उपन्यास – अलंकार – 4 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
नगर में सूर्य का परकाश फैल चुका था। गलियां अभी खाली पड़ी हुई थीं। गली के दोनों तरफ सिकन्दर की कबर तक भवनों के ऊंचेऊंचे सतून दिखाई देते थे। गली के संगीन फर्श पर जहांतहां टूटे हुए हार और बुझी मशालों के टुकड़े पड़े हुए थे। समुद्र की तरफ से हवा के ताजे झोंके आ रहे थे। पापनाशी ने घृणा से अपने भड़कीले वस्त्र उतार फेंके और उसके टुकड़ेटुकड़े करके पैरों तले कुचल दिया।
तब उसने थायस से कहा-‘प्यारी थायस, तूने इन कुमानुषों की बातें सुनीं ? ऐसे कौन से दुर्वचन और अपशब्द हैं जो उनके मुंह से न निकले हों, जैसे मोरी से मैला पानी निकलता है। इन लोगों ने जगत के कर्त्ता परमेश्वर को नरक की सीयिों पर घसीटा, धर्म और अधर्म की सत्ता पर शंका की, परभु मसीह का अपमान किया, और जूदा का यश गया। और वह अन्धकार का गीदड़ वह दुर्गन्धमय राक्षस, जो इन सभी दुरात्माओं का गुरूघंटाल था, वह पापी मार्कस एरियन खुदी हुई कबर की भांति मुंह खोल रहा था। पिरय, तूने इन विष्ठामय गोबरैलों को अपनी ओर रेंगकर आते और अपने को उनके गन्दे स्पर्श से अपवित्र करते देखा है। तूने औरों को पशुओं की भांति अपने गुलामों के पैरों के पास सोते देखा है। तूने उन्हें पशुओं की भांति उसी फर्श पर संभोग करते देखा है जिस पर वह मदिरा से उन्मत्त होकर कै कर चुके थे ! तूने एक मन्दबुद्धि, सठियाये हुए बुड्ढे को अपना रक्त बहाते देखा है जो उस शराब से भी गन्दा था जो इन भरष्टाचारियों ने बहाई थी। ईश्वर को धन्य है ! तूने कुवासनाओं का दृश्य देखा और तुझे विदित हो गया कि यह कितनी घृणोत्पादक वस्तु है ? थायस, थामस, इन कुमागीर दार्शनिकों की भरष्टाताओं को याद कर और तब सोच कि तू भी उन्हीं के साथ अपने को भरष्ट करेगी ? उन दोनों कुलटाओं के कटाक्षों को, हावभाव को, घृणित संकेतों को याद कर, वह कितनी निर्लज्जता से हंसती थीं, कितनी बेहयाई से लोगों को अपने पास बुलाती थीं और तब निर्णय कर कि तू भी उन्हीं के सदृश अपने जीवन का सर्वनाश करती रहेगी ? ये दार्शनिक पुरुष थे जो अपने को सभ्य कहते हैं, जो अपने विचारों पर गर्व करते हैं पर इन वेश्याओं पर ऐसे गिरे पड़ते थे जैसे कुत्ते हिड्डयों पर गिरें !’
थायस ने रात को जो कुछ देखा और सुना था उससे उसका हृदय ग्लानित और लज्जित हो रहा था। ऐसे दृश्य देखने का उसे यह पहला ही अवसर न था, पर आज कासा असर उसके मन पर कभी न हुआ था। पापनाशी की सतुत्तेजनाओं ने उसके सद्भाव को जगा दिया था। कैसे हृदयशून्य लोग हैं जो स्त्री को अपनी वासनाओं का खिलौना मात्र समझते हैं ! कैसी स्त्रियां हैं जो अपने देहसमर्पण का मूल्य एक प्याले शराब से अधिक नहीं समझतीं। मैं यह सब जानते और देखते हुए भी इसी अन्धकार में पड़ी हुई हूं। मेरे जीवन को धिक्कार है।
उसने पापनाशी को जवाब दिया-‘पिरय पिता, मुझमें अब जरा भी दम नहीं है। मैं ऐसी अशक्त हो रही हूं मानो दम निकल रहा है। कहां विश्राम मिलेगा, कहां एक घड़ी शान्ति से लेटूं ? मेरा चेहरा जल रहा है, आंखों से आंचसी निकल रही है, सिर में चक्कर आ रहा है, और मेरे हाथ इतने थक गये हैं कि यदि आनन्द और शान्ति मेरे हाथों की पहुंच में भी आ जाय तो मुझमें उसके लेने की शक्ति न होगी।’
पापनाशी ने उस स्नेहमय करुणा से देखकर कहा-‘पिरय भगिनी ! धैर्य और साहस ही से तेरा उद्घार होगा। तेरी सुखशान्ति का उज्ज्वल और निर्मल परकाश इस भांति निकल रहा है जैसे सागर और वन से भाप निकलती है।’
यह बातें करते हुए दोनों घर के समीप आ पहुंचे। सरो और सनोवर के वृक्ष जो ‘परियों के कुंज’ को घेरे हुए थे, दीवार के ऊपर सिर उठाये परभातसमीर से कांप रहे थे। उनके सामने एक मैदान था। इस समय सन्नाटा छाया हुआ था। मैदान के चारों तरफ योद्घाओं की मूर्तियां बनी हुई थीं और चारों सिरों पर अर्धचन्द्राकार संगमरमर की चौकियां बनी हुई थीं, जो दैत्यों की मूर्तियों पर स्थित थीं। थायस एक चौकी पर गिर पड़ी। एक क्षण विश्राम लेने के बाद उसने सचिन्त नेत्रों से पापनाशी की ओर देखा पूछा-‘अब मैं कहां जाऊ ?’
पापनाशी ने उत्तर दिया-‘तुझे उसके साथ जाना चाहिए जो तेरी खोज में कितनी ही मंजिलें मारकर आया है। वह तुझे इस भरष्ट जीवन से पृथक कर देगा जैसे अंगूर बटोरने वाला माली उन गुच्छों को तोड़ लेता है जो पेड़ में लगेलगे सड़ जाते हैं और उन्हें कोल्हू में ले जाकर सुगंधपूर्ण शराब के रूप में परिणत कर देता है। सुन, इस्कन्द्रिया से केवल बारह घण्टे की राह पर, समुद्रतट के समीप वैरागियों का एक आश्रम है जिसके नियम इतने सुन्दर, बुद्धिमत्ता से इतने परिपूर्ण हैं कि उनको पद्य का रूप देकर सितार और तम्बूरे पर गाना चाहिए। यह कहना लेशमात्र भी अत्युक्ति नहीं है कि जो स्त्रियां यहां पर रहकर उन नियमों का पालन करती हैं उनके पैर धरती पर रहते हैं और सिर आकाश पर। वह धन से घृणा करती हैं जिसमें परभु मसीह उन पर परेम करें; लज्जाशील रहती हैं कि वह उन पर कृपादृष्टिपात करें, सती रहती हैं कि वह उन्हें परेयसी बनायें। परभु मसीह माली का वेश धारण करके, नंगे पांव, अपने विशाल बाहु को फैलाये, नित्य दर्शन देते हैं। उसी तरह उन्होंने माता मरियम को कबर के द्वार पर दर्शन दिये थे। मैं आज तुझे उस आश्रम में ले जाऊंगा, और थोड़े ही दिन पीछे, तुझे इन पवित्र देवियों के सहवास में उनकी अमृतवाणी सुनने का आनन्द पराप्त होगा। वह बहनों की भांति तेरा स्वागत करने को उत्सुक हैं। आश्रम के द्वार पर उसकी अध्यक्षिणी माता अलबीना तेरा मुख चूमेंगी और तुझसे सपरेम स्वर से कहेंगी, बेटी, आ तुझे गोद में ले लूं, मैं तेरे लिए बहुत विकल थी।’
थायस चकित होकर बोली-‘अरे अलबीना ! कैसर की बेटी, समराट केरस की भतीजी ! वह भोगविलास छोड़कर आश्रम में तप कर रही है ?’
पापनाशी ने कहा-‘हां, हां, वही ! अलबीना, जो महल में पैदा हुई और सुनहरे वस्त्र धारण करती रही, जो संसार के सबसे बड़े नरेश की पुत्री है, उसे मसीह की दासी का उच्चपद पराप्त हुआ है। वह अब झोंपड़े में रहती है, मोटे वस्त्र पहनती है और कई दिन तक उपवास करती है। वह अब तेरी माता होगी, और तुझे अपनी गोद में आश्रय देगी।’
थायस चौकी पर से उठ बैठी और बोली-‘मुझे इसी क्षण अलबीना के आश्रम में ले चलो।’
पापनाशी ने अपनी सफलता पर मुगध होकर कहा-‘तुझे वहां अवश्य ले चलूंगा और वहां तुझे एक कुटी में रख दूंगा जहां तू अपने पापों का रोरोकर परायश्चित करेगी, क्योंकि जब तक तेरे पाप आंसुओं से धुल न जायें, तू अलबीना की अन्य पुत्रियों से मिलजुल नहीं सकती और न मिलना उचित ही है। मैं द्वार पर ताला डाल दूंगा, और तू वहां आंसुओं से आद्र होकर परभु मसीह की परतीक्षा करेगी, यहां तक कि वह तेरे पापों को क्षमा करने के लिए स्वयं आयेंगे और द्वार पर ताला खोलेंगे। और थायस, इसमें अणुमात्र भी संदेह न कर कि वह आयेंगे। आह ! जब वह अपनी कोमल, परकाशमय उंगलियां तेरी आंखों पर रखकर तेरे आंसू पोंछेगे, उस समय तेरी आत्मा आनन्द से कैसी पुलकित होगी ! उनके स्पर्शमात्र से तुझे ऐसा अनुभव होगा कि कोई परेम के हिंडोले में झुला रहा है।’
थायस ने फिर कहा-‘पिरय पिता, मुझे अलबीना के घर ले चलो।’
पापनाशी का हृदय आनन्द से उत्फुल्ल हो गया। उसने चारों तरफ गर्व से देखा मानो कोई गंगाल कुबेर का खजाना पा गया हो। निस्संक होकर सृष्टि की अनुपम सुषमा का उसने आस्वादन किया। उसकी आंखें ईश्वर के दिये हुए परकाश को परसन्न होकर पी रही थीं। उसके गालों पर हवा के झोंके न जाने किधर से आकर लगते थे। सहसा मैदान के एक कौने पर थायस के मकान का छोटासा द्वार देखकर और यह याद करके कि जिन पत्तियों की शोभा का वह आनन्द उठा रहा था वह थायस के बाग के पेड़ों की हैं। उसे उन सब अपावन वस्तुओं की याद आ गयी जो वहां की वायु को, जो आज इतनी निर्मल और पवित्र थी, दूषित कर रही थी, और उसकी आत्मा को इतनी वेदना हुई कि उसकी आंखों में आंसू बहने लगे।
उसने कहा-‘थायस, हमें यहां से बिना पीछे मुड़कर देखे हुए भागना चाहिए। लेकिन हमें अपने पीछे तेरे संस्कार के साधनों, साक्षियों और सहयोगियों को भी न छोड़ना चाहिए। वह भारीपरदे, वह सुन्दर पलंग, वह कालीनें, वह मनोहर चित्र और मूर्तियां, वह धूप आदि जलाने के स्वर्णकुण्ड, यह सब चिल्लाचिल्लाकर तेरे पापाचरण की घोषणा करेंगे। क्या तेरी इच्छा है कि ये घृणित सामगिरयां, जिनमें परेतों का निवास है, जिनमें पापात्माएं त्र्कीड़ा करती हैं मरुभूमि में भी तेरा पीछा करें, यही संस्कार वहां तेरी भी आत्मा को चंचल करते रहें ? यह निरी कल्पना नहीं है कि मेजें पराणाघातक होती हैं, कुरसियां और गद्दे परेतों के यन्त्र बनकर बोलते हैं, चलतेफिरते हैं, हवा में उड़ते हैं, गाते हैं। उन समगर वस्तुओं को, जो तेरी विलसलोलुपता के साथी हैं; मिआ दे, सर्वनाश कर दे। थायस, एक क्षण भी विलम्ब न कर अभी सारा नगर सो रहा है, कोई हलचल न मचेगी, अपने गुलामों को हुक्म दे कि वह स्थान के मध्य में एक चिता बनाये, जिस पर हम तेरे भवन की सारी सम्पदा की आहुति कर दें। उसी अग्निराशि में तेरे कुसंस्कार जलकर भस्मीभूत हो जायें !’
थायस ने सहमत होकर कहा-‘पूज्य पिता, आपकी जैसी इच्छा हो, वह कीजिये। मैं भी जानती हूं कि बहुधा परेतगण निजीर्व वस्तुओं में रहते हैं। रात सजावट की कोईकोई वस्तु बातें करने लगती हैं, किन्तु शब्दों में नहीं या तो थोड़ीथोड़ी देर में खटखट की आवाज से या परकाश की रेखाएं परस्फुटित करके। और एक विचित्र बात सुनिए। पूज्य पिता, आपने परियों के कुंज के द्वार पर, दाहिनी ओर एक नग्न स्त्री की मूर्ति को ध्यान से देखा है ? एक दिन मैंने आंखों से देखा कि उस मूर्ति ने जीवित पराणी के समान अपना सिर फेर लिया और फिर एक पल में अपनी पूर्व दशा में आ गयी, मैं भयभीत हो गयी। जब मैंने निसियास से यह अद्भुत लीला बयान की तो वह मेरी हंसी उड़ाने लगा। लेकिन उस मूर्ति में कोई जादू अवश्य है; क्योंकि उसने एक विदेशी मनुष्य को, जिस पर मेरे सौन्दर्य का जादू कुछ असर न कर सका था, अत्यन्त परबल इच्छाओं से परिपूरित कर दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि घर की सभी वस्तुओं में परेतों का बसेरा है और मेरे लिए यहां रहना जानजोखिम था, क्योंकि कई आदमी एक पीतल की मूर्ति से आलिंगन करते हुए पराण खो बैठे हैं। तो भी उन वस्तुओं को नष्ट करना जो अद्वितीय कलानै पुण्य परदर्शित कर रही हैं और मेरी कालीनों और परदों को जलाना घोर अन्याय होगा। यह अद्भुत वस्तुएं सदैव के लिए संसार से लुप्त हो जाएंगी। उमें से कई इतने सुन्दर रंगों से सुशोभित हैं कि उनकी शोभा अवर्णनीय है, और लोगों ने उन्हें मुझे उपहार देने के लिए अतुल धन व्यय किया था। मेरे पास अमूल्य प्याले, मूर्तियां और चित्र हैं। मेरे विचार में उनको जलाना भी अनुचित होगा। लेकिन मैं इस विषय में कोई आगरह नहीं करती। पूज्य पिता, आपकी जैसी इच्छा हो कीजिए।’
यह कहकर वह पापनाशी के पीछेपीछे अपने गृहद्वार पर पहुंची जिस पर अगणित मनुष्यों के हाथों से हारों और पुष्पमालाओं की भेंट पा चुकी थी, और जब द्वार खुला तो उसने द्वारपाल से कहा कि घर के समस्त सेवकों को बुलाओ। पहले चार भारतवासी आये जो रसोई का काम करते थे। वह सब सांवले रंग के और काने थे। थायस को एक ही जाति के चार गुलाम, और चारों काने, बड़ी मुश्किल से मिले, पर यह उसकी एक दिल्लगी थी और जब तक चारों मिल न गये थे, उसे चैन न आता था। जब वह मेज पर भोज्यपदार्थ चुनते थे तो मेहमानों को उन्हें देखकर बड़ा कुतूहल होता था। थायस परत्येक का वृत्तान्त उसके मुख से कहलाकर मेहमानों का मनोरंजन करती थी। इस चारों के उनके सहायक आये। तब बारीबारी से साईस, शिकारी, पालकी उठाने वाले, हरकारे जिनकी मासपेशियां अत्यन्त सुदृ़ थीं, दो कुशल माली, छः भयंकर रूप के हब्शी और तीन यूनानी गुलाम, जिनमें एक वैयाकरण था, दूसरा कवि और तीसरा गायक सब आकर एक लम्बी कतार मंें खड़े हो गये। उनके पीछे हब्शिनें आयीं जिनकी बड़ीबड़ी गोल आंखों में शंका, उत्सुकता और उद्विग्नता झलक रही थी, और जिनके मुख कानों तक फटे हुए थे। सबके पीछे छः तरुणी रूपवती दासियां, अपनी नकाबों को संभालती और धीरेधीरे बेड़ियों से जकड़े हुए पांव उठाती आकर उदासीन भाव से खड़ी हुईं।
जब सबके-सब जमा हो गये तो थायस ने पापनाशी की ओर उंगली उठाकर कहा-‘देखो, तुम्हें यह महात्मा जो आज्ञा दें उसका पालन करो। यह ईश्वर के भक्त हैं। जो इनकी अवज्ञा करेगा वह खड़ेखड़े मर जायेगा।’
उसने सुना था और इस पर विश्वास करती थी कि धमार्श्रम के संत जिस अभागे पुरुष पर कोप करके छड़ी से मारते थे, उसे निगलने के लिए पृथ्वी अपना मुंह खोल देती थी।
पापनाशी ने यूनानी दासों और दासियों को सामने से हटा दिया। वह अपने ऊपर उनका साया भी न पड़ने देना चाहता था और शेष सेवकों से कहा-‘यहां बहुतसी लकड़ी जमा करो, उसमें आग लगा दो और जब अग्नि की ज्वाला उठने लगे तो इस घर के सब साजसामान मिट्टी के बर्तन से लेकर सोने के थालों तक, टाट के टुकड़े से लेकर, बहुमूल्य कालीनों तक, सभी मूर्तियां, चित्र, गमले, गड्डमड्ड करके इसी चिता में डाल दो, कोई चीज बाकी न बचे।’
यह विचित्र आज्ञा सुनकर सबके-सब विस्मित हो गये, और अपनी स्वामिनी की ओर कातर नेत्रों से ताकते हुए मूर्तिवत खड़े रह गये। वह अभी इसी अकर्मण्य दशा में अवाक और निश्चल खड़े थे, और एकदूसरे को कुहनियां गड़ाते थे, मानो वह इस हुक्म को दिल्लगी समझ रहे हैं कि पापनाशी ने रौद्ररूप धारण करके कहा-‘क्यों बिलम्ब हो रहा है ?’
इसी समय थायस नंगे पैर, छिटके हुए केश कन्धों पर लहराती घर में से निकली। वह भद्दे मोटे वस्त्र धारण किये हुए थी, जो उसके देहस्पर्श मात्र से स्वगीर्य, कामोत्तेजक सुगन्धि से परिपूरित जान पड़ते थे। उसके पीछे एक माली एक छोटीसी हाथीदांत की मूर्ति छाती से लगाये लिये आता था।
पापनाशी के पास आकर थायस ने मूर्ति उसे दिखाई और कहा-‘पूज्य पिता, क्या इसे भी आग में डाल दूं ? पराचीन समय की अद्भुत कारीगरी का नमूना है और इसका मूल्य शतगुण स्वर्ण से कम नहीं। इस क्षति की पूर्ति किसी भांति न हो सकेगी, क्योंकि संसार में एक भी ऐसा निपुर्ण मूर्तिकार नहीं है जो इतनी सुन्दर एरास (परेम का देवता) की मूर्ति बना सके। पिता, यह भी स्मरण रखिए कि यह परेम का देवता है; इसके साथ निर्दयता करना उचित नहीं। पिता, मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि परेम का अधर्म से कोई सम्बन्ध नहीं, और अगर मैं विषयभोग में लिप्त हुई तो परेम की परेरणा से नहीं, बल्कि उसकी अवहेलना करके, उसकी इच्छा के विरुद्ध व्यवहार करके। मुझे उन बातों के लिए कभी पश्चात्ताप न होगा जो मैंने उसके आदेश का उल्लंघन करके की हैं। उसकी कदापि यह इच्छा नहीं है कि स्त्रियां उन पुरुषों का स्वागत करें जो उसके नाम पर नहीं आते। इस कारण इस देवता की परतिष्ठा करनी चाहिए। देखिए पिताजी, यह छोटासा एरास कितना मनोहर है। एक दिन निसियास ने, जो उन दिनों मुझ पर परेम करता था इसे मेरे पास लाकर कहा-आज तो यह देवता यहीं रहेगा और तुम्हें मेरी याद दिलायेगा। पर इस नटखट बालक ने मुझे निसियास की याद तो कभी नहीं दिलाई; हां, एक युवक की याद नित्य दिलाता रहा जो एन्टिओक में रहता था और जिसके साथ मैंने जीवन का वास्तविक आनन्द उठाया। फिर वैसा पुरुष नहीं मिला यद्यपि मैं सदैव उसकी खोज में तत्पर रही। अब इस अग्नि को शान्त होने दीजिए, पिताजी ! अतुल धन इसकी भेंट हो चुका। इस बालमूर्ति को आश्रय दीजिए और इसे स्वरक्षित किसी धर्मशाला में स्थान दिला दीजिए। इसे देखकर लोगों के चित्त ईश्वर की ओर परवृत्त होंगे, क्योंकि परेम स्वभावतः मन में उत्कृष्ट और पवित्र विचारों को जागृत करता है।’
थायस मन में सोच रही थी कि उसकी वकालत का अवश्य असर होगा और कमसे-कम यह मूर्ति तो बच जायेगी। लेकिन पापनाशी बाज की भांति झपटा, माली के हाथ से मूर्ति छीन ली, तुरन्त उसे चिता में डाल दिया और निर्दय स्वर में बोला-‘जब यह निसियास की चीज है और उसने इसे स्पर्श किया है तो मुझसे इसकी सिफारिश करना व्यर्थ है। उस पापी का स्पर्शमात्र समस्त विकारों से परिपूरित कर देने के लिए काफी है।’
तब उसने चमकते हुए वस्त्र, भांतिभांति के आभूषण, सोने की पादुकाएं, रत्नजटित कंघियां, बहुमूल्य आईने, भांतिभांति के गानेबजाने की वस्तुएं सरोद, सितार, वीण, नाना परकार के फानूस, अंकवारों में उठाउठाकर झोंकना शुरू किया। इस परकार कितना धन नष्ट हुआ, इसका अनुमान करना है। इधर तो ज्वाला उठ रही थी, चिनगारियां उड़ रही थीं, चटाकपटाक की निरन्तर ध्वनि सुनाई देती थी, उधर हब्शी गुलाम इस विनाशक दृश्य से उन्मत्त होकर तालियां बजाबजाकर और भीषण नाद से चिल्लाचिल्लाकर नाच रहे थे। विचित्र दृश्य था, धमोर्त्साह का कितना भयंकर रूप !
इन गुलामों में से कई ईसाई थे। उन्होंने शीघर ही इस परकार का आश्य समझ लिया और घर में ईंधन और आग लाने गये। औरों ने भी उनका अनुकरण किया, क्योंकि यह सब दरिद्र थे और धन से घृणा करते थे और धन से बदला लेने की उनमें स्वाभाविक परवृत्ति थी-जो धन हमारे काम नहीं आता, उसे नष्ट ही क्यों न कर डालें ! जो वस्त्र हमें पहनने को नहीं मिल सकते, उन्हें जला ही क्यों न डालें ! उन्हें इस परवृत्ति की शांत करने का यह अच्छा अवसर मिला। जिन वस्तुओं ने हमें इतने दिनों तक जलाया है, उन्हें आज जला देंगे। चिता तैयार हो रही थी और घर की वस्तुएं बाहर लाई जा रही थीं कि पापनाशी ने थायस से कहा-पहले मेरे मन में यह विचार हुआ कि इस्कन्द्रिया के किसी चर्च के कोषाध्यक्ष को लाऊं (यदि अभी कोई ऐसा स्थान है जिसे चर्च कहा जा सके, और जिसे एरियन के भरष्टाचरण से भरष्ट न कर दिया।) और उसे तेरी सम्पूर्ण सम्पत्ति दे दूं कि वह उन्हें अनाथ विधवाओं और बालकों को परदान कर दे और इस भांति पापोपार्जित धन का पुनीत उपयोग हो जाये। लेकिन एक क्षण में यह विचार जाता रहा; क्योंकि ईश्वर ने इसकी परेरणा न की थी। मैं समझ गया कि ईश्वर को कभी मंजूर न होगा कि तेरे पाप की कमाई ईसू के पिरय भक्तों को दी जाये। इससे उनकी आत्मा को घोर दुःख होगा। जो स्वयं दरिद्र रहना चाहते हैं, स्वयं कष्ट भोगना चाहते हैं, इसलिए कि इससे उनकी आत्मा शुद्ध होगी, उन्हें यह कलुषित धन देकर उनकी आत्मशुद्धि के परत्यन को विफल करना उनके साथ बड़ा अन्याय होगा। इसलिए मैं निश्चय कर चुका हूं कि तेरा सर्वस्व अग्नि का भोजन बन जाये, एक धागा भी बाकी न रहे ! ईश्वर को कोटि धन्यवाद देता हूं कि तेरी नाकबें और चोलियां और कुर्तियां जिन्होंने समुद्र की लहरों से भी अगण्य चुम्बनों का आस्वादन किया है, आज ज्वाला के मुख और जिह्वा का अनुभव करेंगी। गुलामो, दौड़ो और लकड़ी लाओ, और आग लाओ, तेल के कुप्पे लाकर लु़का दो, अगर और कपूर और लोहबान छिड़क दो जिसमें ज्वाला और भी परचण्ड हो जाये ! और थायस, तू घर में जा, अपने घृणित वस्त्रों को उतार दे, आभूषणों को पैरों तले कुचल दे, और अपने सबसे दीन गुलाम से परार्थना कर कि वह तुझे अपना मोटा कुरता दे दे; यद्यपि तू इस दान को पाने योग्य नहीं है, जिसे पहनकर वह तेरे फर्श पर झाड़ लगाता है।
थायस ने कहा-‘मैंने इस आज्ञा को शिरोधार्य किया।’
जब तक चारों भारतीय काने बैठकर आग झोंक रहे थे, हब्शी गुलामों ने चिता में बड़ेबड़े हाथीदांत, आबनूस और सागौन के सन्दूक डाल दिये जो धमाके से टूट गये और उनमें से बहुमूल्य रत्नजटित आभूषण निकल पड़े। अलाव में से धुएं के कालेकाले बादल उठ रहे थे। तब अग्नि जो अभी तक सुलग रही थी, इतना भीषण शब्द करके धंधक उठी, मानो कोई भयंकर वनपशु गरज उठा, और ज्वालाजिह्वा जो सूर्य के परकाश में बहुत धुंधली दिखाई देती थी, किसी राक्षस की भांति अपने शिकार को निगलने लगी। ज्वाला ने उत्तेजित होकर गुलामों को भी उत्तेजित किया। वे दौड़दौड़कर भीतर से चीजें बाहर लाने लगे। कोई मोटीमोटी कालीनें घसीटे चला आता था, कोई वस्त्र के गट्ठर लिये दौड़ा आता था। जिन नकाबों पर सुनहरा काम किया हुआ था, जिन परदों पर सुन्दर बेलबूटे बने हुए थे, सभी आग में झोंक दिये गये। अग्नि मुंह पर नकाब नहीं डालना चाहती और न उसे परदों से परेम है। वह भीषण और नग्न रहना चाहती है। तब लकड़ी के सामानों की बारी आयी। भारी मेज, कुर्सियां, मोटेमोटे गद्दे, सोने की परियों से सुशोभित पलंग गुलामों से उठते ही न थे। तीन बलिष्ठ हब्शी परियों की मूर्तियां छाती से लगाये हुए लाये। इन मूर्तियों में एक इतनी सुन्दर थी कि लोग उससे स्त्री कासा परेम करते थे। ऐसा जान पड़ता था कि तीन जंगली बन्दर तीन स्त्रियों को उठाये भागे जाते हैं ! और जब यह तीनों सुन्दर नग्न मूर्तियां, इन दैत्यों के हाथ से छूटकर गिरीं और टुकड़ेटुकड़े हो गयीं, तो गहरी शोकध्वनि कानों में आयी।
यह शोर सुनकर पड़ोसी एकएक करके जागने लगे और आंखें मलमलकर खिड़कियों से देखने लगे कि यह धुआं कहां से आ रहा है। तब उसकी अर्धनग्न दशा में बाहर निकल पड़े और अलाव के चारों ओर जमा हो गये।
यह माजरा क्या है ? यही परश्न एक दूसरे से करता था।
इन लोगों में वह व्यापारी थे जिनसे थायस इत्र, तेल, कपड़े आदि लिया करती थी, और वह सचिन्त भाव से मुंह लटकाये ताक रहे थे। उनकी समझ में कुछ न आता था कि यह क्या हो रहा है। कई विषयभोगी पुरुष जो रात भर के विलास के बाद सिर पर हार लपेटे, कुरते पहने गुलामों के पीछे जाते हुए उधर से निकले तो यह दृश्य देखकर ठिठक गये और जोरजोर से तालियां बजाकर चिल्लाने लगे। धीरेधीरे कुतूहलवश और लोग आ गये और बड़ी भीड़ जमा हो गयी। तब लोगों को ज्ञात हुआ कि थायस धमार्श्रम के तपस्वी पापनाशी के आदेश से अपनी समस्त सम्पत्ति जलाकर किसी आश्रम में परविष्ट होने आ रही है।
दुकानदानों ने विचार किया-थायस यह नगर छोड़कर चली जा रही है। अब हम किसके हाथ अपनी चीजें बेचेंगे ? कौन हमें मुंहमांगे दाम देगा। यह बड़ा घोर अनर्थ है। थायस पागल हो गयी है क्या ? इस योगी ने अवश्य उस पर कोई मन्त्र डाल दिया है, नहीं तो इतना सुखविलास छोड़कर तपस्विनी बन जाना सहज नहीं है। उसके बिना हमारा निवार्ह क्योंकर होगा! वह हमारा सर्वनाश किये डालती है। योगी को क्यों ऐसा करने दिया जाये? आखिर कानून किसलिए है ? क्या इस्कन्द्रिया में कोई नगर का शासक नहीं ? थायस को हमारे बालबच्चों की जरा भी चिन्ता नहीं है उसे शहर में रहने के लिए मजबूर करना चाहिए। धनी लोग इसी भांति नगर छोड़कर चले जायेंगे तो हम रह चुके। हम राज्यकर कहां से देंगे ?
युवकगण को दूसरे परकार की चिन्ता थी-अगर थायस इस भांति निर्दयता से नगर से जायेगी तो नाट्यशालाओं को जीवित कौन रखेगा ? शीघर ही उनमें सन्नाटा छा जायेगा, हमारे मनोरंजन की मुख्य सामगरी गायब हो जायेगी, हमारा जीवन शुष्क और नीरस हो जायेगा। वह रंगभूमि का दीपक, आनन्द, सम्मान, परतिभा और पराण थी। जिन्होंने उसके परेम का आनन्द नहीं उठाया था, वह उसके दर्शन मात्र ही से कृतार्थ हो जाते थे। अन्य स्त्रियों से परेम करते हुए भी वह हमारे नेत्रों के सामने उपस्थित रहती थी। हम विलासियों की तो जीवनधारा थी। केवल यह विचार कि वह इस नगर में उपस्थित है, हमारी वासनाओं को उद्दीप्त किया करता था। जैसे जल की देवी वृष्टि करती है, अग्नि की देवी जलाती है, उसी भांति यह आनन्द की देवी हृदय में आनन्द का संचार करती थी।
समस्त नगर में हलचल मची हुई थी। कोई पापनाशी को गालियां देता था, कोई ईसाई धर्म को और कोई स्वयं परभु मसीह को सलवातें सुनाता था। और थायस के त्याग की भी बड़ी तीवर आलोचना हो रही थी। ऐसा कोई समाज न था जहां कुहराम न मचा हो।
‘यों मुंह छिपाकर जाना लज्जास्पद है !’
‘यह कोई भलमनसाहत नहीं है !’
‘अजी, यह तो हमारे पेट की रोटियां छीने लेती है !’
‘वह आने वाली सन्तान को अरसिक बनाये देती है। अब उन्हें रसिकता का उपदेश कौन देगा ?’
‘अजी, उसने तो अभी हमारे हारों के दाम भी नहीं दिये।’
‘मेरे भी पचास जोड़ों के दाम आते हैं।’
‘सभी का कुछन-कुछ उस पर आता है।’
‘जब वह चली जायेगी तो नायिकाओें का पार्ट कौन खेलेगा ?’
‘इस क्षति की पूर्ति नहीं हो सकती।’
‘उसका स्थान सदैव रिक्त रहेगा।’
‘उसके द्वार बन्द हो जायेंगे तो जीवन का आनन्द ही जाता रहेगा।’
‘वह इस्कन्द्रिया के गगन का सूर्य थी।’
इतनी देर में नगर भर के भिक्षुक, अपंग, लूले, लंगड़े, को़ी, अन्धे सब उस स्थान पर जमा हो गये और जली हुई वस्तुओं को टटोलते हुए बोले-अब हमारा पालन कौन करेगा ? उसकी मेज का जूठन खाकर दो सौ अभागों के पेट भर जाते थे ? उसके परेमीगण चलते समय हमें मुट्ठियां भर रुपयेपैसे दान कर देते थे।
चोरचकारों की भी बन आयी। वह भी आकर इस भीड़ में मिल गये और शोर मचामचाकर अपने पास के आदमियों को केलने लगे कि दंगा हो जाये और उस गोलमाल में हम भी किसी वस्तु पर हाथ साफ करें। यद्यपि बहुत कुछ जल चुका था, फिर भी इतना शेष था कि नगर के सारे चोरचंडाल अयाची हो जाते !
इस हलचल में केवल एक वृद्ध मनुष्य स्थिरचित्त दिखाई देता था। वह थायस के हाथों दूर देशों से बहुमूल्य वस्तु लालाकर बेचता था और थायस पर उसके बहुत रुपये आते थे। वह सबकी बातें सुनता था, देखता था कि लोग क्या करते हैं। रहरहकर दा़ी पर हाथ फेरता था और मन में कुछ सोच रहा था। एकाएक उसने एक युवक को सुन्दर वस्त्र पहने पास खड़े देखा। उसने युवक से पूछा-‘तुम थायस के परेमियों में नहीं हो !’
युवक-‘हां, हूं तो बहुत दिनों से।’
वृद्ध-तो जाकर उसे रोकते क्यों नहीं ?’
युवक-‘और क्या तुम समझते हो कि उसे जाने दूंगा ? मन में यही निश्चय करके आया हूं। शेखी तो नहीं मारता लेकिन इतना तो मुझे विश्वास है कि मैं उसके सामने जाकर खड़ा हो जाऊंगा तो वह इस बंदरमुंहे पादरी की अपेक्षा मेरी बातों पर अधिक ध्यान देगी।’
वृद्ध-‘तो जल्दी जाओ। ऐसा न हो कि तुम्हारे पहुंचतेपहुंचते वह सवार हो जाये।’
युवक-‘इस भीड़ को हटाओ।’
वृद्ध व्यापारी ने ‘हटो, जगह दो’ का गुल मचाना शुरू किया और युवक घूसों और ठोकरों से आदमियों को हटाता, वृद्धों को गिराता, बालकों को कुचलता, अन्दर पहुंच गया और थायस का हाथ पकड़कर धीरेसे बोला-‘पिरय, मेरी ओर देखो। इतनी निष्ठुरता ! याद करो, तुमने मुझसे कैसीकैसी बातें की थीं, क्याक्या वादे किये थे, क्या अपने वादों को भूल जाओगी ? क्या परेम का बन्धन इतना ीला हो सकता है ?’
थायस अभी कुछ जवाब न दे पायी थी कि पापनाशी पलककर उसके और थामस के बीच में खड़ा हो गया और डांटकर बोला-‘दूर हट, पापी कहीं का ! खबरदार जो उसकी देह को स्पर्श किया। वह अब ईश्वर की है, मनुष्य उसे नहीं छू सकता।’
युवक ने कड़ककर कहा-‘हट यहां से, वनमानुष ! क्या तेरे कारण अपनी पिरयतमा से न बोलूं ? हट जाओ, नहीं तो यह दा़ी पकड़कर तुम्हारी गन्दी लाश को आग के पास खींच ले जाऊंगा और कबाब की तरह भून डालूंगा। इस भरम में मत रह कि तू मेरे पराणाधार को यों चुपके से उठा ले जायेगा। उसके पहले मैं तुझे संसार से उठा दूंगा !’
यह कहकर उसने थायस के कन्धे पर हाथ रखा। लेकिन पापनाशी ने इतनी जोर से धक्का दिया कि वह कई कदम पीछे लड़खड़ाता हुआ चला गया और बिखरी हुई राख के समीप चारों खाने चित्त गिर पड़ा।
लेकिन वृद्ध सौदागर शान्त न बैठा। वह परत्येक मनुष्य के पास जाजाकर गुलामों के कान खींचता, और स्वामियों के हाथों को चूमता और सभी को पापनाशी के विरुद्ध उत्तेजित कर रहा था कि थोड़ी देर में उसने एक छोटासा जत्था बना लिया जो इस बात पर कटिबद्ध था कि पापनाशी को कदापि अपने कार्य में सफल न होने देगा। मजाल है कि यह पादरी हमारे नगर की शोभा को भगा ले जाये ! गर्दन तोड़ देंगे। पूछो, धमार्श्रम में ऐसी रमणियों की क्या जरूरत ? क्या संसार में विपत्ति की मारी बुयिों की कमी है ? क्या उनके आंसुओं से इन पादरियों को सन्टोष नहीं होता कि युवतियों को भी रोने के लिए मजबूर किया जाये!
युवक का नाम सिरोन था। वह धक्का खाकर गिरा, किन्तु तुरन्त गर्द झाड़कर उठ खड़ा हुआ। उसका मुंह राख से काला हो गया था, बाल झुलस गये थे, त्र्कोध और धुएं से दम घुट रहा था। वह देवताओं को गालियां देता हुआ उपद्रवियों को भड़काने लगा। पीछे भिखारियों का दल उत्पात मचाने पर उद्यत था। एक क्षण में पापनाशी तने हुए घूंसों, उठी हुई लाठियों और अपमानसूचक अपशब्दों के बीच में घिर गया।
एक ने कहा-‘मारकर कौवों को खिला दो !’
‘नहीं जला दो, जीता आग में डाल दो, जलाकर भस्म कर दो !’
लेकिन पापनाशी जरा भी भयभीत न हुआ। उसने थायस को पकड़कर खींच लिया और मेघ की भांति गरजकर बोला-‘ईश्वरद्रोहियों, इस कपोत को ईश्वरीय बीज के चंगुल से छुड़ाने की चेष्टा मत करो, तुम आज जिस आग में जल रहे हो, उसमें जलने के लिए उसे विवश मत करो बल्कि उसकी रीस करो और उसी की भांति अपने खोटे को भी खरा कंचन बना दो। उसका अनुकरण करो, उसके दिखाये हुए मार्ग पर अगरसर हो, और उस ममता को त्याग दो जो तुम्हें बांधे हुए है और जिसे तुम समझते हो कि हमारी है। विलंब न करो, हिसादा का दिन निकट है और ईश्वर की ओर से वजराघात होने वाला ही है। अपने पापों पर पछताओ, उनका परायश्चित करो, तौबा करो, रोओ और ईश्वर से क्षमापरार्थना करो। थायस के पदचिह्नों पर चलो। अपनी कुवासनाओं से घृणा करो जो उससे किसी भांति कम नहीं हैं। तुममें से कौन इस योग्य है, चाहे वह धनी हो या कंगाल, दास हो या स्वामी, सिपाही हो या व्यापारी, जो ईश्वर के सम्मुख खड़ा होकर दावे के साथ कह सके कि मैं किसी वेश्या से अच्छा हूं ? तुम सबके-सब सजीव दुर्गन्ध के सिवा और कुछ नहीं हो और यह ईश्वर की महान दया है कि वह तुम्हें एक क्षण में कीचड़ की मोरियां नहीं बना डालता।’
जब तक वह बोलता रहा, उसकी आंखों से ज्वालासी निकल रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि उसके मुख से आग के अंगारे बरस रहे हैं। जो लोग वहां खड़े थे, इच्छा न रहने पर भी मन्त्र मुग्ध से खड़े उसकी बातें सुन रहे थे।
किन्तु वह वृद्ध व्यापारी ऊधम मचाने में अत्यन्त परवीण था। वह अब भी शांत न हुआ। उसने जमीन से पत्थर के टुकड़े और घोंघे चुन लिये और अपने कुरते के दामन में छिपा लिये, किन्तु स्वयं उन्हें फेंकने का साहस न करके उसने वह सब चीजें भिक्षुकों के हाथों में दे दीं। फिर क्या था ? पत्थरों की वर्षा होने लगी और एक घोंघा पापनाशी के चेहरे पर ऐसा आकर बैठा कि घाव हो गया। रक्त की धारा पापनाशी के चेहरे पर बहबहकर त्यागिनी थायस के सिर पर टपकने लगी, मानो उसे रक्त के बपतिस्मा से पुनः संस्कृत किया जा रहा था। थायस को योगी ने इतनी जोर से भींच लिया था कि उसका दम घुट रहा था और योगी के खुरखुरे वस्त्र से उसका कोमल शरीर छिला जाता था। इस असमंजस में पड़े हुए, घृणा और त्र्कोध से उसका मुख लाल हो रहा था।
इतने में एक मनुष्य भड़कीले वस्त्र पहने, जंगली फूलों की एक माला सिर पर लपेटे भीड़ को हटाता हुआ आया और चिल्लाकर बोला-‘ठहरो, ठहरो, यह उत्पात क्यों मचा रहे हो ? यह योगी मेरा भाई है।’
यह निसियास था, जो वृद्ध यूत्र्कसइटीज कसे कबर में सुलाकर इस मैदान में होता हुआ घर लौटा जा रहा था। देखा तो अलाव जल रहा है, उसमें भांतिभांति की बहुमूल्य वस्तुएं पड़ी सुलग रही हैं, थायस एक मोटी चादर ओ़े खड़ी है और पापनाशी पर चारों ओर से पत्थरों की बौछार हो रही है। वह यह दृश्य देखकर विस्मित तो नहीं हुआ, वह आवेशों से वशीभूत न होता था। हां, ठिठक गया और पापनाशी को इस आत्र्कमण से बचाने की चेष्टा करने लगा।
उसने फिर कहा-‘मैं मना कर रहा हूं, ठहरो, पत्थर न फेंको। यह योगी मेरा पिरय सहपाठी है। मेरे पिरय मित्र पापनाशी पर अत्याचार मत करो।’
किन्तु उसकी ललकार का कुछ असर न हुआ। जो पुरुष नैयायिकों के साथ बैठा हुआ बाल की खाल निकालने ही में कुशल हो, उसमें वह नेतृत्वशक्ति कहां जिसके सामने जनता के सिर झुक जाते हैं। पत्थरों और घोघों की दूसरी बौछार पड़ी, किन्तु पापनाशी थायस को अपनी देह से रक्षित किये हुए पत्थरों की चोटें खाता था और ईश्वर को धन्यवाद देता था जिसकी दयादृष्टि उनके घावों पर मरहम रखती हुई जान पड़ती थी। निसियास ने जब देखा कि यहां मेरी कोई नहीं सुनता और मन में यह समझकर कि मैं अपने मित्र की रक्षा न तो बल से कर सकता हूं न वाक्चातुरी से, उसने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया। (यद्यपि ईश्वर पर उसे अणुमात्र भी विश्वास न था।) सहसा उसे एक उपाय सूझा। इन पराणियों को वह इतना नीच समझता था कि उसे अपने उपाय की सफलता पर जरा भी सन्देह न रहा। उसने तुरन्त अपनी थैली निकाल ली, जिसमें रुपये और अशर्फियां भरी हुई थीं। वह बड़ा उदार, विलासपरेमी पुरुष था, और उन मनुष्यों के समीप जाकर जो पत्थर फेंक रहे थे, उनके कानों के पास मुद्राओं को उसने खनखनाया। पहले तो वे उससे इतने झल्लाये हुए थे, लेकिन शीघर ही सोने की झंकार ने उन्हें लुब्ध कर दिया, उनके हाथ नीचे को लटक गये। निसियास ने जब देखा कि उपद्रवकारी उसकी ओर आकर्षित हो गए तो उसने कुछ रुपये और मोहरें उनकी ओर फेंक दीं। उनमें से जो ज्यादा लोभी परकृति के थे, वह झुकझुककर उन्हें चुनने लगे। निसियास अपनी सफलता पर परसन्न होकर मुट्ठियां भरभर रुपये आदि इधरउधर फेंकने लगा। पक्की जमीन पर अशर्फियों के खनकने की आवाज सुनकर पापनाशी के शत्रुओं का दल भूमि पर सिजदे करने लगा। भिक्षु गुलाम छोटेमोटे दुकानदार, सबके-सब रुपये लूटने के लिए आपस में धींगामुश्ती करने लगे और सिरोन तथा अन्य भद्रसमाज के पराणी देर से यह तमाशा देखते थे और हंसतेहंसते लोट जाते थे। स्वयं सिरोन का त्र्कोध शान्त हो गया। उसके मित्रों ने लूटने वाले परतिद्वन्द्वियां को भड़काना शुरू किया मानो पशुओं को लड़ा रहे हों। कोई कहता था, अब की यह बाजी मारेगा, इस पर शर्त बदता हूं, कोई किसी दूसरे योद्घा का पक्ष लेता था, और दोनों परतिपक्षियों में सैकड़ों की हारजीत हो जाती थी। एक बिना टांगों वाले पंगुल ने जब एक मोहर पायी तो उसके साहस पर तालियां बजने लगीं। यहां तक कि सबने उस पर फूल बरसाये। रुपये लुटाने का तमाशा देखतेदेखते यह युवक वृन्द इतने खुश हुए कि स्वयं लुटाने लगे और एक क्षण में समस्त मैदान में सिवाय पीठों के उठने और गिरने के और कुछ दिखाई ही न देता था, मानो समुद्र की तरंगें चांदीसोने के सिक्कों के तूफान से आन्दोलित हो रही हों। पापनाशी को किसी की सुध ही न रही।
तब निसियास उसके पास लपककर गया, उसने अपने लबादे में छिपा लिया और थायस को उसके साथ एक पास की गली में खींच ले गया जहां विद्रोहियों से उनका गला छूटा। कुछ देर तक तो वह चुपचाप दौड़े, लेकिन जब उन्हें मालूम हो गया कि हम काफी दूर निकल आये और इधर कोई हमारा पीछा करने न आयेगा तो उन्होंने दौड़ना छोड़ दिया। निसियास ने परिहासपूर्ण स्वर में कहा-‘लीला समाप्त हो गयी। अभिनय का अंत हो गया। थायस अब नहीं रुक सकती। वह अपने उद्घारकर्ता के साथ अवश्य जायेगी, चाहे वह उसे जहां ले जाये।’
थायस ने उत्तर दिया-‘हां, निसियास, तुम्हारा कथन सर्वथा निमूर्ल नहीं है। मैं तुम जैसे मनुष्यों के साथ रहतेरहते तंग आ गयी हूं, जो सुगन्ध से बसे, विलास में डूबे हुए, सहृदय आत्मसेवी पराणी हैं। जो कुछ मैंने अनुभव किया है, उससे मुझे इतनी घृणा हो गई है कि अब मैं अज्ञात आनन्द की खोज में जा रही हूं। मैंने उस सुख को देखा है जो वास्तव में सुख नहीं था, और मुझे एक गुरु मिला है जो बतलाता है कि दुःख और शोक ही में सच्चा आनन्द है। मेरा उस पर विश्वास है क्योंकि उसे सत्य का ज्ञान है।’
निसियास ने मुस्कराते हुए कहा-‘और पिरये, मुझे तो सम्पूर्ण सत्यों का ज्ञान पराप्त है। वह केवल एक ही सत्य का ज्ञाता है, मैं सभी सत्यों का ज्ञाता हूं। इस दृष्टि से तो मेरा पद उसके पद से कहीं ऊंचा है, लेकिन सच पूछो तो इससे न कुछ गौरव पराप्त होता है, न कुछ आनन्द।’
तब यह देखकर कि पापनाशी मेरी ओर तापमय नेत्रों से ताक रहा है, उसने सम्बोधित करके कहा-‘पिरय मित्र पापनाशी, यह मत सोचो कि मैं तुम्हें निरा बुद्घू, पाखण्डी या अन्धविश्वासी समझता हूं। यदि मैं अपने जीवन की तुम्हारे जीवन से तुलना करुं, तो मैं स्वयं निश्चय न कर सकूंगा कि कौन श्रेष्ठ है। मैं अभी यहां से जाकर स्नान करुंगा, दासों ने पानी तैयार कर रखा होगा, तब उत्तम वस्त्र पहनकर एक तीतर के डैनों का नाश्ता करुंगा, और आनन्द से पलंग पर लेटकर कोई कहानी पू़ंगा या किसी दार्शनिक के विचारों का आस्वादन करुंगा। यद्यपि ऐसी कहानियां बहुत पॄ चुका हूं और दार्शनिकों के विचारों में भी कोई मौलिकता या नवीनता नहीं रही। तुम अपनी कुटी में लौटकर जाओगे और वहां किसी सिधाये हुए ऊंट की भांति झुंककर कुछ जुगालीसी करोगे, कदाचित कोई एक हजार बार के चबाये हुए शब्दाडम्बर को फिर से चबाओगे, और सन्ध्या समय बिना बघारी हुई भाजी खाकर जमीन पर लेटे रहोगे। किन्तु बन्धुवर, यद्यपि हमारे और तुम्हारे मार्ग पृथक है, यद्यपि हमारे ओर तुम्हारे कार्यत्र्कम में बड़ा अन्तर दिखाई पड़ता है, लेकिन वास्तव में हम दोनों एक ही मनोभाव के अधीर कार्य कर रहे हैं-वही जो समस्त मानव कृत्यों का एकमात्र कारण है। हम सभी सुख के इच्छुक हैं, सभी एक ही लक्ष्य पर पहुंचना चाहते हैं। सभी का अभीष्ट एक ही है-आनन्द, अपराप्त आनन्द, असम्भव आनन्द। यही मेरी मूर्खता होगी अगर में कहूं कि तुम गलती पर हो यद्यपि मेरा विचार है कि मैं सत्य पर हूं।
‘और पिरये थायस, तुमसे भी मैं यही कहूंगा कि जाओ और अपनी जिन्दगी के मजे उठाओ, और यदि यह बात असम्भव न हो, तो त्याग और तपस्या में उससे अधिक आनन्दलाभ करो जितना तुमने भोग और विलास में किया है। सभी बातों का विचार करके मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे ऊपर लोगों को हसद होता था क्योंकि यदि पापनाशी ने और मैंने अपने समस्त जीवन में एक ही एक परकार के आनन्दों का आस्वादन किया है जो बिरले ही किसी मनुष्य को पराप्त हो सकते हैं। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि एक घण्टे के लिए मैं बन्धु पापनाशी की तरह सन्त हो जाता। लेकिन यह सम्भव नहीं। इसलिए तुमको भी विदा करता हूं, जाओ जहां परकृति की गुप्त शक्तियां और तुम्हारा भाग्य तुम्हें ले जाय ! जाओ जहां तुम्हारी इच्छा हो, निसियास की शुभेच्छाएं तुम्हारे साथ रहेंगी। मैं जानता हूं कि इस समय अनर्गल बातें कर रहा हूं, इस पर असार शुभकामनाओं और निर्मूल पछतावे के सिवाय, मैं उस सुखमय भरांति का क्या मूल्य दे सकता हूं जो तुम्हारे परेम के दिनों में मुझ पर छायी रहती थीं और जिसकी स्मृति छाया की भांति मेरे मन में रह गयी है ? जाओ मेरी देवी, जाओ, तुम परोपकार की मूर्ति हो जिसे अपने अस्तित्व का ज्ञान नहीं, तुम लीलामयी सुषमा हो। नमस्कार है उस सर्वश्रेष्ठ, सवोर्त्कृष्ट मायामूर्ति को जो परकृति ने किसी अज्ञात कारण से इस असार, मायावी संसार को परदान की है।’
पापनाशी के हृदय पर इस कथन का एकएक शब्द वजर के समान पड़ रहा था। अन्त में वह इन अपशब्दों से परतिध्वनित हुआ-हा ! दुर्जन, दुष्ट, पापी ! मैं तुझसे घृणा करता हूं और तुझे तुच्छ समझता हूं ! दूर हो यहां से, नरक के दूत, उन दुर्बल, दुःखी म्लेच्छों से भी हजार गुना निकृष्ट, जो अभी मुझे पत्थरों और दुर्वचनों का निशाना बना रहे थे ! वह अज्ञानी थे, मूर्ख थे; उन्हें कुछ ज्ञान न था कि हम क्या कर रहे हैं और सम्भव है कि कभी उन पर ईश्वर की दयादृष्टि फिरे और मेरी परार्थनाओं के अनुसार उनके अन्तःकरण शुद्ध हो जायें लेकिन निसियास, अस्पृश्य पतित निसियास, तेरे लिए कोई आशा नहीं है, तू घातक विष है। तेरे मुख से नैराश्य और नाश के शब्द ही निकलते हैं। तेरे एक हास्य से उससे कहीं अधिक नास्तिकता परवाहित होती है जितनी शैतान के मुख से सौ वर्षों में भी न निकलती होगी।
निसियास ने उसकी ओर विनोदपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा-‘बन्धुवर, परणाम ! मेरी यही इच्छा है कि अन्त तक तुम विश्वास, घृणा और परेम के पथ पर आऱु रहो। इसी भांति तुम नित्य अपने शत्रुओं को कोसते और अपने अनुयायियों से परेम करते रहो। थायस, चिरंजीवी रहो। तुम मुझे भूल जाओगी, किन्तु मैं तुम्हें न भूलूंगा। तुम यावज्जीवन मेरे हृदय में मूर्तिमान रहोगी।’
उनसे बिदा होकर निसियास इस्कन्द्रिया की कबिरस्तान के निकट पेचदार गलियों में विचारपूर्ण गति से चला। इस मार्ग में अधिकतर कुम्हार रहते थे, जो मुर्दों के साथ दफन करने के लिए खिलौने, बर्तन आदि बनाते थे। उनकी दुकानें मिट्टी की सुन्दर रंगों से चमकती हुई देवियों, स्त्रियों उड़ने वाले दूतों और ऐसी ही अन्य वस्तुओं की मूर्तियों से भरी हुई थीं। उसे विचार हुआ, कदाचित इन मूर्तियों में कुछ ऐसी भी हों जो महानिद्रा में मेरा साथ दें और उसे ऐसा परतीत हुआ मानो एक छोटी परेम की मूर्ति मेरा उपहास कर रही है। मृत्यु की कल्पना ही से उसे दुःख हुआ। इस विवाद को दूर करने के लिए उसने मन में तर्क किया-इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि काल या समय कोई चीज नहीं। वह हमारी बुद्धि की भरांतिमात्र है, धोखा है। तो जब इसकी सत्ता ही नहीं तो वह मेरी मृत्यु को कैसे ला सकता है। क्या इसका यह आशय है कि अनन्तकाल तक मैं जीवित रहूंगा ? क्या मैं भी देवताओं की भांति अमर हूं ? नहीं, कदापि नहीं। लेकिन इससे यह अवश्य सिद्धि होता है कि वह इस समय है, सदैव से है, और सदैव रहेगा। यद्यपि मैं अभी इसका अनुभव नहीं कर रहा हूं, पर यह मुझमें विद्यमान है और मुझे उससे शंका न करनी चाहिए, क्योंकि उस वस्तु के आने से डरना, जो पहले ही आ चुकी है हिमाकत है। यह किसी पुस्तक के अन्तिम ष्पृठ के समान उपस्थित है, जिसे मैंने पॄा है, पर अभी समाप्त नहीं कर चुका हूं।
उसका शेष रास्ता इस वाद में कट गया, लेकिन इससे उसके चित्त को शान्ति न मिली, और जब यह घर पहुंचा तो उसका मन विवादपूर्ण विचारों से भरा हुआ था। उसकी दोनों युवती दासियां परसन्न, हंसहंसकर टेनिस खेल रही थीं। उनकी हास्यध्वनि ने अन्त में उसके दिल का बोझ हल्का किया।
पापनाशी और थामस भी शहर से निकलकर समुद्र के किनारेकिनारे चले। रास्ते में पापनाशी बोला-‘थायस, इस विस्तृत सागर का जल भी तेरी कालिमाओं को नहीं धो सकता।’ यह कहतेकहते उसे अनायास क्रोध आ गया। थायस को धिक्कारने लगा-‘तू कुतियों और शूकरियों से भी भरष्ट है, क्योंकि तूने उस देह को जो ईश्वर ने तुझे इस हेतु दिया था कि तू उसकी मूर्ति स्थापित करे, विधर्मियों और म्लेच्छों द्वारा दलित कराया है और तेरा दुराचरण इतना अधिक है कि तू बिना अन्तःकरण में अपने परति घृणा का भाव उत्पन्न किये न ईश्वर की परार्थना कर सकती है न वन्दना।’
धूप के मारे जमीन से आंच निकल रही थी और थायस आपने नये गुरु के पीछे सिर झुकाये पथरीली सड़कों पर चली जा रही थी। थकान के मारे उसके घुटनों में पीड़ा होने लगी और कंठ सूख गया। लेकिन पापनाशी के मन में दयाभाव का जागना तो दूर रहा, (जो दुरात्माओं को भी नर्म कर देता है) वह उलटे उस पराणी के परायश्चित पर परसन्न हो रहा था जिस के पापों का वारापार न था। वह धमोर्त्साह से इतना उत्तेजित हो रहा था कि उसे देह को लोहे के सांगों से छेदने में भी उसे संकोच न होता जिसका सौन्दर्य उसकी कलुषता का मानो उज्ज्वल परमाण था। ज्योंज्यों वह विचार में मग्न होता था, उसका परकोप औरभी परचण्ड होता जाता था। जब उसे याद आता था कि निसियास उसके साथ सहयोग करचुका है तो उसका रक्त खौलने लगता था और ऐसा जान पड़ता था कि उसकी छाती फट जायेगी। अपशब्द उसके होंठों पर आआकर रुक जाते थे और वह केवल दांत पीसपीसकररह जाता था। सहसा वह उछलकर, विकराल रूप धारण किये हुए उसके सम्मुख खड़ा हो गया और उसके मुंह पर थूक दिया। उसकी तीवर दृष्टि थायस के हृदय में चुभी जाती थी!
थायस ने शान्तिपूर्वक अपना मुंह पोंछ लिया और पापनाशी के पीछे चलती रही। पापनाशी उसकी ओर ऐसी कठोर दृष्टि से ताकता था मानो वह सन्देह नरक है। उसे यह चिन्ता हो रही थी कि मैं इससे परभु मसीह का बदला क्योंकर लूं, क्योंकि थायस ने मसीह को अपने कुकृत्यों से इतना उत्पीड़ित किया था कि उन्हें स्वयं उसे दण्ड देने का कष्ट न उठाना पड़े। अक्समात उसे रुधिर की एक बूंद दिखाई दी जो थायस के पैरों से बहकर मार्ग पर गिरी थी। उसे देखते ही पापनाशी का हृदय दया से प्लावित हो गया, उसकी कठोर आकृति शान्त हो गयी। उसके हृदय में एक ऐसा भाव परविष्ट हुआ जिससे वह अभी अनभिज्ञ था। वह रोने लगा, सिसकियों का तार बंध गया, तब वह दौड़कर उसके सामने माथा ठोंककर बैठ गया और उसके चरणों पर गिरकर कहने लगा-‘बहन, मेरी माता, मेरी देवी’-और उसके रक्त प्लावित चरणों को चूमने लगा।
तब उसने शुद्ध हृदय से यह परार्थना की-ऐ स्वर्ग के दूतो ! इस रक्त की बूंद को सावधानी से उठाओ और इसे परम पिता के सिंहासन के सम्मुख ले जाओ। ईश्वर की इस पवित्र भूमि पर, जहां यह रक्त बहा है, एक अलौकिक पुष्पवृक्ष उत्पन्न हो। उसमें स्वगीर्य सुगन्धयुक्त फूल लिखें और जिन पराणियों की दृष्टि उस पर पड़े और जिनकी नाक में उसकी सुगन्ध पहुंचे, उनके हृदय शुद्ध और उनके विचार पवित्र हो जायें। थायस परमपूज्य थायस ! तुझे धन्य है; आज तूने वह पद पराप्त कर लिया जिसके लिए बड़ेबड़े सिद्ध योगी भी लालायित रहते हैं।
जिस समय वह यह परार्थना और शुभाकांक्षा करने में मग्न था। लड़का गधे पर सवार जाता हुआ मिला। पापनाशी ने उसे उतरने की आज्ञा दी; थायस को गधे पर बिठा दिया और तब उसकी बागडोर पकड़कर ले चला। सूयार्स्त के समय वे एक नहर पर पहुंचे जिस पर सघन वृक्षों का साया था। पापनाशी ने गधे को एक छुहारे के वृक्ष से बांध दिया और काई से की हुई चट्टान पर बैठकर उसने एक रोटी निकाली और उसे नमक और तेल के साथ दोनों ने खाया, चिल्लू से ताजा पानी पिया और ईश्वरीय विषय पर सम्भाषण करने लगे।
थायस बोली-‘पूज्य पिता, मैंने आज तक कभी ऐसा निर्मल जल नहीं पिया, और न ऐसी पराणपरद स्वच्छ वायु में सांस लिया। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि इस समीकरण में ईश्वर की ज्योति परवाहित हो रही है।’
पापनाशी बोला-‘पिरय बहन, देखो संध्या हो रही है। निशा की सूचना देने वाली श्यामला पहाड़ियों पर छाई हुई है। लेकिन शीघर ही मुझे ईश्वरीय ज्योति, ईश्वरीय उषा के सुनहरे परकाश में चमकती हुई दिखाई देगी, शीघर ही तुझे अनन्त परभाव के गुलाबपुष्पों की मनोहर लालिमा आलोकित होती हुई दृष्टिगोचर होगी।
दोनों रात भर चलते रहे। अर्द्धचन्द्र की ज्योति लहरों के उज्ज्वल मुकुट पर जगमगा रही थी; नौकाओं के सफेद पाल उस शान्तिमय ज्योत्स्ना में ऐसे जान पड़ते थे मानो पुनीत आत्माएं स्वर्ग को परयाण कर रही हैं। दोनों पराणी स्तुति और भजन गाते हुए चले जाते थे। थायस के कण्ठ का माधुर्य, पापनाशी की पंचम ध्वनि के साथ मिश्रित होकर ऐसा जान पड़ता कि सुन्दर वस्त्र पर टाट का बखिया कर दिया गया है ! जब दिनकर ने अपना परकाश फैलाया, तो उनके सामने लाइबिया की मरुभूमि एक विस्तृत सिंह चर्म की भांति फैली हुई दिखाई दी। मरुभूमि के उस सिरे पर कई छुहारे के वृक्षों के मध्य में कई सफेद झोंपड़ियां परभात के मन्द परकाश में झलक रही थीं।
थायस ने पूछा-‘पूज्य पिता, क्या वह ईश्वरीय ज्योति का मन्दिर है ?’
‘हां पिरय बहन, मेरी पिरय पुत्री, वही मुक्तिगृह है, जहां मैं तुझे अपने ही हाथों से बन्द करुंगा।’
एक क्षण में उन्हें कई स्त्रियां झोंपड़ियों के आसपास कुछ काम करती हुई दिखाई दीं, मानो मधुमक्खियां अपने छत्तों के पास भिनभिना रही हों। कई स्त्रियां रोटियां पकाती थीं, कई शाकभाजी बना रही थीं, बहुतसी स्त्रियां ऊन कात रही थीं और आकाश की ज्योति उन पर इस भांति पड़ रही थी मानो परम पिता की मधुर मुस्कान है, और कितनी ही तपस्विनियां झाऊ के वृक्षों के नीचे बैठी ईश्वरवन्दना कर रही थीं, उनके गोरेगोरे हाथ दोनों किनारे लटके हुए थे क्योंकि ईश्वर के परेम से परिपूर्ण हो जाने के कारण वह हाथों से कोई काम न करती थीं; केवल ध्यान, आराधना और स्वगीर्य आनन्द में निमग्न रहती थीं। इसलिए उन्हें ‘माता मरियम की पुत्रियां’ कहते थे, और वह उज्ज्वल वस्त्र ही घारण करती थीं। जो स्त्रियां हाथों से कामधन्धा करती थीं, वह ‘माथी की पुत्रियां’ कहलाती थीं और नीचे वस्त्र पहनती थीं। सभी स्त्रियां कनटोप लगाती थीं, केवल युवतियां बालों के दोचार गुच्छे माथे पर निकाले रहती थीं-सम्भवतः वह आपही-आप बाहर निकल आते थे, क्योंकि बालों को संवारना या दिखाना नियमों के विरुद्ध था। एक बहुत लम्बी, गोरी, वृद्ध महिला, एक कुटी से निकलकर दूसरी कुटी में जाती थी। उसके हाथ में लकड़ी की एक जरीब थी। पापनाशी बड़े अदब के साथ उसके समीप गया, उसकी नकाब के किनारों का चुम्बन किया और बोला-‘पूज्या अलबीना, परम पिता तेरी आत्मा को शान्ति दें ! मैं उस छत्ते के लिए जिसकी तू रानी है, एक मक्खी लाया हूं जो पुष्पहीन मैदानों में इधरउधर भटकती फिरती थी। मैंने इसे अपनी हथेली में उठा लिया और अपने श्वासोच्छ्वास से पुनजीर्वित किया। मैं इसे तेरी शरण में लाया हूं।’
यह कहकर उसने थायस की ओर इशारा किया। थायस तुरन्त कैसर की पुत्री के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गयी।
अलबीना ने थायस पर एक मर्मभेदी दृष्टि डाली, उसे उठने को कहा, उसके मस्तक का चुम्बन किया और तब योगी से बोली-‘हम इसे ‘माता मरियम की पुत्रियों’ के साथ रखेंगे।’
पापनाशी ने तब थायस के मुक्तिगृह में आने का पूरा वृत्तान्त कह सुनाया। ईश्वर ने कैसे उसे पररेणा की, कैसे वह इस्कन्द्रिया पहुंचा और किनकिन उपायों से उसके मन में उसने परभु मसीह का अनुराग उत्पन्न किया। इसके बाद उसने परस्ताव किया कि थायस को किसी कुटी में बन्द कर दिया जाय जिससे वह एकान्त में अपने पूर्वजीवन पर विचार करे, आत्मशुद्धि के मार्ग का अवलम्बन करे।
मठ की अध्यक्षिणी इस परस्ताव से सहमत हो गयी। वह थायस को एक कुटी में ले गयी जिसे कुमारी लीटा ने अपने चरणों से पवित्र किया था और जो उसी समय से खाली पड़ी हुई थी। इस तंग कोठरी में केवल एक चारपाई, एक मेज और एक घड़ा था, और जब थायस ने उसके अन्दर कदम रखा, तो चौखट को पार करते ही उसे कथनीय आनन्द का अनुभव हुआ।
पापनाशी ने कहा-‘मैं स्वयं द्वार को बन्द करके उस पर एक मुहर लगा देना चाहता हूं, जिसे परभु मसीह स्वयं आकर अपने हाथों से तोड़ेंगे।’
वह उसी क्षण पास की जलधारा के किनारे गया, उसमें से मुट्ठी भर मिट्टी ली, उसमें अपने मुंह का थूक मिलाया और उसे द्वार के दरवाजों पर म़ दिया। तब खिड़की के पास आकर जहां थायस शान्तचित्त और परसन्नमुख बैठी हुई थी उसने भूमि पर सिर झुकाकर तीन बार ईश्वर की वन्दना की।
‘ओ हो ! उस स्त्री के चरण कितने सुन्दर हैं जो सन्मार्ग पर चलती है ! हां, उसके चरण कितने सुन्दर, कितने कामल और कितने गौरवशील हैं, उसका मुख कितना कान्तिमय!’
यह कहकर वह उठा, कनटोप अपनी आंखों पर खींच लिया और मन्दगति से अपने आश्रम की ओर चला।
अलबीना ने अपनी एककुमारी को बुलाकर कहा-‘पिरय पुत्री, तुम थायस के पास आवश्यक वस्तु पहुंचा दो, रोटियां, पानी और एक तीन छिद्रों वाली बांसुरी।
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