उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 2 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
वैशाख का महीना, दो घड़ी रात बीत गयी है। चमकीले तारें चारों ओर आकाश में फैले हुए हैं, दूज का बाल सा पतला चाँद, पश्चिम ओर डूब रहा है, अंधियाला बढ़ता जाता है, ज्यों-ज्यों अंधियाला बढ़ता है, तारों की चमक बढ़ती जान पड़ती है। उनमें जोत सी फूट रही है, वे कुछ हिलते भी हैं, उनमें चुपचाप कोई-कोई कभी टूट पड़ते हैं, जिससे सुनसान आकाश में रह-रह कर फुलझड़ी सी छूट जाती है। रात का सन्नाटा बढ़ रहा है, ऊमस बड़ी है, पवन डोलती तक नहीं, लोग घबड़ा रहे हैं, कोई बाहर खेतों में घूमता है, कोई घर की खुली छतों पर ठण्डा हो रहा है। ऊमस से घबड़ा कर कभी-कभी कोई टिटिहरी कहीं बोल उठती है।
भीतों से घिरे हुए एक छोटे से घर में एक छोटा सा आँगन है, हम वहीं चलकर देखना चाहते हैं, इस घड़ी वहाँ क्या होता है। एक मिट्टी का छोटा सा दीया जल रहा है, उसके धुंधले उजाले में देखने से जान पड़ता है, इस आँगन में दो पलंग पड़े हुए हैं। एक पलंग पर एक ग्यारह बरस का हँसमुख लड़का लेटा हुआ उसी दीये के उँजाले में कुछ पढ़ रहा है। दूसरे पलंग पर एक पैतींस छत्तीस बरस की अधेड़ स्त्री लेटी हुई धीरे-धीरे पंखा हाँक रही है, इस पंखे से धीमी-धीमी पवन निकल कर उस लड़के तक पहँचती है, जिससे वह ऐसी ऊमस में भी जी लगा कर अपनी पोथी पढ़ रहा है। इस स्त्री के पास एक चौदह बरस की लड़की भी बैठी है। यह एकटक आकाश के तारों की ओर देख रही है, बहुत बेर तक देखती रही, पीछे बोली माँ! आकाश में ये सब चमकते हुए क्या हैं?
माँ ने कहा, बेटी! जो लोग इस धरती पर अच्छी कमाई करते हैं, मरने पर वे ही लोग स्वर्ग में बास पाते हैं, उनमें बड़ा तेज होता है, अपने तेज से वे लोग सदा चमकते रहते हैं। दिन में सूरज के तेज से दिखलाई नहीं पड़ते, रात में जब सूरज का तेज नहीं रहता, हम लोगों को उनकी छवि देखने में आती है। यह सब चमकते हुए तारे स्वर्ग के जीव हैं, इनकी छटा निराली है, रूप इनका कहीं बढ़कर है। न इन लोगों के पास रोग आता न ये बूढ़े होते, दुख इनके पास फटकता तक नहीं। यह जो तारों के बीच से उजली धार सी दक्खिन से उत्तर को चली गयी है, आकाश गंगा है, इसका पानी बहुत सुथरा, मीठा और ठण्डा होता है, वह लोग इसमें नहाते हैं, मीठे अनूठे फलों को खाते हैं, भीनी-भीनी महँकवाले अनोखे फूल सूँघते हैं, भूख प्यास का डर नहीं, कमाने का खटका नहीं, जब जो चाहते हैं मिलता है, जब जो कहते हैं होता है, सदा सुख चैन से कटती है, इन लोगों के ऐसा बड़भागी जग में और दूसरा कोई नहीं है।
उत्तर ओर यह जो अकेला चमकता हुआ तारा दिखलाई पड़ता है, जिसके आस पास और कोई दूसरा तारा नहीं है, यह ध्रुव है। ध्रुव एक राजा के लड़के थे, इन्होंने बड़ा भारी तप किया था, उसी तप के बल से आज उनको यह पद मिला हुआ है।
इन सर के ऊपर के सात तारों को देखो, ये सातों ऋषि हैं। इनमें ऊपर के चार देखने में चौखटे जान पड़ते हैं, पर नीचे के तीन कुछ-कुछ तिकोने से हैं। इन्हीं तीनों में जो बीच का तारा है, वे वशिष्ठ मुनि हैं। उनके पास ही जो बहुत छोटा सा तारा दिखलाई पड़ता है, वे अरुंधती हैं, ये वशिष्ठ मुनि की स्त्री हैं। ये बड़ी, सीधी, सच्ची, दयावाली, और अच्छी कमाई करनेवाली हो गयी हैं, अपने पति के चरणों में इन का बड़ा नेह था। इनकी भाँति जो स्त्री अपने पति के चरणों की सेवकाई करती है, पति को ही देवता जानती है, उन्हीं की पूजा करती है, उन्हीं में लव लगाती है, सपने में भी उनके साथ बुरा बरताव नहीं करती, भूलकर भी उनको कड़ी बात नहीं कहती, कभी उनके साथ छल कपट नहीं करती वह भी मरने पर इसी भाँति अपने पति के साथ रहकर स्वर्गसुख लूटती है।
जिन जीवों की कमाई पूरी हो जाती है, जिनका पुण्य चुक जाता है, वे सब फिर स्वर्ग से आकर धरती में जनमते हैं, ऐसे ही जीव ये सब रात के टूटते हुए तारे हैं। धीरे-धीरे अपना तेज खोकर स्वर्ग से गिरते हैं, और फिर आकर इस धरती में जन्म लेते हैं।
लड़का चुपचाप माँ की बातों को सुनता था, जब माँ ने बातें पूरी कीं, बोला, माँ तुम यह सब क्या कहती हो, ये सब तारे ऋषि मुनि नहीं हैं, जैसी हमारी यह धरती है, वैसे ही एक-एक तारा एक-एक धरती है, इनमें कोई-कोई हमारी धरती से भी सैकड़ों गुना बड़ा है, ये तारे लाखों कोस की दूरी पर हैं। इसी से देखने में छोटे जान पड़ते हैं, नहीं तो बहुत सी बातों में ये सब ठीक हमारी धरती के से हैं। जैसे हमारी धरती पर नदी, पहाड़, झील, बन, पेड़, गाँव, घर, जीव, जन्तु हैं, वैसे ही इन तारों में भी समुद्र, नदी, बन, पहाड़, पेड़, पौधे, और जीव हैं; चाँद में जो काले धाब्बे देखने में आते हैं; वे उसमें के नदी पहाड़ हैं। जैसे अपनी रात होने पर हम लोग इन तारों को आकाश में चमकता हुआ देखते हैं, वैसे ही जब उन तारों में रात होती है, तो वहाँ के रहनेवाले भी हमारी धरती को इसी भाँति आकाश में चमकता हुआ तारा देखते होंगे। तारों के बीच से उत्तर से दक्खिन को जो उजली धार सी निकल गयी है, यह आकाश गंगा नहीं है, यह अनगिनत तारों की पांती है जो बहुत छोटे और बहुत दूर होने से आँखों को दिखलाई नहीं देते, और आँखों से न दिखलाई देने ही से उनकी पांती एक उजली धार सी जान पड़ती है, नहीं तो सचमुच यह कोई नहीं है, और न उजली धार ही है। अरुंधती, जिनको तुम वशिष्ठ मुनि के पास बैठी समझती हो, उनसे लाखों कोस की दूरी पर होगी यहाँ से बहुत दूर पर होने से ही हम तुमको वे दोनों पास-पास जान पड़ते हैं। ये जो तारे टूटते हैं, वे स्वर्ग के जीव नहीं हैं जो धरती की ओर जनमने के लिए गिरते हैं, भगवान ने अन्त सबका बनाया है। दिन पाकर इन तारों का भी नाश होता है, उस घड़ी ये तारे बिखर जाते हैं, और उनके अनगिनत टुकड़े आकाश में इधर-उधर गिरने लगते हैं जो टुकड़े हम लोगों की आँखों के सामने होकर निकलते हैं, वे ही टूटते हुए तारे हैं। आजकल के पढ़े-लिखे लोग कहते हैं, दस सौ बरस पीछे हमारा चाँद भी बिखर जायगा, जिस घड़ी यह बिखरेगा, इसके टुकड़े भी टूटते हुए तारे की भाँत आकाश में दिखलाई पड़ेंगे।
वह चौदह बरस की लड़की जो उस अधेड़ स्त्री के पास बैठी हुई थी, लड़के की बातों को सुनकर खिलखिला कर हँस पड़ी, वह अधेड़ स्त्री भी जो इन दोनों लड़कों की माँ है, इन बातों को सुनकर कुछ घड़ी चुप रही, फिर बोली, बेटा! ये सब नई बातें हैं, कुछ अचरज नहीं जो ठीक हों, पर हमलोगों के उतने काम की नहीं हैं, ऐसी बातें कुछ तुम लोगों ही के काम की होती हैं।
लड़के ने कहा, माँ! ये बात नई कैसे हैं, एक पण्डित जी परसों कहते थे, ये सब बातें हमारे यहाँ भी लिखी हुई हैं। यह जो एक तारा दक्खिन ओर झुका हुआ सर के ऊपर लाल रंग का दिखलाई देता है, इसका नाम मंगल है। आजकल के पढ़े-लिखे लोग कहते हैं, यह तारा हमारी धरती ही का टुकड़ा है, और इसी से निकल कर बना है, इसकी सब बातें लगभग धरती ही की सी हैं। वे पण्डित जी कहते थे कि इस बात को हमारे बड़े लोग भी जानते थे, क्योंकि जो न जानते होते तो मंगल को धरती का बेटा¹ क्यों कहते। ऐसे ही एक छोटा सा तारा जो कभी सबेरे बेले पूर्व ओर कभी साँझ को पश्चिम ओर आकाश में नीचे को दिखलाई देता है, वह बुध है। कहा जाता है कि इसको बने अभी थोड़ा दिन हुआ है, यह अभी नया है, यह जाना भी बहुत पीछे गया है। पण्डितजी कहते थे, बुध के लिए ठीक ऐसी ही बातें हमारे यहाँ भी लिखी हैं।
माँ-बेटे में ये बातें होती ही थीं, इतने ही में आकाश में बड़ा उजाला हो गया, और एक बड़ा तारा टूटकर आकाश से गिरते हुए उनको दिखलाई पड़ा। यह तारा ठीक इन लोगों के घर की सीधा में आ रहा था, और ज्यों-ज्यों पास आता जाता
¹ संस्कृत में मंगल का नाम भौम भूमितनय इत्यादि भी लिखा है।
था, एक सनसनाहट की धुन चारों ओर फैलती जाती थी, जिससे इन लोगों में खलबली सी मच गयी। पर देखते-ही-देखते यह तारा इन लोगों के घर से दूर एक खेत में जा गिरा, और लड़का उठकर उसी ओर चला गया।
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