आत्मकथा – मृत्यु का भय (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
मृत्यु क्या है? यह आप लोगों ने समझ लिया। जैसा हमें बतलाया गया है, उससे पाया जाता है कि मृत्यु कोई ऐसी वस्तु नहीं है, कि जिससे कोई डरे। यह सच है कि मरते समय लोग घबराते हैं, जी का लोभ बेतरह सताता है, लोग यह समझकर कि संसार उन्हें छोड़ना पड़ता है, कैसा-कैसा नहीं झींखते, उनका जी कितना नहीं मलता। परन्तु कहा जाता है कि ये सब बातें थोड़ी देर के लिए हैं, जब तक जीव एक देह को छोड़कर दूसरी देह में पहुँच नहीं जाता, तभी तक के लिए हैं, पीछे ये सब बातें जाती रहती हैं, और जीव फिर अपनी वास्तविक अवस्था पर आ जाता है। जीव का यह ढंग है कि जब कुछ दिन वह कहीं रह जाता है, तो फिर उसको उसके छोड़ने के समय कुछ-न-कुछ कष्ट अवश्य होता है, कुछ-न-कुछ वह अवश्य घबराता है। जब कोई एक जगह से दूसरी जगह जाता है, या एक मकान छोड़कर दूसरे मकान में पहुँचता है, तो चाहे यह दूसरी जगह पहले से बहुत ही आराम की क्यों न हो, यह दूसरा मकान पहले मकान से बहुत ही अच्छा और बढ़ा-चढ़ा क्यों न निकले, फिर भी पहली जगह या पहला मकान छोड़ने में जी कुछ-न-कुछ अवश्य मलता है, कुछ-न-कुछ कष्ट उसको अवश्य होता है, क्योंकि उसका ढंग ही ऐसा है। फिर आप सोचें, जिस देह में वह बहुत दिनों तक रहा, उसको वह यों बिना किसी तरह की कसक के कैसे छोड़ देगा।
चाहे मौत की बातें ठीक ऐसी ही हों, जैसी की बतलाई गयी हैं। चाहे कुछ लोग ऐसे भी हों, जो मौत की बातों को ठीक ऐसा ही मानते भी हों। किन्तु साधारणतया संसार के सब लोगों के लिए मौत एक बड़ी डरावनी वस्तु है, इतनी बड़ी डरावनी कि जिससे बढ़कर कोई दूसरी डरावनी वस्तु हो ही नहीं सकती। क्या वे योगी यती जो निराले में बैठकर योग जुगुत साधते हैं और संसार की ओर फूटी ऑंख से भी देखना पसन्द नहीं करते, क्या वे साधु संत जो सब झंझटों से निर्लेप रहकर राम रस में सराबोर रहते हैं और भूलकर भी चाह की भूल-भुलैयाँ में पड़ना पसन्द नहीं करते, क्या वे पण्डित और ज्ञानी जो हरिनाम का अमृत पीते हैं और चारों ओर ज्ञान का दीया जलाते हैं, और क्या वे ज्योतिषी और गुणी जो दूरवीक्षणों से आकाश का समाचार लाते हैं और मृतक को भी जिलाने का दावा करते हैं, जिनको देखो, उन्हीं को मौत के लिए यत्न करते पावोगे। और वे इस विचार में डूबे हुए मिलेंगे, कि कैसे मौत के हाथों से छुटकारा मिले। और कैसे उसके तेज दाँत विफल कर दिए जावें। यदि वे राजे महाराजे जिनके डंके की गरज से स्वर्ग काँपता है, मौत के डर से रात में भर नींद नहीं सोते, तो वह भूखा भी जो एक टुकड़ा रोटी के लिए द्वार-द्वार घूमता फिरता है, मौत का नाम सुनकर थर्राता है, और कान पर बिना हाथ रखे नहीं रहता। गाँव की वे सीधी-सादी स्त्रियों जो माता माई का गीत गाती हुई दो बजते हुए छोटे नगारों के पीछे चलती हैं, और घर-घर भीख माँगती फिरती हैं, यदि मौत के डर से थर-थर काँपती हैं, तो घड़ी, घण्टा, शंख बजानेवाले उस पुजारी और भगत का कलेजा भी जो अपने पापों पर आठ-आठ ऑंसू रोते हैं, मौत के डर से बल्लियों उछलता है, और उसे बेचैन बनाए बिना नहीं छोड़ता। जब एक नासमझ गँवार काली के चौरे के पास बैठकर किसी बकरे की बलि देता है, और फिर उसके कटे हुए सिर को सामने रखकर उससे जय बुलाता है, और अपने बाल बच्चों की बढ़ती चाहता है, तो हम उसकी समझ पर हँसते हैं, पर मौत की लाल ऑंखों को देखकर जितना घबराया हुआ वह रहता है, उससे कम घबराया हुआ वह नहीं पाया जाता, जो नाना प्रकार के जप, होम यज्ञ करता है, और देवताओं को इसलिए मनाता है, जिससे वे उसकी सारी बलाओं को टाल दें, और उसके लड़के बालों और घरवालों को सुखी रखें।
हरिण छलांग भरता हुआ जा रहा है, इतने में उसको एक डरावनी गरज सुनायी पड़ी, उसने चौंककर सिर ऊपर किया, सामने दहाड़ता हुआ शेर दिखलाई पड़ा, यदि हरिण छलाँग भरता हुआ निकल जावे तो शेर में इतनी दौड़ नहीं जो वह उसको पकड़ सके। पर शेर सामने दिखलाई पड़ा नहीं और उसकी गरज कानों में पड़ी नहीं कि वह अपनी चौकड़ी भूला नहीं, शेर पास आता है और पास आकर उसको चीर फाड़ डालता है, पर चौकड़ी भरना दर किनार! हरिण इस घड़ी अपना पाँव तक नहीं उठा सकता, एक डग भी आगे नहीं बढ़ा सकता, इस घड़ी वह ऐसा हो जाता है, जैसे कोई किसी का हाथ-पाँव बाँध देवे। गौरैया पृथ्वी पर बैठी चारा चुग रही है, इतने में उसने अपना सिर ऊपर उठाया, सामने से एक साँप आता हुआ दिखलाई पड़ा, दोनों की ऑंखें चार हुईं, गौरैया वहीं की वहीं रही-साँप उसके पास आया, और उसको निगल गया, परन्तु उसने पर तक नहीं हिलाया, यदि वह साँप को देखते ही उड़ जाती, तो साँप भला उसको पा सकता था, किन्तु साँप को देखते ही उसकी उड़ने की शक्ति जाती रही, उसके पंख बिल्कुल व्यर्थ हो गये, ऐसा जान पड़ता था कि जैसे किसी ने उनको पकड़कर काट दिया है। पर बात क्या है जो हिरण और गौरैया की ऐसी बुरी गत हो जाती है, और शेर और साँप को देखते ही उनके औसान जाते रहते हैं। जो लोग पूरे अनुभवी हैं, वे जानते हैं कि इसमें कोई बारीक बात नहीं है, इसी को मौत का डर कहते हैं।
मरने के पहले के चिन्ह, मरने के बाद की बहुत सी दशाएँ इनसे लगाव रखने वाले बहुत से सामान, लोगों का रोना-पीटना, चीखना, चिल्लाना, सिर पटकना और छाती कूटना मौत को और डरावना बना देते हैं। एक खिले गुलाब सा लड़का जो अपनी मीठी और तुतली बोलियों से चिड़ियों सा चहकता है, जो एक उजड़े हुए घर को भी बाटिका बनाता है, जिसके भोले भाले मुखड़े पर दुख की छींट तक नहीं पड़ी हुई होती, जो हँसता खेलता रहकर रोतों को भी हँसाता है, ऊसर में भी रस का सोत बहाता है, जब अचानक फूल सा कुम्हिला जाता है, जब देखते-ही-देखते मौत की काली छाया उसके भोले भाले मुखड़े पर पड़ने लगती है, और वह पलक मारते किसी के सामने से बेबसों की तरह उठा लिया जाता है, किसी की गोद सूनी कर चला जाता है, एक दो दिन के लिए नहीं, दो चार दस बरस के लिए नहीं, जब सदा के लिए वह किसी से अलग हो जाता है, तो उस घड़ी उसके घरवालों के जी पर ही नहीं, दूसरों के जी पर भी कैसा डर छा जाता है। जब किसी कुनबे का सरदार अपने सारे कुनबे को विपन्न बना उठ जाता है, जब अपने छोटे-छोटे बच्चों को बिलखते छोड़कर कोई आशाओं से भरी स्त्री इस संसार से चल बसती है, जब चार दिन की सुहागिन का भाग्य फूटता है, जब किसी एकलौते बेटे की माँ के कर्म में आग लगती है, जब किसी अंधो या बूढ़े के हाथों की एक ही लकड़ी बरबस छिन जाती है, जब किसी दुखिया का कलेजा अचानक निकाल लिया जाता है, जब हँसते खेलते किसी पर बिजली एकबयक टूट पड़ती है, जब किसी के सिर का साया उठ जाता है, किसी की बाँह टूट जाती है, किसी की हरी-भरी फुलवारी लुट जाती है, और किसी का बसा हुआ घर उजड़ जाता है, उस घड़ी ऐसा कौन है जो कलेजा नहीं पकड़ लेता, और किसके रोएँ-रोएँ में मौत का डर समा नहीं जाता। जब किसी अरथी और जनाजे के साथ बहुत से लोग चीखते-चिल्लाते हाय-हाय मचाते, ऑंखों के सामने से निकल जाते हैं, जब उनका रोना कलपना बिसूरना और तड़पना पत्थर के कलेजे पर भी चोट करने लगता है, उस घड़ी क्या बड़े धीरज वाले का जी भी ठिकाने रहता है? क्या उसका दिल भी नहीं हिल जाता। जब मृतक को उठाते बेले या उसको पड़ा हुआ देखकर उसके घर की स्त्रियों छाती कूटती हैं, सिर लूटती हैं, बिसूर बिसूर कर अपना दुखड़ा सुनाने लगती हैं, पछाड़ खाती हैं, मुँह के बल गिरती हैं, हाथ-पाँव पटकती हैं, दीवारों पर सर दे मारती हैं, क्या उस घड़ी कलेजे का भी कलेजा नहीं दहल जाता? मेरा रघुनाथ नाम का एक भांजा था, बड़ा मनचला था, बड़ा तेज था, बड़ा होनहार था, पर बहुत दिन वह इस संसार में न रह सका, एक दिन वह अचानक बीमार हो गया, दूसरे दिन बातें करते ही करते चल बसा, और देखते-ही-देखते जानें कहाँ का सियापा आकर सारे घर में फैल गया। हमारी बहन की इस समय बुरी गत थी, उसके रोने कलपने का हाल हम क्या लिखें जिस घड़ी उसने टूटे हुए कलेजे और दर्द भरी आवाज़ से कहा कि हा! इतने देवी देवताओं को हमने मनाया, पर कोई काम नहीं आये, उस घड़ी यह मालूम होता था कि घर की हर दीवारों से भयंकरता निकली पड़ती है। पृथ्वी फोड़कर डर निकल आता है। उस घड़ी आकाश से करुणा बरस रही थी। और सारी दिशाओं में सन्नाटा छा गया था। ज्ञात होता था मौत मुँह फैलाए घूम रही है। और सारे प्राणियों को निगल जाना चाहती है।
जब देखा जाता है कि बुलबुल सा चहकने वाला, बात-बात में छेड़-छाड़कर हँसा देने वाला सदा के लिए ऐसा चुप हो जाता है कि लाख उपाय करने पर होठ तक नहीं हिला सकता। जब हम देखते हैं कि कमल की सी बड़ी-बड़ी ऑंखें पथरा जाती हैं। और उनमें कलौंस लग जाती है, जब साँसें चलने लगती हैं, दम घुटने लगता है, और रोगी हाथ पाँव पटकता है, तड़पता है, छटपटाता है। जब उसके गले में कफ आ जाता है, जीभ ऐंठ जाती है, बोलना बन्द हो जाता है, और ऑंखों से ऑंसू निकलने लगते हैं। जब कुन्दन से चमकते हुए चेहरे पर न जाने कहाँ से आकर एक बहुत ही बुरा पीलापन छा जाता है, और उसको देखते नहीं बनता, जब कल की तरह काम करने वाला हाथ रुक जाता है, कोसों घूमने वाला पाँव लकड़ी बन जाता है। जब फूल के सेज पर भी चैन न पाने वाली देह धरती पर डाल दी जाती है, चिता पर रखकर फूँक दी जाती है, या सैकड़ों मन मिट्टी के नीचे दबा दी जाती है। जब झेर को कुत्तो नोंच कर खा जाते हैं, हाथियों को चींटियाँ निगल जाती हैं, हीरे कौड़ियों के मोल बिकते हैं, और तीन लोक में न समाने वाले तीन हाथ धरती में मुँह लपेट कर पड़ रहते हैं, उस समय के सीन को देखकर ऐसा कौन वीर है जो मृत्यु के डर से काँप नहीं उठता।
प्रत्येक भाषा के कवियों ने मृत्यु के इस डरावनेपन को अपनी बोलचाल में एक विचित्र ढंग से दिखलाया है, उनमें से कुछ का रंग मैं आप लोगों को यहाँ दिखलाऊँगा। हिन्दी के एक प्रतापसिंह नामक कवि किसी की खोपड़ी को मरघट में पड़ी हुई देखकर कहते हैं-”बटवे बँधो-के-बँधो रहे, गहने बनाए के बनाए रहे, अतर और फुलेल की शीशियाँ रखी की रखी रहीं। चाँदनी तनी-की-तनी रही, फूल की सेज सजाई-की-सजाई रही, मखमल के तकियों की कतारें पड़ी-की-पड़ी रहीं, माँ पुकारती रही, बाप पुकारते रहे और सुन्दरियाँ हा प्यारे! हा नाथ!! चिल्लाती हुई खड़ी की खड़ी रहीं, परन्तु मरने वाला मर गया। मरकर धूल में मिल गया, हाय! आज मरघट में चूर होकर उसकी खोपड़ी पड़ी हुई है।” एक बार एक बहुत बड़े मनुष्य के शव के बचे हुए हिस्से को गीदड़ों को खाते देखकर मैं भी कह पड़ा था, ”प्राण निकल जाने पर-जिनको किन्नरी बरने के लिए तरसती थीं, उनको सदा साथ रहने वाली स्त्री भी साथ छोड़कर भाग जाती है-जिनकी चारपाई के पावे बहुत ही अच्छे सोने के बने हुए थे, उनकी सुन्दरी देह को लकड़ियों के ढेर पर रख कर फूँक देते हैं-आज मरघट की पृथ्वी पर वह पड़ा हुआ दिखलाई देता है, जिनकी धाक से पर्वतों का कलेजा भी दहलता था। हाय! जिनके ऊपर के मसे चौंर हिला हिला कर उड़ाए जाते थे, उनको देखते हैं कि आज गीदड़ नोच-नोच कर खा रहे हैं।” बेनी कवि रथी पर शव को बिना हिले डुले पड़ा हुआ देखकर कहते हैं-”राग रंग किया, युवती की संगतें कीं, उनकी चोलियों में इत्र मल मलकर हाथों को चिकना बनाया; बदन सँवारा घरबार बनाए, लोगों से प्यार बढ़ाया, चार दिन के लिए होलियों में तरह-तरह के स्वांग लाए, यों व्यर्थ हँसी दिल्लगी में दिन बिता दिये, परन्तु किसी तरह की भलाई करते न बना। हाय! आज (यह नौबत हुई) कि न तो बोलते हैं, न हिलते डुलते हैं, न ऑंख की पलकें खोलते हैं और काठ की खटोली में काठ की तरह पड़े हुए हैं।” कविता यह है-
कवित्त
(1)
बाँधे रहे बटना बनाये रहे जेवरन
अतर फुलेलन की सीसियाँ धरी बरी रहीं।
तानी रही चाँदनी सोहानी रही फूले सेज
मखमल तकियन की पंगती परी रहीं।
प्रतापसिंह कहै तात मात कै पुकार रहे
नाह नाह कूकत वे सुन्दरी खरी रहीं।
खेल गयो योगी हाय मेल गयो धूल बीच
चूर ह्नै मसान खेत खोपरी परी रही।
(2)
प्रान बिन ताको त्यागि भाजत सदा की नारि
तरसत हुतीं जाको किन्नरी बरन को।
दाहते चिता पै राखि सुन्दर सरीर वाको
जाकी खाट पावा हुतो सुभ्र सोबरन को।
हरिऔध देखत मसान माहिंता को परयो
जाकी धाक काँपत करेजो भूधरन को।
चौंर होत हुती जिनैं मसक नेवारन को
तिनैं खात देख्यो नोचि नोचि गीदरन को।
(3)
राग कीने रंग कीने तरुनी प्रसंग कीने
हाथ कीने चीकने सुगन्ध लाइ चोली मैं।
देह कीने गेह कीने सुन्दर सनेह कीने
बासर बितीत कीने नाहक ठिठोली मैं।
बेनी कबि कहे परमारथ न कीने मूढ़
दिना चार स्वांग सो दिखाइ चल्यो होली मैं।
बोलत न डोलत न खोलत पलक हाय !
काठ से पड़े हैं आज काठ की खटोली मैं।
मीर अनीस कब्र की बातों पर निगाह दौड़ा कर कहते हैं, ”जब कब्र की गोद में सोना पड़ेगा, उस घड़ी सिवाय मिट्टी के न तो कोई बिछौना होगा, और न कोई तकिया होगी। आहा! उस तनहाई में कौन साथ देने वाला होगा, केवल कब्र का कोना होगा, और हम होंगे।” नासिख कबरिस्तान का ढंग देखकर कहते हैं-”अचानक एक दिन जो मैं कबरिस्तान में चला गया, तो वहाँ दुनिया में जो बड़े-बड़े बादशाह हो गये हैं, उनकी अजब हालत दिखलाई पड़ी। कहीं तो सिकन्दर का जानू फटा हुआ पड़ा था, और कहीं जमीन पर जमशेद की खोपड़ी पड़ी हुई लुढ़क रही थी।” ”जिनके सर पर की मक्खियाँ हुमा आप उड़ाता था, देखते हैं कि आज उनकी कब्र में हद्दी तक नहीं है।” अमीर मीनाई किसी बड़े आदमी की कब्र पर एक दीया भी जलता न देखकर कहते हैं ”सौ बत्तियों का झाड़ जिनके कोठों पर जलता था, आज वे अपनी कब्र पर एक दीपक से वास्ते भी मुहताज हैं।”
मृत्यु की भयंकरता पर धार्मिक पुस्तकों ने भी खूब ही रंग चढ़ाया है। चाहे लोगों को बुराइयों से बचाने के लिए ऐसा किया गया हो, चाहे इस विचार से कि बहुत से रोग ऐसे हैं, जिनमें मरते बेले बड़ा कष्ट होता है। परन्तु यह बहुत सच है कि जितना डर मृत्यु का लोगों के जी में यों समाया नहीं रहता, उससे कहीं अधिक धार्मिक पुस्तकें लोगों के जी में मृत्यु का डर उत्पन्न कर देती हैं। जब उनमें लिखा मिलता है कि ”जब कभी हमारी एक उँगली यों ही दब जाती है तो उस घड़ी हमको कितनी पीड़ा होती है, हम कितना बेचैन होते हैं, इसलिए सोचो, जब ऐसी नौबत आवेगी कि हमारा कुल शरीर घुलने लगेगा, और प्राण निकलने लगेगा, उस घड़ी की पीड़ा और कष्ट कैसे होंगे। सच पूछो तो वे किसी तरह बतलाए नहीं जा सकते। साठ हजार बीछू के ढंक मारने में जो कष्ट नहीं होता, उससे भी कहीं बढ़कर कष्ट उस समय होगा। तो आप बतलावें वह कौन है जो मृत्यु का नाम सुनते ही न काँप जावेगा। जब एक पवित्र ग्रन्थ बतलाता है कि-”जनमने और मरने के समय बहुत बड़ा दुख होता है”-
” जनमत मरत दुसह दुख भयऊ ”
जब एक बड़े महात्मा को भगवान से बिनती करते देखा जाता है कि ”मरने के समय की पीड़ा से हमको बचाना।” तब आप बतलावें कि सीधे-सादे विश्वास का मनुष्य मृत्यु का नाम सुनते ही सन्न क्यों न हो जावेगा। एक संस्कृत का कवि इन्हीं विचारों से घबड़ा कर कहता है, ”हे भगवान! तुम्हारे कमल ऐसे पाँव रूपी पिंजड़े में हमारा मन रूपी राजहंस आज ही से बसे तो अच्छा, क्योंकि प्राण निकलने के समय कफ बात पित्त से कण्ठ के रुक जाने पर तुम्हारा स्मरण कैसे किया जा सकता है”-
” कृष्णस्त्वदीय पदपंकज पि अं चरान्ते अद्यैव मे वसतु मानस राजहंस : ।
प्राण प्रयाण समये कफ वात पित्तों कण्ठावरोधनविधौस्मरणं – कुतस्ते। ”
यद्यपि बहुत सी दशाएँ ऐसी हैं जिनमें मरने के समय काँटा चुभने के इतना भी कष्ट नहीं होता, क्योंकि प्राण देह के जिस भाग में रहता है, उसमें दु:खों के जान लेने की जैसी शक्ति चाहिए वैसी नहीं है।
संसार में कितने लोग ऐसे भी हो गये हैं, जिन्होंने मृत्यु के डरावनेपन की तनिक भी परवाह नहीं की, उनके जी में यह बात जमी ही नहीं कि मृत्यु भी कोई डरावनी क्रिया है। उन्होंने हँसते-हँसते मृत्यु का सामना किया, और बिना पेशानी पर जरा बल लाए हुए इस संसार से चल बसे। महात्मा दधीच से उनके शरीर की हद्दियों माँगी गयीं, उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, ”जो मेरी हद्दियों से देवतों का भला हो सकता है, तो फिर इससे बढ़कर कौन से अच्छे काम में ये लग सकती हैं।” जीमूत वाहन से उसका प्राण माँगा गया, उसने उसको यों दे डाला, जैसे किसी को कोई एक बहुत ही साधारण पदार्थ दे डालता है। राणा हम्मीर ने कहा, ”सिंह के चलने का ढंग एक है, वीर की बात एक होती है, केला एक बार फलता है। ”क्या स्त्रियों का तैल और हम्मीर का हठ बार-बार चढ़ता है”-
” तिरिया तैल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार ”
और अपनी बात के आगे अपने प्राण का मोह कुछ न समझा। सोलह बरस के लड़के पुत्त ने कहा-”चित्तौड़ के बचाने और राजपूतों के यश में धब्बा लगने देने के सामने मेरे प्राण का मूल्य कुछ नहीं है।” गुरु गोविन्दसिंह के वीर हृदय वाले ‘फतेह सिंह’ और ‘जोरावर सिंह’ नाम के बालकों ने कहा, ”हम मरेंगे पर अपना धर्म न छोड़ेंगे।” हकीकत राय ने कहा, ”क्या अपना धर्म छोड़ देने से बधा किए जाने में अधिक कष्ट है।” राजा जयपाल की ग्लानि मृत्यु के डरावनेपन पर चढ़ बैठी, वह महमूद गज़नवी के कैद की ताब न ला सका और फूस की आग में जल मरा। कुमारिल भट्ट के खरापन का रंग मृत्यु से भी गाढ़ा हो गया, वे अपने एक अनुचित कार्य का बोझ न सम्हाल सके, और अपने हाथों चिता सजाकर जल मरे। राणा प्रताप के पुरोहित ने अपने तेज के सामने मृत्यु को खेल बना लिया, हाथ में छुरी लिए, लड़ते हुए दो भाइयों के बीच, आकर वे अड़ गये, उनको डाँटा, और जब देखा कि वे लोग फिर भी नहीं मानते, तो राज की भलाई के लिए अपने आप अपने पेट में छुरी भोंक ली, ऐसीरियन ने हँसी की, कहा-”मैं समझता हूँ कि अब मैं देवता हो जाऊँगा।” गलबा ने मरते समय अपनी गरदन उठाई और कहा-”मारो, यदि इससे रूम में बसने वालों का कुछ भला हो सके।” सिवरस ने अपना काम पूरा करने का ध्यान रखा। कहा, ”सावधान हो जाओ मेरे लिए दूसरा और कोई काम करने को नहीं रह गया है।”
प्राणी के जी के वे भाव जो कि उसकी प्रकृति कहे जाते हैं, मरने की तनिक परवाह नहीं करते, मरने का डर इन भावों को कभी नहीं बदलता। क्या अपने को मरते देख सूम अपना सूमपन, चालाक अपनी चालाकी, भला अपनी भलमनसाहत, बेईमान अपनी बेईमानी, और वीर पुरुष अपनी वीरता कभी छोड़ सकता है। मैंने एक सूम को देखा कि वह मर रहा था, फिर भी दान करने के कुछ सामान को अपने पास लाया हुआ देखकर चट बोल उठा, क्या मैं इन वस्तुओं को दान करने से बच जाऊँगा, और ऐसा कहकर उसने कुछ सामान अपने पास से उठवा दिया। एक बूढ़े का गला कफ से घिरता जाता था, वह बोल भी कठिनता से सकता था, पर उसके जी की गाँठ न खुली, वह अपने घर वालों से यही कहता जाता था, कि हमारे शत्रुओं का पीछा कभी न छोड़ना। ऐसे भावों को छोड़कर जी के कोई-कोई भाव ऐसे भी हैं, जो बहुत साधारण समझे जाते हैं, पर जब वे जोर पकड़ जाते हैं, तो डरना तो दर किनार, मनुष्य मृत्यु को गले का हार बना लेते हैं। हम लोग देखते हैं कि कितनी स्त्रियों आन में आकर कुएँ में गिरकर मर जाती हैं, कितने लोग अपने आप अपने को गोली मार लेते हैं, ए सब ऐसे ही भावों के फल हैं। इसीलिए किसी-किसी की सम्मति है कि मृत्यु से डरना बिल्कुल बोदापन है, क्योंकि जब जी के कितने भाव ऐसे हैं, जो मृत्यु पर हावी हो जाते हैं तो फिर मृत्यु बहुत ही डरावनी कैसे मानी जा सकती है।
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