आलोचना – हिंदी भाषा की उत्पत्ति – अपभ्रंश-काल – (लेखक – महावीर प्रसाद द्विवेदी)
दूसरे प्रकार की प्राकृत का विकास होते-होते उस भाषा की उत्पत्ति हुई जिसे ”साहित्यसंबंधी अपभ्रंश” कहते हैं। अपभ्रंश का अर्थ है – ”भ्रष्ट हुई” या ”बिगड़ी हुई” भाषा। भाषाशास्त्र के ज्ञाता जिसे ”विकास” कहते हैं उसे ही और लोग भ्रष्ट होना या बिगड़ना कहते हैं। धीरे-धीरे प्राकृत-भाषाएँ, लिखित भाषाएँ हो गईं। सैकड़ों पुस्तकें उनमें बन गईं। उनका व्याकरण बन गया। इससे वे बेचारी स्थिर हो गईं। उनकी अनस्थिरता- उनका विकास बंद हो गया। यह लिखित प्राकृत की बात हुई, कथित प्राकृत की नहीं। जो प्राकृत लोग बोलते थे उसका विकास बंद नहीं हुआ। वह बराबर विकसित होती, अथवा यों कहिए कि बिगड़ती गई। लिखित प्राकृत के आचार्यों और पंडितों ने इसी विकास-पूर्ण भाषा का अपभ्रंश नाम से उल्लेख किया है। उनके हिसाब से वह भाषा भ्रष्ट हो गई थी। सर्वसाधारण की भाषा होने के कारण अपभ्रंश का प्रचार बढ़ा और साहित्य की स्थिरीभूत प्राकृत का कम होता गया। धीरे-धीरे उसके जानने वाले दो ही चार रह गए। फल यह हुआ कि वह मृत भाषाओं की पदवी को पहुँच गई। उसका प्रचार बिल्कुल ही बंद हो गया। वह ”मर” गई। अब क्या हो? लोग लिखना पढ़ना जानते थे। मूर्ख थे ही नहीं। लिखने के लिए ग्रंथों की रचना के लिए कोई भाषा चाहिए जरूर थी। इससे वही अपभ्रंश काम में आने लगी। उसी में पुस्तकें लिखी जाने लगीं। इन पुस्तकों में से कुछ अब तक उपलब्ध हैं। इनकी भाषा उस समय की कथित भाषा का नमूना है। जिस तरह की भाषा में ये पुस्तकें हैं उसी तरह की भाषा उस समय बोली जाती थी। पर किस समय वह बोली जाती थी, इसका ठीक-ठीक पता नहीं चलता। जो प्रमाण मिले हैं उनसे सिर्फ इतना ही मालूम होता है कि छठे शतक में अपभ्रंश भाषा में कविता होती थी। ग्यारहवें शतक के आरंभ तक इस तरह की कविता के प्रमाण मिलते हैं। इस पिछले, अर्थात् ग्यारहवें, शतक में अपभ्रंश भाषाओं का प्रचार प्रायः बंद हो चुका था। वे भी मरण को प्राप्त हो चुकी थीं। तीसरे प्रकार की प्राकृत-भाषाओं के लिखित नमूने बारहवें शतक के अंत और तेरहवें के प्रारंभ से मिलते हैं। और लिखी जाने के पहले इन तीसरी तरह की प्राकृत भाषाओं का रूप जरूर स्थिर हो गया होगा। अतएव कह सकते हैं कि हिंदुस्तान की वर्तमान संस्कृतोत्पन्न भाषाओं का जन्म कोई 1000 ईसवी के लगभग हुआ।
अपभ्रंश भाषाओं के भेद
इस देश की वर्तमान भाषाओं के विकास की खोज के लिए हमें लिखित प्राकृतों के नहीं, किंतु लिखित अपभ्रंश भाषाओं के आधार पर विचार करना चाहिए। किसी-किसी ने परिमार्जित संस्कृत से वर्तमान भाषाओं की उत्पत्ति मानी है। यह भूल है। इस समय की बोल-चाल की भाषाएँ न संस्कृत से निकली हैं, न प्राकृत से, किंतु अपभ्रंश से। इसमें कोई संदेह नहीं कि संस्कृत और प्राकृत की सहायता से वर्तमान भाषाओं से संबंध रखने वाली अनेक बातें मालूम हो सकती हैं, पर ये भाषाएँ उनकी जड़ नहीं। जड़ के लिए तो अपभ्रंश भाषाएँ ढूँढ़नी होंगी।
लिखित साहित्य में सिर्फ एक ही अपभ्रंश भाषा का नमूना मिलता है। वह नागर अपभ्रंश है। उसका प्रचार बहुत करके पश्चिमी भारत में था। पर प्राकृत व्याकरणों में जो नियम दिए हुए हैं उनसे अन्यान्य अपभ्रंश भाषाओं के मुख्य-मुख्य लक्षण मालूम करना कठिन नहीं। यहाँ पर हम अपभ्रंश भाषाओं की सिर्फ नामावली देते हैं और यह बतलाते हैं कि कौन वर्तमान भाषा किस अपभ्रंश से निकली है।
बाहरी शाखा की अपभ्रंश भाषाएँ
सिंध नदी के अधोभाग के आसपास जो देश है उस में ब्राचड़ा नाम की अपभ्रंश भाषा बोली जाती थी। वर्तमान समय की सिंधी और लहँडा उसी से निकली हैं। लहँडा उस प्रांत की भाषा है जिसका पुराना नाम केकय देश है। संभव है केकय देश वालों की भाषा, पुराने जमाने में, कोई और ही रही हो। अथवा उस देश में असंस्कृत आर्य-भाषाएँ बोलने वाले कुछ लोग बस गए हों। अर्थात् उसमें संस्कृत और असंस्कृत दोनों तरह की आर्य-भाषाओं के शब्द मिल गए हों।
कोहिस्तानी और काश्मीरी भाषाएँ किस अपभ्रंश से निकली हैं, नहीं मालूम। जिस अपभ्रंश भाषा से ये निकली हैं वह ब्राचड़ा से बहुत कुछ समता रखती रही होगी।
नर्मदा के पार्वत्य में, अरब समुद्र से ले कर उड़ीसा तक, उत्तर दक्षिण दोनों तरफ, बहुत सी बोलियाँ बोली जाती रही होंगी। वैदर्भी अथवा दाक्षिणात्य नाम की अपभ्रंश भाषा से उनका बहुत कुछ संबंध रहा होगा। इस भाषा का प्रधान स्थल विदर्भ, अर्थात् वर्तमान बरार था। संस्कृत-साहित्य में इस प्रांत का नाम महाराष्ट्र है। वैदर्भी और उससे संबंध रखने वाली अन्य भाषाओं और बोलियों से वर्तमान मराठी की उत्पत्ति हो सकती है। पर मराठी के उस अपभ्रंश से निकलने के अधिक प्रमाण पाए जाते हैं जो महाराष्ट्र देश में बोली जाती थी। जिस प्राकृत भाषा का नाम महाराष्ट्री है वह साहित्य की प्राकृत है। पुस्तकें उसी में लिखी जाती थीं, पर वह बोली न जाती थी। बोलने की भाषा जुदा थी।
दाक्षिणात्य-भाषा-भाषी प्रदेश के पूर्व से ले कर बंगाल की खाड़ी तक ओडरी या उत्कली अपभ्रंश प्रचलित थी। वर्तमान उड़िया भाषा उसी से निकली है।
जिन प्रांतों में ओडरी भाषा बोली जाती थी उनके उत्तर, अधिकतर छोटा नागपुर, बिहार और संयुक्त प्रांतों के पूर्वी भाग में मागधी प्राकृत की अपभ्रंश, मागध भाषा, बोली जाती थी। इसका विस्तार बहुत बड़ा था। वर्तमान बिहारी भाषा उसी से उत्पन्न है। इस अपभ्रंश की एक बोली अब तक अपने पुराने नाम से मशहूर है। वह आजकल मगही कहलाती है। मगही शब्द मगधी का ही अपभ्रंश है। मागध अपभ्रंश की किसी समय यही प्रधान बोली थी। यह अपभ्रंश भाषा पुरानी पूर्वी प्राकृत की समकक्ष थी। ओडरी, गौड़ी और ढक्की भी उसी के विकास प्राप्त रूप थे। उनके ये रूप बिगड़ते-बिगड़ते या विकास होते-होते, हो गए थे। मगही गौड़ी, ढक्की और ओडरी इन चारों भाषाओं की आदि जननी वही पुरानी पूर्वी प्राकृत समझना चाहिए। उसी से मागधी का जन्म हुआ और मागधी से इन सब का।
मागधी के पूर्व गौड़ अथवा प्राच्य नाम की अपभ्रंश भाषा बोली जाती थी। उसका प्रधान अड्डा गौड़ देश अर्थात वर्तमान मालदा जिला था। इस अपभ्रंश ने दक्षिण और दक्षिण-पूर्व तक फैल कर वहाँ वर्तमान बँगला भाषा की उत्पत्ति की।
प्राच्य अपभ्रंश ने कुछ दूर और पूर्व जा कर, ढाका के आस-पास ढक्की अपभ्रंश की जड़ डाली। ढाका, सिलहट, कछार और मैमनसिंह जिलों में जो भाषा बोली जाती है वह उसी से उत्पन्न है।
इस प्राच्य या गौड़ अपभ्रंश ने हिंदुस्तान के पूर्व, गंगा के उत्तरी हिस्सों तक, कदम बढ़ाया। वहाँ उसने उत्तरी बंगाल और आसाम में पहुँच कर आसामी की सृष्टि की। उत्तरी और पूर्वी बंगाल की भाषाएँ या बोलियाँ मुख्य बंगाल की किसी भाषा या बोली से नहीं निकलीं। वे पूर्वोक्त गौड़ अपभ्रंश से उत्पन्न हुई हैं जो पश्चिम की तरफ बोली जाती थीं।
मागध अपभ्रंश उत्तर, दक्षिण और पूर्व तीन तरफ फैली हुई थी। उत्तर में उसकी एक शाखा ने उत्तरी बँगला और आसामी की उत्पत्ति की, दक्षिण में उड़िया की, पूर्व में ढक्की की और उत्तरी बँगला और उड़िया के बीच में बँगला की। ये भाषाएँ अपनी जनता से एक सा संबंध रखती हैं। यही कारण है जो उत्तरी बँगला सुदूर, दक्षिण में बोली जाने वाली उड़िया से, मुख्य बँगला भाषा की अपेक्षा अधिक संबंध रखती है – दोनों में परस्पर अधिक समता है।
जैसा कि लिखा जा चुका है पूर्वी और पश्चिमी प्राकृतों की मध्यवर्ती भी एक प्राकृत थी। उसका नाम था अर्द्धमागधी। उसी के अपभ्रंश से वर्तमान पूर्वी हिंदी की उत्पत्ति है। यह भाषा अवध, बघेलखंड और छत्तीसगढ़ में बोली जाती है।
भीतरी शाखा
यहाँ तक बाहरी शाखा की अपभ्रंश भाषाओं का जिक्र हुआ। अब रहीं भीतरी शाखा की अपभ्रंश भाषाएँ। उनमें से मुख्य अपभ्रंश नागर है। बहुत करके यह पश्चिमी भारत की भाषा थी जहाँ नागर ब्राह्मणों का अब तक बाहुल्य है। इस अपभ्रंश में कई बोलियाँ शामिल थीं, जो दक्षिणी भारत के उत्तर की तरफ प्रायः समग्र पश्चिमी भारत में, बोली जाती थीं। गंगा-यमुना के बीच के प्रांत का जो मध्यवर्ती भाग है उसमें नागर अपभ्रंश का एक रूप, शौरसेन, प्रचलित था। वर्तमान पश्चिमी हिंदी और पंजाबी उसी से निकली है। नागर अपभ्रंश का एक और भी रूपांतर था। उसका नाम था आवंती। यह अपभ्रंश भाषा उज्जैन प्रांत में बोली जाती थी। राजस्थानी इसी से उत्पन्न है। गौर्जरी भी इसका एक रूप-विशेष था। वर्तमान गुजराती की जड़ वही है। आवंती और गौर्जरी, मुख्य नागर अपभ्रंश से बहुत कुछ मिलती थीं।
पूर्वी पंजाब से नेपाल तक, हिंदुस्तान के उत्तर, पहाड़ी प्रांतों में, जो भाषाएँ बोली जाती हैं वे किस अपभ्रंश या प्राकृत से निकली हैं, ठीक-ठीक नहीं मालूम। पर वहाँ की भाषाएँ वर्तमान राजस्थानी से बहुत मिलती हैं। और जो लोग पहाड़ी भाषाएँ बोलते हैं उनमें से कितने ही यह दावा रखते हैं कि हमारे पूर्वज राजपूताना से आ कर यहाँ बसे थे। इससे जब तक और कोई प्रमाण न मिले तब तक इन पहाड़ी भाषाओं को भी राजपूताने की पुरानी आवंती से उत्पन्न मान लेना पड़ेगा।
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