आलोचना – हिंदी भाषा की उत्पत्ति – उपसंहार – (लेखक – महावीर प्रसाद द्विवेदी)
आज तक कुछ लोगों का ख्याल था कि हिंदी की जननी संस्कृत है। यह बात भारत की भाषाओं की खोज से गलत साबित हो गई। जो उद्गम-स्थान परिमार्जित संस्कृत का है, हिंदी जिन भाषाओं से निकली है उनका भी वही है। इस बात को सुन कर बहुतों को आश्चर्य होगा। संभव है उन्हें यह बात ठीक न जँचे, पर जब तक इसके खिलाफ कोई सबूत न दिए जायँ, तब तक इस सिद्धांत को मानना ही पड़ेगा।
बिहारी भाषा
भाषाओं की जाँच से एक और भी नई बात मालूम हुई है। वह यह है कि बिहारी भाषा यद्यपि हिंदी से बहुत कुछ मिलती-जुलती है तथापि वह उसकी शाखा नहीं। वह बँगला से अधिक संबंध रखती है, हिंदी से कम। इसी से बिहारियों की गिनती हिंदी बोलने वालों में नहीं की गई। उसे एक निराली भाषा मानना पड़ा है। वह पूर्वी उपशाखा के अंतर्गत है और बँगला, उड़िया और आसामी की बहन है। पूर्वी हिंदी बिहारी की डाँड़ामेंड़ी है, पर पूर्वी हिंदी की तरह वह अर्द्धमागध अपभ्रंश से नहीं निकली। वह पुराने मागध अपभ्रंश से उत्पन्न हुई। बँगला देश के वासी ‘स’ को ‘श’ उच्चारण करते हैं। बिहारियों को भी ऐसा ही उच्चारण करना चाहिए था, क्योंकि उनकी भाषा का उत्पत्ति-स्थान वही है जो बंगालियों की भाषा का है। पर बिहारी ऐसा नहीं करते। इससे उनकी भाषा की उत्पत्ति के विषय में संदेह नहीं करना चाहिए। पूर्वी हिंदी बोलने वालों से बिहारियों का अधिक संपर्क रहा है और अब भी है। बिहारियों की भाषा यद्यपि बँगला की बहन है तथापि बंगाल की अपेक्षा संयुक्त प्रांत से ही उनका हेल-मेल अधिक रहा है। इसी से उच्चारण बंगालियों की ‘श’ वाली विशेषता बिहारियों की बोली से धीरे-धीरे जाती रही है। यद्यपि बिहारी ‘स’ को ‘श’ नहीं उच्चारण करते, तथापि ‘स’ को ‘श’ वे लिखते अब तक हैं। अब तक उनकी यह आदत नहीं छूटी।
बिहारी भाषा के अंतर्गत पाँच बोलियाँ हैं। उनके नाम और बोलने वालों की संख्या नीचे दी जाती है –
मैथिली 10, 387, 898
मगही 6,584,497
भुजपुरी 17, 367, 078
पूर्वी 236, 259
अज्ञात नाम 4,112
कुल 34, 579, 844
इस भाषा में विद्यापति ठाकुर बहुत प्रसिद्ध कवि हुए। और भी कितने ही कवि हुए हैं जिन्होंने नाटक और काव्य-ग्रंथों की रचना की है।
बिहारियों की प्रधान लिपि कैथी है।
पूर्वी हिंदी
अर्द्धमागधी प्राकृत के अपभ्रंश से पूर्वी हिंदी निकली है। जैन लोगों के प्रसिद्ध तीर्थंकर महावीर ने इसी अर्द्धमागधी में अपने अनुगामियों को उपदेश दिया था। इसी से जैन लोग इस भाषा को बहुत पवित्र मानते हैं। उनके बहुत से ग्रंथ इसी भाषा में हैं। तुलसीदास ने अपनी रामायण इसी पूर्वी हिंदी में लिखा है। इसके तीन भेद हैं। अथवा यों कहिए कि पूर्वी हिंदी में तीन बोलियाँ शामिल हैं। अवधी, बघेली, और छत्तीसगढ़ी। इनमें से अवधी भाषा में बहुत कुछ लिखा गया है। मलिक मुहम्मद जायसी और तुलसीदास इस भाषा के सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि हुए। जिसे ब्रज-भाषा कहते हैं। उसका मुकाबला, कविता की अगर और किसी भाषा ने किया है तो अवधी ही ने किया है। रीवाँ दरबार के कुछ कवियों ने बघेली भाषा में भी पुस्तकें लिखी हैं, पर अवधी भाषा के पुस्तक-समूह के सामने वे दाल में नमक के बराबर भी नहीं हैं। छत्तीसगढी में तो साहित्य का प्रायः अभाव ही समझना चाहिए।
पश्चिमी हिंदी
पूर्वी हिंदी तो मध्यवर्ती शाखा से निकली है अर्थात् बाहरी और भीतरी दोनों शाखाओं की भाषाओं के मेल से बनी है, पश्चिमी हिंदी की बात जुदा है। वह भीतरी शाखा से संबंध रखती है और राजस्थानी, गुजराती और पंजाबी की बहन है। इस भाषा के कई भेद हैं। उनमें से हिंदुस्तानी, ब्रज-भाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बाँगरू और दक्षिणी मुख्य हैं। इनके बोलने वालों की संख्या इस प्रकार है।
हिंदुस्तानी (खास) 7,072,745
और तरह की हिंदुस्तानी जिसमें
फुटकर भाषाएँ शामिल हैं 5,921,384
ब्रजभाषा 8,380,724
कन्नौजी 5,082,006
बुंदेली 5,460,280
बाँगरू 2,505,158
दक्षिणी 6,292,628
कुल 40,714,925
याद रखिए यह वर्गीकरण डाक्टर ग्रियर्सन का किया हुआ है। इसमें कहीं उर्दू का नाम नहीं आया। हिंदी के जो दो बड़े-बड़े विभाग किए गए हैं उनमें से एक में भी उर्दू अलग भाषा या बोली नहीं मानी गई। जिसको लोग उर्दू कहते हैं उसके बोलने वालों की संख्या हिंदुस्तानी बोलने वालों में शामिल है। इस भाषा के विषय में कुछ विशेष बातें लिखनी हैं। इससे उसे आगे के लिए रख छोड़ते हैं।
ब्रज-भाषा
गंगा-यमुना के बीच के मध्यवर्ती प्रांत में, और उसके दक्षिण, देहली से इटावे तक, ब्रज-भाषा बोली जाती है। गुड़गाँवा और भरतपुर, करोली और ग्वालियर की रियासतों में भी ब्रजभाषा के बोलने वाले हैं। पुराने जमाने में शूरसेन देश के एक भाग का नाम था ब्रज। उसी के नामानुसार ब्रजभाषा का नाम हुआ है। इस भाषा के कवियों में सूरदास और बिहारी सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। अंगरेजी-विद्वानों की, विशेष कर के ग्रियर्सन साहब की, राय में सूरदास और तुलसीदास का परस्पर मुकाबला ही नहीं हो सकता, क्योंकि उनकी राय में तुलसीदास केवल कवि ही न थे, समाज-संशोधक भी थे। मनुष्य के मानसिक विकारों का जैसा अच्छा चित्र तुलसीदास ने अपनी कविता में खींचा है वैसा और किसी से नहीं खींचा गया।
कन्नौजी
कन्नौजी, ब्रजभाषा से बहुत कुछ मिलती जुलती है। इटावा से इलाहाबाद के पास तक, अंतर्वेद में इसका प्रचार है। अवध के हरदोई और उन्नाव जिलों में भी यही भाषा बोली जाती है। हरदोई में ज्यादा उन्नाव में कम। इस भाषा में कुछ भी साहित्य नहीं है। कोई 100 वर्ष हुए श्रीरामपुर के पादरियों ने बाइबल का एक अनुवाद इस प्रांतिक भाषा में प्रकाशित किया था। उसे देखने से मालूम होता है कि तब की और अब की भाषा में फर्क हो गया है। कितने ही शब्द जो पहले बोले जाते थे अब नहीं बोले जाते।
बुंदेली
बुंदेली बुंदेलखंड की बोली है। झाँसी, जालौन, हमीरपुर और ग्वालियर राज्य के पूर्वी प्रांत में यह बोली जाती है। मध्यप्रदेश के दमोह, सागर, सिउनी, नरसिंहपुर जिलों की भी बोली बुंदेली ही है। छिंदवाड़ा और हुशंगाबाद तक के कुछ हिस्सों में यह बोली जाती है। बाइबल के एक आध अनुवाद के सिवा इसमें भी कोई साहित्य नहीं है। ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुंदेली आपस में एक दूसरे से बहुत कुछ मिलती जुलती हैं।
बाँगरू
हिसार, झींद, रोहतक, करनाल आदि जिलों की भाषा बाँगरू है। इन प्रांतों की बोलियों के हरियानी और जादू आदि भी नाम हैं, पर बाँगरू नाम अधिक सयुक्तिक और अधिक व्यापक है, क्योंकि बाँगरू में, अर्थात पंजाब के दक्षिण-पूर्व में जो ऊँचा और खुश्क देश है उसमें, यह बोली जाती है। देहली के आस-पास की भी यही भाषा है। पर करनाल के आगे यह नहीं बोली जाती। वहाँ से पंजाबी शुरू होती है।
दक्षिणी
दक्षिण के मुसलमान जो हिंदी बोलते हैं उसका नाम दक्षिणी हिंदी रक्खा गया है। इस हिंदी के बोलने वाले बंबई, बरोदा, बरार, मध्यप्रदेश, कोचीन, कुग, हैदराबाद, मदरास, माइसोर और ट्रावनकोर तक में पाए जाते हैं। ये लोग अपनी भाषा लिखते यद्यपि फारसी अक्षरों में हैं, तथापि फारसी शब्दों की भरमार नहीं करते। ये लोग मुझे या मुझ को की जगह ‘मेरे को’ बोलते हैं और कभी-कभी ‘मैं खाना खाया’ की तरह के ‘ने’ विहीन वाक्य प्रयोग करते हैं। दक्षिणी हिंदी बोलने वालों की संख्या थोड़ी नहीं है। कोई 63 लाख है। सुदूरवर्ती माइसोर, कुर्ग, मदरास और ट्रावनकोर तक में इस हिंदी को बोलने वाले हैं, और लाखों हैं।
हिंदुस्तानी
हिंदुस्तानी के दो भेद हैं। एक तो वह जो पश्चिमी हिंदी की शाखा है, दूसरी वह जो साहित्य में काम आती है। पहली गंगा-यमुना के बीच का जो देश है उसके उत्तर में, रुहेलखंड में, और अंबाला जिला के पूर्व में, बोली जाती है। यह पश्चिमी हिंदी की शाखा है। यही धीरे-धीरे पंजाबी में परिणत हो गई है। मेरठ के आस-पास और उसके कुछ उत्तर में यह भाषा अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती है। वहाँ उसका वही रूप है जिसके अनुसार हिंदी (हिंदुस्तानी) का व्याकरण बना है। रुहेलखंड में यह धीरे-धीरे कन्नौजी में और अंबाले में पंजाबी में परिणत हो गई है। दूसरी वह है जिसे पढ़े लिखे आदमी बोलते हैं और जिसमें अखबार और किताबें लिखी जाती हैं। हिंदुस्तानी की उत्पत्ति और उसके प्रकारादि के विषय में आज तक भाषाशास्त्र के विद्वानों की जो राय थी वह भ्रांत साबित हुई है। मीर अम्मन ने अपने ‘बागोबहार’ की भूमिका में हिंदुस्तानी भाषा की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि यह अनेक भाषाओं के मेल से उत्पन्न हुई है। कई जातियों और कई देशों के आदमी जो देहली के बाजार में परस्पर मिलते-जुलते और बातचीत करते थे वही इस भाषा के उत्पादक हैं। यह बात अब तक ठीक मानी गई थी और डाक्टर ग्रियर्सन आदि सभी विद्वानों ने इस मत को कबूल कर लिया था। पर भाषाओं की जाँच पड़ताल से यह मत भ्रामक निकला। हिंदुस्तानी और कुछ नहीं, सिर्फ ऊपरी दोआब की स्वदेशी भाषा है। वह देहली की बाजारू बोली हरगिज नहीं। हाँ उसके स्वाभाविक रूप पर साहित्य-परिमार्जन का जिलो जरूर चढ़ाया गया है और कुछ गँवार मुहावरे उससे जरूर निकाल डाले गए हैं। बस उसके स्वाभाविक रूप में इतनी ही अस्वाभाविकता आई है। इस भाषा का ‘हिंदुस्तानी’ नाम उन लोगों का रखा हुआ नहीं है, यह साहब लोगों की कृपा का फल है। हम लोग तो इसे हिंदी ही कहते हैं। देहली के बाजार में तुर्क, अफगान और फारस वालों का हिंदुओं से संपर्क होने के पहले भी यह भाषा प्रचलित थी। पर उसका नाम उसी समय से हुआ। देहली में मुसलमानों के संयोग से हिंदी-भाषा का विकास जरूर बढ़ा। विकास ही नहीं, इसके प्रचार में भी वृद्धि हुई। इस देश में जहाँ-जहाँ मुगल बादशाहों के अधिकारी गए, वहाँ-वहाँ अपने साथ वे इस भाषा को भी लेते गए। अब इस समय इस भाषा का प्रचार इतना बढ़ गया है कि कोई प्रांत, कोई सूबा, कोई शहर ऐसा नहीं जहाँ इसके बोलने वाले न हों। बंगाली, मदरासी, गुजराती, महाराष्ट्र, नेपाली आदि लोगों की बोलियाँ जुदा-जुदा हैं। पर वे यदि हिंदी बोल नहीं सकते तो प्रायः समझ जरूर सकते हैं। उनमें से अधिकांश तो ऐसे हैं जो बोल भी सकते हैं। भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने वाले जब एक दूसरे से मिलते हैं तब वे अपने विचार हिंदी ही में प्रकट करते हैं। उस समय और कोई भाषा काम नहीं देती। उससे इसी को हिंदुस्तान की प्रधान भाषा मानना चाहिए। और यदि देश भर में कभी एक भाषा होगी तो यही होगी।
‘हिंदुस्तानी’ नाम यद्यपि अंगरेजों का दिया हुआ है तथापि है बहुत सार्थक। इससे हिंदुस्तान भर में बोली जाने वाली भाषा का बोध होता है। यह बहुत अच्छी बात है। इस नाम के अंतर्गत साहित्य की हिंदी, सर्वसाधारण हिंदी, दक्षिणी हिंदी और उर्दू सबका समावेश हो सकता है। अतएव हमारी समझ में इस नाम को स्वीकार कर लेना चाहिए।
उर्दू
उर्दू कोई जुदा भाषा नहीं। वह हिंदी ही का एक भेद है, अथवा यों कहिए कि हिंदुस्तानी की एक शाखा है। हिंदी और उर्दू में अंतर इतना ही है कि हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और संस्कृत के शब्दों की उसमें अधिकता रहती है। उर्दू, फारसी लिपि में लिखी जाती है और उसमें फारसी, अरबी के शब्दों की अधिकता रहती है। ‘उर्दू’ शब्द ‘उर्दू-ए-मुअल्ला’ से निकला है जिसका अर्थ है ‘शाही फौज का बाजार’। इसी से किसी-किसी का खयाल था कि यह भाषा देहली के बाजार ही की बदौलत बनी है। पर यह खयाल ठीक नहीं। भाषा पहले ही से विद्यमान थी और उसका विशुद्ध रूप अब भी मेरठ-प्रांत में बोला जाता है। बात सिर्फ यह हुई कि मुसलमान जब यह बोली बोलने लगे तब उन्होंने उसमें अरबी, फारसी के शब्द मिलाने शुरू कर दिए, जैसे कि आजकल संस्कृत जानने वाले हिंदी बोलने में आवश्यकता से जियादह, संस्कृत-शब्द काम में लाते हैं। उर्दू पश्चिमी हिंदुस्तानी के शहरों की बोली है। जिन मुसलमानों या हिंदुओं पर फारसी भाषा और सभ्यता की छाया पड़ गई है वे, अन्यत्र भी, उर्दू ही बोलते हैं। बस, और कोई यह भाषा नहीं बोलता। इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत से फारसी, अरबी के शब्द हिंदुस्तानी भाषा की सभी शाखाओं में आ गए हैं। अपढ़ देहातियों ही की बोली में नहीं, किंतु हिंदी के प्रसिद्ध-प्रसिद्ध लेखकों की परिमार्जित भाषा में भी अरबी फारसी के शब्द आते हैं। पर ऐसे शब्दों को अब विदेशी भाषा के शब्द न समझना चाहिए। वे अब हिंदुस्तानी हो गए हैं और छोटे-छोटे बच्चे और स्त्रियाँ तक उन्हें बोलती हैं। उनसे घृणा करना या उन्हें निकालने की कोशिश करना वैसी ही उपहासास्पद बात है जैसी कि हिंदी से संस्कृत के धन, वन, हार और संसार आदि शब्दों को निकालने की कोशिश करना है। अंगरेजी में हजारों शब्द ऐसे हैं जो लैटिन से आए हैं। यदि कोई उन्हें निकाल डालने की कोशिश करे तो कैसे हो सकता है?
उर्दू में यदि अरबी, फारसी के शब्दों की भरमार न की जाय तो उसमें और हिंदी में कुछ भी भेद न रहे। पर उर्दू वालों को फारसी, अरबी के शब्द लिखने और बोलने की जिद सी है। कोई-कोई लेखक इन वैदेशिक शब्दों के लिखने में सीमा के बाहर चले जाते हें। इनकी भाषा सर्वसाधारण को प्रायः वैसी ही मालूम होती है जैसी कि दक्षिणी अफरीका के जंगली आदिमियों को जानसन की अंगरेजी यदि सुनाई जाय तो मालूम हो। बड़े-बड़े वाक्य आप देखिए – में, ने, से, का, की, के, चला, मिला, हिला आदि के सिवा आप को एक भी हिंदुस्तानी शब्द उनमें न मिलेगा। व्याकरण भर हिंदुस्तानी, बाकी सब फारसी, अरबी शब्द। हमारी भाषा को शुरू-शुरू में हिंदुओं ने भी खूब बिगाड़ा है। फारसी पढ़-पढ़ कर वे मुसलमानी राज्य में मुलाजिम हुए और, फारसी, अरबी के शब्दों की भरमार करके अपनी भाषा का रूप बदला। मुसलमान तो बहुत समय पहले अपना सारा काम फारसी में ही करते थे। पर हिंदुओं ने शुरू ही से ऐसी भाषा का प्रचार किया। अब तो मुसलमान और फारसीदाँ हिंदू, दोनों ऊँचे दरजे की उर्दू लिख-लिख कर इन प्रांतों की भाषा पर एक अत्याचार कर रहे हैं।
हिंदी
‘हिंदी’ शब्द कई अर्थों का बोधक है। अंगरेज लोग इसके दो अर्थ लगाते हैं। कभी-कभी तो वे इसे उस भाषा का बोधक समझते हैं जिसे हम, हिंदी लिखने वाले, इन प्रांतों के लोग, हिंदी कहते हैं – अर्थात् वह भाषा जो ‘हिंदुस्तानी’ की शाखा है और जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। कभी-कभी वे इसे उस भाषा या बोली के अर्थ में प्रयोग करते हैं जो बंगाल और पंजाब के बीच के देहात में बोली जाती है। पर कोई-कोई मुसलमान इसे फारसी का शब्द मानते हैं और ‘हिंद के निवासी’ के अर्थ में बोलते हैं। हिंद (हिंदुस्तान) के रहने वालों को वे हिंदी कहते हैं। ‘हिंदी’ मुसलमान भी हो सकते हैं और हिंदू भी। अमीर खुसरो ने ‘हिंदी’ को इसी अर्थ में लिखा है। इस हिसाब से जितनी भाषाएँ इस देश में बोली जाती हैं सब हिंदी कही जा सकती हैं।
जिसे हम हिंदी या उच्च हिंदी कहते हैं वह देवनागराक्षर में लिखी जाती है। इसका प्रचार कोई सौ सवा सौ वर्ष के पहले न था। उसके पहले यदि किसी को देवनागरी में गद्य लिखना होता था तो वह अपने प्रांत की भाषा – अवधी, बघेली, बुंदेली या ब्रजभाषा आदि – में लिखता था। लल्लूलाल ने प्रेमसागर में पहले-पहले यह भाषा देवनागरी अक्षरों में लिखी, और उर्दू लिखने वाले जहाँ अरबी-फारसी के शब्द प्रयोग करते वहाँ उन्होंने अपने देश के शब्द प्रयोग किए। याद रहे, लल्लूलाल ने कोई भाषा नहीं ईजाद की। उनके प्रेमसागर की भाषा दोआब में पहले ही से बोली जाती थी। पर उसी का उन्होंने प्रेमसागर में प्रयोग किया और आवश्यकतानुसार संस्कृत के शब्द भी उसमें मिलाए। तभी से गद्य की वर्तमान हिंदी का प्रचार हुआ। गद्य पहले भी था। कितनी ही पुस्तकों की टीकाएँ आदि गद्य में लिखी गई थीं। पर वे सब प्रांतिक भाषाओं में थीं। लल्लूलाल ने वर्तमान हिंदी की नींव डाली और उसमें उन्हें कामयाबी हुई। यहाँ तक कि अब स्वप्न में भी किसी को गद्य लिखते समय अपने प्रांत की अवधी, बघेली या ब्रजभाषा याद नहीं आती। पद्य लिखने में वे चाहे उनका भले ही अब तक पिंड न छोड़ें।
हिंदी में एक बड़ा भारी दोष इस समय यह घुस रहा है कि उसमें अनावश्यक संस्कृत शब्दों की भरमार की जाती है। इसका उल्लेख हम एक जगह पहले भी कर आए हैं। इससे हिंदी और उर्दू का अंतर बढ़ता जाता है। यह न हो तो अच्छा। इन प्रांतों की गवर्नमेंट ने बड़ा अच्छा काम किया जो प्रारंभिक शिक्षा की पाठ्य पुस्तकों की भाषा एक कर दी। उर्दू और हिंदी दोनों में उसने कुछ फर्क नहीं रक्खा। फर्क सिर्फ लिपि का रक्खा है। अर्थात् कुछ पुस्तकें फारसी लिपि में छापी जाती हैं, कुछ नागरी में। यदि हम लोग हिंदी में संस्कृत के और मुसलमान उर्दू में अरबी फारसी के शब्द कम लिखें तो दोनों भाषाओं में बहुत थोड़ा भेद रह जाय और संभव है, किसी दिन दोनों समुदायों की लिपि और भाषा एक हो जायँ। इससे यह मतलब नहीं कि संस्कृत कोई न पढ़े। नहीं, हिंदू और मुसलमान जो चाहे शौक से संस्कृत, अरबी और फारसी पढ़ सकते हैं। पर समाचार-पत्रों, मासिक पुस्तकों और सर्वसाधारण के लिए उपयोगी पुस्तकों में जहाँ तक संस्कृत और अरबी-फारसी के शब्दों का कम प्रयोग हो अच्छा है। इससे पढ़ने और समझने वालों की संख्या बढ़ जायगी। जिससे बहुत लाभ होगा।
पद्य
‘हिंदुस्तानी’, अर्थात् वर्तमान बोलचाल की भाषा, के सबसे पुराने नमूने उर्दू की कविता में पाए जाते हैं। उर्दू क्यों उसे रेख्ता कहना चाहिए। सोलहवीं सदी के अंत में इस भाषा में कविता होने लगी। दक्षिण में इस कविता का आरंभ हुआ। कोई 100 वर्ष बाद औरंगाबाद के वली नामक शायर ने उसकी बड़ी उन्नति की। वह ‘रेख्ता का पिता’ कहलाया। धीरे-धीरे देहली में भी इस कविता का प्रचार हुआ। अठारहवीं सदी के अंत में सौदा और मीर तकी ने इस कविता में बड़ा नाम पाया। इसके बाद लखनऊ में भी इस भाषा के कितने ही नामी-नामी कवि हुए और कितने ही काव्य बने। और अब तक बराबर इस में कविता होती जाती हैं। खेद है, हिंदी में अभी कुछ ही दिन से बोलचाल की भाषा में कविता शुरू हुई है।
डाक्टर ग्रियर्सन की राय है कि गद्य की हिंदी, अर्थात् बोलचाल की भाषा, में अच्छी कविता नहीं हो सकती। दो एक आदमियों ने गद्य की भाषा में कविता लिखने की कोशिश भी की, पर उन्हें बे-तरह नाकामयाबी हुई और उपहास के सिवा उन्हें कुछ भी न मिला। इस पर हमारी प्रार्थना है कि डाक्टर साहब की राय सरासर गलत है। यदि दो एक आदमी गद्य की हिंदी में अच्छी कविता न लिख सके तो इससे यह कहाँ साबित हुआ कि कोई नहीं लिख सकता। डाक्टर साहब जब से विलायत गए हैं तब से इस देश के हिंदी-साहित्य से आपका संपर्क छूट सा गया है। अब उनको चाहिए कि अपनी पुरानी राय बदल दें। बोलचाल की भाषा में कितनी ही अच्छी-अच्छी कविताएँ निकल चुकी हैं और बराबर निकलती जाती हैं। जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समाचार पत्र और सामयिक पुस्तकें हिंदी की हैं उनमें अब बोलचाल की भाषा की अच्छी-अच्छी कविताएँ हमेशा ही प्रकाशित हुआ करती हैं। अब उर्दू और हिंदी प्रायः एक ही भाषा है और उर्दू में अच्छी कविता होती है तब कोई कारण नहीं कि हिंदी में न हो सके –
बात अनोखी चाहिए भाषा कोई हो।
गद्य
बोलचाल की भाषा की कविता में उर्दू – उर्दू क्यों हिंदुस्तानी – यद्यपि हिंदी से जेठी है, तथापि गद्य दोनों का साथ ही साथ उत्पन्न हुआ है। कलकत्ते के फोर्ट विलियम कालेज के लिए उर्दू और हिंदी की पुस्तकें एक ही साथ तैयार हुईं। लल्लूलाल का प्रेमसागर और मीर अम्मन का बागेबहार एक ही समय की रचना है। तथापि उर्दू भाषा और फारसी अक्षरों का प्रचार सरकारी कचहरियों और दफ्तरों में हो जाने से उर्दू ने हिंदी की अपेक्षा अधिक उन्नति की। कुछ दिनों से समय ने पलटा खाया है। वह हिंदी की भी थोड़ी बहुत अनुकूलता करने लगा है। हिंदी की उन्नति हो चली है। कितने ही अच्छे-अच्छे समाचार पत्र और मासिक पुस्तकें निकल रही हैं। पुस्तकें भी अच्छी-अच्छी प्रकाशित हो रही हैं। आशा है बहुत शीघ्र उसकी दशा सुधर जाय। हिंदी भाषा और नागरी लिपि में गुण इतने हैं कि बहुत ही थोड़े साहाय्य और उत्साह से वह अच्छी उन्नति कर सकती है।
लिपि
जिसे हिंदुस्तानी कहते हैं, अर्थात् जिस में फारसी, अरबी के क्लिष्ट शब्दों का जमघटा नहीं रहता, वह तो देवनागरी लिपि में लिखी जा सकती ही है। उसकी तो कुछ बात ही नहीं है जिसे उर्दू कहते हैं – जिसमें आज कल मुसलमान और उर्दूदाँ हिंदू अखबार और साधारण विषयों की पुस्तकें लिखते हैं – वह भी देवनागरी लिपि में लिखी जा सकती है। पर डाक्टर ग्रियर्सन की राय है कि वह नहीं लिखी जा सकती। खेद है, हमारी राय आप की राय से नहीं मिलती। कुछ दिन हुए इस विषय पर हम ने एक लेख सरस्वती में प्रकाशित किया है और यथाशक्ति इस बात को सप्रमाण साबित भी कर दिया है कि उर्दू के अखबारों और रिसालों की भाषा अच्छी तरह देवनागरी में लिखी जा सकती है, और लेख का मतलब समझने में किसी तरह की बाधा नहीं आती। मुसलमान लोग अपने अरबी फारसी के धार्मिक तथा अन्यान्य ग्रंथ आनंद से फारसी, अरबी लिपि में लिखें। उनके विषय किसी को कुछ नहीं कहना। कहना साधारण साहित्य के विषय में है जो देवनागरी लिपि में आसानी से लिखा जा सकता है। देवनागरी लिपि के जानने वालों की संख्या फारसी लिपि के जानने वालों की संख्या से कई गुना अधिक है। इस दशा में सारे भारत में फारसी लिपि का प्रचार होना सर्वथा असंभव और नागरी का सर्वथा संभव है। यदि मुसलमान सज्जन हिंदुस्तान को अपना देश मानते हों, यदि स्वदेश-प्रीति को भी कोई चीज समझते हों, यदि एक लिपि के प्रचार से देश को लाभ पहुँचना संभव जानते हों तो हठ, दुराग्रह और कुतर्क छोड़ कर उन्हें देवनागरी लिपि सीखनी चाहिए।
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