आत्मकथा – पं. कमलापति त्रिपाठी – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
सो, तुम जीते – कमला, और बहुत ख़ूब जीते। अभी गत कल ही की तो बात है। तुम प्रादेशिक साहित्य-सम्मेलन के अध्यक्ष बने थे (सन् 1948-49)। उन्हीं दिनों लखनऊ में मैं भी मोहक मिनिस्टर श्री केशवदेव मालवीय का मेहमान था। अत:, सहज ही, उस जलसे में हाज़िर था जिसके तुम जनाबे-सद्र थे। पहले दिन की कार्रवाई ख़त्म होने के बाद ही मंच से दर्शकों के बीच में आने पर मुझे पहचान तुमने मेरे कन्धे पर परिचित हाथ रखा था और — परिचित ही अदा में—मैंने गुज़ारिश की थी हिं.सा. सम्मेलन के अध्यक्ष से कि आगामी कल के जलसे में मुझे भी चन्द अल्फ़ाज बोलने की इजाज़त दें। लेकिन तुमने तद्दन ना कर दिया था: ‘तुम न जाने क्या बोलो— मैं तुम्हें बोलने नहीं दूँगा।’ तब तुम मिनिस्टर नहीं — महज़ एम.एल.ए. थे, लेकिन तब भी तपना तुमने प्राय: मिनिस्टरों की तरह ही शुरू कर दिया था। मैं रहता था मिर्ज़ापुर तथा ‘मतवाला’ वाले महादेवप्रसाद सेठ के योग्य-पुत्र के करते फिर से प्रकाशित ‘मतवाला’ का सम्पादक था। दूसरे दिन तुमने सभा में मुझे बोलने नहीं दिया था। पाँचवे दिन अपने पेपर में मैंने तुम्हारे दर्शन की, भाषण की, हिन्दी साहित्यिक-आसन पर से पालिटीशियन मुख्यमन्त्री पन्त के पद-पल्लव पकड़ने के आचरण की भर्त्सना की थी — ज़रा भी अपनत्व दिखाए बग़ैर। इसके बाद मिर्ज़ापुर से बनारस जाने पर, जान-बूझकर, तुम्हारी प्रतिक्रिया ताड़ने के लिए मैं तुम्हारे घर गया था। दरबार तुम्हारा भरा था, मैंने देखा। मुझे देखते ही चेहरे पर अहंकार तुम्हारा उभरा था। मेरी तरफ़ से दीठ हटा, पीठ दिखाते तीव्र-तिरस्कार से तुमने कहा था: ‘कोई मुझसे पॉलिटिक्स में भिड़ावे (फिर देखें…)।’ उस समय मैंने नहीं समझा था कि तुम्हारे इस पॉलिटिक्स-परिज्ञान-अहंकार के पीछे इतना कूट-प्रभुत्वपूर्ण ‘पावर’ था। तुम सिंचाई मन्त्री बन गए जब तक भी मैंने अहंकार योग्य कोई खुसूसियत तुममें नहीं देखी थी। लेकिन जब काल ने तुम्हारे पक्ष में ‘किक’ मार सी.बी. गुप्त को पाताल पठाया और सम्पूर्णानन्द को प्रान्तीय प्रभुत्व के आकाश की तरफ़ उछाला तब जैसे रातोंरात तुम्हारा साइज़ यू.पी. के पाताल से (नक्षत्र-ग्रह-चन्द्रार्क-मण्डित) आकाश तक विराट हो गया था। तुम्हारा यह विराट रूप मुझे बहुत ही भाया। जीवन में जीवट से डटने की क्षमता, बल, ‘पावर’ मुझे बहुत ही सुहाते हैं। मैंने कहा, ‘भाते हैं’ ‘सुहाते हैं’। ‘लुभाते’ ये मुझे उतना नहीं। देखो तो, जब से तुम ‘पावर’ में हो मेरी-तुम्हारी भेंट तक नहीं। लखनऊ तो दूर मैं बनारस भी नहीं गया, मिर्ज़ापुर नहीं गया। तब से जब से तुम वैसे शक्तिशाली बने जिसकी कल्पना तक मैं न कर पा सका था। वैसे ही—ठीक वैसे ही कमला—जैसे अलिफ़ लैला के दीन अलादीन को अपने ही हाथ के चिराग़ में प्रचण्ड शक्तिशाली ‘जिन’ के होने की कल्पना तक नहीं थी। विश्वास रखो, मैं तुम पर एक अक्षर भी न लिखता — यह सब तो अपना अहंकार प्रकट करने के लिए लिखा है — ख़ासकर प्रान्त में उन साहित्यिकों, क़लम-बाज़ों, आचार्यों, तथाकथित प्रतिभाशालियों पर जो आज तुम्हारे प्रसाद से प्रसादीलाल बने हुए हैं। मेरा दावा है आज यू.पी. के जो भी तुम्हारे सामने झुककर सम्पूर्णानन्दित हैं वे सभी मेरे सामने भी सरासर झुके हुए हैं। याद तो करो सन् 1921 ई. की घटना। गांधीजी काशी आए हुए थे और टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज के दुमंजिले पर हिन्दू-विश्वविद्यालय के एक-से-एक विवेकी आचार्य को असहयोग का प्रोग्राम सुतर्कित रीति से समझा रहे थे। और तुम थे। और मैं था। हमने तय किया कि महात्माजी जब गोष्ठीवाले कमरे के बाहर निकलें तब अचानक लपककर पावन चरण-स्पर्श किया जाए। और हम कर गुज़रे लड़कपन। बड़े-बड़ों के आगे-आगे आते गांधीजी के गतिवान चरण एक ओर से तुमने ओर एक ओर से मैंने पकड़ ही लिये थे। गांधीजी चमककर शान्त रह गए थे। मुझे याद है — मेरे हाथ में उनका दाहिना चरण आया था और तुम्हारे बायाँ। युग-पुरुष के वामपद की विभूति अगर वही है जिससे तुम मण्डित हो कमलापति पण्डित! तब महात्मा के दक्षिण पद की विभूति में क्या होगा उसकी कल्पना की अनुभूति भी ब्रह्म-पद-प्रसूति मालूम पड़ती है। महात्मा पद-रज-ग्रहण के चन्द ही दिनों बाद इस बात पर मेरी-तुम्हारी शर्त लगी थी पाँच-पाँच रुपये की कि आगे जेल कौन जाता है। जेल तुम भी गए, लेकिन मैं तुमसे पहले पहुँचा था। और हम दोनों एक ही भाव में, एक ही बैरक में, एक ही ‘झिरी’ में, एक ही जेल में सन् उन्नीस सौ बीस और एक में थे! उसी जेल में उसी समय कृपलानीजी, सम्पूर्णानन्दजी और सारी यू.पी. के कई सौ पॉलिटिकल बन्दी भी थे! आज यह सब मैं इसलिए लिखता हूँ कि तुममें जो श्रेष्ठ है, तेजस्वी है, उसमें मैं हूँ। भले मैं ही न होऊँ तुम्हारे पूज्यपिता परम पण्डित थे; तुम्हारे भारत-विख्यात नानाजी परम पण्डित थे। लेकिन जेल तो मैं ही तुम्हें ले गया, अख़बार-नवीसी की तरफ़ तो मैं ही तुम्हें ले गया। मतलब महज़ यह कि तुम्हारे शुभ में मेरा अनुराग आज भी है और अशुभ में भगवान् न करें किसी का अनुराग हो। हरिश्चन्द्र ने कहा — कोई हमसे सत्य में भिड़ाए, रामचन्द्र ने कहा, कोई हमसे मर्यादा में भिड़ाए, गौतम बुद्ध ने कहा, कोई मुझसे करुणा में भिड़ाए, लेकिन कमलापति पंडित ने पलटा लेकर कहा, कोई हमसे पॉलिटिक्स में भिड़ाए! तो कमला! इस पॉलिटिक्स में तुम्हारे सत्य, मर्यादा और करुणा तो होगी ही? या माडर्न पॉलिटिक्स उक्त गुणों से विरहित होता है? भाई रे, दोहाई है, इतना बड़ा हो गया चुनार का पँडवा, पर, पूछो तो पॉलिटिक्स का ‘प’ भी लिखना मुझे नहीं आता। जब तुम कृषि या सिंचाई मन्त्री बने थे, मैं संयोग से लखनऊ में था। तुम्हारे यहाँ गया जो तुम अन्दर थे; बाहर दरबार लगा था। तुम बाहर आए तो स्व. परमहंस राघवदास ने तुम्हें सुनाया था कि उग्रजी कह रहे थे कि काम अभी छोटे भाई कर रहे हैं, बड़े भाई का नम्बर बाद में आएगा। शायद परमहंसजी का कथन तुम्हें सुहाया नहीं था। मैं दूसरे दिन गया तो तुम तख़लिए में सुलभ हुए थे। इसके बाद मैं उत्तर प्रदेश के बाहर-ही-बाहर रहा। अक्सर पत्रों में पढ़ता तुम्हारे बारे में। कमाल मेरे भाई! तुमने करके दिखा दिया! लेकिन किसको दिखलाया? बेचन को? परिवारियों को? रिश्तेदारों को? बनारसवालों को? या प्रदेश की भूखी, दुखी जनता को? काफ़ी दिनों तक तुम शक्तिशाली रहे! इस अरसे में जनता का हित कितना हुआ? मैं नहीं जानता। मैं लखनऊ से काफ़ी दूर रहता हूँ। लेकिन इसी के उत्तर में तुम्हारा भविष्य है, यह मैं जानता हूँ। मालूम नहीं कमला कि आज तुम भले हो या बुरे। बुरे हो तो बुरा नहीं। चारों ओर ही बुरे-ही-बुरे हैं, परन्तु यदि भले हो तुम मेरी जान! तो आज बहुत ही भले लगोगे, क्योंकि भले लोग नज़र आ नहीं रहे हैं।
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