उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 11 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
चारों ओर आग बरस रही है-लू और लपट के मारे मुँह निकालना दूभर है-सूरज बीच आकाश में खड़ा जलते अंगारे उगिल रहा है और चिलचिलाती धूप की चपेटों से पेड़ तक का पत्ता पानी होता है। छर्रों की भाँत धूल के छोटे-छोटे कण सब ओर छूट रहे हैं, धरती तप्ते तवे सी जल रही है-घर आवां हो रहे हैं और सब ओर एक ऐसा सन्नाटा छाया हुआ है-जिससे जान पड़ता है-जेठ की दोपहर जग के सब जीवों को जलाकर उनके साथ आप भी धू-धू जल रही है। बवण्डर उठते हैं, हा हा हा हा करती पछवाँ बयार बड़े धुम से बह रही है।
देवहूती अपनी कोठरी में खाट पर लेटी है-लेटे-ही-लेटे न जाने क्या सोच रही है-कोठरी के किवाड़ लगे हैं-घर के दूसरे लोग अपनी-अपनी ठौरों सोये हैं। आप लोगों ने अभी एक जेठ की दोपहर देखी है-ठीक वही गत देवहूती के जी की है। यहाँ भी लू लपट है, बवण्डर है, जलता सूरज है, चिलचिलाती धूप है, कलेजे को तत्ता तवा, आवाँ जो कहिये सो सब ठीक है। देवहूती के हाथ में एक चीठी है, वह उस चीठी को पढ़ती है। पढ़ते ही उसके कलेजे में आग सी बलने लगती है-वह घबराती है, और उसको समेट कर रख देना चाहती है। पर फिर भी चैन नहीं पड़ता, न जाने कैसा एक बवण्डर सा भीतर ही उठने लगता है-इसलिए वह उसको फिर खोलती है, फिर पढ़ती है और फिर पहले ही की भाँत अधीर होती है। कई बेर वह ऐसा कर चुकी है। अब की बेर उसने फिर उस चीठी को निकाला और पढ़ने लगी। चीठी यह थी।
चीठी
बातें अपनी तुमैं सुनाते हैं।
कुछ किसी ढब से कहते आते हैं।
जब से देखा है चाँद सा मुखड़ा।
हम हुए तेरे ही दिखाते हैं।
दिन कटा तो न रात कटती है।
हम घड़ी भर न चैन पाते हैं।
भूलकर भी कहीं नहीं लगता।
अपने जी को जो हम लगाते हैं।
जलता रहता है जल नहीं जाता।
यों किसी का भी जी जलाते हैं।
बेबसी में पड़े तड़पते हैं।
हम कुछ ऐसी ही चोट खाते हैं।
जी हमारा जला ही करता है।
आँसू कितना ही हम बहाते हैं।
मर मिटेंगे तुम्हें न भूलेंगे।
नेम अपना सभी निभाते हैं।
हम मरेंगे तो क्या मिलेगा तुम्हें।
जी-जलों को भी यों सताते हैं।
है उन्हीं का यहाँ भला होता।
जो भला और का मनाते हैं।
आप ही हैं बुरे वे बन जाते।
जो बुरा और को बनाते हैं।
हो तुम्हारा भला फलो फूलो।
अब चले हम यहाँ से जाते हैं। (कामिनी मोहन)
पढ़ते-पढ़ते उसका जी भर आया, फिर वही गत हुई। वह सोचने लगी, कामिनीमोहन से मैं कभी बोली भी नहीं-कभी आँख उठाकर भली-भाँति उसकी ओर देखा तक नहीं-न कभी कोई बात उससे कही। फिर वह इतना मुझको क्यों चाहता है? जान पड़ता है मैं जो थोड़ा-थोड़ा उसकी ओर खिंचने लगी हूँ-मेरा जी उससे बोलने के लिए ललचने लगा है-मैं जो उसको देखकर सुख पाने लगी हूँ-ये ही बातें ऐसी हैं, जो उसकी यह गत है, नहीं तो उसकी यह दशा क्यों होती? कामिनीमोहन मेरे लिए जलता है, आँसू बहाता है, उसको न रात को नींद आती है, न दिन को चैन पड़ता है, बेबसी से तड़पता है, जी उसका उचट गया है, जीना भी भारी है, पर मैं उससे बोलती तक नहीं, दो चार मीठी बातों से भी उसका जी नहीं बहलाती-क्या इससे बढ़कर भी कोई कठोरपन है? बोलने में क्या रखा है! जो मेरी दो बातों से किसी का भला होता है, तो इन दो बातों के कहने में क्या बुराई है।
बुराई कहते ही उसका कलेजा धक से हो गया, वह कुछ लजा सी गयी, उसको ऐसा जान पड़ा जैसे उसने कोई चोरी की है, वह घबरा कर इधर-उधर देखने लगी। पर जैसा सन्नाटा उसकी कोठरी में पहले था, अब भी था, किसी के पाँव की चाप भी कहीं सुनायी नहीं देती थी। उसने भली-भाँति आँख फैला कर चारों ओर देखा। साम्हने भीत पर एक छिपकली दूसरी छिपकली का पीछा कर रही थी, कोने में मकड़ी जाले में फँसी हुई एक मक्खी को लम्बी-लम्बी टाँगों से खींच कर निगलना चाहती थी। एक तितली घर भर में चक्कर लगा रही थी। बुढ़िया का सूत सर पर उड़ रहा था। और कहीं कुछ न था। वह सम्हली, और फिर सोचने लगी। नहीं-नहीं, बुराई क्यों नहीं है! माँ कहती हैं भले घर की बहू बेटी का यह काम नहीं है, जो पराये पुरुष से बोले, पराये पुरुष की ओर आँख उठाकर देखना भी पाप है। फिर मैं क्यों ऐसा सोचती थी! क्या मैं भले घर की बहू बेटी नहीं हूँ? हाँ! मैं अभागिन हूँ, मेरे दिन पतले हैं, तीन बरस हुआ मेरे पति साधु हो गये। उनका पता भी नहीं मिलता। जो भेंट हो तो किस काम का। क्या वह फिर घरबारी होंगे? और ये बातें ऐसी हैं, जिससे सब ओर मुझको अंधेरा ही दिखलाता है। पर क्या इस अंधेरे में उँजाला करने के लिए मुझको अपनी मरजाद छोड़नी चाहिए? कामिनीमोहन मेरे लिए आँसू बहाता है, तड़पता है, घबराता है, मरने पर उतारू है। पर क्यों मेरे लिए उसकी यह दशा है? मैं उस की कौन? वह हमारा कौन है? जो इसको जी की लगावट कहें, तो भी सोचना चाहिए था, मैं क्या करता हूँ, यों जी लगाते फिरना कैसा? और जो ऐसा ही जी लगाना है, तो आँसू बहाना, घबराना, तड़पना, पड़ेगा ही, इसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ? क्या दूसरा कर सकता है? रहा उसका रूप! अबकी बार देवहूती फिर घबराई, कामिनीमोहन की छबि उसकी आँखों के सामने फिर गयी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें, निराली चितवन, उसका हँसी-भरा मुँह, चाँद सा मुखड़ा, अनूठा ढंग, सहज अलबेलापन-सब एक-एक करके उसके जी में जागे। वह बहुत ही धीरे-धीरे, अपने जी से भी छिपे-छिपे, कहने लगी, कामिनीमोहन, तुम क्यों इतने सुन्दर हो? अब वह बहुत अनमनी हो गयी, जी न होने पर भी कहने लगी-कामिनीमोहन, क्या तुम सचमुच मेरे लिए मरने पर उतारू हो? क्या सचमुच मेरे बिना तुम्हारा दिन कटता है तो रात नहीं, और रात कटती है तो दिन नहीं? क्या सचमुच मेरे लिए तड़पते हो, और आँसू बहाते हो? ये कैसी बातें हैं, मैं समझ नहीं सकती हूँ। इन बातों के सोचते-सोचते देवहूती के जी में बड़ा भारी उलट फेर हुआ। उसका सिर घूम गया और वह सन्नाटे में हो गयी।
धीरे-धीरे करताल बजने लगा, धीरे-ही-धीरे एक बहुत ही रसीला सुर चारों ओर फैल गया। इस खड़ी दुपहरी में यह सुर एक खुली खिड़की से देवहूती की कोठरी में घुसा। फिर धीरे-धीरे उसके कानों तक पहुँचा। कानों के पथ से यह और आगे बढ़ा। और कलेजे में पहुँच कर ऐसा रंग लाया जिसमें देवहूती सर से पाँव तक रंग गयी। यह सुर एक भिखारी बाम्हन के बहुत ही सुरीले गले से निकलता था, जो बड़ी सिधाई के साथ उसके घर के पास खड़ा यह लावनी गा रहा था।
लावनी
पति छोड़ नारि के लिए न और गती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।
जो पति की सेवा नेह साथ करती हैं।
जो पति गुन की ही ओर सदा ढरती हैं।
पति के दुख में भी जो धीरज धरती हैं।
सपने में भी जो पति से न लरती हैं।
उनके ऐसा धरती पर कौन जती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।
जिसका मन पती पराये पर नहिं आया।
पर पति की जिसने छूई तक नहिं छाया।
पति ही जिसकी आँखों में रहे समाया।
पति बिना जगत जिसको सूना दिखलाया।
वह भली नारियों की सिर-धारी सती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।
जो लाल आँख पति को है कभी दिखाती।
जो छल करके पति से है पाप कमाती।
जो झूठमूठ पति से है बात बनाती।
जो कभी पराये पति को है पतियाती।
उसकी परतीत न यहाँ वहाँ रहती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।
परपति से अहल्या ने जो नेह बढ़ाया।
पत्थर होकर सब अपना भरम गँवाया।
सीता साबित्री ने जो पतिगुन गाया।
अब तक उनका जस सब जग में है छाया।
पुजती पतिसेवा ही से पारबती है।
नारी का देवता जग में एक पती है।1।
देवहूती जिस रंग में रंगी थी, वह बहुत पक्का था, अब यह रंग फीका पड़नेवाला न था, लावनी सुनकर उसका जी ही ठिकाने न हुआ। उसको अपनी आज की बातों पर एक ऐसी खिसियाहट और घबराहट हुई, जिससे अपने आप वह धरती में गड़ी जाती थी। कोठरी में कोई था ही नहीं, पर मारे लाज के उस का सर ऊपर न उठता था। वह सोचने लगी-मुझको क्या हो गया था, जो आज मैं ऐसी बुरी बातों में उलझी रही। माँ कहती हैं, जितने पल पराये पुरुष की बातों में बुरे ढंग से कोई स्त्री बिताती है, उस पर एक-एक पल के लिए उसको भगवान के सामने कान पकड़ना पड़ता है। फिर क्या मैंने ऐसा किया? इन सब बातों को सोच कर जी ही जी में बहुत डरी, चीठी को फाड़कर दूर फेंका, और कोठरी के किवाड़ों को खोल जी बहलाने के लिए बाहर निकल आयी। पर यहाँ भी वैसा ही सन्नाटा था, घर में कहीं कोई चाल न करता था। देवहूती फिर अपनी कोठरी में लौटी और किवाड़ लगा कर सो रही।
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