फीकी और हलकी ज्योति में कुछ-कुछ चमक रहा था, मानो भगवान की दया का हाथ ऊपर उठा हुआ मुझे ढाढ़स दे रहा था, कि घबराओ नहीं, सब अच्छा होगा।
ज्यों ज्यों रात बीतती थी, सर्दी तेज होती जाती थी। मैं सिर से पाँव तक कपड़े से लदा था, पर सर्दी फिर भी अपना काम कर रही थी, इसलिए मैं बाहर न ठहर सका और फिर कमरे में आकर चारपाई पर लेट गया। ऊपर से रजाई भी ओढ़ ली। पर नींद न आयी, आज न जाने कहाँ-कहाँ की बातें आकर जी में घूमने लगीं, बहुत सी पुरानी बातों की सुरत हुई। मैं ज्यों-ज्यों बीमारी की बातें सोचने लगा, त्यों-त्यों न जाने क्यों मुझे अपना जी बहुत प्यारा मालूम होने लगा। और मैं तरह-तरह की चिन्ताओं में डूब गया।
इस समय मुझे यह बिचार बार-बार होने लगा कि लोगों को अपना जी क्यों इतना प्यारा है ? मनुष्य ही नहीं, देखा जाता है कि चींटी से हाथी तक सभी इस रंग में रँगे हुए हैं। फूल संसार में हँसने के लिए ही आये हैं। पर आप उनको डाल से तोड़ कर अलग कीजिए। फिर देखिए वे कैसे कुम्हलाते हैं। पेड़ों से बढ़कर हरा भरा कौन होगा, पर उनकी जड़ पर टाँगा चलने दीजिए, फिर देखिए उनके एक-एक पत्ते पर कैसी एक उदासी न जाने कहाँ से आकर छा जाती है। आप कहेंगे फूल पत्ते भी इस असर से नहीं बचे हुए हैं ? मैं कहूँगा हाँ। फूल-पत्ते भी नहीं बचे हुए हैं। पहले इस विषय में कुछ शक भी हो सकता था, पर अब वर्तमान काल की जाँच पड़ताल ने इस विषय को बहुत स्पष्ट कर दिया है। जब चारपाये, चिड़ियाँ, पेड़-पत्ते, तक को अपना जी प्यारा है, तब मनुष्य की चर्चा ही क्या। पर सोचना तो यह है कि जी इतना प्यारा क्यों है?
संसार के दृश्य बड़े निराले हैं; उसकी वस्तुएँ ऐसी सुन्दर, ऐसी जी लुभाने वाली, और ऐसी अनूठी हैं, कि बड़े दुखों को झेलकर भी हम उनको नहीं भूलते। उनका चाव, उनसे मिलनेवाले सुख, हमको संसार के लिए बावला बनाए रहते हैं। काल के दिनों में एक भूख से तड़पता हुआ मानव यह कह सकता है कि मृत्यु आ जाती तो अच्छा। पर यदि सचमुच मृत्यु उसके सामने आकर खड़ी हो जावे, तो उसकी गति भी लकड़ीवाले की सी ही होगी। जैसे बोझ से घबरा कर लकड़ीवाले ने सिर के गट्ठे को गिराकर मृत्यु को याद किया था, और जब मृत्यु आयी, तब उसने कहा-मैंने किसी और काम के लिए तुझे नहीं बुलाया था, तू मेरे इस गिरे हुए गट्ठे को उठा दे, बस यही काम है। उसी तरह आशा है कि मृत्यु से वह भी यही कहेगा, कि मैंने तुझको इसीलिए बुलाया था, कि शायद तू मुझको कुछ खाने को दे दे। क्योंकि सच्ची बात यह है कि मृत्यु को वह खिजलाहट में पुकार उठता था, या इसलिए मृत्यु-मृत्यु चिल्लाता था कि जिससे लोग समझें कि उसका दुख कितना भारी है। और उसके ऊपर दया करें। नहीं तो मृत्यु मृत्यु चिल्लाने से क्या अर्थ, मृत्यु तो चुटकी बजाते आती है। एक सुई अपने कलेजे में गड़ा दो, देखो मृत्यु आ जाती है कि नहीं, या अपने गले में एक छुरी घुसेड़ दो, या अपने सिर को आग में डाल दो, देखो दम भर में काम तमाम हो जाता है या नहीं। पर सचमुच मृत्यु लाना कभी स्वीकार नहीं होता, भूखा मृत्यु को ऊपर ही से बुलाता था, जी से कभी नहीं। उसको ऐसी आपदा में भी आशा की झलक दिखलाती थी, वह जी में ही सोचता था, कि क्या हमारे घये दुख के दिन सदा रहेंगे, नहीं कभी नहीं, एक-न-एक दिन किसी दाता का हाथ उठेगा, हमारे दु:ख दूर होंगे, और हमारे लिए फिर वही दिन-रात और सुख की घड़ियाँ होंगी।
दु:ख के दिनों की यह दशा है। पर जहाँ चारों ओर सुख के ही डेरे हैं, वहाँ का क्या कहना। वहाँ तो सृष्टि हमारी ऑंखों में सोने की है। रत्नों जड़ी है। वहाँ तो यह सुनना भी अच्छा नहीं लगता, कि कभी हमें इसको छोड़कर उठ जाना पड़ेगा। फिर जी प्यारा क्यों न होगा। कहावत है कि-‘जी से जहान है’। महमूद गजनवी ने लोगों का लहू चूस-चूस कर और कितने लोगों का रोऑं कलपा कर बहुत बड़ी सम्पदा इकट्ठी की थी। जब वह मरने लगा तो उसने आज्ञा दी कि उसकी कमाई हुई सारी सम्पत्ति उसके सामने लाई जावे। देखते-ही-देखते उसके सामने सोने, चाँदी और जवाहिरात के ढेर लग गये। वह देर तक उनको देखता रहा, और देख-देख कर रोया किया। वह क्यों इतना रोया, यह बतलाने की आवश्यकता नही कहना इतना है कि जिस जी के चले जाने के पीछे महमूद गज़नवी की ऑंखों में इतनी बड़ी सम्पत्ति भी किसी काम की न रही, उस जी से बढ़कर कौन रत्न होगा। और उसको कौन प्यार न करेगा।
आपको अपनी घरवाली का चाँद सा मुखड़ा दम भर नहीं भूलता, आपको उसकी रसीली बड़ी-बड़ी ऑंखें जो सपने में याद आती हैं, तो भी आप चौंक पड़ते हैं। जब कभी वह आकर पास बैठ जाती है, और प्यार से गले में हाथों को डालकर मीठी-मीठी बातें करने लगती है, तो आप पर रस की वर्षा होने लगती है। कुछ घड़ियों के लिए भी आप उससे अलग होते हैं तो आपका जी मलता है, जो कहीं परदेश जाने की नौबत आती है, तो ऊपर पहाड़ टूट पड़ता है। उसके बिना आपको चैन नहीं आता, जीना नीरस जान पड़ता है। वह आप के गले की माला है, ऑंखों की पुतली है, जीवन का सहारा है। औरत सब सुखों की कुंजी है। पर मुझे यह बतलाइये कि जो कोई बात ऐसी आन पड़े कि जिससे आप यह समझें कि अब सदा के लिए हमारा और इसका साथ छूटता है, तो उस घड़ी आपकी क्या गति होगी? आप पर कैसी बीतेगी। निस्सन्देह आपका यह दु:ख बहुत बड़ा होगा, और अब आप समझ गये होंगे कि ‘जी’ का लोभ इतना क्यों है?
आप अपने बच्चों को बहुत प्यार करते हैं, सचमुच बच्चे हैं भी प्यार की वस्तु, उनकी भोली भाली सूरत पर कौन निछावर नहीं होता, उनकी तोतली और प्यारी बातें किसको नहीं भातीं। वे कलेजे के टुकड़े हैं, हाथ के खिलौने हैं, प्यार की जीती जागती तसवीर हैं, और आनन्द के लबालब भरे प्याले हैं। फिर कौन उन्हें दिल खोल कर न चाहेगा। आप जो उनको ऑंखों के ओझल करना भी पसन्द नहीं करते, तो कौन कहेगा कि यह ठीक नहीं, वे ऐसे ही धन हैं, कि सदा उनको ऑंखों के सामने ही रखा जावे पर बतलाइये जो आपकी ऑंखें इस तरह बन्द हों कि कभी उनके भोले-भाले चेहरों को देखने के लिए भी न खुल सकें, तो आपका कलेजा कसकेगा या नहीं। फिर आप सोच लें कि ‘जी’ इतना क्यों प्यारा है।
जब कोई इतना रुग्ण हो जाता है कि उसे अपने बचने की आशा नहीं रहती, तब वह प्राय: अपनी ऑंखों में ऑंसू भर लाता है, कभी अपने मिलने वालों से ऐसी दु:ख भरी बातें कहता है कि जिसको सुनकर कलेजे पर चोट सी लगती है, कभी ठण्डी साँसें भरता है, कभी घबराता है। पर क्यों? इसीलिए कि वह समझता है कि अब उससे संसार का बैचित्रय से भरा हुआ बाजार छूटता है। उसको उसका बढ़ा हुआ परिवार, उसके मेली-मिलापी, उसकी जमीन-जायदाद, धन-दौलत, नौकर-चाकर, उसके बाग-बगीचे, कोठे-अटारी, मन्दिर-मकान ही नहीं रुलाते, उनकी याद ही नहीं सताती, उनसे मिलने वाले सुखों का ध्यान ही नहीं दु:ख देता, कितने ही पर्व-त्यौहारों की बहार, कितने मेले-ठेलों का समाँ, कितने हाट-बाजार की धुम, कितनी सभा-सोसाइटियों का रंग, मौसिमों का निरालापन, खेल तमाशों का जमाव, भी एक-एक करके उसकी ऑंखों के सामने आते हैं, और उसको बेचैन बनाए बिना नहीं छोड़ते। यदि सृष्टि इतनी रंगीली न होती, तो शायद जी का इतना प्यार भी न होता।
सावन का महीना था। बादल झूम-झूम कर आते थे, कभी बरसते थे, कभी निकल जाते थे। काली-काली घटाओें की बहार थी, फुहारें पड़ रही थीं। कभी कोयल बोलती, कभी पपीहा पुकारता। हवा के ठण्डे-ठण्डे झोंके आते थे, पर बड़े मजे से आते थे, उनसे हरी-भरी डालियाँ हिलती थीं, और मोती बरस जाता था। धोये-धोये पत्तों पर समाँ था, फूलों की भीनी-भीनी महँक फैल रही थी। इसी बीच दूर से आयी हुई नफीरी की एक बहुत ही सुरीली ध्वनि ने एक रोगी को तड़पा दिया। मैं उनके पास बैठा था, वे दो एक दिन के ही मेहमान थे। पर ज्यों-ज्यों नफीरी की आवाज पास आती जाती थी, त्यों-त्यों वे बेचैन हो रहे थे। हम लोग इस समय जहाँ बैठे थे; वह एक वाटिका थी, जो ठीक सड़क के ऊपर थी। नफीरी के साथ-साथ कुछ देर में कुछ सुरीले गलों के स्वर भी सुन पड़े, थोड़ी ही देर में बड़ी मस्तानी आवाज से कजली गाती हुई गँवनहारिनों का एक झुण्ड नफीरी वालों के साथ ठीक वाटिका के सामने से होकर निकल गया। कुछ देर अजब समाँ रहा। अबकी बार बीमार की ऑंखों में ऑंसू भर आया। वे बोले-पण्डित जी, यह सावन के दिन अब कहाँ नसीब होंगे। हाय! अब मैं इनको सदा के लिए छोड़ता हूँ। मैंने कहा-एक दिन सभी को छोड़ना पड़ता है। उन्होंने कहा-हाँ, यह मैं मानता हूँ-पर क्या मैं थोड़े दिन और नहीं जी सकता हँ। दो चार सावन तो और देखने को मिलते। मैंने कहा-आगे चलकर फिर आप यही कहेंगे। उन्होंने कहा, ठीक है, पर क्या इस सावन में हमीं मरने को थे। मैं चुप रहा, फिर बोला-आप घबराइये नहीं, अभी आप बहुत दिन जियेंगे। अब आप लोग देखें जी का लोभ! यहाँ का एक-एक दृश्य ऐसा है, जो हम लोगों को सानन्द संसार को नहीं छोड़ने देता।
एक पण्डित जी कहा करते कि सृष्टि यदि बिल्कुल अंधियाली होती, और उसमें एक भी सुख का सामान न होता, तो कोई भी अपने ‘जी’ को प्यार न करता। पर जब उनसे कहा गया कि अंधियाले में रहने वाले उल्लू और तरह-तरह के दु:खों में फँसे मनुष्यों को क्या अपना जी प्यारा नहीं होता? तो वे कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, हाँ भाई; संसार नाम में ही कुछ जादू है। शायद जब तक यह नाम भी रहेगा, तब तक किसी को भी इन पचड़ों से छुटकारा न मिलेगा।
मैं चिन्ता में डूबा हुआ इसी तरह की बातें सोच रहा था, कि सुबह का दृश्य सामने आया। अंधेरा दूर हुआ, आकाश में लाली छाई और चिड़ियाँ चहकने लगीं। इसलिए मेरा जी इधर फँस गया, और कुछ घड़ी के लिए मुझको अपना सारा दु:ख भूल जाना पड़ा।
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