उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 13 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
पहाड़ों में जाकर नदियों को देखो, दूर तक कहीं उनका कुछ चिह्न नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा सा पानी सोते की भाँति झिर झिर बहता हुआ देख पड़ता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली धार कुछ और आगे बढ़कर और कई एक दूसरे पहाड़ी सोतों से मिलकर एक छोटी नदी बन जाती है। कलकल कलकल बहती है। लहरें उठती हैं। कहीं पत्थर की चट्टानों से टकरा कर छींटे उड़ाती है। फिर बड़ी नदी बनती है और बड़े वेग से समुद्र की ओर बहती है। हमारी चाहों का भी यही ढंग है, पहले जी में इसका कुछ चिह्न नहीं होता। पीछे धीरे-धीरे उसकी एक झलक सी इसमें दिखलाई देती है। कुछ दिन और बीतने पर उसकी एक धार सी भीतर ही भीतर फूटने लगती है। पीछे यही धार फैलकर जी में घड़ी-घड़ी लहरें उठाती है। अठखेलियाँ करती है। अड़चनों से टक्कर लगाती है। और अपने चाहतें की ओर बड़े वेग से चल निकलती है।
देवहूती के लिए कामिनीमोहन की चाह भी अब यही पिछले ढंग की चाह है। वह उस में डूब रहा है। उसी की भँवरों में पड़ कर चक्कर खा रहा है। लाख हाथ-पाँव मारता है, पर कहीं थल बेड़ा नहीं मिलता। वह अपनी बैठक में पलँग पर लेटा है, उस की आँखें कड़ियों से लगी हैं, भौंहें कुछ ऊपर को खिंच गयी हैं और वह चुपचाप देवहूती की छवि मन-ही-मन खींच रहा है। उसने चम्पे के फूलों से बनाकर एक मूर्ति खड़ी की। कमल की पंखड़ियों से आँखें बनायीं-तिल के फूल से नाक सँवारी-दुपहरिया के फूल से होठ बनाया-हाथ और पाँव में भी कमल की पंखड़ियों को लगाना चाहा, पर चम्पे के फूल से यहाँ भी काम लिया। हाँ! उँगलियाँ बनाने में फूल से काम न चला, इसलिए वहाँ कलियाँ लगायीं। और सब जैसा-का-तैसा रहने दिया। भौंरों की पाँतियों को पकड़ कर बाल बनाना चाहा, पर ये सब ठहरते न थे, इसलिए चुनी हुई पतली-पतली सुथरी सेवारों से काम लिया-तब भी यह बनावट बहुत ही बाँकी रही। बेले का फूल बहुत ही उजला होता है, नेवारी और जूही का फूल भी वैसा ही होता है, चमेली का फूल इन सबों के इतना उजला नहीं होता, पर उसमें कुछ लाली होती है, कामिनीमोहन ने जो साड़ी इस मूर्ति को पहनायी वह इन फूलों के रंग की न थी। हाँ, चमेली के फूल में से लाली निकाल ली जावे, तो इस साड़ी का रंग ठीक उसके फूल का-सा होगा। पर साड़ी के आँचल का एक कोना ऐसा न था, इसका रंग ठीक सरसों के फूल का सा था, जिससे जान पड़ता है, उतनी साड़ी हलदी में रंगी हुई थी, साड़ी के नीचे कामिनीमोहन ने झूले की भाँति का एक और कपड़ा पहनाया, यह भी उजला ही था, जैसा हरसिंगार के फूल की पंखड़ी होती है। गहनों में, कानों में दो चार बालियाँ, हाथों में पाँच चार चूड़ियों के साथ सोने का कड़ा, उँगलियों में दो एक ऐसे वैसे छल्ले, और पाँव में चाँदी के कडे थे। पर झनकार किसी में न थी।
यह सब करके कामिनीमोहन ने उसमें जी डाला, जी डालते ही इस मूर्ति के मुखड़े पर न जाने कैसी एक जोत दिखने लगी, न जाने कैसी एक छटा उसके ऊपर छकलने लगी। सहज लजीला मुखड़ा होने से उसकी ललाई जो कुछ गहरी हो गयी थी, बहुत ही अनूठी थी, भोलापन इन सबों से निराला था। भोर के तड़के चम्पे की पंखड़ी को सूरज की सुनहली किरणों से चमकते देखा है-चाँद की प्यारी किरणों से धीरे-धीरे कोईं के फूल को खिलते देखा है-लजालु का हरी-हरी पत्तियों का कुछ छू जाने पर लाज के बस में पड़ते देखा है-पर वह बात कहाँ! वह अनूठापन कहाँ!!!
जी डालकर कामिनीमोहन ने अपने आपको खो दिया, बड़ी उलझन में पड़ा, उसके सर की साड़ी को खसका कर कुछ नीचा करना पड़ा, ज्यों ज्यों वह सर की साड़ी नीचा करने लगा, उसकी उलझन बढ़ने लगी। वह सोचने लगा, जो देवहूती में लाज न होती तो क्या अच्छा होता, फिर सोचा, नहीं-नहीं, लाज ही तो उसकी चाह जी में और बढ़ा देती है! लाज ही से तो वह और प्यारी लगती है!!! खुले मुँह की स्त्रियों कितनी देखी हैं-पर क्या घूँघटवाली के ऐसा उनका भी आदर है? कपड़ों में लिपटी किवाड़ों की ओट में खड़ी स्त्री जितना जी को चंचल करती है-क्या द्वार पर आकर अकड़ी खड़ी हुई स्त्री के लिए भी जी उतना ही चंचल होता है! सीधी चितवन कितनी ही देखी है-पर क्या वह तिरछी चितवन के इतनी ही काट करती है? खिलखिला कर हँसना जी की कली खिलाता है-पर क्या होठों तक आ कर लौट गयी हुई हँसी के इतना ही? और क्या यह सब लाज के ही हथकण्डे नहीं हैं? जो कुछ हो, पर क्या अच्छा होता देवहूती, जो तुम्हारा मुखचन्द एक बार मैं बिना बादलों के देखने पाता! इस घड़ी कामिनीमोहन की सब सुध खो गयी थी, वह बावलों की भाँति कहने लगा, क्या न देखने दोगी, देवहूती? मान जाओ, एक बार तो देखने दो। पर फिर अचानक वह चौंक उठा, उसने सुना, जैसे कोई कहता है-आप क्यों अपने पाँवों में अपने आप कुल्हाड़ी मार रहे हैं? कामिनीमोहन ने सुधि में आ कर देखा-साम्हने बासमती खड़ी है। उसको देखकर वह कुछ लजाया, पर छूटते ही पूछा, क्यों बासमती? क्या मैं अपने आप पाँव में कुल्हाड़ी मार रहा हूँ?
बासमती-और नहीं तो क्या? एक ऐसी वैसी छोकरी के लिए इतना आपे से बाहर होना, क्या अपने आप अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारना नहीं है?
कामिनीमोहन-क्या करूँ, बासमती! जी नहीं मानता, जो देवहूती दो चार दिन के भीतर मुझसे न मिली, तो मुझको बावला हुआ ही समझो।
बासमती-क्यों? देवहूती में कौन सी ऐसी बात है? देवहूती से बढ़कर कितना ही आपके लिए मर रही हैं, कितनी ही आप पर निछावर हो चुकी हैं, फिर देवहूती में क्या रखा है, जो आप उसके लिए बावले होंगे?
कामिनीमोहन-इसको मेरे जी से पूछो। बासमती! मैं बातों से नहीं बतला सकता।
बासमती-यह आपकी बहुत बड़ी कचाई है, घबड़ाने से कुछ नहीं होता, धीरे-धीरे सभी बातें ठीक हो जाती हैं। आप की कचाई और घबराहट ही सब बातें बिगाड़ती हैं। आप जितना ही उसके लिए चंचल होते हैं वह उतना ही ऐंठती है। मैं कहती थी आप उसके पास कोई चीठी न लिखिये, पर आप ने न माना, अब यह इतना तन गयी है, जो पुट्ठे पर हाथ तक नहीं रखने देती!
कामिनीमोहन-तुम सदा ऐसी ही बातें कहा करती हो, कुछ होता जाता तो है नहीं, उलटे सब बातों को मेरे ही सर मढ़ती हो। क्या मेरी चीठी भेजने से पहले उसके ये ढंग न थे?
बासमती-जी नहीं, ये ढंग नहीं थे। क्या देवकिशोर भी कभी फूल तोड़ते समय वहाँ आता था, पर जिस दिन से आप की चीठी गयी है, उसी दिन से ज्यों फूल तोड़ने के लिए देवहूती फुलवारी में आती है, त्यों किसी ओर से देवकिशोर भी किसी बहाने आ धमकता है। और जब तक देवहूती फुलवारी से नहीं जाती-वह वहाँ से टलता तक नहीं।
कामिनीमोहन-इसमें भी तुम्हीं से कोई भूल हुई है, नहीं तो देवकिशोर इन बातों को क्या जानता?
बासमती-मुझसे कोई भूल नहीं हुई है, मैं तुम्हारी चीठी को ऐसा चुपचाप देवहूती के पास रख आयी…जो वह भी इस बात को न जान सकी। मैं ऐसे काम के लिए उसके घर में आयी गयी-जैसे छलावा-किसी ने देखा तक नहीं।
कामिनीमोहन-ये तुम्हारी बातें हैं, पारबती की दीठ कौन बचा सकता है। फूल तोड़ने के समय देवकिशोर का फुलवारी में आना उसी की चाल है।
बासमती कुछ खिसियानी सी होकर अपने आप सोचने लगी बात तो ठीक है, मैंने भी कुछ ऐसा ही सुना है, पर जी की बात जी ही में रखकर बोली-आप कहेंगे क्या, मैं पहले से ही जानती हूँ। जितनी चूक है-सब मेरी चूक है। जहाँ कोई बात बिगड़ी, उसमें मेरा ही दोष है। मैं आपकी लौड़ी हूँ, जो आप ऐसी बातें कहते हैं तो मैं बुरा नहीं मानती, बात दिनों दिन बिगड़ रही है, दुख इसी का है। आपका काम हो जावे, मैं कनौड़ी बनकर ही रहूँगी।
कामिनीमोहन-अब मैंने समझा, जान पड़ता है कल्ह जब तू मेरे कहने से उसके यहाँ गयी, उस घड़ी वह तेरे हाथ न चढ़ी। इसी से आज इतना रंग पलटा हुआ है। नहीं, तू तो स्वर्ग की अप्सरा को धरती पर उतार लाने को कहती थी।
बासमती-अब भी मैं यही कहती हूँ-क्या अब जो अड़चनें बढ़ गयी हैं-इससे मैं हार मानूँगी? नहीं-नहीं, ऐसा आप मत सोचिये, बासमती ऐसी मिट्टी से नहीं बनी है, अपना काम करके ही दिखाऊँगी, पर इतना कहती हूँ-काम अब इधर नहीं निकल सकता।
कामिनीमोहन-आज तीसवां दिन है, फूल तोड़ते एक महीना हो गया, कल्ह से देवहूती मेरी फुलवारी में फूल तोड़ने न आवेगी। जो आज काम न निकला, तो फिर कब निकलेगा, जैसे हो बासमती आज काम पूरा करना चाहिए।
बासमती-आप फिर उतावली करते हैं, मेरी बात मानकर आप उतावले न हों, आजकल उसके रंग-ढंग ठीक नहीं हैं। आज उसको अपने रंग में ढालना टेढ़ी खीर है।
कामिनीमोहन-बासमती! तुम भूलती हो, जो आज कुछ न हुआ, फिर कुछ न होगा। मैं तुम्हारी भाँति जी का कच्चा नहीं हँ। जो कुछ मैंने सोच रखा है, आज उसको कर दिखाऊँगा। मैं तुमको इस घड़ी देख रहा था तुम कितनी हो, नहीं तो इन बातों से कुछ काम न था।
बासमती-राम करें आपने जो सोचा है, वह पूरा उतरे, मैं कच्ची हूँ कि पक्की, यह आप भली-भाँति जानते हैं-आज भी जानेंगे। मैं कितनी हूँ यह भी आपने बहुत दिनों से समझ रखा है-आज भी समझेंगे, पर आपका जी इस घड़ी कहाँ है, कुछ समझ में नहीं आता। आप उतावले होकर ऐसी बातें कह रहे हैं, इसी से मुझको डर है। उतावलापन अच्छा नहीं। पर जब आप नहीं मानते हैं, तो मैं अपना मुँह पीट डालूँ तो क्या? मैं जाती हूँ-आप जो कुछ कीजिएगा, बहुत चौकसी से कीजिएगा। आप चाहे इस घड़ी न मानें पर मैं कहे जाती हूँ, जहाँ तक हो सकेगा, मेरे योग्य जो काम होगा, मैं उसमें न चूकूँगी।
बासमती के चलते-चलते कामिनीमोहन ने कहा-बासमती! कुछ कहना है।
बासमती पास आयी। फिर न जाने दोनों में क्या चुपचाप बातें हुई-इसके पीछे दोनों वहाँ से चले गये।
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