आत्मकथा – प्रवेश – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
चन्द ही महीने पहले बिहार के विदित आचार्य श्री शिवपूजन सहायजी (पद्मभूषण), आचार्य नलिन विलोचनजी शर्मा तथा श्री जैनेन्द्र कुमारजी मेरे यहाँ कृपया पधारे थे। साथ में बिहार के दो-तीन तरुण और भी थे। बातों-ही-बातों में श्री शिवपूजन सहाय ने मुझसे कहा— ‘उग्र, अब तुम अपने संस्मरण लिख डालो।’
मैंने कहा— लिख तो डालूँ, लेकिन जीवित महाशयों की बिरादरी—अन्ध-भक्त बिरादरी—का बड़ा भय है। बहुतों के बारे में सत्य प्रकट हो जाए तो उनके यश और जीवन का चिराग ही लुप्-लुप् करने लगे। कुछ तो मरने-मारने पर भी आमादा हो सकते हैं। उदाहरणत: एक जगह वाल्मीकीय रामायण, सुन्दर काण्ड, की कथा में मेरे एक ऐसे मित्र भी उपस्थित थे जो हनुमानजी के अन्ध-भक्त थे। लंका में मन्दोदरी को रोती हुई देखकर हनुमानजी ने समझा सीताजी हैं, उनकी खोज सफल हुई! और वह सहज बन्दर की तरह प्रसन्न, चंचल हरकतें करने लगे:
आस्फोटया मास चुचुम्ब पुच्छं
ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम।
स्तम्भावरोहन्निपपातभूमौ
निदर्शयन् स्वां प्रकृतिं कपीनाम्।
यानी हनुमानजी उत्साह से अपनी पूँछ चूमते हुए पटकने लगे। मारे हर्ष के वह चंचल चलने, उछलने-कूदने, खम्भों पर चढ़ने-उतरने, स्वाभाविक बन्दर-लीला करने लगे।
‘लेकिन कथा-वाचक के मुँह से यह अर्थ और हनुमानजी के लिए बन्दर और पूँछ का प्रयोग सुनते ही वह अन्ध-भक्तजी भड़क पड़े। यहाँ तक कि उस दिन की कथा की हजरत ने भंग कर डाली।’
‘इसी तरह यदि मैं लिखूँ कि दिग्गजाकार महाकवि “निराला” पर कलकत्ते के एक मूषकाकार प्रकाशक ने सन् 1928 ई. में, बड़ा बाजार की अपनी दूकान में काठ की तलवार से कई प्रहार किए थे, ऐसे कि “निराला” भी हतप्रभ होकर प्राय: रोकर रह गए थे, तो सत्य की तह तक गए बग़ैर ही “निराला” भक्” सनसना-झनझना उठेंगे।’
‘लेकिन घटना तो सही है,’ आचार्य शिवपूजन ने कहा।
इसके बाद उपस्थित मित्रों को मैंने दो संस्मरण सुनाए— 1. ‘निराला’ जी पर एक प्रकाशक द्वारा आक्रमण, फिर उस प्रकाशक पर ‘निराला’ जी का प्रहार; बीच में ‘उग्र’ का उत्तेजक-पार्ट और 2. ‘निराला’ के पुत्र के ब्याह में, लखनऊ में, बतबढ़ाव में, भरी मजलिस में किसी बहकते प्रकाशक पर एक दहकते समालोचक का आक्रमण और उसके बाद का भूतनाथ की बारातवाला कोलाहल। साथ ही इस दुर्घटना के विवरण में वहाँ उपस्थित न होने पर भी ‘उग्र’ की बदनामी।
उक्त दोनों उदाहरण तो निराला-विषयक हैं। मेरे खतरनाकप्राय जीवन में ऐसे कोलाहलकारी संस्मरणों की भरमार है जिन्हें यदि रेकार्ड पर उतार दिया जाए तो सम्बन्धित महानुभाव फरिश्ते नहीं, आदमी नज़र आने लगें। हनुमान विशुद्ध प्राकृतिक रूप में, बाल और पूँछ के साथ ऐसे नज़र आएँ कि अन्ध–भक्त लोग भड़ककर रह जाएँ। ऐसे-ऐसे लोग बम्बई में, कलकत्ता में, इन्दौर में, उज्जैन में, बनारस में, पटना में और अब तो दिल्ली में भी हैं। डॉक्टर जीकल मिस्टर हाइड, बाहर समाज में सुवर्ण के भोले मृग की तरह दिखाई देने वाले अंत:कालनेमि, जिन्हें मैं बहुत निकट से जानता हूँ, ऐसों के बारे में अपने संस्मरण यदि कभी मैंने लिखे तो उसका उद्देश्य भण्डाफोड़ या व्यक्तिगत विद्वेष नहीं होगा। उद्देश्य होगा यह प्रमाणित करना कि कुछ सत्य ऐसे भी होते हैं जिन्हें कल्पना तक छू नहीं सकती, जैसे दिग्गजाकार ‘निराला’ पर मूषकाकार पब्लिशर का आक्रमण कर बैठना।
अपनी याददाश्त पब्लिक की जानकारी के लिए लिखने में आत्म-प्रशंसा और अहंकार-प्रदर्शन का बड़ा खतरा रहता है। ऐसे संस्मरणों में किसी एक मन्द घटना के कारण अनेक गुण-संपन्न पुरुष पर अनावश्यक आँच भी आ सकती है। मैंने आगे लिखा है कि ‘आज’ के संपादक बैरिस्टर श्रीप्रकाश ने मेरी पहली कहानी बिना पढ़े ही कूड़े की टोकरी में डाल दी थी। इस एक ही वाकये से आदरणीय श्रीप्रकाशजी को गलत समझना उजलत भी हो सकती है। बाद में श्रीप्रकाशजी मेरी रचनाओं के प्रॉपर प्रशंसक रहे और आज भी मुझ पर तो उनका प्रसाद ही रहता है।
इन संस्मरणों को पढ़ने पर किसी को ऐसा लगे कि मैंने निन्दा या बुराई किसी की की है तो यही मानना होगा कि मुझे ठीक तरह से लिखना आया नहीं। दूसरा तर्क यह कि आइने में अपना मुँह देख कोई यह कहे कि दर्पण तो उसका निन्दक है, दुष्ट दोष-दर्शक, तो ठीक है। और अफसोस की बात है कि दर्पण अंधा पत्थर नहीं, देखता-दिखाता दरसक-दरसाता दर्पण है।
‘मेरे प्रकाशक’ नाम से यदि मैं कभी अपने संस्मरण पब्लिशरों के बारे में लिखूँ तो कम-से-कम पाँच सौ पन्ने का पोथा प्रचण्ड प्रस्तुत हो—महान् मनोरंजक। मेरे बाकायदा प्रथम पब्लिशर श्री पन्नालाल गुप्त नामक एक सज्जन थे। बनारस में नीची बाग में उनकी छोटी-सी दुकान थी। पन्नालालजी मुझे दो रुपए रोज़ देते और मैं उन्हें ‘महात्मा ईसा’ नाटक का एक दृश्य लिखकर देता था।
दूसरे प्रकाशक ‘मतवाला’ के संचालक श्री महादेव प्रसाद सेठ थे, जिनकी मुख्य लत थी गुणियों पर आशिक होना। मुंशी नवजादिक लाल, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, शिवपूजन सहाय, सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ आदि में, जिसमें जो भी खूबियाँ थीं उन्हें खूब ही सहृदयता से परख, खूब ही प्रेम से पूजा महादेव सेठ ने।
महादेव बाबू ‘निराला’ जी पर ऐसे मुग्ध थे कि उन्हें गुलाब के फूल की तरह हृदय के निकट बटनहोल में सजाकर रखते थे। अघाते नहीं थे महादेव सेठ उदीयमान कवि ‘निराला’ के गुण गाते! यह तब की बात है जब ‘निराला’ को कोई कुछ भी नहीं समझता था। आज तो बिना कुछ समझे सबकुछ समझने वाले समीक्षक स्वयंसेवकों की भरमार-सी है।
महादेव प्रसाद सेठ के सहृदय बटनहोल में ‘निराला’ मुझे ऐसे आकर्षक लगे कि देखते-ही-देखते उसमें मैं-ही-मैं दिखाई पड़ने लगा। महादेव बाबू से मेरी पहली शर्त यह थी, कहिए अनुबन्ध, कि वह पच्चीस रुपए माहवारी मेरे घर भेजेंगे और स्वयं जो खाएँगे मुझे भी वही खिलाएँगे: दूसरे दिन दोपहर में जब सेठजी अंगूर खाने बैठे तब ईमानदारी से अपने अंश के आधे अंगूर उन्होंने मेरे सामने पेश किए। इस पर माशूकाना अदा से मैंने कहा, ‘यह गलत है।’ ‘गलत क्या महाराज?’ विस्मित हो पूछा प्रेमी प्रकाशक ने। मैंने कहा, ‘मेरी आपकी यह शर्त नहीं थी कि मैं आपकी खूराक आधी कर दूँ। शर्त है कि जो आप खाएँ वही मैं भी खाऊँ। आप रोज़ आधा पाव अंगूर खाते हैं, तो आधा ही पाव मेरे लिए भी मँगाया करें।’ मेरे इस उत्तर पर महादेव प्रसाद थे सौ जान से कुरबान!
महादेव प्रसाद सेठ साहूकार वंश में उत्पन्न हो व्यापारी गादी पर बैठने पर भी फलों से लदे रसिक रसाल-जैसे थे जिन्हें अपने फल लुटाकर द्विजगण का कलरव श्रवण करना ही रुचता था। लेकिन आदमी का सुख विधना को कहाँ सुहाता है! मौसम बदला, फल झड़े, द्विज-दल उड़े— न स्वर, न गान, न मण्डली, न कलरव। अप्रत्याशिक पतझड़ आया, महादेव सेठ-रूपी रसाल अकाल ही सूख गया। पुण्य प्रकाशक दिवंगत महादेव प्रसाद सेठ का चरित्र परम उदात्त, जिसके लिए पन्ना नहीं पोथी चाहिए।
फिर भी यह सब मैं आज लिख रहा हूँ विवेक का ठेला लेकर। जब तक महादेव प्रसाद सेठ थे, मैं (ग़ज़ल के माशूकों की तरह) उन्हें गालियाँ ही देता रहा। और वह थे कि मेरा मुँह न देख मुझमें जो कलाकार था उसी को सराहते-चाहते थे।
लेकिन दबते नहीं थे महादेव सेठ। वह दार्शनिक की तरह अनादर-आदर के ऊपर हो रहते थे। बस एक ही दिन उन्होंने मेरे दुर्वचनों का विरोध किया और मुझे ऐंठकर रख दिया था। ‘महाराज,’ उन्होंने हुक्के की कश का धुआँ लम्बी मूँछों से छोड़ते हुए कहा, ‘आप गाली ऐसे को दिया करें जो आपको उसका उत्तर दे। मैं चुप रहूँ, आप गालियाँ देते रहें; आप कायर हो जाएँगे।’
महादेव प्रसाद सेठ के इस अहिंसक वाण ने मेरे प्राणों को कँपा, हिला, झकझोरकर रख दिया। हम दोनों एक ही कमरे में पाँच गज़ के फ़ासले पर सोया करते थे। पिछली रात तक मैं घुटता रहा। अंत में मैंने उन्हें जगाया ही— ‘महादेव बाबू, मैं आपसे माफी माँगता हूँ, मुझे नींद नहीं आ रही है।’ ‘आप बड़े आदमी हैं,’ उस तेजस्वी पब्लिशर ने मेरी उग्रता पर सान धरते हुए आशीर्वाद के स्वर में कहा था, ‘ये बड़े आदमियों के लक्षण हैं।’
‘निराला’ ने जब उस पब्लिशर पर प्रत्याक्रमण किया तब वह ‘मतवाला’ कार्यालय ही में रहा करते थे। वह प्रकाशक आया था उन दिनों खूब ही बिकती उग्र-लिखित पुस्तकों का आर्डर लेकर। उसी वक्त मेरे किसी तीव्र ताने से तनकर मेरे ही टेबल पर से बड़ी छुरी उठाकर ‘निराला’ सनसनाते सड़क पर चले गए थे। ‘मतवाला’ ऑफ़िस से सौ-ही-डेढ़ सौ गज़ों की दूरी पर उन्होंने प्रकाशक पर आक्रमण किया। भगवान् ने रक्षा की— वे दोनों मेरी छुरी खोल ही रहे थे कि पास-पड़ोसवालों ने उन्हें पकड़ लिया।
इसके बाद ‘निराला’ तो ‘मारकर टर रहे’, लेकिन वह प्रकाशक पलटकर पुन: ‘मतवाला’ कार्यालय में आया और महादेव सेठ पर गड़गड़ाने लगा कि तुम्हीं ने मेरी दुर्गति कराई है। जब वह बक-झककर चला गया तब ‘निराला’ जी आए। ‘निराला’ को देखते ही दृढ़ क्रोध से कड़ककर महादेव सेठ ने कहा, ‘मेरे यहाँ कोई बिजनेस करने आएगा तो आप उसे मारेंगे? यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता। आप अपना बिस्तर यहाँ से ले जाइए।’
नतीजा यह हुआ कि बोरिया-बँधना सँभाल महाकविजी उस वक्त चलते-फिरते नज़र आए। अब पुन: मेरी बारी आई। मैंने कहा, महादेव बाबू! बिस्तर आप मेरा भी बँधवाएँ, क्योंकि मेरी उत्तेजना से “निराला” ने अपने अपमान का बदला लिया था। कानून हाथ में लेकर प्रकाशक ने पहले “निराला” पर अपमानक आक्रमण क्यों किया, खासकर अपनी दूकान में? सारी सड़क पर आपका बिज़नेस नहीं होता। उन्होंने ‘मतवाला’ कार्यालय से काफी दूर पर स्वाभिमान का हिसाब सेटल किया था। सो भी होश में नहीं, मेरे शब्दों के नशे में। यह अगर गलती है तो ‘उग्र’ की है, ‘निराला’ की नहीं।
और अन्त में, महादेव प्रसाद सेठ ने महसूस किया कि आवेश में प्रिय महाकवि को बिस्तर गोल करने का हुक्म देकर उन्होंने बिज़नेस की भावना पर तरजीह दी थी। वह ‘निराला’ की बड़ी कद्र करते थे। भागे-भागे उनके नए स्थान पर गए। चरण पकड़कर भावुक, सहृदय, सुपठित प्रकाशक महादेव प्रसाद सेठ ने महाकवि से माफी माँगी।
‘निराला’ ने ‘मतवाला’ के दरवाज़े पर आकर मुझे बुलाकर शाबाशी के लहजे में कहा, ‘तुम मर्द हो!’
‘निराला’ व्यक्ति पर भी संस्मरणों की निहायत चुस्त पुस्तिका प्रस्तुत की जा सकती है— उस रंग की जिससे यह झलके कि वह धरती के हैं, हमी आपमें से सबके सिद्ध, न कि उस रंग की जिससे यह ज़ाहिर हो कि वह आदमी तो हैं अपोलो और भीम-जैसे, लेकिन न तो उनमें हड्डी है और न बाल। वही हनुमानजी बिना पूँछ के!
—पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’
25.12.60
कृष्णनगर, दिल्ली-31
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