उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 25 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
बासमती के मारे जाने पर दो चार दिन गाँव में बड़ी हलचल रही, थाने के लोगों ने आकर कितनों को पकड़ा, मारनेवाले को ढूँढ़ निकालने के लिए कोई बात उठा न रखी, पर बासमती से गाँववालों का जी बहुत ही जला हुआ था, इससे लाख सर मारने पर भी थाने के लोग अपनी सी न कर सके, अन्त को उन लोगों को हार माननी पड़ी, और दो-चार दिन पीछे गाँव में फिर चहल-पहल हुई। आज बंसनगर की निराली छटा है, फूल पत्तियों से सजकर वह दूसरा स्वर्ग बन गया है। घर-घर द्वारों पर बंदनवारे बँधी हैं, केले के खम्भे गड़े हैं, और जल से भरे कलसे रखे हैं। स्त्रियों मीठे सुरों में गा रही हैं, पुरुष जहाँ-तहाँ खड़े हँस बोल रहे हैं, आपस में चुहलें कर रहे हैं, और लड़के किलक रहे हैं, उछल कूद रहे हैं, तालियाँ बजा रहे हैं, और गाँव की छटा देखते हुए झुण्ड-के-झुण्ड इधर-उधर घूम रहे हैं। देखो, यह साम्हने का मन्दिर कैसा सजा हुआ है, फूल पत्तियों से, केले के खम्भों से, बंदनवारों से वह कैसे अनूठा और सुहावना बन गया है! उसके सामने एक मण्डप में बाजा कैसे मीठे सुरों में बज रहा है! इन सामने उछलते खेलते आते हुए लड़कों की ओर देखो, उनकी धुन बाजों की धुन के साथ कैसी लग रही है! वे बाजों के मीठे सुर पर कैसा उमग रहे हैं! मन्दिर के ठीक बीच में एक बहुत ही ऊँचा झण्डा गड़ा हुआ है, इस झण्डे के इधर-उधर दो छोटे झण्डे और हैं, धीरे बहनेवाली बयार इन झण्डों के फरहरों को लेकर खेल रही है। हमारा जी भी उनसे उलझा हुआ है। उनके लाल फरहरों पर उजले कपड़े से बने अच्छरों में कुछ लिखा है, हम उसको पढ़ना चाहते हैं। अच्छा देखो, हमने उसको पढ़ लिया-जो सबसे बड़ा और ऊँचा झण्डा है, वह आकाश से बातें करते हुए कह रहा है, ”धर्म की सदा जय” उसके पास का एक झण्डा ललकार रहा है ”अन्त भले का भला और बुरे का बुरा” और दूसरा धीरे-धीरे अपने फरहरे को उड़ाता है, और बतलाता है-”साँच को आँच नहीं”। इस मन्दिर के पास ही एक घर है, घर के द्वार पर बहुत से लोग इकट्ठे हैं, इस घर को हम लोग कई बार देख चुके हैं, यह हरमोहन पाण्डे का घर है, आओ देखें यहाँ क्या हो रहा है।
देखो, सामने एक लम्बी चौड़ी चाँदनी तनी हुई है, चाँदनी के नीचे चौकियों पर और चौकियों के नीचे धरती पर सुन्दर बिछावन बिछा हुआ है। एक एक, दो दो, चार चार, दस दस, करके लोग आ रहे हैं, और ढब से बिछावन पर बैठते जाते हैं। बिछावन ऊपर नीचे लगभग भर गया है, कितने ही लोग आसपास खड़े भी हैं, पर फिर भी भीड़ पर भीड़ चली आती है-और लोग टूटे पड़ते हैं, धीरे-धीरे हरमोहन पाण्डे के घर के पास की धरती लोगों से खचाखच भर गयी, कहीं तिल धरने को ठौर न रही, पर इतनी भीड़ होने पर भी ऊधाम नहीं था, सब लोग चुपचाप किसी की बाट देख रहे थे, पान बँट रहा था, पंखे झले जा रहे थे, और हरमोहन पाण्डे अपने दस बीस साथियों के साथ इन सब लोगों की आवभगत में लगे हुए थे।
अब हम घर के भीतर भी चलकर देखना चाहते हैं, वहाँ क्या होता है। हम लोगों में भलेमानसों के घर में जाने की चाल नहीं है। जिस भलेमानस के घर में लोग बेरोक टोक आते जाते हैं, न उसी को कोई भला समझता, और न वही भला गिना जाता, जो ऐसा करता है। पर आप आइये, हमारे साथ चले आइये, घबराइये नहीं, हम लोग सब ठौर बेरोकट-टोक आ जा सकते हैं, और अपने साथ औरों को भी ले जा सकते हैं। इससे न घरवाले को ही कोई बुरा कहता है, न हम्हीं लोगों को कोई बुरा बनाता। जब यह चाल है, तो वह चाल भले ही न हो, हमको और आपको हिचकने का कोई काम नहीं। आइये, चले आइये, देखिए, कैसा निराला समा है। आपने कभी खिला हुआ कमल देखा है? और जो देखा है तो ऐसे बहुत से कमल जिस तालाब में खिले हों, क्या ऐसे किसी तालाब की छटा की सुरत आपको है? आपने कभी हँसते हुए पूरे चाँद की शोभा देखी है? और जो देखी है तो ऐसे सैकड़ों चाँदों से सजे हुए आकाश की छवि को आपने अपने मन में कभी आँका है? हरे भरे पत्तों की आड़ में डाल पर बैठकर कोयल को आपने कभी कूकते सुना है? और जो सुना है तो कितने ही पेड़ों की झुरमुट में ऐसी कई एक कोयलों के बोलने की छटा का ध्यान आपने कभी किया है? जो सुरत नहीं है, मन में कभी नहीं आँका है, और ध्यान नहीं किया है, तो उसकी सुरत कीजिए। उस छवि को मन में आँकिये और उस छटा का ध्यान कीजिए। और फिर हरमोहन पाण्डे के घर की शोभा को उससे मिलाइये। आज हरमोहन पाण्डे के घर में सैकड़ों पूरे चाँद एक साथ निकले हैं, अनगिनत कँवल फूले हुए हैं, और रसीले कण्ठ से कितनी ही कोयलें बोल रही हैं। इस पर भाँत-भाँत और रंग-रंग के कपड़ों की फबन, गोटे पट्टे की चमक दमक, घुँघरुओं की झनकार और रंग दिखला रही हैं। एक ठौर चढ़ती जवानी की बहुत सी छबीलियाँ बैठी हैं, चाँद रस बरसा रहा है, कोयल बोल रही है, कँवल फूले हुए हैं और निराली गन्ध में बसी हुई बयार धीरे-धीरे चल रही है। वहीं देवहूती भी बैठी हुई घर में उँजाला कर रही है-आज उसके मुखड़े पर निराला जीवन है! अनूठी छटा है! और अनोखा आनन्द है! आज उसके गहनों कपड़ों की छवि देखे ही बन आती है। पास बैठी हुई छबीलियाँ उसको छेड़ रही हैं, और कभी इन सबों का वह ठहाका लगता है, जिससे सारा घर रहकर गूँज जाता है। हम यहाँ ठहरना नहीं चाहते, इन छबीलियों में हमारा क्या काम! पर एक बात जी में रही जाती है, देवहूती का आज यह ठाट क्यों!
इस दूसरी ठौर को देखो, यहाँ देवहूती की माँ पारबती बैठी हुई है, पास ही उसी के बय की सैकड़ों स्त्रियों डटी हुई हैं। भाँत-भाँत की बातें चल रही हैं, पर ओर छोर किसी का नहीं मिलता, जितने मुँह उतनी बातें सुनी जा रही हैं। कोई कुछ कहती है, तो दूसरी अपने मन से दस बातें और गढ़कर उसमें मिला देती है, न जाने कहाँ की छानबीन हो रही है। पारबती क्या कह रही है, जी करता है उसे सुनें, पर पास की स्त्रियों ने ऐसा गड़बड़ मचा रखा है, जिससे कुछ सुना नहीं जाता। जाने दो इस पचड़े को, चलो बाहर ही चलें, देखें अब वहाँ क्या हो रहा है।
देखो, अभी यहाँ वैसा ही जमघट है, लोग अभी तक उसी भाँत चुपचाप किसी की बाट देख रहे हैं-पर अब कोई आया ही चाहता है, क्योंकि लोगों में कुछ खलबली सी पड़ रही है। अच्छा, आओ, हम लोग भी यहीं ठहरें, देखें किसकी अवाई है!
मन्दिर के मण्डप में जो बाजा बज रहा था, धीरे-धीरे वह धुन से बजने लगा, जय और बधाई की धुन से सारी दिशाएँ गूँज उठीं, साथ ही गाँव के पाँच सात भलेमानसों के साथ धीरे-धीरे हमारे जाने-पहचाने देवस्वरूप ने उस जमघटे के बीच पाँव रखा। देवस्वरूप देखने में वैसे ही धीरे पूरे जान पड़ते थे, उनके मुखड़े का भाव वैसा ही था, धीरज उसी भाँति उस पर खेल रहा था, और जैसा गम्भीर वह पहले रहता था, अब भी था। वह सबसे जथाजोग मिलते-जुलते चाँदनी के भीतर आये, और उसके ठीक बीच में एक ठौर बैठ गये।
जब देवस्वरूप बैठ गये, उनके मौसेरे ससुर नन्दकुमार, अपनी ठौर से उठे, और सबकी ओर देखकर कहने लगे-
”आज आप लोगों को बड़े आनन्द के साथ मैं यह बतलाता हूँ-देवस्वरूप ही देवहूती के वह खोये हुए पति हैं-जिनके लिए हम लोगों का एक-एक दिन एक-एक बरस हो रहा था। मैं यह जानता हूँ मेरे इस बात को बतलाने के पहले ही सारा गाँव यह बात जान गया है, क्योंकि जो सारा गाँव पहले ही इस बात को न जान गया होता, तो आज गाँव में यह धुमधाम न होती। पर सबके सामने इस बात को छोड़ मुझको और दो चार बातें कहनी हैं, इसलिए आप लोगों के सामने कुछ कहने के लिए मैं खड़ा हुआ हूँ। कई बार देखादेखी होने पर भी देवस्वरूप ने हरमोहन पाण्डे को और हरमोहन पाण्डे ने देवस्वरूप को तब तक क्यों नहीं पहचाना, जब तक न्योते के दिन उन लोगों में बातचीत न हुई, यह शंका अब तक लोगों को बनी हुई है। यह शंका ठीक है; पर आप लोगों को जानना चाहिए-तिलक के दिन से ब्याह के दिनों तक एक दिन भी इन दोनों जनों में देखादेखी नहीं हुई थी और इसीलिए भेंट होने पर भी ये लोग एक दूसरे को न पहचान सके। तिलक चढ़ाने पुरोहितों के साथ मैं गया था, और ब्याह के दिनों पाण्डेजी अचानक कठिन रोग में फँस गये थे, इसी से देखा देखी न हो सकी थी। देवहूती ब्याह में बहुत छोटी थी, इसी से न उसको देवस्वरूप पहचान सके, और न देवस्वरूप को वह पहचान सकी। देवस्वरूप को पहचाना तो देवहूती की माँ ने पहचाना और वही पहचान सकती थीं, और उन्हीं के पहचानने से ही हम लोगों को आज का यह दिन देखने में आया। आप लोग कहेंगे-आज तक तुम कहाँ सोते थे, पर यह भी दिनों का फेर ही था, जो मैंने भी उसी दिन देवस्वरूप को देखा, जिस दिन यह बात धीरे-धीरे सब लोगों में फैल गयी थी। देवस्वरूप को लड़कपन में लोग देऊ कहते थे, उनके इस लड़कपन के नाम ने लोगों को और धोखे में डाला। अब मैं समझता हूँ आप लोग सब बात भली-भाँति समझ गये होंगे।”
इतना कहकर पण्डित नन्दकुमार अपनी ठौर पर बैठ गये। उस घड़ी जय और बधाई की वह धुम थी, जो किसी भाँति नहीं लिखी जा सकती है। जिस घड़ी यह धूमे मच रही थी, एक ऐसा उँजाला चाँदनी के भीतर छा गया, मानो बिजली कौंध गयी-साथ ही-
”धर्म का बेड़ा पार”
इस ध्वनि से सारी दिशा गूँज उठी।
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