आत्मकथा – बच्चा महाराज – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
‘बाबू!’ जवान लड़के ने वृद्ध, धनिक और पुत्रवत्सल पिता को सम्बोधित किया।
‘बचवा… !’
‘मिर्ज़ापुर में पुलिस सब-इन्स्पेक्टर की नौकरी मेरा एक दोस्त, जो कि पुलिस में है, मुझे दिलाने को तैयार है। क्या कहते हो?’
‘धन्यभाग्य, बचवा!’ प्रसन्नप्राय पिता ने सुनाया, ‘पुलिस में तो हवलदार भी हो जाना घर में लक्ष्मी का पाँव तोड़कर बैठना होता है।’
‘दोस्त ने लिखा है कि सब-इन्स्पेक्टरी तो धरी-जैसी है, लेकिन…’
‘लेकिन क्या, बचवा?’
‘कोशिश-पैरवी में कुछ तो ख़र्चा-वर्चा लगेगा ही। रुपए डेढ़ सौ लगेंगे, तब मैं सब-इन्स्पेक्टर बन सकूँगा। मेरी चेष्टा भरसक यही रहेगी कि चुनार ही में मेरी नियुक्ति हो।’
चुनार में अपना बेटा छोटा दारोग़ा होगा, इस कल्पना ही ने वृद्ध पिता को कुछ ऐसा गुदगुदाया कि तिजोरी खोलकर उसने उसी समय डेढ़ सौ लाईदार विक्टोरिया रुपए बेटे के आगे गिन दिए। बेटे राम उसी समय दुघड़ी साध दो ही दिन बाद लौटने का वायदा कर मिर्ज़ापुर को रवाना हो गए। एक दिन, दो दिन, तीन और चार दिन जब गुज़र गए तो पाँचवें का भी प्रभात हो गया तब पिता का माथा ठनका। उसे दाल में काला-ही-काला दिखाई पड़ने लगा। तब तक एक जाने-पहचाने महाशय मिर्ज़ापुर से आए, जिनसे वृद्ध व्याकुल बाप ने पूछा, ‘क्यों भाई, मेरे बेटे का भी कोई खोज-पता है?’
‘क्यों नहीं! उसके तो गुलछर्रे हैं आजकल…’ पिता को पूर्ण विश्वास हो गया कि उसका पूत निश्चय ही सब-इन्स्पेक्टर-पुलिस हो गया।
‘गुलछर्रे? तो हो गया वह सब-इन्स्पेक्टर-पुलिस? भई, क्या ख़बर तुमने सुनाई है! चलो मेरे घर, तुम्हारा मुँह मीठा कराऊँ।’
‘मगर कौन भकुवा सब-इन्स्पेक्टर-पुलिस बना?’ हैरान परिचित ने कहा, ‘वह तो पिछले पाँच दिन से मिर्ज़ापुरी इक्के पर दो-दो तवायफ़ें बैठाए, अफ़ीम के ऊपर शराब चढ़ाए वहाँ के अय्याशों में चुनार का झण्डा फहरा रहा है। जाकर देखिए भी।’
इस पर हाय-तौबा करता हुआ बूढ़ा लालची बाप जब तक मिर्ज़ापुर पहुँचा तब तक पुत्र महाशय डेढ़ सौ तो उड़ा ही चुके थे, ऊपर से रण्डी-भड़वों के पचास रुपयों के कर्ज़दार भी हो चुके थे। लाचारी थी, बेटा अपना था, बदनामी का बड़ा भय था। अत: पिता ने पचास रुपए और पानी में डालकर बेटे का उद्धार किया। पिता का नाम था ब्रह्मा मिश्र, पुत्र का महादेव मिश्र उर्फ़ बच्चा महाराज।
मुहल्ला सद्दूपुर के सबसे अधिक धन-पुष्ट ब्राह्मण थे ब्रह्मा मिश्र। हमारे कच्चे मकानों में परम पक्की हवेली एक उन्हीं की थी। पहली पत्नी से बच्चे न होने के सबब ब्रह्मा मिश्र ने दूसरी शादी की थी। तब महादेव मिश्र, एक भाई तथा तीन बहनें पैदा हुईं। महादेव मिश्र उर्फ़ बच्चा महाराज ने क्या पढ़ा था, कहाँ पढ़ा था, मुझे आज भी पता नहीं, पर सारे जीवन वह प्रथम श्रेणी के धूर्त, ऐय्यार, वस्तुत: बदमाश थे। वह उस सीमा के दुष्ट थे जिसके एक ही जूता आगे सहृदय सज्जनता का हलक़ा शुरू हो जाता है। वह बहुत आकर्षक वक्ता, सुरीले, परम रंगीन मिज़ाज, परम धूर्तराज, सर्वभक्षी, सर्वपायी और भगवान् झूठ न कहलाए—सर्व-भोगी थे। जवानी में उन्होंने चेचक का टीका लगाने वाले सरकारी इन्स्पेक्टर का काम कुछ बरसों किया; कुछ बरसों चुनार के चर्च मिशन स्कूल में संस्कृत-हिन्दी टीचर रहे। शेष सारा जीवन बच्चा गुरु ने अद्भुत, आकर्षक आवारगी में बिताया। बच्चा महाराज अभी गत कल तक जीवित रहकर प्राय: नब्बे वर्ष की दीर्घ उम्र में मरे। अन्त काल तक उनकी रंगीन-मिज़ाजी उनके साथ रही। बच्चा गुरु मेरे पिता के समवयस्क, मेरे बड़े भाई को चौपट घाट उतारने वाले और मेरे तो गुरु ही थे। चर्च मिशन स्कूल, चुनार में तीसरी से छठी क्लास तक पं. महादेव मिश्र से मैं कोर्स की किताब की हिन्दी पढ़ता था। बच्चा गुरु अध्यापकी यों करते थे कि किसी पैसे वाले छात्र को दक्षिणा लेकर मानीटर बना देते थे। इसके बाद क्लास में आते ही वह तो कुरसी पर बैठे-बैठे टेबल पर पाँव पसार अफ़ीम के नशे में अध-सो जाते और राज करता था मानीटर। मुहल्ले का होने से उनकी शराब-कबाब, जुआ-मण्डली में लघु सेवक की तरह उपस्थित रहने वाले की हैसियत से, मुझे भी गुरुजी ने मानीटर बना दिया था।
गुरुजी मज़बूत-कमज़ोर दोनों ही प्रकार के छात्रों से ऊपर की आमदनी करना सनातन धर्म की रू से अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मानते थे। चवन्नी से लेकर दस-पाँच रुपए तक सामर्थ्य ताड़कर बच्चा गुरु छात्र या उसके पिता से ले लेते थे। दक्षिणा के बाद कर्ज़ भी लेने में उन्हें संकोच न होता। ग़रीब छात्रों से गाँव का घी, शहद, नया गुड़, तेल के अचार, ईख का रस, बाजरा, अरहर, जो भी सम्भव होता, ले लेते। मानीटर की हैसियत से मैं भी कमज़ोर कामरेडों से मुफ़्त की मिठाइयाँ और फल खा लेता था। हत्थे न चढ़ने वालों को स्वयं साधारण छात्र होने के बावजूद गुरुजी की कृपा से मैं मार तक बैठता था।
बच्चा महाराज महा भयानक, साथ ही, महा विचित्र व्यक्ति! भयानक भी विचित्र होते ही रसज्ञों के देखने की वस्तु: एक रस हो जाता है। है कि नहीं? बच्चा गुरु टीचर रहे हों या वैक्सिनेटर; सरकारी नौकरी में रहे हों या अर्ध-सरकारी; अफ़ीम, शराब, वेश्या और जुआ हमेशा उनके संग रहे। साथ ही, नित्य नेम से पूजा-पाठ भी। युगों तक वह मिट्टी का महादेव बना, हाथ का अर्घा, पार्थि-पूजन किया करते थे। दुर्गासप्तशती का पाठ भी उन्हें प्रिय था। वह स्तुति के श्लोक इतनी तन्मयता से, भावुकता से, स्वर और विरामयुक्त कहते थे कि लगता था इष्टदेव से प्रत्यक्ष बातें कर रहे हैं। शंकराचार्य द्वारा प्रस्तुत भगवती की शिखरणी छन्द वाली स्तुति का गान वह भाव-विभोर होकर करते थे। ‘गीतगोविन्द’ के पद और ‘विनयपत्रिका’ के अनेक पद वह बहुत ही तेजस्विता से उपस्थित करते थे। ज्योतिष और वैद्यक, तन्त्र और मन्त्रों में भी उनकी मार्मिक गति थी। वह बात-बात में कोई तेज़ फ़िकरा, कोई श्लोक-खण्ड, कोई दोहा-चौपाई, शेर या कहावत जोड़ने में निहायत निपुण थे।
लेकिन पूजा के समय जो वह विग्रह के सामने मुँह बना, आँखों में आँसू भर लेते थे, वह यही सोचकर कि भगवान् भी ऊपर-ही-ऊपर देख धोखा खा सकता है। साथ ही, वह ख़ासकर भगवान् को भी पाठ पढ़ा सकते हैं। मुझे आज भी मज़े में याद है बच्चा गुरु के भाव जो वह जुआ में कौड़ी-कप्तेन विपरीत पड़ने पर व्यक्त किया करते। ‘हे नाथ!’ वह भगवान् को सम्बोधित करते—‘कहाँ भूल गए दयालो! दास को? प्रभो, दीनबन्धो, दया करो!’ और कौड़ी-कप्तेन अपने पक्ष में पड़ते ही वह तड़पकर ‘विनयपत्रिका’ सुनाने लगते: जयति राज राजेन्द्र राजीव लोचन राम, नाम कलिकामतरु सामशली। हेलया दलित भूभार भारी!
उन दिनों घर, मैदान, गंगा में नाव पर, पास के गाँवों में, जहाँ भी जुआ होता बच्चा गुरु उसमें ज़रूर उपस्थित होते। इस तरह गुरुजी ने इतनी बड़ी ज़िन्दगी आख़िर बिताई कैसे? जुआ के लिए पुष्कल पैसे आवश्यक होते हैं। ठीक है। बच्चा गुरु ने उसकी युक्ति सोच रखी थी। पहले उन्होंने ख़ासी सम्पत्ति में जो उनका हिस्सा था उसे चुपचाप अपने छोटे भाई के नाम लिख दिया और फिर सूदख़ोर बनियों से उसी सम्पत्ति पर ऋण-पर-ऋण लेना शुरू किया। क़लई खुली तब जब किसी बनिये ने दावा किया। कुर्की लेकर आने पर पता चला कि बच्चा गुरु का तो परिवार की सम्पत्ति से अरसे से कोई वास्ता ही नहीं। मैंने कहा, चुनार में बच्चा गुरु की सबसे ज़्यादा जजमानी थी और उन दिनों, फिर भी, कैसे भी, ब्राह्मण को कष्ट देते हुए सेठ-साहूकार, श्रीमान्, कम्पित होते थे। सो, साहूकारों ने कई हज़ार रुपए बट्टेखाते डाल, कान पकड़, जीभ दाबकर मंजूर किया कि चुनार में कोई गुरु है तो वह है पं. महादेव मिश्र उर्फ़ बच्चा महाराज। हज़ारों वाले तो बच्चा गुरु को ब्राह्मण जान ग़म खाकर रह गए, लेकिन एक कोई बनिया ऐसा भी था जिसने सौ-पचास रुपए के लिए केस, डिग्री करा, अदालत के अहाते ही में गुरु को धर पकड़ा था। निर्णय था कि या तो वे रुपए देते या जेल जाते। बच्चा गुरु को जब हथकड़ी लगने लगी, उन्होंने अधिकारियों से अपने घर चलने को कहा, ताकि वह रुपये दे सकें। हथकड़ी पहने ही सिपाहियों के साथ अपने मुहल्ले में लाए गए, लेकिन इस शान से उनके आने का समाचार सुनते ही उनकी मालदार माता ने एक दमड़ी भी न देने का निश्चय कर घर का मज़बूत दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लिया था।
लेकिन, गुरुजी गुरु ही थे। चारों तरफ़ से हताश होने पर उन्होंने ऋण-दाता ही को दबोचा— ‘चल, नीच बनिये। ॐ फट् स्वाहा! कर ब्रह्म हत्या’ क्योंकि जेल में मुझे अफ़ीम मिलेगी नहीं और बिना अफ़ीम मैं एक सैकण्ड जी नहीं सकता। चल, मैं ब्रह्म राक्षस बनकर तुझसे न निपटूँ तो ब्रह्मा मिश्र का नुत्फ़ा नहीं। अभी तुझे पता नहीं है कि ब्राह्मण कैसा होता है। बच्चूजी! अब तुम पड़े कठिन रावण के पाले। और पाठक विश्वास करें, वह बनिया भी खून घूँटकर रह गया था, लेकिन गुरुजी से छदाम भी उसके पल्ले न पड़ा था। और साहब, सारे जीवन कोई-न-कोई मतिमन्द, गाँठ का पूरा, उनके हत्थे बराबर चढ़ता ही रहा। अफ़ीम के ऊपर गाँजे की लम्बी चिलम एक ही हाथ की मुट्ठी से फुकफकाकर लपलपाते हुए बच्चा गुरु निहायत लापरवाह भाव से ललकारते थे— अगड़ बम! कमाए दुनिया खाएँ हम! भोले अगड़ धत्ता! चिलम पर चढ़ाकर फूँक दिया कलकत्ता!
मैं समझता हूँ साठ वर्ष की उम्र में बच्चा गुरु ने जुआ कम कर दिया था। अब वह बनारस के विख्यात वेश्या-बाज़ार दाल मण्डी के (जिसका चप्पा-चप्पा उनका जाना-बूझा था) आचार्य बन गए। साठ से प्राय: नब्बे की उम्र तक गुरुजी, सारा बनारस जानता है, सारे बनारस की वेश्याओं के विदित आचार्य थे। हर वेश्या चाहती कि वह उसी के घर पर रहा करें, क्योंकि गुरुजी सुन्दरी स्त्री के पीर-बावर्ची-भिश्ती–खर तक आकर्षक प्रसन्नतापूर्वक बन जाते थे। वह वेश्याओं के घर जप-पूजा, सत्यनारायण, दुर्गासप्तशती के पाठ ललककर करते। उनके बच्चों की जन्म-कुण्डलियाँ बना देते, दलदार गबरू बनारसियों से उनका प्रोपेगण्डा कर देते। वह वेश्या को यार के यहाँ और मालदार आसामी को तवायफ़ के यहाँ स्वयंसेवकों की तरह पहुँचा देते। बच्चा गुरु की यह विशेषता थी कि उनकी सहानुभूति संसार के हर जीव से थी। किसी का कोई भी काम (सेवा नहीं) महज़ सहज रूप से आनन-फानन अंजाम देने को वह सदा ही तत्पर रहते थे। मुहल्ले के कुछ लोग यह मानते कि बच्चा गुरु की परोपकार-तत्परता दलाली कमाने-मात्र की थी और वह दो उलझनों के निकट पार्टियों को पूर्णत: उलझाकर अपना उल्लू सीधा किया करते थे। हो सकता है, उनकी नीयत यही रही हो, लेकिन आज मुझे लगता है कि जन-सेवा — सारी बुराइयों के बावजूद — उनकी जान में घुली-मिली हुई थी। गीता में ‘पण्डित’ उसे माना गया है जो विद्या-विनय-सम्पन्न ब्राह्मण, गौ, हाथी, कुत्ता और चाण्डाल को भी समदर्शी-भाव एक नज़र से बराबर देखता हो। यथाशक्ति सबका कल्याण साधने में बच्चा गुरु समदर्शी थे। ब्राह्मण की सहायता करते हुए यदि कभी उन्हें चाण्डाल दुखग्रस्त नज़र आया होगा, तो उसी आग्रह से उसके लिए भी उन्होंने सोचा होगा। भले ब्राह्मण का काम करते समय गुरुजी गंगा के गुण-गान करते: त्वत्तीरेवसत: त्वदम्बु पिवत: और भंगी-मेहतर की मदद करते समय उनके लिए बुरी-बुरी गालियाँ मुँह से निकालते। बच्चा गुरु सौ में नब्बे बार निर्विकार लच्छेदार गालियाँ सुनाया करते थे। और तो और, गुरुजी जिन्हें गालियाँ सुनाते थे वे भी सहज प्रसन्न हँसा करते थे। चाहते थे कि गुरुजी और बकें।
और अब मेरे सामने चित्र आता है गुरुजी की विवाहिता धर्म-पत्नी गुलजारी चाची का। शायद वही बच्चा गुरु के जीवन की आदि या बुनियादी ट्रेजेडी रही हों। वह बड़ी कुरूपा थीं। उनका मुँह चेचक के दाग़ों से भरा, गोल, नाक छोटी, होंठ मोटे, छरहरी-लम्बी गुलजारी चाची। वह शायद बेशऊर स्त्री भी थीं। कहाँ बच्चा गुरु-जैसा रंगीन-मिज़ाज वाममार्गी, कहाँ गुलजारी चाची-जैसी रंगभंगिनी वामांगिनी! सो, ज़रूर विस्फोट हुआ होगा। बच्चा गुरु गुलजारी चाची को अपने शयन-कक्ष में कभी न बुलाते, बशर्ते कि अफ़ीम-विषयक कोई हाजत न हो और चन्द क्षणों के लिए भी चाची को देखते ही बड़े ज़ोर-ज़ोर से चीखते, ताकि सारा मोहल्ला सुने और जाने कि बच्चा गुरु अपनी पत्नी को लताड़ रहे हैं। वह उसे बुरी-से-बुरी गालियाँ सुनाते। और वह भी थी कि अपने दुर्भाग्य ही जैसी; बीच में फूटे ढोल-जैसे कण्ठ से कुछ-न-कुछ कु-भाषा बोल ही देती। बच्चा गुरु गुलजारी चाची को अक्सर मारते और अपनी जननी को भी परम अशोभन रूप से डाँटते-फटकारते थे।
गुरुजी जिस भी वेश्या के घर में कुछ दिनों टिककर रहे होंगे, ज़रूर कोई-न-कोई बहुत ख़ूबसूरत देख लेने के बाद। वह वेश्या की नवोढ़ा बेटी को मद्दे-नज़र रख उसकी माता से मुहब्बत करते थे। फिर उसे समझाते कि फलाँ ढंग से अगर यह लड़की पूजन-अनुष्ठान करे तो लखपती तो फँसा ही धरा है। और रंग बाँध, रण्डी को धूर्त्तता में बाँध, उसी के घर में कम-से-कम इक्कीस दिन का अनुष्ठान शुरू करते।
अब आप बच्चा गुरु का हुलिया नोट कर लें— पौने छ: फुट लम्बे, छरहरे, गेहुआँ रंग, बड़ी-बड़ी भावुक आँखें, हमेशा मुखरित होने को फड़कते ओष्ठाधर, साधारण मूँछें, घुटी दाढ़ी, सिर पर इंगलिश-कट केश। बच्चा गुरु फ़ेल्ट टोपी, बनियान, कड़े कालर-कफ़ की कमीज़, शेरवानी, नफ़ीस धोती, जुर्राब और पम्प शू या विलायती कट बूत पहना करते थे। नाक पर हमेशा चश्मे, हाथ में बराबर छड़ी। अँगुलियों में अँगूठियाँ, जेब में रेल-गार्ड घड़ी (जो उन्होंने जुए में किसी जुआरी गार्ड से जीती थी), एक हाथ में मलाई का पुरवा, दूसरे में नमकीन और मिठाई के दोने। साथ में एक-दो गण या चेले। अफ़ीम, गाँजा या मदिरा, अथवा इनमें से दो या तीनों के नशे में धुत वह जब रास्ते में चलते थे, सारी राह पाँवों से कहीं ज़्यादा तेज़ बच्चा गुरु की जुबान चलती थी।
अब जब चर्चा चल ही पड़ी है, तो और एक चित्र गुरुजी का दिखलाऊँ। बच्चा गुरु ब्राह्मण-वेश में चन्दन और चश्मे चढ़ाए, उत्तरीय ओढ़े, ऊन के आसन पर नशे में चक्क जमे कोई मन्त्र कई बार जपने के बाद सामने बैठी युवती की ओर फूकें मार रहे हैं। युवती गुरु की चहेती वेश्या की बेटी है। नथुनी अभी उतरी नहीं है। वह सुमुखी, सुनयना, गौरी, मतवाली —गुरु की नज़रों में ब्लैक लेबिल जानीवाकर व्हिस्की की उल्लास-लासमयी प्याली। युवती सुनयना को उसकी माता की हिदायत थी कि वह बराबर गुरुजी की तरफ़ देखती रहे, ध्यान से, ताकि पूरी तरह लाभ हो मन्त्र-अनुष्ठान से।
वेश्या-बाज़ार में यार की तरह, ऐयार की तरह, तन्त्री की तरह, मन्त्री की तरह, बुजुर्ग की तरह, बाबा की तरह, तरह-तरह की सूरतें हर तरह से देखते ज़िन्दगी के राजपथ से बच्चा गुरु लहर-बहर प्राय: नब्बे की उम्र में गुज़रे। अन्त में वे धनुष की तरह झुककर चलते थे। परन्तु उनकी आँखें बोलतीं, बड़ी और आवाज़ कड़कदार अन्त घड़ी तक वैसी ही रही। बच्चा महाराज किसी का भी बुरा नहीं चाहते थे, फिर भी, उनके विचित्र चरित्र के आकर्षण से मुहल्ले के तरुण बरबाद हो गए। कुछ नहीं तो सैकड़ों तरुणों को उन्होंने हराम-घाट पर इस उत्साह से उतार दिया होगा मानो राम ही का काम अंजाम दे रहे हैं!
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