उपन्यास – अधखिला फूल – अध्याय 26 (लेखक – अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध)
आज दस बरस पीछे हम फिर बंसनगर में चलते हैं। पौ फट रहा है, दिशाएँ उजली हो रही हैं, और आकाश के तारे एक-एक कर के डूब रहे हैं। सूरज अभी नहीं निकला है, पर लाली चारों ओर दिशाओं में फैल गयी है। कहीं-कहीं पेड़ों के नीचे अभी भी गहरी अंधियाली है-पर अंधेरा धीरे-धीरे दूर हो रहा है। चिड़ियाँ बोल रही हैं, कौए काँव-काँव कर रहे हैं, फूल खिल रहे हैं, और सरजू नदी बयार के ठण्डे झोंकों से ठण्डी होकर धीरे-धीरे बह रही है। इसी सरजू के एक पक्के घाट पर एक जन बैठा हुआ पूजा कर रहा है, उसके माथे में चन्दन लगा है, उसकी दोनों आँखें अधखुली हैं, और मुखड़ा तेज से चमक रहा है। वह ऐसा एकचित्त होकर पूजा कर रहा है, और इस भाँति सच्चे जी से भगवान के भजन में लगा हुआ है, जिसको देखकर बड़े पापी का जी भी पसीज जाता है। हम जानना चाहते हैं, यह कौन है। यह और कोई नहीं, हमारे जान पहचानवाले देवस्वरूप हैं। सूरज निकलते-निकलते उन्होंने अपनी पूजा पूरी की, और सरजू के तीर से उठकर घर की ओर चले-एक टहलू जो देखने में बड़ा भलामानस जान पड़ता था-पीछे-पीछे साथ-साथ था।
हम कुछ घड़ी के लिए देवस्वरूप का साथ छोड़ना चाहते हैं-और देखना चाहते हैं, गाँव की आजकल क्या दशा है। बंसनगर गाँव पहले ही हरा भरा था, पर आजकल वह और चढ़ बढ़ गया था। गाँव में जो धनी थे, उनकी चर्चा ही क्या है-आजकल दीन दुखियों की दशा भी सुधर गयी थी। देवस्वरूप ने कामिनीमोहन का बहुत सा धन पाकर अपने ठाट-बाट में नहीं लगाया, जो ढंग उनका पहले था, अब भी था। देवहूती भी उन्हीं के दिखाये पथ पर चलती थी, लाखों रुपये की सम्पत्ति पाकर उसने अच्छे-अच्छे गहने नहीं गढ़ाये, अपने लिए ऊँचे-ऊँचे पक्के घर नहीं बनवाये। देवस्वरूप ने उसको समझाया, कामिनीमोहन के धन के हम कौन! जो अपने पसीने की कमाई नहीं, उसको अपने काम में लगाना अच्छा नहीं। तब वह धन जिससे बहुतों का भला हो सकता है, हम लोग अपने काम में क्यों लावें? चाहें बढ़ाने ही से बढ़ती हैं, फिर पहले ही उनको बढ़ने का अवसर क्यों दिया जावे? देवस्वरूप ने गाँव के दीन दुखियों की दशा देखी थी, कितनी ही अभागिनी राँड़ स्त्रियों के दु:ख पर कई बार आँसू बहाया था, उनको ये सब बातें भूली नहीं थीं। देश जिन बातों से दिन-दिन गिर रहा था, वे बातें भी दिन रात उनकी आँखों के सामने फिरा करतीं। इसलिए उन्होंने कामिनीमोहन का बहुत सा धन पाकर उसको अच्छे कामों में लगाया, आज उनके किये हुए अच्छे कामों से ही बंसनगर का ढंग निराला हो गया था। देवस्वरूप का साथ छोड़कर ज्यों हम आगे बढ़े, त्यों एक बहुत ही लम्बा-चौड़ा ऊँचा घर सामने दिखलाई पड़ा। इस घर के फाटक पर लिखा हुआ था-
कामिनीमोहन की धर्मशाला
आप आकर रहें यहाँ पर आज।
भाग्य ऐसे कहाँ हमारे हैं।
हमने इस धर्मशाले के भीतर पैठकर देखा, इसमें बटोहियों के सुख के लिए सब कुछ किया गया था। यहाँ बटोहियों को ठहराया ही नहीं जाता था, उनको दिन तक खाना भी मिलता था। और जो इसके कामकाजी थे, वे कितने भले और अच्छे थे, यह मुझसे बतलाया भी नहीं जा सकता। मैं उनकी आवभगत का ढंग देखकर मोह गया, उनकी मीठी बातों का रस चखकर जी ऊबता ही न था। मैं इस घर को भली-भाँति देखकर बाहर आया। बाहर आते ही इस घर से थोड़ी ही दूर पर बहुत ही लम्बा चौड़ा और कई खंडों में बँटा हुआ एक दूसरा घर मुझको दिखलाई पड़ा। इस घर के फाटक पर लिखा हुआ था-
कामिनीमोहन का बनाया हुआ
अनाथालय
है सहारा जिसे नहीं, उस पर।
कौन आँसू नहीं बहावेगा?
इस घर में जब मैं गया, देवस्वरूप के जी में कितनी दया है, यह बात मुझको भली-भाँति जान पड़ी। यहाँ सैकड़ों लड़के और लड़कियाँ मुझको दिखलाई पड़ीं। इन लड़के और लड़कियों के माँ-बाप नहीं थे, और न दूसरा कोई इनको सहारा देनेवाला था, इसलिए देवस्वरूप और देवहूती ने अपनी दया का हाथ इनके सर पर रखा था। गाँव में जब हम घुसने लगे थे, हमारे कान में यह भनक पड़ी थी-जिनके माँ-बाप नहीं उनके माँ और बाप देवहूती और देवस्वरूप हैं-इस घर में आकर हमने यह बात आँखों देखी। जितने लड़के और लड़कियाँ यहाँ थीं, सब ऐसे कपड़ों में थीं, और उनका मुखड़ा ऐसा हरा भरा था, जैसा बड़े सुख में पले लड़कों का भी नहीं देखा जाता। इन लड़कों को यहाँ लिखना-पढ़ना और दूसरे भाँति-भाँति के काम भी सिखलाये जाते थे, जिससे सयाने होने पर अपना पेट वे पाल सकें। सबसे बड़ी बात यह थी-ऐसे लड़कों की खोज के लिए देवस्वरूप ने पचीसों ऐसे लोग रखे थे, जो देश-देश में घूमकर यही काम किया करते थे। मेरा जी इस घर को देखकर भर आया, और मैं सोचने लगा-हाय! न जाने कितने लड़के इस भाँति सहारा न पाकर इस धरती से उठ जाते होंगे, न जाने कितने अपना सबसे अच्छा हिन्दू धर्म छोड़कर दूसरे धर्मों में चले जाते होंगे, पर हमारे देश में देवस्वरूप ऐसे कितने लोग हैं। हम सैकड़ों रुपये मिट्टी में मिला देते हैं, पर ऐसे कामों में एक पैसा भी हमसे नहीं उठाया जाता, क्या इससे भी बढ़कर कोई बात जी को दुखानेवाली है? इन बातों को सोचते मेरी आँखों में आँसू आने लगे, मैंने उनको बड़ी कठिनाई से रोका। इसी समय एक तीसरे घर पर दीठ पड़ी, इस घर के फाटक पर लिखा हुआ था-
कामिनीमोहन की पाठशाला
जिसने कुछ भी नहीं पढ़ा लिक्खा।
खो दिया हाथ का रतन उसने।
मैंने इस घर में जाकर देखा, गाँव के सब जात के लड़के इसमें पढ़ रहे थे, और देश काल के विचार से यहाँ सभी ढंग की पढ़ाई होती थी, साथ ही इसके जिसका जो निज का काम था वह काम भी उसको यहाँ सिखलाया जाता था। इस घर में भी बहुत से खंड थे, एक-एक खंड में एक-एक बातें सिखलायी और पढ़ायी जाती थीं। ब्राह्मणों को और ऐसे लड़कों को जिनको कोई सहारा न था, यहाँ खाना कपड़ा भी मिलता था। जिस खंड में ब्राह्मण के लड़कों को वेद पढ़ाया जाता था, उस खंड में जाने पर न जाने कितनी पुरानी बातें जी में घूमने लगीं। पण्डितों का सहज भेस, सीधी बोल चाल, और वेदों का सुर से पढ़ा जाना, बड़े पापी के जी में भी धर्म का बीज बोते थे। हमको यहाँ से हटना कठिन हो गया, पर किसी भाँति यहाँ से निकले, और ज्यों आगे बढ़े त्यों एक और लम्बा चौड़ा घर सामने दिखलाई पड़ा। इस घर के फाटक पर लिखा था-
कामिनीमोहन के नाम पर इस
घर में सदाबरत बँटता है।
मत कभी पेटजलों को भूलो।
भूख की पीर बुरी होती है।
गाँव में जो दीनदुखी हट्टे-कट्टे और काम करने योग्य थे, उन को रुपया, अन्न और गाय बैल देकर देवस्वरूप ने कई एक कामों में लगा रखा था। पर जो लूले, लँगड़े, अंधे, रोगी और अपाहिज थे, उन सबको यहाँ नित्य कोरा अन्न मिलता था। दूसरे गाँवों के भी ऐसे लोग जो सदाबर्त बँटने के बेले यहाँ आते, वे फेरे नहीं जाते थे। उन सबों की आवभगत भी यहाँ वैसी ही होती थी, जैसी गाँववालों की। हम यहाँ से और आगे बढ़े, कुछ दूर जाकर एक बहुत ही सुथरा और अच्छा घर दिखलाई पड़ा। इस घर के फाटक पर लिखा था-
कामिनीमोहन का बनाया हुआ
रोगियों के औषधी कराने का घर
हम उन्हें भूला समझते हैं बहुत।
रोगियों पर जो दया करते नहीं।
इस घर में, गाँव ही के नहीं, दूसरे गाँवों के भी बहुत से रोगी औषधी कराने के लिए आते थे। उन सबकी देखभाल और सम्हाल यहाँ बहुत ही जी लगाकर की जाती थी। रोगियों के ठहरने और रहने के लिए अलग-अलग बहुत से अच्छे-अच्छे घर थे-वहाँ उनको सब प्रकार का खाना भी मिलता था। जो यहाँ ठहरना नहीं चाहते थे, उनको औषधी ही दी जाती थी। जो निरे कंगाल और भूखे रहते, उनको कपड़े भी मिलते थे। जो यहाँ पका पकाया खाना चाहते, उनके लिए ब्राह्मण रखे हुए थे-जो कोरा अन्न माँगते थे, उनको कोरा अन्न ही मिलता था-रोगियों की टहल के लिए कई एक टहलू थे। अब तक यह सब देखते भालते हम सरजू के तीर से थोड़ा ही आगे बढ़े थे-पर अब यहाँ से और आगे बढ़कर हम गाँव में घुसे। गाँव में घुसने पर हमको एक घर भी उजड़ा हुआ न मिला। पहले गाँव में पचासों खंडहर थे, पर आजकल वे सब बस गये थे। गाँव में जिसको देखो वही सुखी, और वही काम में लगा हुआ दिखलाई देता। बीच गाँव में पहुँचने पर हमको कामिनीमोहन का घर दिखलाई दिया, साथ ही बहुत सी बातों की एक साथ सुरत हुई। इस घर के फाटक पर पहले जैसे आठ पहर पहरा पड़ा करता था, आज भी पड़ता था। पर हम पहरेवालों से कह सुनकर किसी भाँति फाटक के भीतर गये। इस घर में दो खंड थे, एक पुरुषों का, दूसरा स्त्रियों का। जो खंड पुरुषों का था उसमें हमको बहुत से लोग काम करते दिखलाई पड़े-ये सब कामकाजी थे, और जो बहुत से अच्छे-अच्छे काम देवस्वरूप ने खोले थे, उन सबकी लिखापढ़ी, देखभाल और उनका लेखा-जोखा इन लोगों के हाथ में था। मैं यहाँ से हटा और दूसरे खंड पर पहुँचा। यहाँ बड़ा कड़ा पहरा था। इस खंड के फाटक पर लिखा हुआ था-
अभागिनी फूलकुँवर ने अपना यह प्यारा
घर अपनी राँड़ बहनों को भेंट किया
सोग उसका सहा नहीं जाता।
हाय! जिसका रहा सुहाग नहीं।
हम इस खंड में जाने नहीं पाये, पर पूछने पर हमको सब बातें जान पड़ीं। इस घर में गाँव की ऐसी राँड़ स्त्रियों काम करती थीं, जो भले घर की थीं, और जिनका कहीं सहारा नहीं था। उनको यहाँ सिलाई, बेलबूटा काढ़ना, सूत का काम, और इसी ढंग से बहुत से और काम सिखलाये जाते थे, और उनसे बहुत थोड़ा काम लेकर, उनके खाने-पीने और कपड़ों का ब्योंत लगाया जाता था। पास ही लड़कियों की एक छोटी पाठशाला भी थी, इसके फाटक पर लिखा था-
फुलकुँवर की लड़कियों
की पाठशाला
वह लड़का भला न क्यों होगा।
माँ जिसकी पढ़ी लिखी होगी।
हम यहाँ से हटकर कामिनीमोहन की फुलवारी के फाटक पर पहुँचे। अब यह फुलवारी सबकी सम्पत्ति थी। देवस्वरूप ने इसको सारे गाँव के लोगों को दे दिया था। इसके फाटक पर लिखा हुआ था-
चौतुका
कौन चुप चाप कह रहा है वह।
क्यों छटा देख हम अटकते हैं।
दो दिनों भी न फूल रहता है।
किन्तु काँटे सदा खटकते हैं।
कामिनीमोहन
इस फाटक को छोड़कर हम आगे बढ़े। अब हमको देवस्वरूप का घर देखना था। जाते-जाते हमको हरिमोहन पाण्डे का घर मिला, और इसी घर की दाहिनी ओर देवस्वरूप का घर दिखलाई पड़ा, इस घर को देवस्वरूप ने अपने रुपये से बनवाया था, और आजकल वह देवहूती के साथ इसी में रहता थे। देवस्वरूप के पास बाप दादे की इतनी सम्पत थी, जिससे वह अपना दिन भली-भाँति बिता सकते थे, इसलिए कामिनीमोहन की सम्पत्ति में से वे अपने लिए कभी एक पैसा नहीं लेते थे, और अपने लिए जो कुछ करते थे, वह अपने बाप-दादे की सम्पत्ति से ही करते थे। इस घर के द्वार पर एक बहुत बड़ी बैठक थी, इसी बैठक में देवस्वरूप बैठे हुए थे, हम उसके भीतर गये। नित्य छ बजे दिन से ग्यारह बजे दिन तक देवस्वरूप अपने खोले सारे कामों की जाँच पड़ताल और देखभाल करते थे, इसके पीछे वे खाने पीने में लगते थे। अब बारह बजा ही चाहता था, इसलिए देवस्वरूप भी रोटी खाकर बैठक में आ गये थे। एक पाँच बरस का लड़का उनसे तोतली बातें कर रहा था, वह भी उसको खेला रहे थे, इसी बीच बारह बजा, और बैठक में एक कामकाजी आकर एक ओर बैठ गया, कुछ पीछे उजले कपड़ों में एक भलेमानस दिखलाई पड़े-देवस्वरूप ने उनको आदर से बैठाला, उनका कुशल छेम पूछा, उनसे मीठी-मीठी बातें कीं, टहलते-टहलते पास जाकर उनके अनजान में सबकी आँखें बचाते हुए उनके एक कपड़े के कोने में कुछ बाँध, और फिर अपनी ठौर आकर बैठ गये। ये अभी बाहर गये थे, इसी बीच किसी की चीठी लिए एक जन और वहाँ आया, और वह चीठी देवस्वरूप को दी। देवस्वरूप ने उसको खोलकर पढ़ा। उसमें लिखा था-
”तुम बिन नाथ सुने कौन मेरी
आपका
जगमोहन”
देवस्वरूप पढ़ते ही सब समझ गये, और उस पर लिखा ”पाँच फूल आपकी भेंट किये जाते हैं” और पाँच रुपये उस जन को देकर वहाँ से चलता किया। बैठक में बैठे हुए कामकाजी ने चुपचाप लेखे के चिट्ठे पर लिखा-
नन्दकुमार लाल 5)
जगमोहन मिसिर 5)
एक बजे से चार बजे तक मेरे देखते-देखते कितने लोग आये, किसी ने अपनी लड़की का ब्याह बतलाया, किसी ने आँसू बहाया, किसी ने कोई और ही बहाना किया, और देवस्वरूप ने भी कुछ-न-कुछ सभी को दिया। ये जितने थे सब ऐसे थे, जिनका दिन कभी बहुत अच्छा था, पर अब पतला पड़ गया था, फिर भी भरम किसी भाँति बना था, देवस्वरूप ने उनके इस बने बनाये भरम को बिगाड़ना अच्छा नहीं समझा, और इसीलिए एक यह ढंग भी उन्होंने निकाल रखा था। उन्होंने अपने सामने एक चौकठा लटका रखा था, उसमें लिखा हुआ था-
देखिए बिगड़े नहीं उनका भरम।
मरते हैं पर माँग जो सकते नहीं।
इस ढंग की स्त्रियों के लिए, ठीक ऐसा ही ढंग देवहूती का था, और इसीलिए गाँव में घर-घर इन लोगों की जैजैकार होती थी। जो कुछ पढ़ना लिखना होता, देवस्वरूप इसी बेले पढ़ते लिखते भी थे, और पढ़ते-पढ़ते जो कोई काम ऐसा जान पड़ता जिसमें हाथ बँटाना वह अच्छा समझते, तो उसमें भी वह कुछ-न-कुछ देते थे। आज उन्होंने दो कामों में कुछ दिया, उन्हांने एक ठौर पढ़ा, बिजनौर में एक मन्दिर गिर रहा है, उस को फिर से ठीक करने के लिए पाँच सौ रुपये चाहिए-देवस्वरूप ने यहाँ सौ रुपये भेजे। दूसरी ठौर उन्होंने पढ़ा, बिहार में कुछ लोग अपनी देश भाषा की बढ़ती के लिए जतन कर रहे हैं, पर रुपये के टोटे से ठीक-ठीक काम नहीं चल सकता-देवस्वरूप ने यहाँ दौ सौ रुपये भेजे। इसी भाँति वे और और कामों में भी समय-समय पर कुछ-कुछ भेजा करते।
चार बजे देवस्वरूप अपनी बैठक से अपने दो चार साथियों के संग निकले और टहलते हुए गाँव के उत्तर और सरजू के तीर पर जा पहुँचे, हम भी साथ थे, यहाँ एक फुलवारी उन्होंने बनवायी थी, इस फुलवारी के चारों ओर ईंट की पक्की भीत थी, और भाँति-भाँति के बेल बूटे और फल फूल के पेड़ों से इसकी निराली छटा थी। फुलवारी के ठीक बीच में एक छोटा-सा पक्का तालाब था। जिसमें बहुत ही सुथरा जल भरा हुआ था। देवस्वरूप टहलते-टहलते इसी तालाब के पास आये और वहीं एक सुथरी ठौर देखकर बैठ गये। इस तालाब के पास एक बहुत ही सुन्दर मन्दिर था, इस मन्दिर के द्वार पर सोने के अच्छरों में खुदा हुआ एक पत्थर लगा था, जिसमें यह लिखा था-
फूलदेवी का मन्दिर
जो भरी हो भले गुनों ही से।
कौन देवी उसे न समझेगा।
देवी कौन है? वही, जिसमें अच्छे गुण हों, मैं समझता हूँ फूलकुँवर ऐसी अच्छे गुणवाली स्त्री कोई होगी। उनकी दया और भलमनसाहत की बड़ाई कहाँ तक करें कामिनीमोहन ऐसे पति पर भी उनका इतना सच्चा प्यार था, जो उनके मरने के एक महीने के भीतर ही उन्होंने भी यह लोक छोड़ा। कौन ऐसा कलेजा है जो इन बातों को जान कर भी न कसकेगा! हम लोग उसी फूलदेवी का यह मन्दिर बनाकर अपने को धन्य समझते हैं, और सच्चे जी से उनका और उनके पति का उस लोक में भला चाहते हैं।
देवस्वरूप और देवहूती।
पत्थर पढ़कर मुझको मन्दिर देखने की बड़ी चाह हुई। मैं हाथ-पाँव धोकर और कुछ फूल लेकर मन्दिर के भीतर गया। वहाँ जाकर देवी की मूर्ति देखने के पीछे मेरी जो गत हुई, मैं उस को किसी भाँति नहीं बतला सकता। बहुत मोल के एक पत्थर की चौकी पर एक अपसरा ऐसी सुन्दर स्त्री की मूर्ति खड़ी थी-मुखड़ा हँसता हुआ होने पर भी कुम्हलाया हुआ था-उस पर गहरी उदासी झलक रही थी। दोनों आँखें आकाश की ओर लगी हुई थीं, जिनसे पलपल कलेजे को टुकड़े-टुकड़े करती हुई निराशा टपक रही थी। दोनों हाथों में दो कमल के फूल थे, जो खिलते-खिलते कुम्हला गये थे, और देह पर के एकाध गहने और कपड़े इस ढंग से बने थे, जिनके देखते ही यह बात अचानक मुँह से निकलती थी-हा! परमेश्वर! ऐसों की भी यह गत!!! सिर के ऊपर ठीक सामने आकाश में ऊपर उठते हुए कामिनीमोहन की मूर्ति बनी हुई थी, जिसके चारों ओर धीरे-धीरे अंधियाली घिर रही थी, पर बीच-बीच में एक जोत फूटती थी, जो उस अंधियाली को दूर करना चाहती थी। पास ही दाहिनी ओर चौकी के नीचे देवहूती की मूर्ति बनी हुई थी, जो अपने हाथ की अंजुली से उसके पाँवों पर फूल डाल रही थी।
मैंने भी सर झुकाकर हाथ के फूलों को फूलदेवी के पाँवों पर डाला, पीछे कलेजा पकड़े हुए मन्दिर के बाहर आया। यहाँ देवस्वरूप की बुरी गत थी, वे फूलकुँवर और कामिनीमोहन की चर्चा अपने साथियों से कर रहे थे, और बेढब दुखी थे। पीछे वह सरजू पर आये, सूरज को डूबता देखकर कुछ पूजा की, फिर घर की ओर चल पड़े। घर आकर वह नौ बजे तक आये हुए लोगों से मिलते-जुलते रहे, जब नौ बज गया, वे घर के पास के मन्दिर में गये। यहाँ एक घण्टे तक उन्होंने एक पण्डित से रामायण की कथा सुनी, पीछे मन्दिर की आरती हो जाने पर घर आये। अब दस बज गये थे, इसलिए खा पीकर वे सोने गये। हम भी यहीं तक उनके साथ थे। उनके सोने के घर में जाते ही हम उनसे अलग हुए।
देवस्वरूप बहुत दिन तक इस धरती पर रहे, उनके हाथों देश का, देश के लोगों का बहुत कुछ भला हुआ। देवहूती भी उन की छाया थी, जितने भले काम देवस्वरूप ने किये उन सबमें उस का हाथ था।
अब इस धरती पर न देवस्वरूप हैं, न देवहूती! पर यश उन का अब तक है। नरक स्वर्ग कोई मानता है, कोई नहीं मानता पर यश अपयश सभी मानते हैं। नित्य लाखों लोग इस धरती पर जनमते मरते हैं, पर देवस्वरूप की भाँत यश बटोरनेवाले कितने माई के लाल हैं?
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