आत्मकथा – मृत्यु का प्रभाव (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
संसार में आज जो अमन दिखलाई पड़ रहा है, धुली हुई चाँदनी सी शान्ति जो चारों ओर छिटकी हुई है। जब आप यह जानेंगे कि इसमें सबसे अधिक श्रेय मृत्यु का है, तो आपको दाँतों तले उँगली दबानी पड़ेगी। आप सोचिए संसार में आज तक जितने जीव कीड़े-मकोड़े, साँप बिच्छू चिड़ियाँ और मनुष्य उत्पन्न हुए, यदि वे सबके सब जीते होते, जितने पेड़ उगे, लता बेलियाँ जनमीं, यदि वे सब मौजूद होतीं, तो आज इस पृथ्वी पर कैसी हलचल होती। न तो रहने को कहीं जगह होती, न खाने को अन्न मिलता, सब ओर जंगल खड़ा होता, और चारों ओर एक हंगामा सा बरपा रहता। किन्तु यह मृत्यु का ही कमाल है, कि आज संसार इस खलबली से बचा हुआ है। मृत्यु का प्रभाव मनुष्य के चाल चलन और विचारों पर भी कम जादू नहीं करता, उपनिषद कहते हैं, कि ”बुराइयों से बचने की सबसे अच्छी औषधी मृत्यु की याद है, क्योंकि जिसको मृत्यु की स्मृति ठीक-ठीक होती है, उससे बुराई हो ही नहीं सकती और यही कारण है कि हमारे यहाँ मृत्यु की ओर दृष्टि अधिकता से फेरी गयी है। और बात-बात में उसकी याद दिलाई गयी है। हमारे यहाँ ही नहीं, संसार में जितने कवि, पण्डित, महात्मा और साधु संत हो गये हैं, उन सभी लोगों ने मृत्यु पर दृष्टि रखकर ऐसी-ऐसी बातें कही हैं, ऐसी जी में चुभ जाने वाली शिक्षाएँ दी हैं, जो अपना बहुत बड़ा प्रभाव रखती हैं। मृत्यु का मानव के हृदय पर क्या प्रभाव पड़ता है, उस घड़ी वह क्या विचारता है, उसकी स्मृति होने पर वह क्या सोचता समझता है, उसके जी में कैसे-कैसे भाव उठ खड़े होते हैं, इन बातों का निरूपण किस-किस तरह से किया गया है, यह मैं थोड़े में आप लोगों को यहाँ दिखलाता हूँ।
गोस्वामी तुलसीदासजी धन दौलत बरन् राज तक से लोगों का जी हटाते हुए कहते हैं, ”धन अरब खरब तक जमा किया जा सकता है, राज की हद सूर्य के निकलने की जगह से डूबने की जगह तक हो सकती है, किन्तु जब मरना आवश्यक है, तो ये सब किस काम आवेंगे”-
अरब ख़रब लौं दरब है , उदय अस्त लौं राज।
तुलसी जो निज मरन है , तो आवै केहि काज।
वही अपने एक भजन में संसार के समस्त झंझटों से लोगों को यों चौकन्ना बनाते हैं-”मन! अवसर निकल जाने पर पछतायेगा, दुर्लभ देह पाकर तुझको चाहिए कि तू भगवान के चरणों से जी जान से लपट जा। रावण और सह्स्त्रबाहु ऐसे राजे भी कालबली से न बचे, हम-हम करके धन एकत्र किया, घर बसाए, पर अन्त में खाली हाथ उठकर चले गये। लड़के, बाले, स्त्रियों स्वार्थ में डूबी हुई हैं, तू इन सबों से प्यार मत बढ़ा, और जब ये सब अन्त में तुझको छोड़ ही देंगे, तो फिर अभी से तू ही इनको क्यों न छोड़ दे। मूर्ख! सावधान हो जा, झूठी आशाओं में मत फँस, और जो सबका स्वामी है उससे प्रेम कर क्योंकि चाह की आग भाँति-भाँति के भोगों से जो उसके लिए घी का काम देते हैं, कभी नहीं बुझती”-
मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु , करम बचन अरु ही तें।
सहसबाहु , दसबदन आदि नृप , बचे न काल बली तें।
हम – हम करि धन धाम सँवारे , अंत चले उठि रीते।
सुत बनितादि जानि स्वारथ रत , न करु नेह सबहीं ते।
अंतहु तोहि तजैंगे , पामर , तू न तजै अबही ते ?
अब नाथहिं अनुरागु जागु जड़ , त्यागु दुरासा जी तें।
बुझै न काम – अगिनि , तुलसी , कहुँ विषय भोग बहु घीतें।
कबीर साहब रावण की बहुत बड़ी शक्ति का वर्णन करते हुए संसार की असारता का राग यों अलपाते हैं-”मैं क्या माँगूँ, कुछ तो ठहरता ही नहीं, देखते-ही-देखते सारी सृष्टि उठती चली जाती है। जिसके पास लंका ऐसी कोट थी जिसके चारों ओर समुद्र सी खाई थी, आज उस रावण के घर का भी पता नहीं लगता। जिसके एक लाख बेटे, और सवा लाख पोते थे, उस रावण के नाम पर आज कोई दीया जलाने वाला नहीं है। चन्द्रमा और सूर्य जिसकी रसोई पकाते थे, आग जिसके कपड़ों को साफ करती थी, वह रावण अब कहाँ है? लोई सुन! रामनाम बिना (इन बखेड़ों से) छुटकारा नहीं होता।”
पद
क्या माँगों कछु थिर न रहाई।
देखत नैन चलो जग जाई।
लंका सा कोट समुद्र सी खाई , तेहि रावन घर खबरि न पाई।
इक लख पूत सवा लख नाती , तेहि रावन घर दिया न बाती।
चन्द सूरज जाके तपत रसोई , बैसन्तर जाके कपड़े धोई।
कहत कबीर सुनहु रे लोई , राम नाम बिनु मुकुत न होई।
बाबू हरिश्चन्द्र कहते हैं, उसे भी सुनिए-
”सुबह और शाम को ये चिड़ियाँ सब क्या कहती हैं, यही कि एक दिन हम सब उड़ जाएँगी। ये सब बसेरे चार दिन के लिए ही हैं, इसी प्रकार तेरा भी यहाँ कुछ नहीं है। आठ-आठ बार बज बजकर नौबतें भी तुझको यही याद दिलाती हैं कि, जाग! जाग!! देख!!! यह घड़ी कैसी दौड़ी जा रही है। इधर-उधर से ऑंधी चलती है, और वह भी तुझको यही बतलाती है, कि सावधान हो जा। तेरी जिन्दगी हवा की तरह उड़ी चली जा रही है। सामने खड़ा होकर दीया तेरी करनी पर सर धुनता है, और कहता है कि तू क्यों नहीं सुनता, एक दिन हमारी तरह तू भी बुझ जावेगा। तेरी ऑंखों के सामने से यह नदी जो बहती हुई जा रही है, वह तुझको यही समझा रही है कि एक दिन तुम्हारे जीवन प्रवाह की भी यही गति होगी। फूल बाटिकाओं में खिलखिल कर जो कुम्हला जाते हैं, वो तुझको यह बतलाते हैं कि ऐ अचेत! एक दिन तेरी भी यही दशा होगी। पर दु:ख की बात यह है कि इतने पर भी, सब कुछ देख और सुनकर भी, तू चेतता नहीं, भूला फिरता है, और जो सच्चा साहब हैं उसको बिल्कुल भूल गया है”-
साँझ सबेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है।
हम सब एक दिन उड़ जायेंगे यह दिन चार बसेरा है।
आठ बेर नौबत बज बज कर तुझको याद दिलाती है।
जाग जाग तू देख घड़ी यह कैसी दौड़ी जाती है।
ऑंधी चलकर इधर – उधर से तुझको यह समझाती है।
चेत चेत जिन्दगी हवा सी उड़ी तुम्हारी जाती है।
पत्ते सब हिल हिलकर पानी हर हर करके बहता है।
हर के सिवा कौन है तू बे यह परदे में कहता है।
दिया सामने खड़ा तुम्हारी करनी पर सिर धुनता है।
इक दिन मेरी तरह बुझोगे कहता , तू नहिं सुनता है।
रोकर गाकर हँसकर लड़कर जो मुँह से कह चलता है।
मौत मौत फिर मौत सच्च है ये ही शब्द निकलता है।
तेरी ऑंख के आगे से यह नदी बही जो जाती है।
यों ही जीवन बह जावेगा यह तुझको समझाती है।
खिल खिलकर सब फूल बाग में कुम्हला कुम्हला जाते हैं।
तेरी भी गत यही है ग़ाफिल यह तुझको दिखलाते हैं।
इतने पर भी देख औ सुनकर क्या गाफिल हो फूला है।
हरीचन्द हरि सच्चा साहब उसको बिल्कुल भूला है।
एक उर्दू का कवि कहता है ”यह सुख चैन और आराम कब तक रहें, चाहें कब तक पूरी होती रहेंगी, और यदि ये सब बातें होती भी रहें तो जवानी कब तक रहेगी, धन दौलत की बात तो और टेढ़ी है, यह सदा पास नहीं रहा और यदि धन दौलत भी साथ देती रहे, तो जीवन का ही क्या, ठिकाना, कब तक रहेगा”-
यह इशरत व ऐश कामरानी कबतक।
इशरत भी हुई तो नौजवानी कबतक।
गर यह भी हुई तो दौलत है मोहाल।
दौलत भी हुई तो जिन्दगानी कबतक।
सुनिये-मेहर क्या कहते हैं, ”संसार की सराय कूच की जगह है, यहाँ हर एक को हर घड़ी डर रहता है, देखो! न तो सिकन्दर रहा न दारा रहा, और न फर्रंदू है, न जमशेद है। यहाँ पथिक के समान टिके हुए हो, उठो कब तक सोते रहोगे, पथ बड़ा कठोर है परलोक की यात्रा बहुत बड़ी है, स्वर्ग में पहुँचना है, इसलिए जागो, कमर को बाँधे, बिस्तर उठाओ, रात थोड़ी अब और है। हँसी खुशी, नाच रंग, सुख चैन, और आराम-दुख दर्द रंज और मलाल, गम और मुसीबत, घमण्ड करना, ऐंठना, रोब गाँठना, और इतराना, जवानी, खूबसूरती, ठाट बाट, और धन दौलत, ये सब कुछ देर के लिए ही हैं, मृत्यु सामने हाथ बाँधे खड़ी है। और पल-पल चलने का सँदेसा सुना रही है। पत्थर की मूर्ति की तरह सब के सब बिला हिले डुले पड़े हैं, यह इन लोगों की नींद है? यह लोग पहले किस दिन जगे थे, जो इस तरह अचेत सो रहे हैं। हाय! ये लोग कैसे बेसुध से पड़े हुए हैं, इनकी नींद कैसी बला की है? यह कैसी अचेतनता की हवा चल रही है? क्या मृत्यु की नींद तो नहीं उमड़ रही है, न जाने वाले कुछ ऐसा सोये हैं कि प्रलय के दिन तक भी जागते नहीं जनाते। पर दिन का जीवन, जीवन के सुख चैन और आमोद, इस-नाश होनेवाली दृष्टि का रंग, यौवन के वैभव, कभी एक ढंग पर नहीं रहते, जो कुछ दिन हँसी खुशी और मजे के साथ बीतते हैं, तो उसके बाद ही दुख दर्द और रंज का सामना करना पड़ता है। वे सुख चैन और हँसी खुशी के दिन अब बीत गये, और दुख सामने आने लगे, जवानी बुढ़ापे के साथ बदल गयी। बढ़ती दूर हो गयी, घटती सूरत दिखलाने लगी, जब अपनी करनी की याद होती है, तो जी में क्या ख्याल आता है, कैसी लज्जा होती है, मैं फिर कहता हूँ, जागो, कमर बाँधे, बिस्तर उठाओ, थोड़ी रात और है।”
शान्ति शतक बनाने वाले शिल्हन मिश्र क्या कहते हैं, उनकी बातें भी सुनिये, ”बिना जाने हुए ही फतिंगा जलते हुए दीये पर गिर पड़ता है, मछली भी बिना जाने ही मांस से ढकी हुई कटिये को पकड़ लेती है, पर हम तो जानते हुए भी विपत्ति के जाल में जकड़े हुए भोगों को नहीं छोड़ते, हाय! मोह की महिमा कैसी कठिनहै?”
” अजानन्दाहातिं विशति शलभो दीप दहनं ,
न मीनोपि ज्ञात्वावृत वडिशमश्नाति पिशितं।
विजानन्तोप्येतान् वयमिह विपज्जाल जटिलान् ,
न मुअंचाम : कामानहह गहनो मोहमहिमा। ”
कतिपय देश कालज्ञ विबुधवृन्द क्या कहते हैं, उसे भी सुनिए-
संसार के भोगों की चाह में हमने अपने जन्म को यों ही गँवा दिया हाय! हमने काँच के बदले में चिन्तामणि को बेंच डाला।” ”थोड़े दिन ही इस संसार में ठहरने वाले हैं ऐसे प्राणियों के अलग हो जाने पर समझदार और धीरज वाले लोगों के लिए कष्ट की बात क्या है? क्योंकि वे थोड़े दिन के होते हैं और थोड़े दिन में ही बिला जाते हैं। फिर यह भी तो सोचने की बात है, कि इस संसार में देवते, समुद्र, और पहाड़ आदि कोई भी ऐसे नहीं हैं, जो सर्वदा रह सकें।” ”देह सदा ठहरने वाली नहीं है, लाड़ प्यार के सुख भी चार दिन की चाँदनी हैं, बड़े-बड़े रोगों के घर हैं, स्त्रियों साँप की सी डरावनी हैं, घरबार एक जंजाल है, सम्पत्ति भी सदा एक ढंग पर नहीं रहती, अपने ही की करनेवाला यमराज ऐसा बैरी सिर पर सवार है, किन्तु दु:ख है कि फिर हम अच्छे कर्म नहीं करते।” ”किसी पड़ोसी के घर से कुछ चोरी गया, यह सुन कर सब लोग अपने-अपने घर के बचाने में लग जाते हैं, पर यह देखने में आता है कि काल प्रतिदिन प्राणियों के देह ऐसे घर में से प्राण ऐसा प्यारा धन चुराता रहता है, किन्तु फिर भी हम लोग नहीं चौंकते, लोगो! जागो!!” ”हे चित! संसार के तरह-तरह के भोगों के पास से-जो साँप के से डरावने हैं-दूर रहो। देखो न। जैसे साँप के दाँत बड़े विषाक्त होते हैं, वैसे ही इसके अवगुणों के दाँत कितने तीखे हैं, वे पल-पल विषम विष उगलने की घात में लगे रहते हैं, इसलिए उनसे मिलने वाले सुखों को मणि समझकर उनके पास जाने का साहस कभी न करो। ”सूर्य निकलता है और फिर डूब जाता है, यों ही प्रतिदिन जीवन के दिन घटते रहते हैं, बहुत से कामों और तरह-तरह के झंझटों में उलझे रहने से बीतता हुआ समय जाना नहीं जाता। जनमना, मरना किसी तरह की आपदायें और बुढ़ापा को देखकर भी जी में डर नहीं समाता-ज्ञात होता है कि धोखे से अचेतना की मदिरा पीकर वसुंधरा बावली हो रही है”-
” आदित्यस्य गतागतैरहरहै: संक्षीयते जीवनम ,
व्यापारो बहु कार्य भार वपुषा कालो न विज्ञायते।
दृष्टा जन्म जरा विपत्ति मरणम् त्रासश्च नोत्पद्यते ,
पीत्वा मोहमयी प्रमाद मदिरा उन्मत्तभूतं जगत्। ”
मृत्यु बुराइयों से ही लोगों को नहीं बचाती, अच्छा काम करने और कराने में भी वह अपना बहुत कुछ प्रभाव रखती है। संसार में ऐसे लोग जो किसी काम को उचित समझकर करते हैं, बहुत थोड़े हैं। उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। साधारणतया ऐसे ही लोग मिलते हैं जो अपना कोई कार्य सामने रखकर काम की ओर झुकते हैं, क्योंकि मानव स्वार्थ का ही अनुचर है, वह कितना ही बेलगाव होकर चले, अपने को बिल्कुल अलग-थलग दिखलावे, पर जब किसी काम के लिए हाथ बढ़ाता है, पाँव उठाता है, सोचता विचारता है, उद्योग करता है, तभी उस काम में उसका कुछ-न-कुछ स्वार्थ पाया जाता है। माँ बाप का लड़के पर बहुत एहसान है, यदि यह कहा जावे कि लड़के का बाल-बाल उनके एहसानों के बदले में गिरों हैं, तो भी अन्यथा न होगा। मानवों के जी की यह बहुत प्यारी चाह है कि मरने के पीछे भी संसार में उनका नाम रहे, उसके बाद भी लोग उसको स्मरण करें, इसलिए माँ बाप के पीछे भी माँ बाप के नाम को संसार में अधिक नहीं तो अपने जीवन तक चलाना प्रत्येक पुत्र का बहुत बड़ा कर्तव्य है, क्योंकि माँ बाप की सारी कला और समुचित चाहों का पूरा करना संतान का बहुत बड़ा धर्म है। इन बातों को सोचकर और ऐसा करना उचित समझ कर अपने माँ बाप को या बड़ों को कम-से-कम साल भर में एक बार स्मरण करने वाले, उनके नाम पर दान देने वाले, ब्राह्मण भोजन कराने वाले, कंगाल और दीन दुखियों में धन बाँटने वाले, भाई बन्द खिलाने वाले कितने हैं? मैं समझता हूँ सैकड़ों मनुष्यों में कठिनता से दो चार निकलेंगे, पर ऐसे लोग अधिकतर मिलेंगे, जो यह सोच कर पितरों की आव भगत में कसर नहीं करते कि कहीं लापरवाह हो जाने से उनके बाल बच्चों पर न आ बने, या घर वाले आपदाओं में न फँस जावें। आप जब किसी देवी या देवते के मन्दिर में जा निकलते हैं, और धड़ल्ले से चुनरियाँ चढ़ते देखते हैं, या दूसरे चढ़ावों को चढ़ता हुआ पाते या यह देखते हैं कि धुमधाम से हवन हो रहा है, जगह-जगह ब्राह्मण बैठे पूजा-पाठ कर रहे हैं, कहीं बाजों के सहारे लोग देवी और देवतों का गुण गा रहे हैं। उनको हाथ जोड़कर मना रहे हैं, तो यह समझ लीजिए कि इन कामों की तह में मृत्यु का प्रभाव बहुत कुछ काम कर रहा है, नहीं तो इतनी तत्परता आवभगत और धुमधाम कभी देखने में न आती।
हम ठौर-ठौर सुन्दर-सुन्दर मन्दिर, अच्छे-अच्छे धर्मशाले, बहुत पोखरे, कितने ही कुएँ, सैकड़ों बाग, कई सौ पक्के घाट, कई एक कॉलिज, बना हुआ देखते हैं। कहीं सदावर्त बँटता हुआ पाते हैं, कहीं और दूसरे काम हमारी दृष्टि के सामने आते हैं, किन्तु क्या ये सब काम उचित समझ किए गये हैं, या केवल यह सोचकर बनाए गये हैं कि जिसमें दूसरे को लाभ पहुँचे, कभी नहीं। यदि आप सोचेंगे तो इन सब कामों पर आप को मृत्यु के हाथ की छाप लगी हुई दिखलाई पड़ेगी, और इन कामों के करने के जी का यही भाव पाया जावेगा कि जिसमें मरने के बाद भी संसार में कुछ दिन तक उनका नाम चले, और इन कामों के बहाने से ही लोग उसे स्मरण करते रहें।
सिक्खों के दस गुरुओं में पाँचवें गुरु अर्जुन जी थे। इनके पास रहने वालों में भाई बुङ्ढा गिने लोगों में थे, गुरु अर्जुन जी भी उनको मान्य समझते और उनका आदर करते थे। एक दिन कोई प्रसिद्ध पुरुष मर गया। उस शव के साथ जहाँ और लोग थे, वहाँ गुरु अर्जुन जी और भाई बुङ्ढा भी गये। रास्ते में भाई बुङ्ढा को यह ज्ञात हुआ कि जैसी एक कलँगी गुरु अर्जुन के सिर पर सदा रहती है, इस समय वैसी ही एक कलँगी सबके सिर पर है, यह कलँगी उनकी मरघट तक लोगों के सिर पर दिखलाई पड़ी, लेकिन जब शव को फूँककर लोग घर वापस आये, तो यह कलँगी केवल गुरु अर्जुन जी के सिर पर रह गयी थी, और किसी के सिर पर न थी। भाई बुङ्ढा ने इस भेद की बात पर विचार किया। इस बारे में गुरु अर्जुन जी से भी बातचीत की तो उनको ज्ञात हुआ कि मृतक के साथ मरघट जाते हुए उसकी गति और बेबसी देखकर मनुष्यों के जी पर जो प्रभाव पड़ता है, वैसा ही ज्ञान गुरु अर्जुन जी को सदा बना रहता है। इसलिए उनके सिर पर कलँगी सदा दिखलाई पड़ती है, पर और लोगों का ज्ञान केवल उतने ही देर के लिए था, जितनी देर तक वे मृतक के साथ रहे इसलिए उतनी ही देर तक कलँगी उनके सिर पर रही, और फिर दूर हो गयी। चाहे यह कहानी बिलकुल गढ़ी हुई हो, चाहे कलँगी की बात भी निरी रँगी और गढ़ी हो, पर इस कहानी से जो परिणाम निकलता है, वह बहुत ठीक है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मृतक का हृदय और उसका प्रभाव लोगों के जी में अच्छे विचार पैदा कर देने में जादू का काम देता है।
संसार में जितने लोग ऐसे ही हो गये हैं कि जिनसे एक दो नहीं करोड़ों प्राणियों का भला हुआ है, जिन्होंने देश का देश अपने अच्छे विचारों से सुधार दिया है, उन्हीं में बुद्धदेव भी हैं। पर क्या यह राज कुँवर यों ही अचानक संसार की भलाई के लिए कमर कस कर खड़ा हो गया। नहीं मृत्यु के दृश्य ही ने उसके जी पर वह प्रभाव डाला कि वह राजपाट तज कर किनारे हो गया, और जब तक जीता रहा संसार को यही सिखलाता रहा, कि कोई किस प्रकार मृत्यु के डरावने चंगुल से छुटकारा पा सकता है।
इतना ही नहीं, मृत्यु डाह और जलन का दरवाजा बन्द कर देती है, शत्रुता की आग बुझा देती है, प्यार की ज्योत को जगा देती है, और प्रसिध्दि के पेड़ में फल लगा देती है। मृत्यु के प्रभाव से बड़े-बड़े अत्याचारियों के हाथों से संसार को छुटकारा मिलता है, बड़ी-बड़ी जटिल बातें हल हो जाती हैं, और लोगों की ऑंखों के सामने ऐसे दृश्य आ जाते हैं, जो अपने ढंग के बहुत ही निराले और अनूठे कहे जा सकते हैं।
कोई-कोई कहते हैं कि मृत्यु से डरना या मृत्यु के सहारे लोगों पर ऐसा भाव डालना कि जिससे लोग घर बार छोड़ बैठें, बाल बच्चों को तज दें, संसार से किनारा करें, और बन बन मारे मारे फिरें, कभी अच्छा नहीं कहा जा सकता। उनका कहना है कि भारतवासी जो प्राय: सांसारिक विषयों में कच्चे निकलते हैं, अपने कामों को जैसी तत्परता से चाहिए वैसी तत्परता से नहीं कर सकते, इसका कारण क्या है। इसका कारण यही है कि जन्म से ही उनकी रग रग में संसार की असारता घुसी हुई है, फिर वह किसी काम में जी जान से लपटें तो कैसे लपटें। और यही बात है, जो उनकी सारी आपदाओं की जड़ है। वे लोग यह भी कहते हैं कि इस प्रकार के प्रभाव डालने वालों का जादू जैसा चाहिए वैसा नहीं चला, नहीं तो आज इस संसार का विचित्र रंग होता। न तो कहीं को नगर दिखलाई पड़ता, न गाँव आबाद होते, कोठे अटारियों में सन्नाटा होता, उजड़े हुए घर काटने दौड़ते, जनमने का क्रम मिट जाता, पृथ्वी मनुष्यों से शून्य होती, न कहीं बाग बगीचे होते, न हरे भरे खेत दिखलाई पड़ते, फिर किसलिए चढ़ा ऊपरी होती, क्यों बड़े-बड़े आविष्कार होते, किसलिए लोग तरह-तरह के काम करते, और क्यों रंग-रंग की कलें बनतीं। निदान जो कुछ संसार में आज मानवों की करतूतें और विभूतियाँ हैं, न तो उनमें से एक का पता होता, और न आज संसार की यह चहल पहल ही दिखाई पड़ती। किन्तु यहाँ देखना तो यह है कि ये बातें कहाँ तक ठीक हैं, जहाँ इन बातों को पढ़ कर हँसी आती है, वहाँ दुख भी होता है, कुछ-का-कुछ समझ लेना बड़ी भारी भूल है। जो लोग नाना व्यसनों में डूबे हुए हैं, धन दौलत पर मर मिटते हैं, रमणी जिनकी सर्वेसर्वा हैं, बाल बच्चे जिनके जीवन सर्वस्व हैं, अपना ही स्वार्थ जिनकी वृत्ति है। जो भलाई का नाम सुनकर चौंकते हैं, अपने काम धंधे के आगे जिनको धर्म की परवाह नहीं, जाति और देश का ध्यान नहीं, दुखी और दीन का सोच नहीं। जो सांसारिकता के कीड़े हैं, बुराइयों की मुर्ति हैं, वज्र हृदयता के पुतले हैं। दूसरों का गला काटकर जो रंगरलियाँ मनाते हैं लाखों का लहू बहाकर जो उत्सव करते हैं, देश के देश जिनके हाथों उजड़ गये, करोड़ों घर जिन्होंने फूँक दिए, उनको जगाने के लिए, उनकी ऑंखें खोलने के लिए, उनका भ्रम का परदा हटाने के लिए, उनको ठीक रास्ते पर लाने के लिए, क्या वैराग्य के विचारों से अच्छे कोई दूसरे विचार हो सकते हैं? क्या किया जाए, जो उनको सांसारिकता की दुर्बलताओं से जानकार न बनाया जाए, कामिनी कुल की पेंचीली प्रकृति का रंग न बताया जाए, घरवालों और संसार के दूसरे लोगों की शोषण परायणतायें न समझाई जाएँ, और सब से डरावनी मृत्यु का दृश्य उनको न दिखलाया जावे। परन्तु इन बातों का यह मर्म कदापि नहीं है, कि सब लोग घरबार छोड़ बैठें, और ऐसे रंग में रंग जाएँ, जिसमें एक सिरे से दूसरे सिरे तक सारा संसार उत्सन्न हो जाए।
जब कुछ घरों या किसी महल्ले में आग लगती है, और बड़े वेग से दहक उठती है, उस घड़ी जिधर से सुनो यही आवाज़ आती है, जिसको देखो यही कहता है कि-घर के बाहर निकल जाओ, मकान को छोड़ दो, घरों से असबाब बाहर निकाल दो, सब सामान सड़क पर फेंक दो, यदि लोगों की उस समय की इन बातों को सुनकर कोई यह कहने लगे कि देखो ये लोग कैसे बावले हैं, जो ऐसी बातें कहते हैं, जब लोग घर के बाहर निकल जावेंगे, मकान छोड़ देंगे तो रहेंगे कहाँ? असबाब यदि घर में न रखे जायेंगे तो कहाँ रखे जायेंगे? क्या अपने सारे सामान कोई सड़क पर डाल देता है? तो शायद कोई समझदार ऐसा न होगा, जो उसकी इन बातों को सुनकर उसे नासमझ न कहेगा। यही हाल उन लोगों का है जो जगत के जंजाल से छुटकारा दिलानेवालों को बिना समझे बूझे कोसते और भला बुरा कहते हैं। दूसरे मत वाले भूल सकते हैं, पर जिस मत में जीवन को चार भागों में बाँटा गया है, और इन चार भागों में दो बहुत बड़े-बड़े भाग पढ़ने लिखने और घरबार करने के लिए जिस मत ने रखे हैं, क्या उस मत के लोग भी संसार की असारता दिखलाने में भूले कहे जा सकते हैं? जिस मत में घर ही में उदास रहने की शिक्षा है, क्योंकि जो घर में रहकर भी बन में बसने वाले का कान काटते हैं, उनको घर बार तजने की क्या आवश्यकता है। जिस मत में उसी की बहुत बड़ाई की गयी है, जो संसार में रहकर संसार से किनारे रहे, क्योंकि त्याग की महत्ता इसी में है। क्या उस मत के लोग भी मृत्यु का डरावना चित्र खींचने में चूके माने जा सकते हैं? जब इस मत के लोग भूले नहीं कहे जा सकते, चूके नहीं माने जा सकते, और इस पर भी हम उनके मुख से वैराग्य उपजाने वाली बातें इस धुन के साथ निकलते हुए सुनते हैं, जिसकी बराबरी आज तक किसी दूसरे मत वाले से नहीं हो सकी, तो हमको यह मानना पड़ता है, कि इसमें कोई उपयोगिता है, और उपयोगिता वही है, जिसको अभी मैंने ऊपर बतलाया है।
मैं यह मानूँगा कि ठीक जिस विचार से वैराग्य उपजाने वाली बातें कही गयी हैं, अब हम लोगों में उनका वह रंग नहीं रह गया, उनके समझने बूझने में अब बड़ी भूलें की जाती हैं। इस भूल ने कितनों को काम चोर बना दिया, कितनों को आलसी कर दिया, कितनों को एक विचित्र जीव कर दिखलाया, और कितनों को कहीं का न रखा। पर ऐसा होने से क्या, अपनी नासमझी दूर करने के बदले विवेकमय विचारों के ही मिटा देने का प्रयत्न करना चाहिए। यह तो उससे भी बढ़ी हुई ना समझी होगी। जो लोग कुछ-का-कुछ समझाने के लिए ही कटिबद्ध रहते हैं, उनसे कोई सदाशा नहीं हो सकती। परन्तु जो लोग सचमुच हम लोगों की बिगड़ी हुई बातों को ठीक करना चाहते हैं, और हृदय में इन बातों का सच्चा अनुराग रखते हैं, उनको चाहिए कि बात-बात में झूठ-मूठ भारतवर्ष के दुख दर्द का गीत गाना छोड़ कर काम करें, और किसी अच्छी बात को बुरा बतलाने के बदले उसमें घुस गयी बुराइयों के दूर करने का उपाय सोचें, क्योंकि यदि किसी जाति की भलाई हो सकती है, तो यों हीं हो सकती है। एक हरे-भरे अच्छे फल लाने वाले आम को, उसमें रोग लग गया देखकर, जड़ से काट न डालना चाहिए, बरन ऐसी कृति करनी चाहिए कि जिससे उसका रोग दूर हो जावे और वह पहले ही की तरह फूलता और फलता रहे क्योंकि साहसिकता और महत्ता इसी में है।
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