आत्मकथा – पं. जगन्नाथ पाँडे – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
अब मैं चौदह साल का हो चला था कि रामलीला-मण्डली से छुट्टी मनाने बड़़े भाई के संग चुनार आया। इस बार अलीगढ़ में किसी बात पर महन्त राममनोहरदास और मेरे बड़े भाई में वाद-विवाद हो गया था, जिस पर भाई ने लीला में स्वयं काम करने या मुझे करने देने से इन्कार कर दिया था। महन्त ने धमकाया था कि लीला में विघ्न पड़ा तो वह हमें पुलिस के हवाले कर देगा। सो, अलीगढ़ से भाई साहब रामलीला-मण्डली-जीवन से ऊबकर आए थे।
जानकार जानते होंगे कि चौदह-पन्द्रह साल की वय में जवाहरलाल और श्रीप्रकाश लन्दन में शिक्षा पा रहे थे — उत्तम-से-उत्तम। लेकिन उसी उम्र में मुझे क्या शिक्षा मिली थी, मेरा जी ही जानता था। सच तो यह है कि शब्द शिक्षा मेरे निकट आते-आते भिक्षा बन जाया करता था। रामलीला-मण्डली की आवारगी से मैं उतना नहीं परेशान था, जितना कि बड़े भाई के गाँजा-मत्त क्रोधी स्वभाव से। उनकी-मेरी संगत क़साई-बकरे का साथ। क़साई भी वह जिसके बारे में कहावत है — ख़स्सी जान से गया, क़साई को कोई ज़ायका ही नहीं मिला। ख़ैर!
इस बार जो हम घर पर आए तो न जाने क्या मेरे सौभाग्य जागे कि मेरे पुत्रहीन पितृव्य (चचा) ने, चाची की सलाह मानकर, मुझे गोद लेने का इरादा मेरे बड़े भाई पर ज़ाहिर किया। इस प्रस्ताव से बड़े भाई का गला ही छूटता था, सो उन्हें राज़ी होने में देर न लगी। मैं चचा की गोद चला गया। अब उन्होंने, बाक़ायदा, मेरी शिक्षा-दीक्षा का निर्णय किया। फलत: चौदह वर्ष की वय में चुनार के चर्च मिशन स्कूल में मेरा नाम थर्ड क्लास में लिखाया गया। और मैंने स्कूल का मुँह देखा। थर्ड ही क्लास में दुनियादारी, ऐयारी और यारी में मैं टीचर की कुरसी पर आसीन होने योग्य था। थर्ड, फोर्थ, फि़फ्थ पास कर सिक्स में मैं पहुँचा ही था कि मेरी चाची के एक सुन्दर-सा पुत्र पैदा हो गया। सो, चचा-चाची का वात्सल्य-बाज़ार-भाव गिरते देर न लगी। गोद भी मैं ज़ुबानी लिया गया था, विधि-विरहित, सो मुझे पुन: कठोर धरती पर धम-से पटक देने में अदूरदर्शियों को देर न लगी। चचाजी अपने परिवार के साथ काशी चले गए। मैं पुन: उसी भाई के ग़ैर-ज़िम्मेदार चंगुल में लाचार जकड़ा गया। ‘पुनि मो कहँ सोइ दिन, सोइ राती।’ फ़ीस की कमी, कपड़ों की कमी, राशन की कमी। आधिक्य उपदेशों और पिटाई की! घास-न-भुस खरहरा दस बार। इस सबके ऊपर कष्टदायी था भाई का बराबर जुआरत रहना। जीवन को सम्यक् कर्म के सहारे न छोड़ भाई साहब ने जुआ के आसरे छोड़ रखा था।
इसी बीच स्कूल में एक घटना घटी। मौलवी लियाक़त अली नामक एक कठमुल्लाजी थे, जो उर्दू, फ़ारसी और अर्थमेटिक छह-सात-आठवीं क्लासों को पढ़ाया करते थे। उनके विचार उस समय ही हवा के अनुसार हिन्दू-भावना-विरोधी थे। कई बार क्लासों में पढ़ाते-पढ़ाते वह कोई ऐसी बात बक जाते जिससे हिन्दू विद्यार्थियों को मार्मिक चोट लगती। उनकी इन हरकतों से हिन्दू-विद्यार्थी खिन्न और क्रुद्ध होने पर भी विवश थे। इधर मैं अपने भाई के अनुचित आचरणों से आकुल हो विद्रोही बनने को ललक रहा था कि मौका आया। मौलवी ने एक दिन सेवन्थ क्लास में सुनाया कि हिन्दुओं के देवता तो मेरे पाजामे में बन्द रहते हैं। उस दिन क्लास के बाद कुछ लड़के बहुत ही नाराज़ नज़र आए। तय पाया कि मौलवी का इलाज करने के लिए बनारस के जयनारायण हवाई स्कूल के प्रिंसिपल साहब को तार से कठमुल्ला के दुर्व्यहार की सूचना दी जाए। लेकिन अपने नाम के तार भेजने को कोई तैयार नहीं था। बिल्ली को घण्टी बाँधने में भय था रस्टिकेशन (स्कूल से बाहर किए जाने) का। मैंने सोचा, रस्टिकेट होने में यह लाभ रहेगा कि पढ़ने से जान बचेगी, सो तार मैंने अपने नाम दिलवा दिया— ‘मौलवी लियाकतअली, मिशन टीचर इन्सल्ट्स अवर रिलिजस फ़ीलिंग्स; नो सेटिसफैक्ट्री इन्क्वायिरी।— बेचन पाँडे।’ असल में चुनार का चर्च मिशन स्कूल काशी के जयनारायण मिशन स्कूल के अधीन था। अत: तार पाते ही अंग्रेज़ प्रिंसिपल साहब चुनार में, और बन्देख़ाँ स्कूल से ग़ायब। क्योंकि रस्टिकेट होना और बात थी और बेंत खाना बिलकुल ही और बात। विद्यार्थी को डिसिप्लिन में रहना चाहिए। मैंने डिसिप्लिन के ख़िलाफ काम किया था। पाते तो वे मुझे आदर्श बनाने के लिए सारे स्कूल के सामने बेंतियाते। नहीं पाया, तो रजिस्टर से मेरा नाम ही उड़ा दिया। लेकिन बचे मौलवी साहब भी नहीं। प्रिंसिपल ने उनकी सख़्त तम्बीह की। संयोगवशात् उन्हीं दिनों काशी में चचा के यहाँ उनकी लड़की का गौना पड़ा, जिसमें सम्मिलित होने के लिए हमारे घरवाले भी बनारस गए थे। मौक़ा पाकर, वहीं, चचा से मैं गिड़गिड़ाया कि वे मेरी भी पढ़ाई का प्रबन्ध करें, नहीं तो मैं कहीं का भी न रहूँगा। उन दिनों चचा साहब की चलती थी। ख़ासी आमदनी और ख़ासा ख़र्चा था। काशी में उन्हीं के व्यय से उनका दामाद पढ़ता था और एक साला भी। मुझे तो चन्द ही महीनों पहले वह चुनार में पढ़ा ही रहे थे। उन्होंने मुझे भी काशी में रहकर पढ़ने की इजाज़त दे दी। चर्च मिशन स्कूल चुनार से मुझे जो सर्टिफिकेट मिला उसमें कन्डक्ट फ़ेयर लिखा गया। ख़ैर! बनारस के विख्यात हिन्दू (कालिजिएट) स्कूल में छठे दरजे में ले लिया गया। उस समय स्थानापन्न प्रधानाध्यापक के पद पर देव-तुल्य बालकों के हितैषी श्री कालीप्रसन्न चक्रवर्ती महोदय थे। चक्रवर्तीजी ने जब मुझसे सर्टिफिकेट में कन्डक्ट फ़ेयर का सबब पूछा तब चपल वाचालतापूर्वक मैंने बतलाया था, क्योंकि वह क्रिश्चियन स्कूल था और मैं था ब्राह्मण, अत: यह स्थिति उत्पन्न हुई। और लियाक़तअली का क़िस्सा भी मैं सुना गया था। मैंने लिखा है ऊपर, चक्रवर्ती महाशय बालकों के वरदानी हितैषी थे। करेक्टर मेरा बैड भी लिखा होता तो भी भरसक वह सरस्वती-मन्दिर से मुझे विमुख न फेरते। उनका बड़ा मान था, महामना मालवीयजी की नज़रों में, काशी के बड़े-बड़ों में। हिन्दू स्कूल से छठी और सातवीं क्लासें चचा की कृपा से मैंने पास कीं। इसके बाद चचा ने काशी के खोजवाँ मुहल्ले में एक महान ख़रीदा और भदैनी से वहीं जाकर रहने लगे, हमें अपने-अपने रस्ते लगने का संकेत कर।
मैं अब निराश्रय होने के बाद, लक्ष्मीकुण्ड के विख्यात लक्ष्मी-मन्दिर में अपने जलालपुर गाँव के काका रामानन्द दुबे के साथ रहने लगा। रामानन्दजी ब्राह्मण-वृत्ति से चार पैसे कमाते थे। अन्नपूर्णा-मन्दिर में भी उनका प्रवेश था। मेरा ख़याल है, उदार श्री कालीप्रसन्न चक्रवर्ती ही ने दिवंगत दानवीर बाबू शिवप्रसादजी गुप्त के नाम एक रुक्का लिखकर मुझे दिया था, ताकि बाबू साहब मेरी फ़ीस और भोजन की व्यवस्था कृपया कर दें। रुक्का लेकर मैं ‘सेवा उपवन’ गया— ढाई कोस पैदल, नंगे पाँव। शिवप्रसादजी-जैसे बड़े आदमी मुझसे क्या मिलते — अलबत्ता काम मेरा हो गया और मैं ‘सेवा उपवन’ से महीने-भर खाने क़ाबिल आटा, दाल, चावल, तेल, नमक और लकड़ी के कुछ नक़द पैसे शायद लेकर यानी सिर पर लादकर नगवा से महालक्ष्मीजी आया। साल-भर तक इसी तरह मैं ‘सेवा उपवन’ के अन्नसत्र से सामग्री सिर पर लादकर ले आता।
अब मैं आठवें दरजे में था। तब स्कूल के हेडमास्टर श्री गुरुसेवक सिंह उपाध्याय थे। महामना मालवीयजी ने उपाध्यायजी की शिक्षा-सम्बन्धी योग्यता से मुग्ध होकर उन्हें सरकार से हिन्दू स्कूल का प्रधान बनने के लिए कुछ वर्षों के लिए उधार माँग लिया था। गुरुसेवकजी सरकारी ड्यूटी से ताज़ा-ताज़ा आने के सबब श्रेष्ठ हेडमास्टर होने पर भी ‘छुट्टी पर डिप्टी-कलेक्टर’ भी थे। आते ही उन्होंने विद्यार्थियों पर नियंत्रण का नीरस पंजा कसा — सिर पर टोपी क्यों नहीं है? ये जुल्फ़ें सँवरी क्यों हैं? बोलते वक्त मुस्कराते क्यों हो? रामू श्यामू के गले में हाथ डालकर क्यों चला? ख़बरदार जो कोई विद्यार्थी किसी के गले में हाथ डालकर चलता पाया गया! ठीक नहीं होगा। क्या जनानी सूरत बना रखी है? मर्दों की तरह रहो।
उपाध्यायजी की बातें सौ-में-सौ ठीक होती थीं — शायद कहने का ढंग या उस ढंग से स्नेह-संचार सम्यक् नहीं होता था। आज तो मैं यही मानूँगा कि उनकी बातें ठीक थीं, हमारी ही बुद्धि विपरीत थी, ख़ासकर मेरी। एक दिन विद्यार्थियों और अध्यापकों की एक गोष्ठी में तुकबन्दी पढ़कर उपाध्यायजी के लहज़े ही में मैंने सुनाई जो नितान्त अनुचित बात थी, भयानक दुस्साहस था। जब मैं वह तुकबन्दी पढ़ रहा था ‘अनुचित-अनुचित-भाव’ में कई अध्यापक कुरसी से उचक तक पड़े थे। दूसरे दिन स्कूली पढ़ाई समाप्त होने के बाद ही उपाध्यायजी ने मुझे हेडमास्टर के कमरे में बुलाया। चाहा उन्होंने कि मैं क्षमा चाहूँ वैसी तुकबन्दी, उस भाव से पढ़ने के लिए। लेकिन मैं ढीठ ही रहा; धृष्ट भी। दूसरी ओर वार्षिक परीक्षा में भी फेल हो गया। परीक्षा में फेल होना असाधारण दुर्भाग्य! अब बाबू शिवप्रसाद गुप्त के सत्र से न तो आटा मिलने की आशा, न दाल। फ़ीस तक मोहाल। सो, मैंने बनारस में निराधार ठोकरें खाने से बेहतर अपने घर की लातों को समझा। मैं भाई के यहाँ चुनार भाग आया। बड़े भाई साहब मालगुजारी की तहसील-वसूली के सिलसिले में गाँव (जलालपुर माफ़ी) गए हुए थे।
दूसरे दिन गाँव की किसी अहीरन ने मुझे दस रुपए का एक नोट दिया कि मैं भाभी को दे दूँ, भाई साहब ने भेजा है। दस का नोट हाथ लगते ही भाई के भय के मारे — कि मुझे फ़ेल हुआ सुनकर वह क्या न कर डाले — मैं मात्र धोती-कमीज़ और एक अँगोछा लिये चुनार स्टेशन चला आया। समय साध, पहली ही ट्रेन से कलकत्ता भाग जाने के लिए।
कलकत्ता शहर में पहली बार मैं भूखे, निराश्रय, भगोड़े की तरह पहुँचा था। कलकत्ते में मेरे पड़ोसी भाई विश्वनाथ त्रिपाठी रहते थे, जिनका (सन् 1919 के अन्त में भी) ‘विश्वमित्र’ के विज्ञापन-विभाग से तेजस्वी सम्बन्ध था। मुझे मालूम था कि तब ‘विश्वमित्र’ नारायण बाबू लेन अफ़ीम चौरस्ता से निकलता था। वहीं पहुँचने से विश्वनाथ भाई के डेरे का पता चलता। हवड़ा पुल पार ट्राम पर सवार हो मैंने नारायण बाबू लेन का टिकट माँगा, तो कन्डक्टर ने मुझे नीचे उतार दिया। कितना भटका मैं महानगरी के महा मकानों के वन में ‘विश्वमित्र’ कार्यालय ढूँढ़ता! और पानी बरसने लगा। जब मैं मछुआ बाज़ार, क़साईपाड़े में भटक रहा था, बरसात का पानी पाँवों के नीचे घुटने-घुटने बह रहा था। बड़ी मुश्किलों, बड़े फेरों के बाद मैं ‘विश्वमित्र’ कार्यालय के द्वार पर पहुँचा था। सामने सीढ़ियों का सिलसिला। दफ़्तर ऊपर के तले में था। नीचे रुककर पहले मैंने तरबतर धोती और कमीज़ निचोड़ी, तन का जल भी यथासाध्य सुखाया। फिर गीले ही कपड़े मैं ऊपर की तरफ़ बढ़ा। ‘विश्वमित्र’ के विख्यात संचालक बाबू मूलचन्दजी अग्रवाल से मेरी पहली मुलाकात इसी ठाट में हुई थी। मैंने उनसे कहा था — ‘मैं चुनार से आ रहा हूँ। विश्वनाथ त्रिपाठी का पता चाहता हूँ।’ ‘विश्वनाथजी तो,’ निराश, मगर सदय, अग्रवालजी ने बतलाया, ‘कल ही रात चुनार चले गए!’
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