उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 20 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
धीरे-धीरे रात बीती, भोर हुआ, बादलों में मुँह छिपाये हुए पूर्व ओर सूरज निकला-किरण फूटी। पर न तो सूरज ने अपना मुँह किसी को दिखलाया, न किरण धरती पर आयी। कल की बातें जान पड़ती हैं, इनको भी खल रही थीं। काले-काले बादलों की ओट में चुपचाप दिन चढ़ने लगा, धीरे-धीरे पहर भर दिन आया। देवहूती जिस छोटी कोठरी में रात बैठी थी-अब तक उसी में बैठी है। कल दिन रात भूखी रही-आज भोर ही नहा धोकर कुछ खाना-पीना चाहिए था। पर उसने अभी मुँह तक नहीं धोया। रात भी उसकी जागते ही बीती, आँखें चढ़ी हैं-मुखड़ा खिंचा हुआ है-पर घबराहट का उस पर नाम तक नहीं था-वह जैसी गम्भीर पहले रहती-अब भी थी। बासमती देवहूती के पास सब ठौर पहुँचा करती-आज यहाँ भी पहुँची। देवहूती को चुपचाप बैठे देखकर बोली-बेटी! तुम कब तक इस भाँति बैठी रहोगी? कल का दिन व्रत में बीता, आज अभी तुमने मुँह तक नहीं धोया, जो होना होगा, होगा, तुम अन्न पानी क्यों छोड़ती हो?
देवहूती-अभी एक बार धोखा खा चुकी हूँ-और उसका फल भी भुगत रही हूँ-क्या अबकी बार फिर किसी दूसरे फँदे में फँसाना है-जो तुम ऐसी चिकनी-चुपड़ी बातें कहती हो, जिसका फूल सूँघकर मेरी सुधबुध खो गयी, उसका अन्न पानी खा पीकर न जाने कौन गत होगी!!! बासमती! तुम क्यों इस भाँति मेरे पीछे पड़ी हो?
बासमती-बेटी! तू मेरी आँखों की पुतली है, मैं तेरे पीछे क्यों पड़ूँगी। तेरा दुख मुझसे देखा नहीं जाता, तेरी आँखों से आँसू गिरते देखकर मेरा कलेजा फटता है-तब मैं इस भाँति दौड़कर तेरे पास आती हूँ; नहीं तो मुझको इन पचड़ों से क्या काम था। पर मेरा भाग्य बड़ा खोटा है। मैं जिसके लिए चोरी करती हूँ-वही मुझको चोर कहता है।
देवहूती-मैं तुमको भली-भाँति जानती हूँ बासमती! बहुत लल्लो-पत्तो अच्छा नहीं होता, तुम अपना काम करो, मेरे भाग्य में जो होना होगा-होगा। मैं तुम्हारी कोई नहीं हूँ-पर तुम मुझपर इतना प्यार जतलाती हो, जितना कोई अपनी बेटी-बेटे का भी नहीं करता। तुम्हारी ये बातें ऐसी हैं, जो तुम्हारे पेट का भेद बतलाये देतीहैं।
बासमती-बेटी! तुम कहोगी क्या! कलयुग है न!!! अब के लड़के-लड़कियाँ ऐसी ही हैं। हम लोग तो बड़ी सीधी हैं! गाँव के लड़के-लड़की को अपना समझती हैं-दूसरों के लड़कों को अपने लड़के से भी बढ़कर प्यार करती हैं। हम लोगों का जैसा भीतर है, वैसा ही बाहर है, हम लोग कपट करना क्या जानें।
देवहूती-ठीक है! दूसरे के घर की बहू बेटी को बिगाड़ना, भोली-भाली स्त्रियों को ठगकर कुचाली पुरुषों के हाथ में डाल देना, तुम ऐसी सीधी सतयुग की स्त्रियों का काम थोड़े ही है-यह तो कलयुग की स्त्रियों का काम है। बासमती! मेरा बड़ा भाग्य है-जो आज मैं यह जान गयी-नहीं तो मेरा मन तुम्हारे ऊपर न जाने कितना कुढ़ता था।
बासमती-बेटी! तुम अभी कल की लड़की हो-बहुत मत उड़ो। तुम्हारा मन मेरे ऊपर कुढ़ता है-कुढे, पर मेरा मन तो तुम से नहीं कुढ़ता! मैं वही बात कहती हूँ, जिसमें तुम्हारा भला हो, पर उसको मानना तुम्हारे हाथ है।
देवहूती-मेरा बड़ा अभाग्य है! जो मैं इस बात को नहीं समझती हूँ। सच है बासमती! तुमसे बढ़कर मेरा भला चाहने वाला कौन होगा!!!
बासमती-तुम्हारी ऐंठने की बान है-इससे तुम सब बातों में ऐंठती हो। मेरी अच्छी बात भी तुमको खोटी जान पड़ती है। पर सचमुच तुम्हारा बड़ा अभाग्य है, जो तुम इस भाँति सोने को पाँव दिखलाती हो, कामिनीमोहन ऐसा चाहनेवाला भाग्य से मिलता है। डुबकी बहुत लोग लगाते हैं-पर मोती कोई पाता है। कामिनीमोहन पर कितनी स्त्रियों निछावर हुईं, पर कामिनीमोहन तुपमर आप निछावर है। इस पर लाखों की सम्पत्ति आगे रखता है-सदा के लिए तुम्हारा दास बनता है-क्या ये बातें ऐसी हैं-जिनपर तुम डीठ न डालो। पर मिठाई खाने के लिए भी मुँह चाहिए। भील की स्त्रियों घुंघची का ही आदर करती हैं-वे लाल का मरम क्या जानें।
देवहूती-सच कहा, बासमती! बनरी के गले में मोती की माला नहीं सोहती!!! पर कठिनाई तो यह है-इसपर भी मेरा जी नहीं छूटता।
बासमती-मुँह मत चिढ़ाओ बेटी! मेरी बातों को अपने जी में सोचो। क्या तुम्हारा यह जोबन सदा ऐसा ही रहेगा? क्या आँखें ऐसी ही रसीली रहेंगी? क्या गोरे-गोरे मुखड़े पर ऐसी ही छटा रहेगी? क्या देह ऐसी ही चिकनी-चुपड़ी रहेगी? क्या चितवन में सदा ऐसा ही टोना रहेगा? कभी नहीं!!! कुछ ही दिनों में, जोबन ढल जावेगा, आँखों में काली लग जायेगी, गालों में गड़हे पड़ेंगे, मोती ऐसे दाँत मिट्टी में मिलेंगे, देह पर झुर्रियाँ पड़ जाएँगी, और तुम्हारी सब ऐंठ धूल में मिल जावेगी। आज एक राजाओं सा धनी, देवतों सा सुघर और सजीला, तुम्हारी सीधी चितवन का भिखारी है। पर कुछ दिनों पीछे तुम्हारी ओर एक गया, बीता भी आँख उठाकर न देखेगा-जो धोखे से किसी की आँख पड़ भी जावेगी-तो वह नाक भौंह सिकोड़ने लगेगा। तुम्हारे ये दिन सब कुछ हैं-आगे क्या है-पर तुम इन्हीं दिनों विष खाने बैठी हो-बलिहारी है इस समझ की।
देवहूती-ठीक कहती हो बासमती! जो मैं इन्हीं दिनों कुछ कमा-धमा न लूँगी, तो आगे फिर कौन पूछेगा!!! अब तक रूप और जीवन बेंचते रंडियों ही को सुना था। पर आज जाना, भले घर की बहू बेटियाँ-भली स्त्रियों-भी अपना रूप जोबन बेंचती हैं। झख मारते हैं लोग जो रंडियों को बुरा समझते हैं।
बासमती-बहुत न बढ़ो! बहुत सी भले घर की बहू बेटियाँ देखी हैं। वह कौन स्त्री है जो कामिनीमोहन जैसे अलबेले जवान को देखकर उसकी नहीं होती। जिनकी लाखों की सम्पत्ति है, जिनका काम ऐसा सुन्दर पति है, मैं उनकी बातें कहती हूँ। जो तुम्हारी ऐसी हैं-वे किस गिनती में हैं। तुम्हारे पास न तो जैसे चाहिए वैसे गहने कपड़े हैं-न पूरा-पूरा धन है-न तुम्हारे पति का ही कहीं ठौर ठिकाना है। पर तुम इन बातों को न समझ कर उलटे मुझी से इठलाती हो-भाग्य का फेर इसी को कहतेहैं।
देवहूती-अब समझूँगी बासमती! भला तुम्हारे ऐसी समझानेवाली कहाँ मिलेगी! पर तुम भी समझो, जो सचमुच भले घर की बहू बेटी हैं! जो कहने-सुनने को भली स्त्री नहीं हैं! जो पहनने को उसके पास कपड़ा तक न हो-हाथ में चूड़ी तक न हो-खाने को दो-दो दिन पीछे मिलता हो-पति भी निकम्मा और निखट्टू हो-तो भी वह अपनी मरजाद नहीं गँवा सकती-अपना सत नहीं बिगाड़ सकती-और अपना धर्म नहीं खो सकती। जिसको रत्ती भर समझ होगी-वह थोड़े से सुख के लिए सदा नरक की आग में जलना अच्छी न समझेगी। तुम कहती हो, यह जोबन सदा ऐसा ही न रहेगा, जोबन ढल जाने पर कोई सीधे आँख उठा कर न देखेगा-इस से पाया जाता है, जब तक जोबन है, तभी तक पूछ है, पीछे घोर अंधियाला है। तो क्या ये ही बातें ऐसी हैं-जिससे जोबन के दिनों में जी खोलकर मनमानी करनी चाहिए? आँख मँद कर पाप पुण्य का विचार छोड़ देना चाहिए? ये बातें तो ऐसी नहीं हैं!!! ये बातें तो हमको और डराती हैं, डंका बजाकर कहती हैं, चार दिन के जोबन पर मत भूलो, पाप मत कमाओ, यह जोबन बाढ़ के पानी की भाँति देखते-देखते निकल जावेगा, फिर पछताना ही हाथ रहेगा। इससे पहले ही समझ बूझकर चलो, जो रंग इतना कच्चा है, उसके भरोसे पाप करना अच्छा नहीं!
बासमती-जान पड़ा बेटी! तुम नरक स्वर्ग का भेद भली-भाँति समझती हो, धर्म का मरम भी जानती हो, पर यह तो बतलाओ-अपने को आप मार देना किस पोथी में पुण्य लिखा है? क्या विष खाकर मर जाना पाप नहीं है?
देवहूती-जो मैं ऐसा न समझती, विष खाकर कभी मर गयी होती। मुझको जीना भी भारी है, पर मैं जो अब तक विष खाकर नहीं मरी, क्या उसका दूसरा कारण है? नहीं, दूसरा कारण नहीं है! मैं जानती हूँ, मेरे यहाँ की पोथियों में ऐसा करना बड़ा पाप लिखा है, तभी मैं आज तक ऐसा न कर सकी। पर धर्म की रक्षा के लिए किसी काम का करना पाप नहीं है। जब मैं देखूँगी मेरा धर्म जाता है-पापी के हाथ से अब छुटकारा नहीं मिलता, उस दिन के लिए विष मेरे पास है। उस घड़ी मैं विष खाऊँगी, और विष खाकर अपने धर्म की रक्षा करूँगी।
बासमती-यह तो विष का पचड़ा हुआ-पर अन्न पानी छोड़कर जी को कलपा-कलपा कर मारना क्या है? यह कोई पुण्य होगा?
देवहूती-नहीं, यह भी पाप है! पर अन्न पानी कौन छोड़ता है। यहाँ दो चार दिन मैं अन्न-पानी न खाऊँगी तो क्या मैं अन्न-पानी खाऊँगी ही नहीं? ऐसा तुम समझ सकती हो-मेरा यह विचार नहीं है। मुझको यहाँ अन्न-पानी खाने-पीने में भी कोई अटक नहीं है, पर क्या करूँ, अब तुम लोगां की परतीत नहीं रही।
बासमती-जो जी में आवे करो, जब तुमको अपनी ही बात रखनी है, तो मैं कहाँ तक कहँ। पर बहुत हठ अच्छा नहीं होता, यहाँ से तुम्हारा छुटकारा अब कभी नहीं हो सकता-दो चार दिन नहीं, दो चार बरस में भी यहाँ कोई नहीं पहुँच सकता। पर मुझसे रहा नहीं जाता, एक बात मैं फिर कहती हूँ। जो तुम यहाँ का अन्न-पानी काम में नहीं ला सकती हो, तो क्या बनफल और झरनों का पानी भी खा-पी नहीं सकती हो?
देवहूती-जो मेरे जी में आवेगा, मैं करूँगी। अपना प्राण सब को प्यारा होता है-पर तुम किसी भाँति मेरी आँखों के सामने से दूर हो।
बासमती-बेटी! जितना तुम टेढ़ी हो, मैं उतनी टेढ़ी नहीं हूँ। जो तुमको मेरा यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता तो मैं जाती हूँ। मैं पहरे के भीलों से कहे जाती हूँ-वह तुमको बन में जाने से न रोकेंगे। तुम बन में जाकर अपनी भूख-प्यास बुझा आओ। पर भागना मत चाहना, नहीं तो भीलों के हाथ से दुख उठाओगी। यह कहकर बासमती चली गयी।
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