आत्मकथा – दान पुण्य (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
मेरा विचार है कि ”न देने से देना अच्छा है”। कोई आकर हम से कुछ माँगता है, तो हम उसको क्या देते हैं। एक दो पैसे। जो हमारे लिए कुछ नहीं है, पर उसके लिए वे एक दिन का सहारा है। हम उसको ये एक दो पैसे नहीं भी दे सकते हैं, और बार-बार माँगने पर उसको निकलवा भी सकते हैं। और उसको हट्ठा-कट्ठा या दो चार गठरियाँ बाँधे देखकर यह भी सोच सकते हैं, कि ऐसों को देना तो माँगतों की संख्या बढ़ाना है। पर याद रखना चाहिए कि जो उसको सचमुच आवश्यकता थी, (जिसको हम ठीक-ठीक कठिनता से जान सकते हैं) और हमने उसको एक दो पैसे भी नहीं दिए, तो समझ लेना चाहिए कि हमने एक ऐसे मनुष्य की सहायता नहीं की, जिसकी सहायता करना हमको उचित था, और एक भले मानस बनने का दावा करनेवाले के लिए यह बड़ी लज्जा की बात है। किसी ने बहुत अच्छा कहा है कि-”जो किसी से कुछ माँगता है वह पहले मर जाता है। पर उससे पहले वह मर जाता है, जो पास होते हुए भी उसको कुछ नहीं देता, और इनकार करता है”, रहीम ख़ानख़ाना बड़े बाप के बेटे थे, कवि थे, रसिक थे, और दिल भी ऐसा रखते थे कि एक-एक दोहे पर लाखों रुपए दे डालते थे। वे कहते हैं कि ”उसी समय तक जीना भला है जब तक कि देना न रुके, क्योंकि बिना देते रहने के जीना अच्छा नहीं लगता।” कोई-कोई इसको पढ़कर कह सकते हैं कि यह बिल्कुल गढ़न्त है, भला ऐसा भी कभी हो सकता है। पर जिन्होंने लाखों रुपए दान करने वाले माघ कवि का हाल पढ़ा है, वे जानते होंगे कि यह विचार गढ़ा हुआ नहीं है। वरन् भारत में ऐसे लोग उत्पन्न हो चुके हैं, जो इस विचार के ठीक आदर्श कहे जा सकते हैं। जिस समय लक्षपति माघ के पास कुछ देने को न रहा, और उनके पास से मँगतों की भीड़ यह सोचकर धीरे-धीरे छँटने लगी, ”कि अब इनके पास रहना व्यर्थ है, इनके जी को चोट पहुंचाना है, तो उस समय माघ कवि से न रहा गया, वे अपने पास से लोगों को निराश लौटते देखकर बहुत खिन्न हुए, मँगतों के चेहरे पर गहरी उदासी देखकर उनका कलेजा फट गया, और उन्होंने सदा के लिए अपनी ऑंखें बन्द कर लीं।
महात्मा दधीच ने देह तक दे डाली, राजा हरिश्चन्द्र ने राजपाट तो दिया ही, दान का शेष भाग देने के लिए स्त्री पुत्र को कौन कहे अपने तक को बेंच डाला। इसी भारत में ऐसे लोग भी हो गये हैं, जिन्होंने देह का मांस तक काटकर दे डाला है, अपनी स्त्री और बच्चों को दे देने में भी पेशानी पर बल नहीं आने दिया। संस्कृत का एक कवि कहता है-”कर्ण ने देह का चमड़ा, राजा शिवि ने देह का मांस, जीमूत वाहन ने जीव और दधीच ने देह की हद्दियां तक दे डालीं, क्योंकि जो बड़े लोग हैं, उनके लिए कोई ऐसी वस्तु नहीं है, कि जिसको वे न दे सकते हों।” इन कई एक सतरों को पढ़कर कुछ लोग यह कह सकते हैं, कि इस विचार में यकबग्गेपन और झोंक की बू आती है। संस्कृत का श्लोक यह है-
कर्णस्त्वचा शिविर्मासं , जीवो जीमूत वाहन : ।
ददौ दधीचि चास्थीनि , किमदेय : महात्मनाम्।
कहा जा सकता है, कि यह विचार तुला हुआ और ठीक कभी नहीं है क्योंकि प्रत्येक काम को समझ बूझकर करना ही अच्छा है। बिना समझे बूझे और सोचे विचारे कोई काम करना कभी न अच्छा समझा जायेगा। मैं कहूँगा बहुत ठीक है, यह कौन कहता है कि बिना समझे बूझे ऑंख बन्द करके कोई काम किया जावे। पर क्या किसी भिखमंगे को एक दो पैसे देने में ही तमाम दुनिया की छानबीन कर डालनी चाहिए। क्या इस विचार में झोंक और यकबग्गेपन की बू नहीं आती। फिर यह कैसे सोच लिया गया कि हमारे बड़ों ने जो कुछ किया, नासमझी से किया, और जो कुछ हम सोचते हैं वह ठीक है। यदि तुम अपने मन के राजा हो, तो क्या वे लोग अपने मन के राजा नहीं थे? न जाने उस समय उन्होंने क्या समझ कर वैसा किया? क्या आज तुम उसकी ठीक-ठीक जाँच पड़ताल कर सकोगे। अभी थोड़े दिन की बात है कि रूस वालों के जहाज़ों का आना जाना रोकने के लिए कई जापानियों ने अपने जहाज़ के साथ अपने को समुद्र में डुबो दिया था, केवल इसलिए कि जिससे उनके देश की आन रहे। लेकिन जो लोग अपनी जान को ही सब कुछ समझते हैं, उनकी दृष्टि में तो इन लोगों से बढ़कर नयी समझ कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। इसमें बात क्या है? बात यही है कि न एक विचार और एक रुचि कभी रही, और न कभी रहेगी फिर इन पचड़ों से क्या प्रयोजन? अपना-अपना काम करने के लिए ही संसार में सब आये हैं, तुम अपना काम करो, दूसरा अपना काम करता है इसमें झगड़ा क्या? वाद विवाद क्या? आप कहेंगे कि तब तो भलाई बुराई भी कुछ न ठहरी, मैं कहूँगा, आपने मेरी बातों को ही नहीं समझा। जब तक जगत है तब तक भलाई भलाई और बुराई बुराई रहेगी। पर यह बात अनुचित है कि हम भलाई को भी बुराई बतलाने का यत्न करें, और बातों की झड़ी लगाकर बुराई को भी भलाई बनाना चाहें। लोक में कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसमें अंधेरे और उँजेले दोनों पक्ष न हों; हमको यह चाहिए कि जिसमें जितना अंधेरा पहलू हो उसमें उतना अंधेरा पहलू और जितना उँजेला पहलू हो उतना उँजेला पहलू दिखलावें, ऐसा न करें कि अंधेरे पहलू को ही दिखला दिखलाकर कहने लगें कि इसमें उँजेला पहलू है ही नहीं। और मेरे कहने का जो अभिप्राय है, यही है। मैं मुख्य विषय को छोड़कर बहुत दूर निकल आया, मैं इस घड़ी इन बातों का विचार करने के लिए नहीं बैठा हूँ, इसलिए दान पुण्य क्या है? करना चाहिए या नहीं? न तो अब हम यही देखेंगे, और न इसी झगड़े को उठावेंगे कि दान किसे देना चाहिए किसे नहीं। हमें देखना यह है कि रोगियों से यह क्यों कहा जाता है कि कुछ दान पुण्य करो, क्या दान पुण्य करने से बीमारी हट जाती है? या कुछ और अभिप्राय है।
जब किसी बीमार से कोई दान पुण्य करने के लिए कहता है, तो इस कहने का भाव यह नहीं है, कि ऐसा करने से उसकी बीमारी जाती रहेगी, या बीमारी में उसको बहुत कुछ तसकीन होगी। बरन इसलिए भी ऐसा कहा जाता है, कि यदि वह कुछ भलाई करना चाहता है तो कर डाले। जो भले चंगे हैं, उनको मौत की याद रहे या न रहे, पर बीमार को मौत की याद बराबर रहती है, और वह हर घड़ी उसकी ऑंखों पर नाचा करती है, इसलिए यह बहुत सम्भव होता है, कि ऐसी बातों का प्रभाव उस घड़ी उस पर हो, और यही सोचकर लोग उससे इस तरह की बातें कहते हैं।
संस्कृत में एक कहावत है कि ”अच्छे कामों को तुरत कर डालो।”
”शुभस्य शीघ्रम्”
इसलिए कि अपनी सोची हुई बात को तुम जैसे अच्छा कर या करा सकते हो, दूसरा वैसा न तो कर सकता है न करा सकता है, सिवा इसके यह भी हो सकता है, कि कुछ उलझनें पीछे ऐसी आन पड़ीं कि तुम उनमें फँस गये, और फिर तुमको उस काम के करने का अवसर हाथ न आया, और जी की बात जी ही में रह गयी। कोई बुरी बात हो और उसके लिए ऐसी नौबत आवे, तब तो कुछ हर्ज ही नहीं, उसके लिए ऐसी नौबत आयी, तो समझ लेना चाहिए कि यह एक ऐसी बात हो गयी, कि जिससे किसी का कुछ भला होते होते रह गया, और यह दुख कि बात है, इसीलिए अच्छे काम को उसी समय कर डालना अच्छा है। देखा गया है कि मरने के समय बहुत से लोग अपने लड़के बाले से बहुत सी बातें कह गये, पर उनके पीछे उनके लड़के बालों ने उनमें से एक बात को भी पूरा न किया। इसीलिए यह कहा जाता है कि ”जो कुछ हम करना चाहते हैं उसको हम आप कर जावें, दूसरों के भरोसे उसे कभी न छोड़ें” अच्छा रास्ता यही है, कोई रुकावट आन पड़े, या काम बढ़ जावे, या कोई विवशता हो तो दूसरी बात है। यदि कोई किसी बीमार से दान पुण्य करने को कहता है, तो मानो थोड़े में उसको इन बातों की याद दिलाता है, और संकेत करता है, कि सम्हल जाओ, अब भी तुम्हारे हाथ में बहुत कुछ है।
बहुत से रुपए वाले या धन जमा करने वाले ऐसे हैं, जो यह सोचते हैं कि यह सारा रुपया या धन हमारे उड़ाने या चैन मनाने या पृथ्वी में गाड़ रखने के लिए है। पर उनको समझना चाहिए कि उनका यह विचारना ठीक नहीं है, उनके कमाने में, काम करने में धन को सम्हालने में बहुत कुछ जनता का हाथ है, इसलिए उनको चाहिए कि अपनी कमाई का बहुत कुछ हिस्सा वे लोक की भलाई में लगावें, क्योंकि ऐसा करके ही वे भले बन सकते हैं, और अपने उस कर्तव्य को पूरा कर सकते हैं कि जिसके लिए भगवान ने उनको इतने धन का स्वामी बनाया है। हम देखते हैं समुद्र से, नदियों से, तालाबों से, मेघ पानी का बहुत बड़ा हिस्सा लेते हैं, पर इस पानी को लेकर वे उनको भूल नहीं जाते, वे फिर उसी पानी को उन्हीं के ऊपर बरसाकर उनको भरते हैं, और ऐसी जगहों में उसको पहुँचाते हैं, जहाँ दूसरे रास्तों से उसका पहुँचना कठिन होता है, रुपए वाले को भी ठीक मेघ बन जाना चाहिए, नहीं तो जो न टलने वाली बातें हैं, वे होकर रहेंगी, उसके हाथ से अवसर अलबत्ता जाता रहेगा, और बदनामी गले पड़ेगी। देखा गया है कि सूम धन गाड़कर मर गये हैं, और वह धन फिर ऐसे हाथों में आया है, जिन्होंने सबसे पहले उसको धर्म के काम में ही लगाया। जो बड़े भारी सूम हैं, उनकी ऑंखें तो कभी नहीं खुलतीं, वे धन के साथ-साथ अपयश बटोरने के लिए ही संसार में आते हैं। पर बहुत से लोग ऐसे भी हैं, कि जिनकी ऑंखें विपत्ति पड़ने पर खुलती हैं, और उस समय उनसे जो करने के लिए कहा जाता है, उसको वे प्रसन्नता से करते हैं, ऐसे लोगों के लिए ही बीमारी के दिनों की दान पुण्य की सीख है। यह सीख व्यर्थ नहीं जाती। बहुत काम कर जाती है। इसकी बदौलत कितने मन्दिर, शिवालय, घाट, पोखरे, धर्मशाले बन जाते हैं, कितने सदर्वत्ता खुल जाते हैं, कितने बाग बगीचे लग जाते हैं, कि जिनसे बहुतों का भला होता है।
कितने लोग ऐसे हैं कि जो यह जानते हैं कि रुपया कैसे काम में लगाना चाहिए, वे एक नहीं सौ बहानों से दूसरों का भला करते हैं, जब-जब अवसर आता है, तब-तब उनका दया का हाथ ऊपर रहता है, जब वे इस संसार को छोड़ने लगते हैं, तब भी ऐसे-ऐसे काम कर जाते हैं, जिनकी सराहना नहीं हो सकती। यूरप अमेरिका में आप देखें मरने के दिनों में करोड़ों रुपये का दान होता है, बड़े-बडे दान पत्र लिखे जाते हैं, इन दानों की बदौलत उन देशों में आज दिन सैकड़ों कॉलेज चलते हैं, बहुत से अनाथालय बन गये हैं, कितनी बेवाओं की रक्षा होती है, बहुत से भूखे कंगालों का पेट पलता है, कितनी बड़ी-बड़ी ईजादें होती हैं, बहुत सी कलें चलती हैं, और इन्हीं सब कामों का फल यह है कि वे सब देश आज इतने फले-फूले हैं। अपने आप सोच समझकर दान करने वालों की कमी हमारे यहाँ भी नहीं है। हाँ, यूरप और अमेरिका के ढंग के दान हमारे यहाँ कम होते हैं, पर समय अब ऐसे लोगों को भी उत्पन्न करने लग गया है। जो लोग अपने देश और अपने समाज की आवश्यकताओं को अपने आप समझ सकते हैं, उन लोगों को दान पुण्य करने के लिए जगाने की आवश्यकता नहीं है। पर भूल-चूक किसमें नहीं होती? इसीलिए मरने के समय ऐसे लोगों से भी दान पुण्य की बात कही जाती है, और देखा गया है कि यह प्रयत्न भी कुछ-न-कुछ काम ही कर जाता है।
अब हम यह देखेंगे कि दान पुण्य करने से क्या रोग भी दूर हो सकते हैं? रोगी को कुछ शान्ति भी होती है? संसार में एक ही तरह के विचार के लोग नहीं होते, विचार भी बहुत लोगों का बहुत तरह का होता है। हमने ऐसे लोग भी देखे हैं, जो ग्रहों का फल पूरी तौर पर मानते हैं, और यह बात उनके जी में जमी रहती है, कि जो कुछ होता है, ग्रहों के भोग से ही होता है, इसलिए वे सदा ग्रहों को शान्त रखने की चिन्ता में रहते हैं। और जिन कामों से वे शान्त किए जा सकते हैं, उनको वे बड़े उत्साह से करते हैं। यदि उनको मालूम होता है कि मंगल आजकल अच्छा नहीं है, तो उसको प्रसन्न करने के लिए जब तक वह लाल कपड़ा, लाल गाय, गेहूँ और मूँगा दान नहीं करते, तब तक उनको चैन नहीं पड़ता, जी को न जाने कैसा एक खटका-सा बना रहता है, पर जब वह इन वस्तुओं का दान कर देते हैं, तो ऐसा ज्ञात होता है, कि उनके ऊपर का मानो एक बोझ उतर गया, और इस दशा में उनके जी को भी बहुत कुछ सन्तोष और ढाढ़स होती है, और अब आप लोग समझ सकते हैं कि इस तरह का दान ऐसे लोगों के कितने काम का है। पूजापाठ के प्रसंग में आप लोग पढ़ चुके हैं, कि जी का घबराना और बैठ जाना रोगी के लिए बहुत बुरा है, लेकिन उसका सम्हल जाना, बहल जाना, और दृढ़ हो जाना, संजीवन रस से भी बढ़कर काम देता है।
इसके सिवा साधारणतया भी यह बात देखी जाती है, कि जब किसी को कुछ छुलाकर किसी को दिया जाता है, और वह हाथ उठाकर उसको असीस देने लगता है, या जब उसके दिए हुए या संकल्प किए हुए सामानों को पाकर कुछ लोग उसका भला मनाते हुए उसके सामने से निकल जाते हैं। या भूखों कंगालों में बाँटा गया अन्न उनके कलपते हुए जी को ठण्डा करता है, और वे रोगी के भले चंगे होने के स्वर से आकाश को गुँजा देते हैं। तब रोगी के जी को बहुत कुछ भरोसा होता है, और उसके जी में एक ढाढ़स सी बँध जाती है, क्योंकि वह सोचता और समझता है कि इस तरह का किया हुआ दान कभी व्यर्थ नहीं जाता, और यह बात ऐसी है जो किसी रुग्ण का बहुत कुछ भला कर सकती है। जब हम यह मानते हैं कि रोने चिल्लाने का कॅलेजा कँपा देने वाला स्वर कितनों को उनकी सहायता के लिए तैयार कर देती है, कड़खा गाने वालों की कड़कती हुई वाणी घरों को भी तड़पा कर लड़ाई में जाने की उमंग उत्पन्न कर देती है, लेक्चर देने वालों की ओजमयी शब्दावली दो चार दस नहीं सैकड़ों को किसी मुख्य काम को कर देने के लिए कटिबद्ध कर सकती है, तो हमको यह भी मानना पड़ेगा कि सच्चे साधु महात्मा और योग्य पण्डितों की सच्चे जी से दी हुई असीस और भूखे कंगालों के मुँह की सच्ची भलाई से भरी हुई वाणी भी एक रोगी के जी को इतना बल दे सकती है कि जिससे वह अपने रोग की आपदाओं से पार पा सकता है। और ऐसी दशा में यह कोई नहीं कह सकता कि रुग्णता में किया गया दान पुण्य उसका कुछ भला नहीं कर सकता।
हम से जब कोई दान पुण्य करने के लिए कहता, तो हमको रोना आता, जी मसोस कर रह जाता, मैं सोचता, क्या भगवान ने मुझको इस योग्य बनाया है? जी में बहुत सी चाहें भरी हैं, पर क्या इस जन्म में वे पूरी होंगी? रुपए कहाँ हैं, और जब रुपए ही नहीं, तो फिर मन के लड्डू खाने से क्या होगा। लड़कपन से आज तक जी में कितने विचार उठे, पर क्या एक भी पूरे हुए? ‘अधखिला फूल’ में देव स्वरूप के हाथों मैंने अपने जी के बहुत से अरमान निकाले हैं, पर इस तरह क्या लेखनी की नोक से ही सारा काम करने के लिए हम इस धरती पर जनमे थे? रुपया सभी के पास थोड़े ही होता है, ऐसे भी कितने लोग हो गये हैं, जिन्होंने करोड़ों रुपए का काम अपनी बातों से करा लिया, पर हाय! क्या मैं इस योग्य भी हूँ, भगवान ऐसा बल क्या हमसे भुनगों को देता है। ऐसे लोग इस धरती पर कितने हुए, वह तो उँगलियों पर भी गिने जा सकते हैं, फिर इतनी ऊँची चाह क्यों? क्या वामन होकर कोई चाँद को छू सकता है? फिर रोवें, और तड़पें, और बस ही क्या है। पर न जाने क्यों लोग इस जी की बुझी आग को फिर धाधाका देते हैं। पर इसमें उन बेचारों की क्या चूक है, वे किसी के जी की क्या जानते हैं, हम रोने तड़पने के लिए जनमे हैं, रोते तड़पते रहें, पर वे बेचारे अच्छी बातें क्यों न कहें। तो क्या अपने मित्रों की बात मानकर हमने कुछ साधारण दान पुण्य भी नहीं किया? हम इस विषय में क्या लिखें, हमारे यहाँ दान पुण्य करके उसकी चर्चा बहुत बुरी समझी गयी है, इसलिए इस विषय में हम जीभ भी नहीं हिला सकते। हाँ, एक कवि की तरह हाथ जोड़कर हम भी भगवान से इतना कह सकते हैं कि-”न तो हमारे पास विद्या है, न बल है, न गाँठ में दाम है, इसलिए हमारे ऐसे गये बीतों की पत, हे राम! तुम्हीं रख सकते हो-
” नहिं विद्या नहिं बाहु बल , नहिं गाँठिन को दाम।
मोहिं अस पतित पतंग की , तू पति राखो राम। ”
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