आलोचना – हिंदी भाषा की उत्पत्ति – भूमिका – (लेखक – महावीर प्रसाद द्विवेदी)
कुछ समय से विचारशील जनों के मन में यह बात आने लगी है कि देश में एक भाषा और एक लिपि होने की बड़ी जरूरत है, और हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि ही इस योग्य है। हमारे मुसलमान भाई इसकी प्रतिकूलता करते हैं। वे विदेशी, फारसी लिपि और विदेशी भाषा के शब्दों से लबालब भरी हुई उर्दू को ही इस योग्य बतलाते हैं। परंतु वे हमसे प्रतिकूलता करते किस बात में नहीं? सामाजिक, धार्मिक, यहाँ तक कि राजनैतिक विषयों में भी उनका हिंदुओं से 36 का संबंध है। भाषा और लिपि के विषय में उनकी दलीलें ऐसी कुतर्कपूर्ण, ऐसी निर्बल, ऐसी सदोष और ऐसी हानिकारिणी हैं कि कोई भी न्यायनिष्ठ और स्वदेशीप्रेमी मनुष्य उनसे सहमत नहीं हो सकता। बंगाली, गुजराती, महाराष्ट्र और मदरासी तक जिस देवनागरी लिपि और और हिंदी भाषा को देशव्यापी होने योग्य समझते हैं वह अकेले मुट्ठी भर मुसलमानों के कहने से अयोग्य नहीं हो सकती। आबादी के हिसाब से मुसलमान इस देश में हैं ही कितने? फिर थोड़े हो कर भी जब वे निर्जीव दलीलों से फारसी लिपि और उर्दू भाषा की उत्तमता की घोषणा देंगे तब कौन उनकी बात सुनेगा? अतएव इस विषय में और कुछ कहने की जरूरत नहीं – पहले ही बहुत कहा जा चुका है। अनेक विद्वानों ने प्रबल प्रमाणों से हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि की योग्यता प्रमाणित कर दी है।
हिंदी भाषा की उत्पत्ति कहाँ से है? किन पूर्ववर्ती भाषाओं से वह निकली है? वे कब और कहाँ बोली जाती थीं? हिंदी को उसका वर्तमान रूप कब मिला? उर्दू में और उसमें क्या भेद है? इस समय इस देश में जो और भाषाएँ बोली जाती हैं उनका हिंदी से क्या संबंध है? उसके भेद कितने हैं? उसकी प्रांतिक बोलियाँ या उपशाखाएँ कितनी और कौन-कौन हैं? कितने आदमी इस समय उसे बोलते हैं? हिंदी के हितैषियों को इन सब बातों का जानना बहुत ही जरूरी है। और प्रांत वालों को तो इन बातों से अभिज्ञ करना हम लोगों का सबसे बड़ा कर्तव्य है। क्योंकि जब हम उनसे कहते हैं कि आप अपनी भाषा को प्रधानता न दे कर हमारी भाषा को दीजिए – उसी को देश-व्यापक भाषा बनाइए – तब उनसे अपनी भाषा का कुछ हाल भी तो बताना चाहिए। अपनी भाषा की उत्पत्ति, विकास और वर्तमान स्थिति का थोड़ा-सा भी हाल न बतला कर, अन्य प्रांत वालों से उसे कबूल कर लेने की प्रार्थना करना भी तो अच्छा नहीं लगता।
इन्हीं बातों का विचार करके हमने यह छोटी सी पुस्तक लिखी है। इसमें वर्तमान हिंदी की बातों की अपेक्षा उसकी पूर्ववर्तिनी भाषाओं ही की बातें अधिक हैं। हिंदी की उत्पत्ति के वर्णन में इस बात की जरूरत थी। बंगाले में भागीरथी के किनारे रहने वालों से यह कह देना काफी नहीं कि गंगा, हरद्वार से आई हैं या वहाँ उत्पन्न हुई हैं। नहीं, ठेठ गंगोत्तरी तक जाना होगा, और वहाँ से गंगा की उत्पत्ति का वर्णन करके क्रम-क्रम से हरद्वार, कानपुर, प्रयाग, काशी, पटना होते हुए बंगाले के आखात में पहुँचना होगा। इसी से हिंदी की उत्पत्ति लिखने में आदिम आर्यों की पुरानी से पुरानी भाषाओं का उल्लेख करके उनके क्रमविकास का हाल लिखना पड़ा है। ऐसा करने में पुरानी संस्कृत, वैदिक संस्कृत, परिमार्जित संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं का संक्षिप्त वर्णन देना पड़ा है। प्रसंगवश मराठी, गुजराती, बँगला, आसामी, पहाड़ी, पंजाबी आदि भाषाओं का भी उल्लेख करना पड़ा है और यह भी लिखना पड़ा है कि इन भाषाओं और उपभाषाओं के बोलने वालों की संख्या भारत में कितनी है।
इस पुस्तक के लिखने में हमने 1901 ईसवी की मुर्दमशुमारी की रिपोर्टों से भारत की भाषाओं की जाँच की रिपोर्टों से नए ”इंपीरियल गजे़टियर्स” से, और दो एक और किताबों से मदद ली है। पर इसके लिए हम डाक्टर ग्रियर्सन के सबसे अधिक ऋणी हैं। इस देश की भाषाओं की जाँच का काम जो गवर्नमेंट ने आपको सौंपा था वह बहुत कुछ हो चुका है। इस जाँच से कितनी ही नई-नई बातें मालूम हुई हैं। उनमें से मुख्य-मुख्य बातों का समावेश हमने इस निबंध में कर दिया है।
अब तक बहुत लोगों का ख्याल था कि हिंदी की जननी संस्कृत है। यह ठीक नहीं। हिंदी की उत्पत्ति अपभ्रंश भाषाओं से है और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्ति प्राकृत से है। प्राकृत अपने पहले की पुरानी बोल-चाल की संस्कृत से निकली है और परिमार्जित संस्कृत भी (जिसे हम आज कल केवल ”संस्कृत” कहते हैं) किसी पुरानी बोल-चाल की संस्कृत से निकली है। आज तक की जाँच से यही सिद्ध हुआ है कि वर्तमान हिंदी की उत्पत्ति ठेठ संस्कृत से नहीं।
एक नई बात और जो मालूम हुई है वह यह है कि जो हिंदी बिहार में बोली जाती है उसका जन्म संबंध बँगला से अधिक है, हम लोगों की हिंदी से कम। बँगला और उड़िया भाषाओं की तरह बिहारी हिंदी का निकट संबंध मागध अपभ्रंश से है, पर हमारी पूर्वी हिंदी का अर्द्धमागध अपभ्रंश से। बिहारी हिंदी से पश्चिमी हिंदी का संबंध तो और भी दूर का है।
जिसे हम लोग उर्दू कहते हैं वह बागोबहार की भूमिका के आधार पर देहली के बाजार में उत्पन्न हुई भाषा बतलाई जाती है। पर डाक्टर ग्रियर्सन ने भाषाओं की जाँच से यह निश्चय किया है कि वह पहले भी विद्यमान थी और उसकी संतति मेरठ के आस-पास अब तक विद्यमान है। देहली के बाजार में मुसलमानों के संपर्क से अरबी, फारसी और कुछ तुर्की के शब्द मात्र उसमें आ मिले। बस इतना ही परिवर्तन उस समय उस में हुआ। तब से मुसलमान लोग जहाँ-जहाँ इस देश में गए उसी विदेशी-शब्द-मिश्रित भाषा को साथ लेते गए। उन्हीं के संयोग से हिंदुओं ने भी उसके प्रचार को बढ़ाया। किंबहुना यह कहना चाहिए कि हिंदुओं ने उसके प्रचार की विशेष वृद्धि की।
भाषाओं की जाँच से इसी तरह बहुत सी नई-नई बातें मालूम हुई हैं। यदि वे सब हिंदी जानने वालों के लिए सुलभ कर दी जायँ तो बड़ा उपकार हो। आशा है एक-आध हिंदी-प्रेमी इस विषय में एक बड़ी-सी पुस्तक लिख कर इस अभाव की पूर्ति कर देंगे।
जुही, कानपुर महावीर प्रसाद द्विवेदी
17 जून 1907
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