उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 21 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
बासमती के चले जाने पर देवहूती अपनी कोठरी में से निकली, कुछ घड़ी आँगन में टहलती रही, फिर डयोढ़ी में आयी। वहाँ पहुँच कर उसने देखा, बासमती पहरे के भीलों से बातचीत कर रही है। यह देखकर वह किवाड़ों तक आयी-और बहुत फुर्ती के साथ किवाड़ों को लगाकर-फिर भीतर लौट गयी। जब देवहूती अपनी कोठरी के पास पहुँची-देखा उस कोठरी में से एक जन आँगन की ओर निकला आ रहा है। यह देखकर वह भौचक बन गयी-सोचा राम-राम करके अभी बासमती से पीछा छूटा है-फिर यही बिपत कहाँ से आयी। बड़ा अचरज उसको इस बात का था-यह कोठरी में आया तो कैसे आया ? उसमें तो कहीं से कोई पथ नहीं जान पड़ता!!! देवहूती घबराने को तो बहुत घबरायी-पर उसके जी को कुछ ढाढ़स भी हुआ। उसने पहचाना यह वही जन है-जिसने उस अंधियाली रात में उसके कोठे पर कामिनीमोहन से उसका सत बचाया था। देवहूती यह सब जान-बूझकर कुछ सोच रही थी, इसी बीच उसने पास आकर कुछ दूर से पूछा, देवहूती! मुझको पहचानती हो?
देवहूती ने सर नीचे करके कहा-क्यों नहीं पहचानती हूँ! जिसने प्राण से भी प्यारे मेरे धर्म की रक्षा की, क्या मैं उस को भूल सकती हूँ!
आये हुए जन का नाम देवस्वरूप है, यह आप लोग अब समझ गये होंगे। देवहूती की बातों को सुनकर उसने कहा-मैं तुमसे कुछ बातचीत करने के लिए यहाँ आया हूँ-मुझ से बातचीत करने में तुमको कुछ आनाकानी तो नहीं है? मैं नहीं चाहता बिना पूछे तुमसे सारी बातें कहने लगूँ।
देवहूती-मुझको चेत है-आपने उस दिन कहा था, जो लोग धर्म की रक्षा के लिए कभी-कभी इस धरती पर दिखलाई देते हैं-मैं वहीं हूँ। जो सचमुच आप वही हैं तो आपसे बातचीत करने में मुझको कुछ आनाकानी नहीं है। पर बात इतनी है, इस भाँति आपसे बातचीत करके मुझको इस सुनसान घर में जो कोई देख लेगा-तो न जाने क्या समझेगा। जो कोई न देखे तो धर्म के विचार से भी किसी सुनसान घर में किसी पराई स्त्री का पराये पुरुष के साथ रहना और बातचीत करना अच्छा नहीं है। आप बड़े लोग हैं, इन बातों को सोचकर जो अच्छा जान पड़े कीजिए, मैं आपसे बहुत कुछ नहीं कह सकती।
देवस्वरूप-मैं यह जानता हँ, बासमती यहाँ आयी हुई है-दूसरी बातें जो तुम कहती हो मुझको भी उनका वैसा ही विचार है। मैं कभी यहाँ न आता, पर एक तो मैंने देखा, बिना अन्न-पानी तुम मर जाना चाहती हो। दूसरे आज अभी एक ऐसी बात हुई है, जिससे तुम्हारी सारी बिपत कट गयी। मुझको यह बात तुमको सुनानी थी, इसीलिए मुझको यहाँ आना पड़ा।
देवहूती-वह कौन सी बात है जिससे मेरी सारी बिपत कट गयी? आप दया करके उसको बतला सकते हैं?
देवस्वरूप-कामिनीमोहन कल्ह रात में ही बासमती को यहाँ छोड़कर घर चला गया था। आज दिन निकले वह गाँव से इस बन की ओर घोड़े को सरपट फेंकता हुआ आ रहा था। इसी बीच एक गीदड़ एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में ठीक घोड़े के सामने से होकर दौड़ता हुआ निकल गया। घोड़ा अचानक चौंक पड़ा-और उस पर से धड़ाम से कामिनीमोहन नीचे गिर पड़ा। गिरते ही उसका सर फट गया-और वह अचेत हो गया। उसके लोग जो पीछे आ रहे थे-घड़ी भर हुआ उसको उठाकर घर ले गये। जैसी चोट उसको आयी है-उससे अब उसके बचने का कुछ भरोसा नहीं है-मैं इसी से कहता था, तुम्हारी सारी बिपत कट गयी।
देवहूती-कामिनीमोहन ने अपनी करनी का फल पाया है, और मैं क्या कहूँ!!! पर सचमुच क्या आप कोई देवता हैं, जो इस भाँति बिना किसी स्वार्थ के दूसरों का दुख दूर करते फिरते हैं!
देवस्वरूप-मैं देवता नहीं हूँ-एक बहुत ही छोटा जीव हूँ। उस दिन मैंने यह बात इसलिए कही थी-जिससे कामिनीमोहन डरकर पाप करना छोड़ देवे।
देवहूती-अभी आपको मुझसे कुछ और कहना है?
देवस्वरूप-दो बातें कहनी हैं। एक तो तुम कुछ खाओ पीओ-दूसरे यहाँ का रहना छोड़कर घर चलो। तुम्हारी माँ की तुम्हारे बिना बुरी गत है-उनकी दशा देखकर पत्थर का कलेजा भी फटता है।
देवहूती-आपका कहना सर आँखों पर-आप में बड़ी दया है। पर आप जानते हैं स्त्रियों का धर्म बड़ा कठिन है! आपने मेरी बहुत बड़ी भलाई की है-मेरा रोआँ-रोआँ आपका ऋणी है। पर इतना सब होने पर भी आप निरे अनजान हैं-आप जैसे अनजान और बिना जान-पहचान के पुरुष के साथ मैं कहीं आ-जा नहीं सकती। दूसरे जो दो दिन पीछे मैं इस भाँत अचानक घर चली चलूँ तो माँ न जाने क्या समझेंगी। अभी तो उन्हांने यही सुना है-मैं डूबकर मर गयी-रो कलप कर उनका मन मान ही जावेगा। पर जो कहीं उनके मन में मेरी ओर से कोई बुरी बात समायी-तो अनर्थ होगा-मेरा उन का दोनों का जीना भारी होगा। रहा कुछ खाना-पीना, इसके लिए अब आप कुछ न कहें। मैं समझ-बूझ कर जो करना होगा, करूँगी।
देवस्वरूप-बात तुम बहुत ठीक कहती हो-मैंने तुम्हारी इन बातों को सुनकर बहुत सुख माना। पर इतना मुझको और कहना है-इस बन से तुम्हारा छुटकारा बिना मेरी परतीत किए नहीं हो सकता।
देवहूती-क्या मैं आपकी परतीत नहीं करती हूँ-यह आप न कहें। मेरा धर्म क्या है, इस बात को आप सोचिए। और बतलाइए मुझको क्या करना चाहिए। इस जग में सैकड़ों बातें लोग ऐसी करते हैं-जिनमें ऊपर से देखने में उनका कोई अर्थ नहीं होता-पर समय पाकर उन्हीं बातों में उनकी बड़ी दूर की चाल पायी जाती है। आज जिसको किसी की भलाई के लिए अपना तन मन धन सब निछावर करते देखते हैं-कल्ह उसी को उसके साथ अपने जी की किसी बहुत ही छिपी चाल के लिए ऐसा बुरा बरताव करते पाते हैं-जिसको देखकर बड़े पापी के भी रोंगटे खड़े होते हैं। ये बातें ऐसी हैं जिनका मरम आप जैसे बड़े लोग भी ठीक-ठीक नहीं पाते। स्त्रियों क्या हैं जो इन भेद की बातों का ओर-छोर पा सकें। इसीलिए उनको यह एक मोटी बात बतलायी हुई है-अपने इने-गिने जान-पहचान के लोगों को छोड़कर दूसरे को पतिआना उनका धर्म नहीं है। मैं आपसे इन्हीं बातों को सोचने के लिए कहती हँ। रहा इस बन से छुटकारा पाना। यह एक ऐसी बात है जिसके लिए मुझको तनिक घबराहट नहीं है-अपजस के साथ घर लौटने से जान के साथ बन में मरना अच्छा है।
देवस्वरूप-मैं तुम्हारे इन विचारों को सराहता हूँ। तुम्हारे धीरज करने से ही तुम्हारी सारी बिपत कटती है।
देवस्वरूप के इतना कहते ही उसी कोठरी में से एक जन और देवहूती की ओर आता दिखलायी पड़ा। इसके सिर पर बड़ी-बड़ी जटाएँ थीं, उसकी बहुत ही घनी उजली और लम्बी दाढ़ी थीं, जो छाती पर भोंड़ेपन के साथ फैली थी, मुखड़े पर तेज था, पर यह तेज निखरा हुआ तेज न था, इसमें उदासी की छींट थी। माथे में तिलक, गले में तुलसी की माला, बाएँ कंधो पर जनेऊ और हाथ में तूमा था। ऍंचले की भाँति एक धोती कमर से बँधी थी-जो कठिनाई से ठेहुने के नीचे तक पहुँचती थी। स्वभाव बहुत ही सीधा और भला जान पड़ता था, भलमनसाहत रोएँ-रोएँ से टपकती थी। जब यह देवहूती के पास पहुँचा, देवस्वरूप ने कहा, देवहूती इनकी ओर देखो, इनको मत्था नवाओ, और अब तुम इनके साथ जाकर कुछ खाओ-पीओ, मैं देखता हँ तुम्हारा जी गिरता जाता है-इनके साथ जाने में भी क्या तुमको कोई अटक रहेगी?
देवहूती ने बड़ी कठिनाई से सर उठाकर इस दूसरे जन की ओर देखा, देखते ही चौंक उठी मानो सोते से जाग पड़ी। उस के जी में बड़ा भारी उलट फेर हुआ-कुछ घड़ी वह ठीक पत्थर की मूर्ति बन गयी। पीछे उसकी आँखों से आँसू बह निकले। देवस्वरूप ने उस दूसरे जन का भी रंग कुछ पलटता देखकर कहा-देखो इन सब बातों का अभी समय नहीं है-इस घड़ी चुपचाप यहाँ से निकल चलना चाहिए, फिर जैसा होगा, देखा जावेगा। यहाँ रहने में भी अब कोई खटका नहीं है-बासमती कुछ कर नहीं सकती। पर जब तक कामिनीमोहन का क्या हुआ, यह ठीक न जान लिया जावे, तब तक किसी हाथ आयी बात में चूकना अच्छा नहीं!। देवस्वरूप की बातों को सुनकर दूसरा जन कोठरी की ओर चला-देवहूती बिना कुछ कहे उसके पीछे चली। इन दोनों के पीछे देवस्वरूप चला-तीनों कोठरी में आये।
कोठरी में पहुँचकर देवहूती ने देखा वहाँ की धरती में एक सुरंग है-और उसी सुरंग में से होकर नीचे उतरने को सीढ़ियाँ हैं। इसी पथ से होकर ये तीनों जन नीचे उतरे, नीचे उतरकर देवस्वरूप ने वहीं लटकती हुई एक लम्बी रस्सी को पकड़कर खींचा, उसके खींचते ही सुरंग का मुँह मुँद गया-और नीचे ऊपर पहले जैसा था-ठीक वैसा ही हुआ। पीछे वह तीनों जन नीचे ही नीचे बन में एक ओर निकल गये।
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