उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 19 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
बन में जहाँ जाकर खोर लोप होती थी, वहाँ के पेड़ बहुत घने नहीं थे। डालियों के बहुतायत से फैले रहने के कारण, देखने में पथ अपैठ जान पड़ता, पर थोड़ा सा हाथ-पाँव हिलाकर चलने से बन के भीतर सभी घुस सकता। पथ यहाँ भूल-भुलइयाँ की भाँति का था, भूल-भुलइयाँ से बचकर आधा कोस तक सीधे उत्तर मुँह चलने पर कई एक ख्रडहर दिखलायी पड़ते। इन ख्रडहरों के तीन ओर बहुत ही घना बन था। इन ख्रडहरों में एक बहुत बड़ा ख्रडहर था, यह बाहर से देखने पर सब ओर गिरा पड़ा जान पड़ता। पर इसके भीतर एक बहुत ही अच्छा घर था, जिसको हम गुदड़ी का लाल कहेंगे। इस घर का आँगन बहुत ही सुथरा था। कोठे कोठरियाँ बहुत ही चिकनी और बढ़ियाँ थीं, बाहर और भीतर के सब द्वारों में अच्छी-अच्छी किवाड़ियाँ लगी थीं। इस घर के बाहर पाँच बड़े मोटे-मोटे और काले भील पहरा दे रहे थे। इसी घर की एक छोटी कोठरी में, जिसमें एक छोटा सा द्वार लगा है-देवहूती मन मारे चुपचाप एक चटाई पर बैठी है, पास ही एक बढ़िया चौकी पर कामिनीमोहन बैठा है। दो घड़ी रात बीत गयी है, एक पीतल की दीवट पर एक पीतल का चौकोर दीया जल रहा है-दीये में चारों ओर चार मोटी-मोटी बत्तियाँ लगी हैं।
कामिनीमोहन ने देवहूती को चुप देखकर कहा, क्या तुम न मानोगी, देवहूती?
देवहूती-मैं न मानूँगी, तुम मेरा क्या करोगे?
कामिनीमोहन-तुमको मेरी बात माननी पड़ेगी, मैं तुम्हारा सब कुछ कर सकता हूँ। क्या तुम इतना भी नहीं समझती हो, मैंने आज क्या किया! अब तुम्हारी ऐंठ नहीं निबह सकती। इस घड़ी मैं जो चाहूँ करूँ, तुम्हारा किया कुछ नहीं हो सकता। पर रस में मैं विष नहीं घोलना चाहता।
देवहूती-क्या देवी देवते झूठ हैं! क्या परमेश्वर सो गया!! क्या धर्म रसातल को चला गया!! क्या बन-देवियाँ मर गयीं!!! जो तुम ऐसा कहते हो। कभी तुमने किसी सती स्त्री का सत इस भाँति बिगाड़ा है? कामिनीमोहन! ऐसी बात न कहो-नहीं अभी अनर्थ होगा।
कामिनीमोहन-हाँ! ऐसा!!! यह जीवट उस दिन कहाँ था-जिस दिन तू पहली बार मेरे हाथों पड़ी। उस दिन मुझको बातों में फाँसकर तू निकल गयी-पर अब वह दिन दूर गये। ऐसी झाँझ मैंने बहुत देखी है।
देवहूती-उस दिन मैं जो थी, आज भी वही हूँ। उस दिन जो तुम थे, आज भी वही हो। न तुम उस दिन कुछ कर सके-न आज कुछ कर सकोगे। उस दिन तुम्हारे हाथों से बचने के लिए मुझसे जो करते बन पड़ा, मैंने किया, आज जो करते बनेगा, फिर करूँगी। इसपर मुझको धर्म का बल है! देवतों का भरोसा है!! भगवान का सहारा है!!! फिर तुम मुझको क्या धमकाते हो। मुझको मरना होगा, मैं मरूँगी, पर तुम्हारी बात मानकर अपना धर्म न खोऊँगी।
कामिनीमोहन-देवहूती, मैं अपने जी को बहुत सम्हालता हूँ। तुम्हारी इन लगती बातों का ध्यान नहीं करता। पर इतना न बढ़ो। नहीं अभी तुमको जान पड़ेगा-मैं क्या कर सकता हूँ।
देवहूती-कामिनीमोहन, तुम मेरा जी न जलाओ, देखो मेरे पास यह बहुत ही कड़ा विष है-तुम मेरी ओर दो डग बढ़े नहीं और मैं इसको खाकर मरी नहीं-मुझ मरती का तुम क्या कर सकते हो। उस दिन जो मेरे पास विष होता, मैं तेरे सामने रंडियों का सा स्वांग न लाती। तुम्हारी उस दिन की चाल ही ने मुझको अपने पास विष रखना सिखला दिया है।
कामिनीमोहन देवहूती का जीवट देखकर चक्कर में आ गया। उसके ऊपर बहुत कड़ाई करना अच्छा न समझ कर बोला-देवहूती! तुम क्यों मरने के लिए इतना उतारू हो? क्या तुमको अपना जी प्यारा नहीं है? मरने में क्या रखा है, मरने वाले के लिए चारों ओर अंधेरा है।
देवहूती-जो पाप करके मरते हैं, उन्हीं के लिए चारों ओर अंधेरा है। जो धर्म के लिए मरते हैं, उनके लिए सब ओर वह उँजाला है, जिस पर सूरज की आँख भी नहीं ठहरती। मुझको धर्म प्यारा है, अपना जी प्यारा नहीं है। धर्म के लिए मैं जी को निछावर कर सकती हूँ।
कामिनीमोहन-देवहूती! तुम सब बातों में धर्म की दुहाई देती हो, पर क्या यह जानती हो धर्म किसे कहते हैं? काया के कसने में धर्म नहीं है-खाने, पीने सुख भोगने में धर्म है-जिस से जी का बहुत कुछ बोध होता है।
देवहूती-तुम्हारे लिए यही धर्म होगा, पर मैं तो उसी को धर्म समझती हूँ, जिसको हमारे यहाँ की पोथियों ने धर्म बतलाया है, जिसको हमारे बड़े-बूढ़े धर्म मानते आये हैं। तुम्हारा धर्म ऐसा है, तभी न वह काम करते फिरते हो, जिसको चोर और डाकू भी नहीं कर सकते।
कामिनीमोहन-तुम्हारे फूल ऐसे होठों से इतना कड़वी बातें अच्छी नहीं लगतीं देवहूती! अब मैं चोर और डाकू से भी बुरा ठहरा!!!
देवहूती-तुम्हीं सोचो! चोर किसी का धन हर लेते हैं-तो वह धन उसको फिर मिलता है। पर स्त्रियों का जो धन तुम हरते हो, वह उसको फिर इस जनम में कभी नहीं मिलता। डाकू बहुत करते हैं, किसी का जी लेते हैं; पर तुम स्त्रियों का धर्म लेते हो, जो जी से कहीं बढ़कर है। फिर क्या बुरा कहा!!!
कामिनीमोहन-जी की लगावट बुरी होती है! मैं कोई ऐसी बात नहीं कहना चाहता जिससे तुम्हारा जी दुखे; पर तुम जो भला-बुरा मुँह में आता है, कह डालती हो। तुम्हारा जी भी किसी पर आया होता तो तुमको हमारी पीर होती। जिसको काँटा चुभा रहता है; वही पाँव सम्हाल-सम्हाल कर रखता है!
देवहूती-यह तुम कैसे जानते हो। मुझको तुम्हारी पीर नहीं है!! तुम बड़े-बड़े पापों के करने में भी नहीं हिचकते-तुमने न जाने कितनी भोली-भाली स्त्रियों का सत बिगाड़ा है! न जाने कितने घर में फूट का बीज बोया है। न जाने कितने भलेमानसों को मिट्टी में मिलाया है-तो क्या यह सब करके तुम योंही छूटोगे। नहीं, इन सब पापों के पलटे तुमको नरक में बड़ा दुख भोगना पड़ेगा। यह सब समझकर मैं तुमको पापों से बचाना चाहती हूँ-ऐसी बातें कहती हूँ जिससे फिर तुम पाप करने की ओर पाँव न उठाओ। जो मुझको तुम्हारी पीर न होती, मैं ऐसी बात क्यों कहती।
कामिनीमोहन-नरक स्वर्ग कहीं कुछ नहीं है! परमेश्वर भी एक धोखे की टट्टी है!! तुम्हारा न मिलना ही मेरे लिए नरक है। तुम्हारे मिलने पर मैं इसी देह से स्वर्ग में पहुँच जाऊँगा।
जिस घड़ी कामिनीमोहन ने ये बातें कहीं, उस घड़ी सब घरों के साथ-देवहूती की चटाई-कामिनीमोहन की चौकी-घर में और जो कुछ था वे सब-अचानक हिल उठे, और चौथाई घड़ी तक हिलते रहे। यह देखकर देवहूती ने कहा, देखो कामिनीमोहन! तुम्हारी बातें धरती माता से भी न सही गयीं-वह भी काँप उठीं। पहले लोगों ने बहुत ठीक कहा है, जब पाप का भार बढ़ जाता है तभी भूचाल आता है।
कामिनीमोहन-ऐसी ही ऐसी बेजड़ बातें तुम्हारे जी में समायी हैं, तभी तो तुम किसी की नहीं सुनती हो। पाप का भार बढ़ने ही से भूचाल नहीं आता, इस धरती के नीचे आग है, जब वह कुछ जलनेवाली वस्तु पाती है, तो उसमें लवर फूटती है। यह लवर ऊपर निकलना चाहती है, पर धरती की कड़ाई से ऊपर नहीं निकल सकती। उस समय उसका एक धक्का सा धरती के ऊपर लगता है। इसी धाक्के से धरती हिल जाती है-और इसी को भूचाल कहते हैं। पर तुम तो मेरी बात मानती नहीं हो, मैं कहूँ तो क्या कहूँ।
देवहूती-अब मानूँगी! देखिए बहुत मनगढ़ंत अच्छी नहीं होती। अभी धरती काँपी है! अबकी बार छत टूट पड़ेगी।
कामिनीमोहन-भला हो, छत टूट पड़े, तुम्हारे संग मरने में भी सुख है।
देवहूती-जो ऐसे ही मरना है तो किसी भले काम के लिए मरो, इस भाँति मरकर पहुँचने में नरक में भी खलबली पड़ेगी।
कामिनीमोहन-अब इसी भाँति मरूँगा, देवहूती! नित्य के जलने से एक दिन किसी भाँति मर जाना अच्छा है। देखो! मेरे पास लाखों की सम्पत्ति है-बीसों गाँव हैं-पचासों टहलुवे हैं-भाँति-भाँति की फुलवारियाँ हैं-रंग-रंग की चिड़ियाँ हैं-अच्छे-अच्छे खेलौने हैं-सजे सजाये हाथी हैं-पवन से बातें करनेवाले घोड़े हैं-खिली चमेली सी घरनी है-सारे गाँव पर डाँट है-पर मेरा जी इनमें से किसी में नहीं लगता। रात दिन सोते-जागते तुम्हारी ही सूरत रहती है। घड़ी भर भी चैन नहीं पड़ता-फिर मैं इन सबको लेकर क्या करूँगा। मैं इन सबको तुम्हारे ऊपर निछावर करता हूँ, आप भी तुम पर निछावर होता हँ, पर तुम मुझसे जी खोलकर मिलो। जो न मिलोगी देवहूती तो अब किसी भाँत मरना ही अच्छा है।
देवहूती-लाख, करोड़ की सम्पत्ति क्या है! राज मिलने पर भी धर्म नहीं गँवाया जा सकता। महाभारत में भीष्म की कथा पढ़ो, रामायण में जानकी माता को देखो। जहाँ की मिट्टी पवन पानी से ये लोग बने थे, वहीं की मिट्टी पवन पानी से मैं भी बनी हूँ। फिर तुम मुझको धन सम्पत्ति की लालच क्या दिखलाते हो! रहा मरना-जीना यह तुम्हारे हाथ नहीं, जब तुम्हारा दिन पूरा होगा, तुम आप मरोगे। इसके लिए मैं क्या कर सकती हूँ।
कामिनीमोहन-तुमारा जी बड़ा कठोर है देवहूती! मैंने ऐसी रूखी बातें कभी नहीं सुनी, पर जैसे हो मैं तुमको मनाऊँगा। तुम भी यह सोच लो, अब हठ छोड़ने ही में अच्छा है, यहाँ से तुम किसी भाँति बाहर नहीं निकल सकती हो, न यहाँ कोई किसी भाँति आ सकता है। सब भाँति तुम मेरे हाथ में हो, कितने दिन तुम्हारी यह टेक रहेगी; हार कर तुमको मेरी होना ही पड़ेगा। पर आज तुम सारे दिन व्रत रही हो, अब तक भूखी हो, इसपर पहर भर पीछे अभी तुमको चेत हुआ है, जी तुम्हारा झुँझलाया हुआ है, इससे कोई बात तुम्हारे मुँह से सीधी नहीं निकलती। लो अब इस घड़ी मैं जाता हूँ, यह पलँग बिछा हुआ है, तुम इस पर सोओ, कल्ह मैं फिर मिलूँगा, पर मैं जो कहे जाता हूँ उसको भली भाँति सोचना।
जिस घड़ी कामिनीमोहन ने देवहूती से ये बातें कहीं, उसी समय उसको बन के भीतर फिर पहले की भाँति मीठे गले से गीत होता हुआ सुनाई दिया। साथ ही तानपूरा भी वैसे ही मीठे सुर से बज रहा था। गीत यह था-
गीत
मन की जहाँ चौकड़ी न आती।
सूरज की किरण जहाँ न जाती।
है पौन जहाँ नहीं समाती।
घुसने जहाँ डीठ भी न पाती।
वह ईश वहाँ भी है दिखाता।
बिगड़ी सब है वही बनाता।
देवहूती ने इस गीत को सुना, सुनकर बहुत सुखी हुई। और गीत के पूरा होते ही कहा, सुना! कामिनीमोहन।
कामिनीमोहन-हाँ! सुना क्यों नहीं, पर यह बन है, यहाँ ऐसी लीला बहुत हुआ करती है, चाहे तुम कुछ समझो पर इन बातों से तुम्हारा कुछ भला नहीं हो सकता।
यह कहकर कामिनीमोहन चट कोठरी के बाहर हुआ। और बाहर आकर बन के भीलों से कहा, आज बन में रहरह कर यह गीत कैसा हो रहा है। भीलों ने कहा-बाबू हम लोगों की समझ में भी कोई बात नहीं आती। अच्छा हम दो जन जाते हैं, खोज लगाते हैं। यह कहकर दो भील बन के भीतर घुस गये-और विचार में डूबा हुआ कामिनीमोहन घर के भीतर आया।
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