आत्मकथा – बाबू शिवप्रसाद गुप्त’ – (लेखक – पांडेय बेचन शर्मा उग्र)
तो? तो क्या बाबू शिवप्रसाद गुप्त को भी स्वर्ग के फाटक से नहीं गुज़रने दिया गया? बाइबिल में लिखा है : सुई के सूराख़ से ऊँट निकल जाए — भले, परन्तु धनवान स्वर्ग के फाटक से त्रिकाल में भी नहीं गुज़र सकता। बाबू शिवप्रसाद गुप्त ग़ैर-मामूली धनवान—कहते हैं करोड़पति—ज़मींदार-साहूकार के उत्तराधिकारी थे। अगर मुझे मज़े में विदित न होता कि दोष देवताओं में भी होता है, तो दिवंगत बाबू साहब को मैं आदमी न कह देवता ही कहता। लेकिन जहाँ तक मुझे मालूम है देवताओं का दिल नहीं होता और आदमी यदि भरत बन जाए या बुद्ध, ईसा या श्री रामकृष्ण परमहंस या गांधी तो वह सर-से-पाँव तक दिल-ही-दिल दिव्य दिखलाई देता है। सावन के सघल-घन की तरह शिवप्रसादजी सहज स्वभाव से सभी के लिए जीवन-मय-सजल थे। उनके रहते ‘सेवा उपवन’ एक विशाल अतिथि-निवास था। किसी तरह का भी गुणी हो, गुप्तजी के मन में उसके लिए उदार आदर-भाव सुरक्षित था। विद्यार्थियों को, विद्यालयों को, समाज-सेवकों को, राष्ट्र-कर्मियों को, नेताओं को मालवीयजी और गांधीजी को बाबू शिवप्रसाद गुप्त मुक्तहस्त दान दिया करते थे, वह भी भावपूर्ण भक्ति से। महामना मालवीयजी पर तो वह लोटपोट-मुग्ध थे, उन्हें पिता अपने को पुत्र और गोविन्द मालवीय को भाई कहा करते थे। मालवीयजी भी बाबू शिवप्रसाद गुप्त को इतना मानते थे कि काशी में उन्हीं के यहाँ रहते, उन्हीं का अन्न पाते थे। ज्ञानमण्डल को ज्ञानमण्डल बनाने में शिवप्रसादजी के लक्ष-लक्ष रुपये अलक्ष हो गए। ‘आज’ को ‘आज’ बनाने में। ‘भारतमाता का मन्दिर’ की भव्य कल्पना को दिव्य आकार देना, काशी विद्यापीठ की बुनियाद डालना दिवंगत गुप्तजी ही का प्रसाद है। काशी में जो भी राष्ट्रीय चेतना जाग्रत हुई उसकी प्रेरणा में गांधीजी के बाद बाबू शिवप्रसाद गुप्त ही का नाम लेना मुझे समुचित लगता है। शिवप्रसादजी के प्रसाद का पुण्य-प्रकाश सारे उत्तर प्रदेश में, खुशबू सारे देश में थी। शिवप्रसादजी इतने मोटे थे कि लगता था उनका विशाल हृदय बूझकर ही विधाता ने वह बड़ा-घर उन्हें बख़्शा था। शिवप्रसादजी का बँगला बड़ा, मोटर बड़ी, कैसे बड़े-बड़े वायलर घोड़ों की जोड़ी थी उनकी, जिसके पीछे वर्दी-धारी दो-दो साईस राहगीरों को तेज़ स्वर से सावधान करते रहते थे। शिवप्रसादजी खाने और खिलाने के भी बड़े शौकीन थे। घर की बात अलग, यात्रा में भी उनके साथ पूरा भण्डारा चला करता था। काशी में आकर कोई भी बड़ा आदमी ‘सेवा उपवन’ ही में सुविधा, आतिथ्य और सुख पाता था। अक्षरश: रईस थे श्रद्धेय शिवप्रसादजी गुप्त। ऐसे जैसे को जेल तो कदापि नहीं होना चाहिए थी। लेकिन भला अंग्रेज़ कब छोड़नेवाला था। उन्हें भी सीख़चों में बन्द किया ही गया। शिवप्रसादजी-जैसे रईस को जेल देना फाँसी देने के बराबर था। हृदयहीन कानून ने ऐसा समझा ही नहीं। वह जेल ही में बीमार पड़ गए। छूटे, तो उन्हें फ़ालिज मार गया। फ़ालिज मार गया? शिवप्रसाद गुप्त को? ऐसे नेक-दिल आदमी को जिसकी तुलना देवता से भी करने को मैं तैयार नहीं? तो यह सारे-का-सारा उत्तम अभियान, विधिविहित दान, सबकी पूजा, सबका सम्मान, सबके लिए अपार मोहमय प्यार सदाचार नहीं, अपराध था? क्योंकि शिवप्रसादजी को विकराल, भयानक दण्ड मिला— जिसे छ: महीने की फाँसी कहते हैं। जिस ‘सेवा उपवन’ में उन्होंने सारे संसार की सेवा की थी उसी में बहुत दिनों तक वह पक्षाघात से परम पीड़ित पहियादार गाड़ी पर झुँझलाते, खुनसाते घुमाए जाते थे। वह अक्सर बनारसी बोली में व्यथा-विह्वल दोहाइयाँ दिया करते थे — ‘रमवाँ, रे रमवाँ! कौन गुनहवाँ करली रे रमवाँ!’ तो? तो क्या बाबू शिवप्रसाद गुप्त को भी स्वर्ग के फाटक से नहीं गुज़रने दिया गया? बाइबिल में लिखा है : सुई के सूराख़ से ऊँट निकल जाए— भले, परन्तु धनवान स्वर्ग के फाटक से त्रिकाल में भी नहीं गुज़र सकता।
बाबू शिवप्रसाद गुप्त के जीवन और मृत्यु से जब मैं बच्चा महाराज के जीवन और मरण की तुलना करने चलता हूँ तो मेरी मति हैरान-परेशान रह जाती है। यद्यपि मनुष्य की दृष्टि से दोनों में कोई भी तुलना करना अनुचित-जैसा लगता है, लेकिन दैवयोग से मेरे तो दोनों ही गुरुजन थे। बच्चा महाराज ने हारकर कभी राम की पुकार नहीं लगाई। असल में वह अपने प्राइवेट अफ़ेयर्स में राम की भी दस्तंदाज़ी नहीं चाहते थे। और जैसे राम को भी बच्चा गुरु की यह सर्वतन्त्र-स्वतन्त्रता मोहक मालूम पड़ती थी। तभी तो आराम-भरा जीवन उन्हें वरदान मिला था।
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