आलोचना – हिंदी भाषा की उत्पत्ति – पूर्ववर्ती काल – (लेखक – महावीर प्रसाद द्विवेदी)
हिंदी भाषा की उत्पत्ति का पता लगाने, और उसका थोड़ा भी इतिहास लिखने में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ हैं। क्योंकि इसके लिए पतेवार सामग्री कहीं नहीं मिलती। अधिकतर अनुमान ही के आधार पर इमारत खड़ी करनी पड़ती है। और यह सब का काम नहीं। इस विषय के विवेचन में पाश्चात्य पंडितों ने बड़ा परिश्रम किया है। उनकी खोज की बदौलत अब इतनी सामग्री इकट्ठी हो गई है कि उसकी सहायता से हिंदी की उत्पत्ति और विकास आदि का थोड़ा-बहुत पता लग सकता है। हिंदी की माता कौन है? मातामही कौन है? प्रमातामही कौन है? कौन कब पैदा हुई? कौन कितने दिन तक रही? हिंदी का कुटुंब कितना बड़ा है? उसकी इस समय हालत क्या है? इन सब बातों का पता लगाना – और फिर ऐतिहासिक पता, ऐसा वैसा नहीं – बहुत कठिन काम है। मैक्समूलर, काल्डवेल, बीम्स और हार्नली आदि विद्वानों ने इन विषयों पर बहुत कुछ लिखा है और बहुत सी अज्ञात बातें जानी हैं। पर खोज, विचार और अध्ययन से भाषाशास्त्र – विषयक नित नई बातें मालूम होती जाती हैं। इससे पुराने सिद्धांतों में परिवर्तन दरकार होता है। कोई-कोई सिद्धांत तो बिल्कुल ही असत्य साबित हो जाते हैं। अतएव भाषाशास्त्र की इमारत हमेशा ही गिरती रहती है और हमेशा ही उसकी मरम्मत हुआ करती है।
आजकल हिंदी की तरफ लोगों का ध्यान पहले की अपेक्षा कुछ अधिक गया है। सारे हिंदुस्तान में उसका प्रचार करने की चर्चा हो रही है। बंगाली, मदरासी, महाराष्ट्र, गुजराती सब लोग उसकी उपयुक्तता की तारीफ कर रहे हैं। ऐसे समय में इस बात के जानने की, हमारी समझ में, बड़ी जरूरत है कि हिंदी किस कहते हैं? हिंदुस्तानी किसे कहते हैं? उर्दू किसे कहते हैं? इनकी उत्पत्ति कैसे और कहाँ से हुई और इनकी पूर्ववर्ती भाषाओं ने कितने रूपांतरों के बाद इन्हें पैदा किया?
इन विषयों पर आज तक कितने ही लेख और छोटी-मोटी पुस्तकें निकल चुकी हैं। पर उनमें कही गई बहुत सी बातों के संशोधन की अब जरूरत है। इस देश की गवर्नमेंट जो यहाँ की भिन्न-भिन्न भाषाओं और बोलियों की परीक्षा करा कर उनका इतिहास आदि लिखा रही है उससे कितनी ही नई-नई बातें मालूम हुई हैं। यह काम प्रसिद्ध विद्वान डाक्टर ग्रियर्सन कर रहे हैं। 1901 ईसवी में जो मुर्दमुशमारी हुई थी उसकी रिपोर्ट में एक अध्याय इस देश की भाषाओं के विषय में भी है। यह अध्याय इन्हीं डाक्टर ग्रियर्सन साहब का लिखा हुआ है। इसके लिखे और प्रकाशित किए जाने के बाद, भाषाओं की जाँच से संबंध रखने वाली डाक्टर साहब ही की लिखी हुई कई किताबें निकली हैं। उनमें जो बातें हिंदी के विषय में लिखी हैं वे डाक्टर साहब के लिखे हुए मुर्दमशुमारी वाले भाषा-विषयक प्रकरण से मिलती हैं। इससे मालूम होता है कि भाषाओं की जाँच से हिंदी के विषय में जो बातें मालूम हुई हैं वे सब इस प्रकरण में आ गई हैं। इस निबंध के लिखने में डाक्टर ग्रियर्सन की इस पुस्तक से हमें बहुत सहायता मिली है। भाषाओं की जाँच से संबंध रखने वाली सब किताबें जब निकल चुकेंगी, तब डाक्टर साहब की भूमिका अलग पुस्तकाकार निकलेगी। संभव है उसमें कोई नई बातें देखने को मिलें। पर तब तक ठहरने की हम विशेष जरूरत नहीं समझते। क्योंकि इस विषय के सिद्धांत बड़े ही अनस्थिर हैं – बड़े ही परिवर्तनशील हैं। जो सिद्धांत आज दृढ़ समझा जाता है, कल किसी नई बात के मालूम होने पर, भ्रामक सिद्ध हो जाता है। इससे यदि वर्ष दो वर्ष ठहरने से कोई नई बातें मालूम भी हो जायँ, तो कौन कह सकता हैं, आगे चल कर किसी दिन वे भी न भ्रामक सिद्ध हो जायँगी। अतएव आगे की बातें आगे होती जायँगी। इस समय जो कुछ सामने है उसी के आधार पर हम इस विषय को थोड़े में लिखते हैं।
आदिम आर्यों का स्थान
हिंदुस्तान में सब मिला कर 147 भाषाएँ या बोलियाँ बोली जाती हैं। उनमें से हिंदी वह भाषा है जिसका संबंध एक ऐसी प्राचीन भाषा से है जिसे हमारे और यूरोप वालों के पूर्वज किसी समय बोलते थे। अर्थात् एक समय ऐसा था जब दोनों के पूर्वज एक ही साथ, या पास-पास रहते थे और एक ही भाषा बोलते थे। पर किस देश या किस प्रांत में वे पास-पास रहते थे, यह बतलाना सहज नहीं है। इस विषय पर कितने ही विद्वानों ने कितने ही तर्क किए हैं। किसी ने हिंदूकुश के आस-पास बताया, किसी ने काकेशस के आस-पास। किसी की राय हुई कि उत्तरी-पश्चिमी यूरप में ये लोग पास-पास रहते थे। किसी ने कहा नहीं, ये आरमीनियाँ में, या आक्सस नदी के किनारे, कहीं रहते थे। अब सब से पिछला अंदाज विद्वानों का यह है कि हमारे और यूरप वालों के आदि पुरखे दक्षिणी रूस के पहाड़ी प्रदेश में, जहाँ यूरप और एशिया की हद एक दूसरी से मिलती है वहाँ, रहते थे। वहाँ ये लोग पशु-पालन करते थे और चारे का जहाँ सुभीता होता था वहीं जा कर रहते थे। अपनी भेड़ें, बकरियाँ और गायें लिए ये घूमा करते थे। धीरे-धीरे कुछ लोग खेती भी करने लगे। और जब पास-पास रहने से गुजारा न हुआ तब उनमें से कुछ पश्चिम की ओर चल दिए, कुछ पूर्व की ओर। जो लोग पश्चिम की ओर गए उनसे ग्रीक, लैटिन, केल्टिक और टयूटानिक भाषा बोलने वाली जातियों की उत्पत्ति हुई। जो पूर्व को गए उनसे भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाली जातियाँ उत्पन्न हुई। उनमें से एक का नाम आर्य हुआ।
आर्य लोगों ने अपना स्थान कब छोड़ा, पता नहीं चलता। लेकिन छोड़ा जरूर, यह नि:संदेह है। बहुत करके उन्होंने कास्पियन सागर के उत्तर से प्रयाण किया और पूर्व की ओर बढ़ते गए। जब वे आक्सन और जक्जारटिस नदियों के किनारे आए, तब वहाँ ठहर गए। वह देश उनको बहुत पसंद आया। संभव है वे खीवा से उस प्रांत में ठहरे हों, जो औरों की अपेक्षा अधिक सरसब्ज है। एशिया में खीवा को ही आर्यों का सब से पुराना निवास-स्थान मानना चाहिए। वहाँ कुछ समय तक रह कर आर्य लोग पूर्वोक्त नदियों के किनारे-किनारे खोकंद और बदख्शाँ तक आए। वहाँ इनके दो भाग हो गए। एक पश्चिम की तरफ मर्व और पूर्वी फारिस को गया, दूसरा हिंदूकुश को लाँघ कर काबुल की तराई में होता हुआ हिंदुस्तान पहुँचा। जब तक इनके दो भाग नहीं हुए थे, ये लोग एक ही भाषा बोलते थे। पर दो भाग होने, अर्थात् एक के फारिस और दूसरे के हिंदुस्तान आने, से भाषा में भेद हो गया। फारिस वाली की भाषा ईरानी हो गई और हिंदुस्तान वालों की विशुद्ध ‘आर्य’। 1901 की मुर्दमशुमारी के अनुसार ईरानी और आर्य-भाषा बोलने वालों की संख्या इस प्रकार थी –
ईरानी 1,397,786
आर्य 219,780,650
कुल 221,178,436
इस लेख में उन ईरानियों की गिनती है जो हिंदुस्तानी की हद में रहते हैं। फारिस के ईरानियों से मतलब नहीं है। हिंदुस्तान की कुल आबादी 294,361,056 है। उसमें से ईरानी और आर्यों की भाषा बोलने वालों की संख्या मालूम हो गई। बाकी जो लोग बचे ये यूरप और अफ्रीका आदि की तथा कितनी ही अनार्य, भाषाएँ बोलते हैं। ईरानी और आर्य भाषाओं से यह मतलब नहीं कि इस नाम की कोई पृथक भाषाएँ हैं। नहीं, इनसे सिर्फ इतना ही मतलब है, कि जो भाषाएँ 22 करोड़ आदमी इस समय हिंदुस्तान में बोलते हैं वे पुरानी आर्य और ईरानी भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं। ये दो शाखाएँ हैं। इन्हीं से और कितनी ही भाषाओं की उत्पत्ति हुई है।
ईरानी शाखा
खोकंद और बदख्शाँ तक सब आर्य साथ-साथ रहे। वहाँ से कुछ आर्य हिंदुस्तान की तरफ आए और कुछ फारिस की तरफ गए। इन फारिस की तरफ जाने वाले में से कुछ लोग काश्मीर के उत्तर, पामीर पहुँचे। ये लोग अब तक ईरानी भाषाएँ बोलते हैं। जो लोग फारिस की तरफ गए थे वे धीरे-धीरे मर्व, फारिस, अफगानिस्तान और बिलोचिस्तान में फैल गए। वहाँ इनकी भाषा के दो भेद हो गए। परजिक और मीडिक।
परजिक भाषा
परजिक भाषा का दूसरा नाम पुरानी फारसी है। ईसा के पाँच छ: सौ वर्ष पहले ही से इसका प्रचार फारिस में हो गया था। डारियस ‘प्रथम’ के समय के शिलालेख सब इसी भाषा में हैं। बहुत काल तक इसका प्रचार फारिस में रहा। यह फारिस के सब सूबों में बोली और लिखी जाती थी। ईसा के कोई 300 वर्ष बाद इसका रूपांतर पहलवी भाषा में हुआ। यह भाषा ईसा के 700 वर्ष बाद तक रही। आज कल फारिस में जो फारसी बोली जाती है, पहलवी से उसका वही संबंध है जो संबंध भारत की प्राकृत भाषाओं का यहाँ की हिंदी, बँगला, मराठी आदि वर्तमान भाषाओं से है। पहलवी के बाद फारिस की भाषा को वह रूप मिला जो कोई हजार ग्यारह सौ वर्ष से वहाँ अब तक प्रचलित है। यह वहाँ की वर्तमान फारसी है। मुसलमानी राज्य में इस भाषा का प्रचार हिंदुस्तान में भी बहुत समय तक रहा। हिंदू और मुसलमान दोनों इसे सीखते थे और बहुधा बोलते भी थे। कुछ लोगों की जन्म भाषा फारसी ही थी। हिंदुस्तान में अनेक ग्रंथ भी इस भाषा में लिखे गए। विद्वान मुसलमानों में अब भी फारसी का बड़ा आदर है। पर रंगून, देहली, लखनऊ आदि में पुराने शाही खानदान के जो मुसलमान बाकी हैं वही कभी-कभी फारसी बोलते हैं। या अफगानिस्तान और फारिस से आ कर जो लोग यहाँ बस गए हैं, अथवा जो लोग इन देशों से व्यापार के लिए यहाँ आते हैं – विशेष करके घोड़ों के व्यापारी – वे फारसी बोलते हैं। फारसी बोली और लोगों के मुँह से अब बहुत कम सुनने में आती है। यों तो फारसी जानने वाले उसे बोल लेते हैं, पर फारसी उनकी बोली नहीं। इससे वे विशुद्ध फारसी नहीं बोल सकते।
मुसलमानी राज्य में जो लोग फारिस और अफगानिस्तान आदि देशों से आ कर इस देश में बस गए थे और जिनकी संतति अब तक यहाँ वर्तमान है – वर्तमान है क्यों, बढ़ती जाती है – उनके पूर्वज ईरानियों के वंशज थे। अर्थात् वे लोग जो भाषा बोलते थे वह पुरानी ईरानी भाषा से उत्पन्न हुई थी। आर्यों ने अपनी जिस शाखा का साथ बदख्शाँ के आस-पास कहीं छोड़ा था, उसी शाखा के वंशधर, सैकड़ों वर्ष बाद, हिंदुस्तान में आ कर फिर आर्यों के वंशजों के साथ रहने लगे। इस तरह का संयोग एक बार और भी बहुत पहले हो चुका था। डाक्टर ग्रियर्सन लिखते हैं कि सिकंदर के समय में, और उसके बाद भी, सूर्योपासक पुराने ईरानियों के वंशज, धर्मोपदेश करने के लिए, इस देश में आए थे। इन में बहुत से शक (सीथियन : Scythians) लोग भी थे। इस बात को हुए कोई दो हजार वर्ष हुए। ये लोग इस देश में आ कर धीरे-धीरे यहाँ के ब्राह्मणों में मिल गए और अब तक शाकद्वीपीय ब्राह्मण कहलाते हैं।
जब मुसलमानों की प्रभुता फारिस में बढ़ी, और वहाँ के अग्निपूजक ईरानियों पर अत्याचार होने लगे, तब जरथुस्त्र के उपासक कुछ लोग इस देश में भाग आए और हिंदुस्तान के पश्चिम, गुजरात में रहने लगे। आज कल के पारसी उन्हीं की संतति हैं। पर, यद्यपि भारत के शाकद्वीपीय ब्राह्मण और पारसी ईरानियों के वंशज हैं तथापि न तो वे ईरान ही की कोई भाषा बोलते हैं और न उसकी कोई शाखा ही। इनको इस देश में रहते बहुत दिन हो गए हैं। इसलिए इनकी बोली यहीं की बोली हो गई है।
मीडिक भाषा
मीडिक भाषा-समूह में बहुत सी भाषाएँ और बोलियाँ शामिल हैं, ईरान के कितने ही हिस्सों में यह भाषा बोली जाती थी। ये सब हिस्से, सूबे, या प्रांत पास ही पास न थे। कोई-कोई एक दूसरे से बहुत दूर थे। मीडिया पुराने जमाने में फारिस का वह हिस्सा कहलाता था जिसे इस समय पश्चिमी फारिस कहते हैं। मीडिया ही की भाषा का नाम मीडिक है। पारसी लोगों का प्रसिद्ध धर्मग्रंथ अवस्ता इसी पुरानी मीडिक भाषा में है। बहुत लोग अब तक यह समझते थे कि अवस्ता ग्रंथ जेंद भाषा में है। उसका नाम जेंद-अवस्ता सुन कर यही भ्रम होता है। परंतु यह भूल है। इस भूल के कारण एक यूरोपीय पंडित महोदय हैं। उन्होंने भ्रम से अवस्ता की रचना जेंद भाषा में बतला दी। और लोगों ने बिना निश्चय किए ही इस मत को मान लिया। पर अब यह बात अच्छी तरह साबित कर दी गई है कि अवस्ता की भाषा जेंद नहीं। भाषा उसकी पुरानी मीडिक है। अवस्ता का अनुवाद और उस पर भाष्य ईरान की पुरानी भाषा पहलवी में है। इस अनुवाद और भाष्य का नाम जेंद है, भाषा का नहीं। वेदों के तरह अवस्ता के भी सब अंश एक ही साथ निर्माण नहीं हुए। कोई पहले हुआ है, कोई पीछे। उसका सब से पुराना भाग ईसा के कोई 600 वर्ष पहले का मालूम होता है। जैसे परजिक भाषा रूपांतर होते-होते पहलवी भाषा हो गई, वैसे मीडिक भाषा को कालांतर में कौन सा रूप प्राप्त हुआ, इसका पता नहीं चलता। परंतु वर्तमान काल की नई भाषाओं में उसके चिह्न विद्यमान हैं। अर्थात् इस समय भी कितनी ही भाषाएँ और बोलियाँ विद्यमान हैं जो पुरानी मीडिक, या उसके रूपांतर, से उत्पन्न हुई हैं। इनमें से गालचह, पश्तो, आरमुरी और बलोच मुख्य हैं। इनके सिवा कुर्दिश, मकरानी, मुंजानी आदि कितनी ही बोलियाँ भी इसी पुरानी मीडिक भाषा से संबंध रखती हैं। औरों की अपेक्षा पश्तो भाषा का साहित्य कुछ विशेष अच्छी दशा में है। उसमें बहुत सी उपयोगी और उत्तम पुस्तकें हैं। पर पश्तो बड़ी कर्णकटु भाषा है। कहावत मशहूर है कि अरबी विज्ञान है, तुर्की सुघरता है, फारसी शक्कर है, हिंदुस्तानी नमक है, और पश्तो गधे का रेंकना है।
पुरानी संस्कृत
आदिम आर्यों की जो शाखा ईरान की तरफ गई उसका और उसकी भाषाओं का संक्षिप्त वर्णन हो चुका। अब उन आर्यों का हाल सुनिए जो खोकंद और बदख्शाँ का पहाड़ी देश छोड़ कर दक्षिण की तरफ हिंदुस्तान में आए। आदिम आर्यों की क्यों दो शाखाएँ हो गईं? क्यों एक शाखा एक तरफ गई, दूसरी दूसरी तरफ – इसका ठीक उत्तर नहीं दिया जा सकता। संभव है धार्मिक मतभेद के कारण यह बात हुई हो। या ईरानी आर्यों की राज्य प्रणाली हमारे पुराने आर्यों को पसंद न आई हो। क्योंकि ईरानी लोग बहुत पुराने जमाने से ही अपने में से एक आदमी को राजा बना कर उसके अधीन रहने लगे थे। पर हिंदुस्तान की तरफ आने वाले आर्यों को यह बात पसंद न थी। अथवा आर्यों के विभक्त होने का इन दो में से एक ही कारण न हो। संभव है वे यों ही दक्षिण की तरफ आने को बढ़ते गए हों। क्योंकि जो जातियाँ अपने पशु-समूह को साथ लिए घूमा करती हैं वे स्थिर तो रहती नहीं। हमेशा ही स्थान परिवर्तन किया करती हैं। अतएव संभव है आर्य लोग अपनी तत्कालीन स्थिति के अनुसार हिंदुस्तान की तरफ यों ही चले आए हों। चाहे जिस कारण से हो, आए वे लोग इस तरफ जरूर और आ कर कंधार के आस-पास रहने लगे। वहाँ से वे काबुल की तराई में होते हुए पंजाब पहुँचे। पंजाब में आ कर उनकी एक जाति बनी। बदख्शाँ के पास वे लोग जो भाषा बोलते थे उसमें और उनकी तब की भाषा में अंतर हो गया। पंजाब मे आ कर बसने तक सैकड़ों वर्ष लगे होंगे। फिर भला क्यों न अंतर हो जाए? धीरे-धीरे उनकी भाषा को वह रूप प्राप्त हुआ जिसे हम पुरानी संस्कृत कह सकते हैं। यह भाषा उस समय पंजाब और पूर्वी अफगानिस्तान में बोली जाती थी।
आसुरी भाषा
आर्यों के पंजाब आने तक उनकी, और ईरानी शाखा के आर्यों की, भाषा परस्पर बहुत कुछ मिलती थी। पुरानी संस्कृत और मीडिक भाषा में परस्पर इतना सादृश्य है जिसे देख कर आश्चर्य होता है। जो लोग मीडिक भाषा बोलते थे उन्हीं का नाम असुर (अहुर) है। जब वे असुर हुए तब उनकी भाषा जरूर ही आसुरी हुई। वेदों और उन के बाद के संस्कृत-साहित्य को देखने से मालूम होता है कि देवोपासक आर्य सुरापान करते थे और असुरोपासक सुरापान के विरोधी थे। प्रमाण में वाल्मीकीय रामायण के बालकांड का 45वाँ सर्ग देखिए। जान पड़ता है सुरापान न करने ही से ईरान की तरफ जाने वाले आर्यों से हमारे पूर्वज आर्य घृणा करने लगे थे। उन से जुदा होने का भी शायद यही मुख्य कारण हो। पारसियों की अवस्ता में असुर उपास्य माने गए और सुर अर्थात् देवता घृणास्पद।
ऋग्वेद के बहुत पुराने अंशों में असुर और सुर (देव) दोनों पूज्य माने गए हैं। पर बाद के अंशों में कहीं-कहीं असुरों से घृणा की गई है। वेदों के उत्तर काल के साहित्य में तो असुर सर्वत्र ही हेय और निंद्य माने गए हैं।
”असु” शब्द का अर्थ है ”प्राण”। जो सप्राण या बलवान हो वही असुर है। बाबू महेशचंद्र घोष ”प्रवासी” में लिखते हैं कि ‘असुर’ शब्द ऋग्वेद में कोई 100 दफे आया है। उस में से केवल 11 स्थल ऐसे हैं जहाँ इस शब्द का अर्थ वेदशत्रु है। अन्यत्र सब कहीं सविता, पूषा, मित्र, वरुण, अग्नि, सोम और कहीं-कहीं श्रेष्ठ मनुष्यों के लिए भी ”असुर” शब्द प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के पहले मंडल का 35 वाँ, दूसरे का 27 वाँ, सातवें का दूसरा, और दसवें का 24 वाँ सूक्त देखिए। इस से स्पष्ट है कि बहुत पुराने जमाने में असुर शबद का अर्थ बुरा नहीं था। और चूँकि अवस्ता में असुर (अहुर) की उपासना है, और वह पारसियों का पूज्य ग्रंथ है, अतएव हमारे पारसी-बंधु असुरोपासक हुए। याद रहे ये लोग भी उन्हीं आर्यों के वंशज हैं जिन के वंशज पंजाब में आ कर बसे थे और जिन को हम लोग अपने पूज्य पूर्वज समझते हैं।
वैदिक देवताओं और याज्ञिक शब्दों की तुलना अवस्ता से करने पर यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि वेद और अवस्ता की भाषा बोलने वालों के पूर्वज किसी समय एक ही भाषा बोलते थे। प्रमाण –
वैदिक शब्द अवस्ता के शब्द
मित्र मिथ
अर्य्यमन् ऐर्य्यमन्
भग वघ
वायु वयु
दानव दानु
गाथा गाथा
मंत्र मंथ्र
होता जओता
आहुति आजुइति
संस्कृत और अवस्ता की भाषा में इतना सादृश्य है कि दोनों का मिलान करने से इस बात में जरा भी संदेह की जगह नहीं रह जाती कि किसी समय ये दोनों भाषाएँ एक ही थीं। शब्द, धातु, कृत, तद्धित, अव्यय इत्यादि सभी विषयों में विलक्षण सादृश्य है।
उदाहरण
संस्कृत अवस्ता की भाषा
नरं नरेम्
रथं रथेम्
देव दएव
गो गओ
कर्ण करेन
गव्य गाव्य
शत सत
पशु पसु
दात्र दाथ्र
पुत्रात् पुथ्रात्
दातरि दातरि
न: नो
मे मे
मम मम
त्वम् त्वम्
सा हा
अस्ति अस्ति
असि अहि
अस्मि अहमि
इह इध
कुत्र कुथ्र
कितने ही वैदिक छंद तक अवस्ता में तद्वत् पाए जाते हैं। इन उदाहरणों से साफ जाहिर है कि वैदिक आर्यों के पूर्वज किसी समय वही भाषा बोलते थे जो कि ईरानी आर्यों के पूर्वज बोलते थे। अन्यथा दोनों की भाषाओं में इतना सादृश्य कभी न होता। भाषा सादृश्य ही नहीं, किंतु अवस्ता को ध्यान-पूर्वक देखने से और भी कितनी ही बातों में विलक्षण सादृश्य देख पड़ता है। अतएव इस समय चाहे कोई जितना नाक भौंह सिकोड़े अवस्ता और वेद पुकार कर कह रहे हैं कि ईरानी और भारतवर्षीय आर्यों के पूर्वज किसी समय एक ही थे।
विशुद्ध संस्कृत का उत्पत्ति-स्थान
इस विवेचन से मालूम हुआ कि आर्यों के पंजाब में आ कर बसने तक, अर्थात् उनकी भाषा को ”पुरानी संस्कृत” का रूप प्राप्त होने तक, उनकी और ईरान वालों की मीडिक भाषा में, परस्पर बहुत कुछ समता थी। पुरानी संस्कृत कोई विशेष व्यापक भाषा न थी। उसके कितने ही भेद थे। उसकी कई शाखाएँ थीं। भारतवर्ष की वर्तमान आर्य-भाषाएँ उन्हीं में से, एक न एक से, निकली हैं। विशुद्ध संस्कृत भी इन्हीं भाषाओं के किसी न किसी रूप से परिष्कृत हुई है।
असंस्कृत आर्य-भाषाएँ
चित्राल और गिलगिट आदि में कुछ ऐसी भाषाएँ बोली जाती हैं जो आर्यों ही की भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं। पर वे संस्कृत से संबंध नहीं रखतीं। संस्कृत से उनका कोई संपर्क नहीं मालूम होता। जो लोग इन भाषाओं को बोलते हैं वे पंजाब में आ कर बसे हुए आर्यों की संतति नहीं मालूम होते। आर्य लोग, दक्षिण की तरफ, पंजाब में आ कर, फिर उत्तर की ओर काफिरिस्तान, गिलगिट, चित्राल और काश्मीर की उत्तरी तराइयों में नहीं गए। बहुत संभव है कि आर्यों का जो समूह अपने आदिम स्थान से चल कर दक्षिण की तरफ आया था, उसका कुछ अंश अलग हो कर, आक्सस नदी के किनारे-किनारे पामीर पहुँचा हो और वहाँ से गिलगिट और चित्राल आदि में बस गया हो। खोवार, वशगली, कलाशा, पशाई, लगमानी आदि भाषाएँ या बोलियाँ जो काश्मीर के उत्तरी प्रदेशों में बोली जाती हैं, उनका संस्कृत से कुछ भी लगाव नहीं है। इनमें कुछ साहित्य भी नहीं है। और न इनके लिखने की कोई लिपि ही अलग है। जहाँ तक खोज की गई है उस से यही मालूम होता है कि ये भाषाएँ संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुईं। यहाँ संस्कृत से मतलब उस पुरानी संस्कृत से है जिसे पंजाब में रहने वाले आर्य बोलते थे।
लगमानी आदि असंस्कृत आर्य-भाषा बोलने वालों की संख्या इस देश में बहुत ही कम है। 1901 ईसवीं में वह सिर्फ 54,425 थी।
इस तरह आर्य-भाषाओं के दो भेद हुए। एक असंस्कृत आर्य-भाषाएँ, दूसरी संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाएँ। ऊपर एक जगह आर्य-भाषाएँ बोलने वालों की संख्या जो दी गई है उसमें असंस्कृत आर्य-भाषाएँ बोलने वालों की संख्या शामिल है। उसे निकाल डालने से संस्कृतोत्पन्न आर्य-भाषाएँ बोलने वालों की संख्या 219,726,225 रह जाती है।
कुछ दिन हुए लंदन की रायल एशियाटिक सोसायटी ने एक पुस्तक प्रकाशित की है। उसमें उत्तर-पश्चिमी भारत की पिशाच-भाषाओं का वर्णन है। उसमें लिखा है कि असंस्कृत आर्य-भाषाएँ पुरानी पैशाची प्राकृत से निकली हैं। यहाँ उन्हीं पैशाची प्राकृतों से मतलब है जिनका वर्णन वररुचि ने किया है।
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