उपन्यास – अलंकार – 5 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)
पापनाशी ने एक नौका पर बैठकर, जो सिरापियन के धमार्श्रम के लिए खाद्यपदार्थ लिये जा रही थी, अपनी यात्रा समाप्त की और निज स्थान को लौट आया। जब वह किश्ती पर से उतरा तो उसके शिष्य उसका स्वागत करने के लिए नदी तट पर आ पहुंचे और खुशियां मनाने लगे। किसी ने आकाश की ओर हाथ उठाये, किसी ने धरती पर सिर झुकाकर गुरु के चरणों को स्पर्श किया। उन्हें पहले ही से अपनी गुरु के कृतकार्य होने का आत्मज्ञान हो गया था। योगियों को किसी गुप्त और अज्ञात रीति से अपने धर्म की विजय और गौरव के समाचार मिल जाते थे, और इतनी जल्द कि लोगों को आश्चर्य होता था। यह समाचार भी समस्त धमार्श्रमों में, जो उस परान्त में स्थित थे, आंधी के वेग के साथ फैल गया।
जब पापनाशी बलुवे मार्ग पर चला तो उसके शिष्य उसके पीछेपीछे ईश्वरकीर्तन करते हुए चले। लेवियन उस संस्था का सबसे वृद्ध सदस्य था। वह धमोर्न्मत्त होकर उच्चस्वर से यह स्वरचित गीत गाने लगा-
आज का शुभ दिन है,
कि हमारे पूज्य पिता ने फिर हमें गोद में लिया।
वह धर्म का सेहरा सिर बांधे हुए आये हैं,
जिसने हमारा गौरव ब़ा दिया है।
क्योंकि पिता का धर्म ही,
सन्तान का यथार्थ धन है।
हमारे पिता की सुकीर्ति की ज्योति से,
हमारी कुटियों में परकाश फैल गया है।
हमारे पिता पापनाशी,
परभु मसीह के लिए नयी एक दुल्हन लाये हैं।
अपने अलौकिक तेज और सिद्धि से,
उन्होंने एक काली भेड़ को।
जो अंधेरी घाटियों से मारीमारी फिरती थी,
उजली भेड़ बना दिया है।
इस भांति ईसाई धर्म की ध्वजा फहराते हुए,
वह फिर हमारे ऊपर हाथ रखने के लिए लौट आये हैं।
उन मधुमक्खियों की भांति,
जो अपने छत्तों से उड़ जाती है।
और फिर जंगलों से फूलों की,
मधुसुधा लिये हुए लौटती हैं।
न्युबिया के मेष की भांति,
जो अपने ही ऊन का बोझ नहीं उठा सकता।
हम आज के दिन आनन्दोत्सव मनायें,
अपने भोजन में तेल को चुपड़कर।।
जब वह लोग पापनाशी की कुटी के द्वार पर आये तो सबके-सब घुटने टेककर बैठ गये और बोले-‘पूज्य पिता ! हमें आशीवार्द दीजिए और हमें अपनी रोटियों को चुपड़ने के लिए थोड़ासा तेल परदान कीजिए कि हम आपके कुशलपूर्वक लौट आने पर आनन्द मनायें।’
मूर्ख पॉल अकेला चुपचाप खड़ा रहा। उसने न घाट ही पर आनन्द परकट किया था, और न इस समय जमीन पर गिरा। वह पापनाशी को पहचानता ही न था और सबसे पूछता था, ‘यह कौन आदमी है ?’ लेकिन कोई उसकी ओर ध्यान नहीं देता था, क्योंकि सभी जानते थे कि यद्यपि यह सिद्धि पराप्त है, पर है ज्ञानशून्य।
पापनाशी जब अपनी कुटी में सावधान होकर बैठा तो विचार करने लगा-अन्त में मैं अपने आनन्द और शान्ति के उद्दिष्ट स्थान पर पहुंच गया। मैं अपने सन्टोष से सुरक्षित ग़ में परविष्ट हो गया, लेकिन यह क्या बात है कि यह तिनकों का झोंपड़ा जो मुझे इतना पिरय है, मुझे मित्रभाव से नहीं देखता और दीवारें मुझसे हर्षित होकर नहीं कहतीं-‘तेरा आना मुबारक हो !’ मेरी अनुपस्थिति में यहां किसी परकार का अन्तर होता हुआ नहीं दीख पड़ता। झोंपड़ा ज्योंका-त्यों है, यही पुरानी मेज और मेरी पुरानी खाट है। वह मसालों से भरा सिर है, जिसने कितनी ही बार मेरे मन में पवित्र विचारों की पररेणा की है। वह पुस्तक रखी हुई है जिसके द्वारा मैंने सैकड़ों बार ईश्वर का स्वरूप देखा है। तिस पर भी यह सभी चीजें न जाने क्यों मुझे अपरिचितसी जान पड़ती हैं, इनका वह स्वरूप नहीं रहा। ऐसा परतीत होता है कि उनकी स्वाभाविकता शोभा का अपहरण हो गया है, मानो मुझ पर उनका स्नेह ही नहीं रहा। और मैं पहली ही बार उन्हें देख रहा हूं। जब मैं इस मेज और इस पलंग पर, जो मैंने किसी समय अपने हाथों से बनाये थे, इन मसालों से सुखाई खोपड़ी पर, इस भोजपत्र के पुलिन्दों पर जिन पर ईश्वर के पवित्र वाक्य अंकित हैं, निगाह डालता हूं तो मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि यह सब किसी मृत पराणी की वस्तुएं हैं। इनसे इतना घनिष्ठ सम्बन्ध होने पर भी, इनसे रातदिन का संग रहने पर भी मैं अब इन्हें पहचान नहीं सकता। आह ! यह सब चीजें ज्योंकी-त्यों हैं इनमें जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ। अतएव मुझमें ही परिवर्तन हो गया है, मैं जो पहले था वह अब नहीं रहा। मैं कोई और ही पराणी हूं। मैं ही मृत आत्मा हूं ! हे भगवान ! यह क्या रहस्य है ? मुझमें से कौनसी वस्तु लुप्त हो गयी है, मुझमें अब क्या शेष रह गया है ? मैं कौन हूं ?
और सबसे बड़ी आशंका की बात यह थी कि मन को बारबार इस शंका की निमूर्लता का विश्वास दिलाने पर भी उसे ऐसा भाषित होता था कि उसकी कुटी बहुत तंग हो गयी यद्यपि धार्मिक भाव से उसे इस स्थान को अनंत समझना चाहिए था, क्योंकि अनन्त का भाग भी अनन्त ही होता है, क्योंकि यहीं बैठकर वह ईश्वर की अनन्तता में विलीन हो जाता था।
उसने इस शंका के दमनार्थ धरती पर सिर रखकर ईश्वर की परार्थना की और इससे उसका चित्त शान्त हुआ। उसे परार्थना करते हुए एक घण्टा भी न हुआ होगा कि थायस की छाया उसकी आंखों के सामने से निकल गयी। उसने ईश्वर को धन्यवाद देकर कहा-परभू मसीह, तेरी ही कृपा से मुझे उसके दर्शन हुए। यह तेरी असीम दया और अनुगरह है, इसे मैं स्वीकार करता हूं। तू उस पराणी को मेरे सम्मुख भेजकर, जिसे मैंने तेरी भेंट किया है, मुझे सन्तुष्ट, परसन्न और आश्वस्त करना चाहता है। तू उसे मेरी आंखों के सामने परस्तुत करता है, क्योंकि अब उसकी मुस्कान नि:शास्त्र, उसका सौन्दर्य निष्कलंक और उसके हावभाव उद्देश्यहीन हो गये हैं। मेरे दयालु पतितपावन परभु, तू मुझे परसन्न करने के निमित्त उसे मेरे सम्मुख उसी शुद्ध और परिमार्जित स्वरूप में लाता है जो मैंने तेरी इच्छाओं के अनुकूल उसे दिया है, जैसे एक मित्र परसन्न होकर दूसरे मित्र को उसके दिये हुए उपहार की याद दिलाता है। इस कारण मैं इस स्त्री को देखकर आनन्दित होता हूं, क्योंकि तू ही इसका परेक्षक है। तू इस बात को नहीं भूलता कि मैंने उसे तेरे चरणों पर सर्मिपत किया है। उससे तुझे आनन्द पराप्त होता है, इसलिए उसे अपनी सेवा में रख और अपने सिवाय किसी अन्य पराणी को उसके सौन्दर्य से मुग्ध न होने दे।
उसे रात भर नींद नहीं आयी और थायस को उसने उससे भी स्पष्ट रूप में देखा जैसे परियों के कुंज में देखा था। उसने इन शब्दों में अपनी आत्मस्तुति की-मैंने जो कुछ किया है, ईश्वर ही के निमित्त किया है।
लेकिन इस आश्वासन और परार्थना पर भी उसका हृदय विकल था। उसने आह भरकर कहा-‘मेरी आत्मा, तू क्यों इतनी शोकासक्त है, और क्यों मुझे यह यातना दे रही है ?’
अब भी उसके चित्त की उद्विग्नता शान्त न हुई। तीन दिन तक वह ऐसे महान शोक और दुःख की अवस्था में पड़ा रहा जो एकान्तवासी योगियों की दुस्सह परीक्षाओं का पूर्वलक्षण है। थायस की सूरत आठों पहर उसकी आंखों के आगे फिरा करती। वह इसे अपनी आंखों के सामने से हटाना भी न चाहता था, क्योंकि अब तक वह समझता था कि यह मेरे ऊपर ईश्वर की विशेष कृपा है और वास्तव में यह एक योगिनी की मूर्ति है। लेकिन एक दिन परभात की सुषुप्तावस्था में उसने थायस को स्वप्न में देखा। उसके केशों पर पुष्पों का मुकुट विराज रहा था और उसका माधुर्य ही भयावह ज्ञात होता था कि वह भयभीत होकर चीख उठा और जागा तो ठण्डे पसीने से तर था, मानो बर्फ के कुंड में से निकला हो। उसकी आंखें भय की निद्रा से भारी हो रही थीं कि उसे अपने मुख पर गर्मगर्म सांसों के चलने का अनुभव हुआ। एक छोटासा गीदड़ उसकी चारपाई की पट्टी पर दोनों अगले पैर रखे हांफहांफकर अपनी दुर्गन्धयुक्त सांसें उसके मुख पर छोड़ रहा था, और उसे दांत निकालनिकालकर दिखा रहा था।
पापनाशी को अत्यन्त विस्मय हुआ। उसे ऐसा जान पड़ा, मेरे पैरों के नीचे की जमीन धंस गयी। और वास्तव में वह पतित हो गया था। कुछ देर तक तो उसमें विचार करने की शक्ति ही न रही और जब वह फिर सचेत भी हुआ तो ध्यान और विचार से उसकी अशान्ति और भी ब़ गई।
उसने सोचा-इन दो बातों में से एक बात है या तो वह स्वप्न की भांति ईश्वर का परेरित किया हुआ था और शुभस्वप्न था, और यह मेरी स्वाभाविक दुबुर्द्धि है जिसने उसे यह भयंकर रूप दे दिया है, जैसे गन्दे प्याले में अंगूर का रस खट्टा हो जाता है, मैंने अपने अज्ञानवश ईश्वरीय आदेश को ईश्वरीय तिरस्कार का रूप दे दिया और इस गीदड़ रूपी शैतान ने मेरी शंकान्वित दशा से लाभ उठाया, अथवा इस स्वप्न का परेरक ईश्वर नहीं, पिशाच था। ऐसी दशा में यह शंका होती है कि पहले के स्वप्नों को देवकृत समझने में मेरी भरांति थी। सारांश यह कि इस समय मुझमें वह धमार्धर्म का ज्ञान नहीं रहा जो तपस्वी के लिए परमावश्यक है और जिसके बिना उसके पगपग पर ठोकर खाने की आशंका रहती है कि ईश्वर मेरे साथ नहीं रहा-जिसके कुफल मैं भोग रहा हूं, यद्यपि उसके कारण नहीं निश्चित कर सकता।
इस भांति तर्क करके उसने बड़ी ग्लानि के साथ जिज्ञासा की-दयालु पिता! तू अपने भक्त से क्या परायश्चित कराना चाहता है, यदि उसकी भावनाएं ही उसकी आंखों पर परदा डाल दें, दुर्भावनाएं ही उसे व्यथित करने लगें ? मैं क्यों ऐसे लक्षणों का स्पष्टीकरण नहीं कर देता जिसके द्वारा मुझे मालूम हो जाया करे कि तेरी इच्छा क्या है, और क्यों तेरे परतिपक्षी की ?
किन्तु ईश्वर ने, जिसकी माया अभेद्य है, अपने इस भक्त की इच्छा पूरी न की ओर उसे आत्मज्ञान न परदान किया तो उसने शंका और भरांति वशीभूत होकर निश्चय किया अब मैं थायस की ओर मन को जाने ही न दूंगा। लेकिन उसका यह परयत्न निष्फल हुआ। उससे दूर रहकर भी थायस नितय उसके साथ रहती थी। जब वह कुछ पॄता था, ईश्वर का ध्यान करता था तो वह सामने बैठी उसकी ओर ताकती रहती, वह जिधर निगाह डालता, उसे उसी की मूर्ति दिखाई देती, यहां तक कि उपासना के समय भी वह उससे जुदा न होती। ज्योंही वह पापनाशी के कल्पना क्षेत्र में पदार्पण करती, वह योगी के कानों में कुछ धीमी आवाज सुनाई देती, जैसी स्त्रियों के चलने के समय उनके वस्त्रों से निकलती है, और इन छायाओं में यथार्थ से भी अधिक स्थिरता होती थी। स्मृतिचित्र अस्थिर, आज्ञिक और अस्पष्ट होता है। इसके परतिकूल एकान्त में जो छाया उपस्थित होती है, वह स्थिर और सुदीर्घ होती है। इसके परतिकूल एकान्त में जो छाया उपस्थित होती है, वह स्थिर और सुदीर्घ होती है। वह नाना परकार के रूप बदलकर उसके सामने आती-कभी मलिनवदन केशों में अपनी अन्तिम पुष्पमाला गूंथे, वही सुनहरे काम के वस्त्र धारण किये जो उसने इस्कन्द्रिया में कोटा के परीतिभोज के अवसर पर पहने थे, कभी महीन वस्त्र पहने परियों के कुंज में बैठी हुई, कभी मोटा कुरता पहने, विरक्त और आध्यात्मिक आनन्द से विकसित, कभी शोक में डूबी आंखें मृत्यु की भयंकर आशंकाओं से डबडबाई हुई, अपना आवरणहीन हृदयस्थल खोले, जिस पर आहतहृदय से रक्तधारा परवाहित होकर जम गयी थी। इन छायामूर्तियों में उसे जिस बात का सबसे अधिक खेद और विस्मय होता था वह यह थी कि वह पुष्पमालाएं, वह सुन्दर वस्त्र, वह महीन चादरें, वह जरी के काम की कुर्तियां जो उसने जला डाली थीं, फिर जैसे लौट आयीं। उसे अब यह विदित होता था कि इन वस्तुओं में भी कोई अविनाशी आत्मा है और उसने अन्तवेर्दना से विकल होकर कहा-
‘कैसी विपत्ति है कि थायस के असंख्य पापों की आत्माएं यों मुझ पर आत्र्कमण कर रही हैं।’
जब उसने पीछे की ओर देखा तो उसे ज्ञात हुआ कि थायस खड़ी है, और इससे उसकी अशान्ति और भी ब़ गई। असह्य आत्मवेदना होने लगी लेकिन चूंकि इन सब शंकाओं और दुष्कल्पनाओं में भी उसकी छाया और मन दोनों ही पवित्र थे, इसलिए उसे ईश्वर पर विश्वास था। अतएव वह इन करुण शब्दों में अनुनयविनय करता था-भगवान्, तेरी मुझ पर यह अकृपा क्यों ? यदि मैं उनकी खोज में विधर्मियों के बीच गया, तो तेरे लिए, अपने लिए नहीं। क्या यह अन्याय नहीं है कि मुझे उन कर्मों का दण्ड दिया जाये जो मैंने तेरा माहात्म्य ब़ाने के निमित्त किये हैं ? प्यारे मसीह, आप इस घोर अन्याय से मेरी रक्षा कीजिए। मेरे त्राता, मुझे बचाइए। देह मुझ पर जो विजय पराप्त न कर सकी, वह विजयकीर्ति उसकी छाया को न परदान कीजिए। मैं जानता हूं कि मैं इस समय महासंकटों में पड़ा हुआ हूं। मेरा जीवन इतना शंकामय कभी न था। मैं जानता हूं और अनुभव करता हूं कि स्वप्न में परत्यक्ष से अधिक शक्ति है और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं, क्योंकि स्वप्न में स्वयं आत्मिक वस्तु होने के कारण भौतिक वस्तु होने के कारण भौतिक वस्तुओं से उच्चतर है। स्वप्न वास्तव में वस्तुओं की आत्मा है। प्लेटो यद्यपि मूर्तिवादी था, तथापि उसने विचारों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। भगवान नरपिशाचों के उस भोज में जहां तू मेरे साथ था, मैंने मनुष्यों को-वह पापमलिन अवश्य थे, किन्तु कोई उन्हें विचार और बुद्धि से रहित नहीं कह सकता-इस बात पर सहमत होते सुना कि योगियों को एकान्त, ध्यान और परम आनन्द की अवस्था में परत्यक्ष वस्तुएं दिखाई देती हैं। परम पिता, आपने पवित्र गरन्थ स्वयं कितनी ही बार स्वप्न के गुणों को और छायामूर्तियों की शक्तियों को, चाहे वह तेरी ओर से हों या तेरे शत्रु की ओर से, स्पष्ट और कई स्थानों पर स्वीकार किया है। फिर यदि मैं भरांति में जा पड़ा तो मुझे क्यों इतना कष्ट दिया जा रहा है ?
पहले पापनाशी ईश्वर से तर्क न करता था। वह निरापद भाव से उसके आदेशों का पालन करता था। पर अब उसमें एक नये भाव का विकास हुआ-उसने ईश्वर से परश्न और शंकाएं करनी शुरू कीं, किन्तु ईश्वर ने उसे वह परकाश न दिखाया जिसका वह इच्छुक था। उसकी रातें एक दीर्घ स्वप्न होती थीं, और उसके दिन भी इस विषय में रातों ही के सदृश होते थे। एक रात वह जागा तो उसके मुख से ऐसी पश्चात्तापपूर्ण आहें निकल रही थीं, जैसी चांदनी रात में पापाहत मनुष्यों की कबरों से निकला करती हैं। थायस आ पहुंची थी, और उसके जख्मी पैरों से खून बह रहा था। किन्तु पापनाशी रोने लगा कि वह धीरे से उसकी चारपाई पर आकर लेट गयी। अब कोई सन्देह न रहा, सारी शंकाएं निवृत्त हो गयीं। थायस की छाया वासनायुक्त थी।
उसके मन में घृणा की एक लहर उठी। वह अपनी अपवित्र शैया से झपटकर नीचे कूद पड़ा और अपना मुंह दोनों हाथों से छिपा लिया कि सूर्य का परकाश न पड़ने पाये। दिन की घड़ियां गुजरती जाती थीं, किन्तु उसकी लज्जा और ग्लानि शान्त न होती थी। कुटी में पूरी शान्ति थी। आज बहुत दिनों के पश्चात परथम बार थायस को एकान्त मिला। आखिर में छाया ने भी उसका साथ छोड़ दिया, और अब उसकी विलीनता भी भयंकर परतीत होती थी। इस स्वप्न को विस्मृत करने के लिए, इस विचार से उसके मन को हटाने के लिए अब कोई अवलम्ब, कोई साधन, कोई सहारा नहीं था। उसने अपने को धिक्कारा-मैंने क्यों उसे भगा न दिया ? मैंने अपने को उसके घृणित आलिंगन और तापमय करों से क्यों न छुड़ा लिया ?
अब वह उस भरष्ट चारपाई के समीप ईश्वर का नाम लेने का भी साहस न कर सकता था, और उसे यह भय होता था कि कुटी के अपवित्र हो जाने के कारण पिशाचगण स्वेच्छानुसार अन्दर परविष्ट हो जायेंगे, उनके रोकने का मेरे पास अब कौनसा मन्त्र रहा ? और उसका भय निमूर्ल न था। वह सातों गीदड़ जो कभी उसकी चौखट के भीतर न आ सके थे, अब कतार बांधकर आये और भीतर आकर उसके पलंग के नीचे छिप गये। संध्या परार्थना के समय एक और आठवां गीदड़ भी आया, जिसकी दुर्गन्ध असह्य थी। दूसरे दिन नवां गीदड़ भी उनमें आ मिला और उनकी संख्या ब़तेबढ़ते तीस से साठ और साठ से अस्सी तक पहुंच गयी। जैसेजैसे उनकी संख्या ब़ती थी, उनका आहार छोटा होता जाता था, यहां तक कि वह चूहों के बराबर हो गये और सारी कुटी में फैल गये-पलंग, मेज, तिपाई, फर्श एक भी उनसे खाली न बचा। उनमें से एक मेज पर कूद गया और उसके तकिये पर चारों पैर रखकर पापनाशी के मुख की ओर जलती हुई आंखों से देखने लगा। नित्य नयेनये गीदड़ आने लगे।
अपने स्वप्न के भीषण पाप का परायश्चित करने और भरष्ट विचारों से बचने के लिए पापनाशी ने निश्चय किया कि अपनी कुटी से निकल जाऊं तो अब पाप का बसेरा बन गयी है और मरुभूमि में दूर जाकर कठिनसे-कठिन तपस्याएं करुं, ऐसीऐसी सिद्धियों में रत हो जाऊं जो किसी ने सुनी भी न हों, परोपकार और उद्घार के पथ पर और भी उत्साह से चलूं। लेकिन इस निश्चय को कार्यरूप में लाने से पहले वह सन्त पालम के पास उससे परामर्श करने गया।
उसने पालम को अपने बगीचे में पौधों को सींचते हुए पाया। संध्या हो गयी थी। नील नदी की नीली धारा ऊंचे पर्वतों के दामन में बह रही थी। वह सात्त्विक हृदय वृद्ध साधु धीरेधीरे चल रहा था कि कहीं वह कबूतर चौंककर उड़ न जाये जो उसके कन्धे पर आ बैठा था।
पापनाशी को देखकर उसने कहा-‘भाई पापनाशी को नमस्कार करता हूं। देखो, परम पिता कितना दयालु है; वह मेरे पास अपने रचे हुए पशुओं को भेजता है कि मैं उनके साथ उनका कीर्तिगान करुं और हवा में उड़ने वाले पक्षियों को देखकर उनकी अनन्तलीला का आनन्द उठाऊं। इस कबूतर को देखो, उसकी गर्दन के बदलते हुए रंगों को देखो, क्या वह ईश्वर की सुन्दर रचना नहीं है ? लेकिन तुम तो मेरे पास किसी धार्मिक विषय पर बातें करने आये हो न ? यह लो, मैं अपना डोल रखे देता हूं और तुम्हारी बातें सुनने को तैयार हूं।’
पापनाशी ने वृद्ध साधु से अपनी इस्कन्द्रिया की यात्रा, थायस के उद्घार, वहां से लौटने-दिनों की दूषित कल्पनाओं और रातों के दुःस्वप्नों-का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। उस रात के पापस्वप्न और गीदड़ों के झुंड की बात भी न छिपाई और तब उससे पूछा-‘पूज्य पिता, क्या ऐसीऐसी असाधारण योगित्र्कयाएं करनी चाहिए कि परेतराज भी चकित हो जायें ?’
पालम सन्त ने उत्तर दिया-‘भाई पापनाशी, मैं क्षुद्र पापी पुरुष हूं और अपना सारा जीवन बगीचे में हिरनों, कबूतरों और खरहों के साथ व्यतीत करने के कारण, मुझे मनुष्यों का बहुत कम ज्ञान है। लेकिन मुझे ऐसा परतीत होता है कि तुम्हारी दुश्चिन्ताओं का कारण कुछ और ही है। तुम इतने दिनों तक व्यावहारिक संसार में रहने के बाद यकायक निर्जन शांति में आ गये हों। ऐसे आकस्मिक परिवर्तनों से आत्मा का स्वास्थ्य बिगड़ जाये तो आश्चर्य की बात नहीं। बन्धुवर, तुम्हारी दशा उस पराणी कीसी है जो एक ही क्षण में अत्याधिक ताप से शीत में आ पहुंचे। उसे तुरन्त खांसी और ज्वर घेर लेते हैं। बन्धु, तुम्हारे लिए मेरी यह सलाह है कि किसी निर्जन मरुस्थल में जाने के बदले, मनबहलाव के ऐसे काम करो जो तपस्वियों और साधुओं के सर्वथा योग्य हैं। तुम्हारी जगह मैं होता तो समीपवर्ती धमार्श्रमों की सैर करता। इनमें से कई देखने के योग्य हैं, लोग उनकी बड़ी परशंसा करते हैं। सिरैपियन के ऋषिगृह में एक हजार चार सौ बत्तीस कुटियां बनी हुई हैं, और तपस्वियों को उतने वर्गों में विभक्त किया गया है जितने अक्षर यूनानी लिपि में हैं। मुझसे लोगों ने यह भी कहा है कि इस वगीर्करण में अक्षर, आकार और साधकों की मनोवृत्तियों में एक परकार की अनुरूपता का ध्यान रखा जाता है। उदाहरणतः वह लोग जो र वर्ग के अन्तर्गत रखे जाते हैं चंचल परकृति के होते हैं, और जो लोग शान्तपरकृति के हैं वह प के अन्तर्गत रखे जाते हैं। बन्धुवर, तुम्हारी जगह मैं होता तो अपनी आंखों से इस रहस्य को देखता और जब तक ऐसे अद्भुत स्थान की सैर न कर लेता, चैन न लेता। क्या तुम इसे अद्भुत नहीं समझते ? किसी की मनोवृत्तियों का अनुमान कर लेना कितना कठिन है और जो लोग निम्न श्रेणी में रखा जाना स्वीकार कर लेते हैं, वह वास्तव में साधु हैं, क्योंकि उनकी आत्मशुद्धि का लक्ष्य उनके सामने रहता है। वह जानते हैं कि हम किस भांति जीवन व्यतीत करने से सरल अक्षरों के अन्तर्गत हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वरतधारियों के देखने और मनन करने योग्य और भी कितनी ही बातें हैं। मैं भिन्नभिन्न संगतों को जो नील नदी के तट पर फैली हुई हैं, अवश्य देखता, उनके नियमों और सिद्घान्तों का अवलोकन करता, एक आश्रम की नियमावली की दूसरे से तुलना करता कि उनमें क्या अन्तर है, क्या दोष है, क्या गुण है। तुम जैसी धमार्त्मा पुरुष के लिए यह आलोचना सर्वथा योग्य है। तुमने लोगों से यह अवश्य ही सुना होगा कि ऋषि एन्फरेम ने अपने आश्रम के लिए बड़े उत्कृष्ट धार्मिक नियमों की रचना की है। उनकी आज्ञा लेकर तुम इस नियमावली की नकल कर सकते हो क्योंकि तुम्हारे अक्षर बड़े सुन्दर होते हैं। मैं नहीं लिख सकता क्योंकि मेरे हाथ फावड़ा चलातेचलाते इतने कठोर हो गये हैं कि उनमें पतली कलम को भोजपत्र पर चलाने की क्षमता ही नहीं रही। लिखने के लिए हाथों का कोमल होना जरूरी है। लेकिन बन्धुवर, तुम तो लिखने में चतुर हो, और तुम्हें ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने तुम्हें यह विद्या परदान की, क्योंकि सुन्दर लिपियों की जितनी परशंसा की जाये थोड़ी है। गरन्थों की नकल करना और पॄना बुरे विचारों से बचने का बहुत ही उत्तम साधन हैं। बन्धु पापनाशी, तुम हमारे श्रद्धेय ऋषियों, पालम और एन्तोनी के सदुपदेशों को लिपिबद्ध क्यों नहीं कर डालते ? ऐसे धार्मिक कामों में लगे रहने से शनै:शैनः तुम चित्त और आत्मा की शांति को पुनः लाभ कर लोगे, फिर एकांत तुम्हें सुखद जान पड़ेगा और शीघर ही तुम इस योग्य हो जाओगे कि आत्मशुद्धि की उन त्रि्कयाओं में परवृत्त हो जाओगे जिनमें तुम्हारी यात्रा ने विघ्न डाल दिया था। लेकिन कठिन कष्टों और दमनकारी वेदनाओं के सहन से तुम्हें बहुत आशा न रखनी चाहिए। जब पिता एन्तोनी हमारे बीच में थे तो कहा करते थे-‘बहुत वरत रखने से दुर्बलता आती है औद दुर्बलता से आलस्य पैदा होता है। कुछ ऐसे तपस्वी हैं जो कई दिनों तक लगातार अनशन वरत रख अपने शरीर को चौपट कर डालते हैं। उनके विषय में यह कहना सर्वथा सत्य है कि वह अपने ही हाथों से अपनी छाती पर कटार मार लेते हैं और अपने को किसी परकार की रुकावट के शैतान के हाथों में सौंप देते हैं।’ यह उस पुनीतात्मा एन्तोनी के विचार थे ! मैं अज्ञानी मूर्ख बुड्ढा हूं; लेकिन गुरु के मुख से जो कुछ सुना था वह अब तक याद है।’
पापनाशी ने पालम सन्त को इस शुभादेश के लिए धन्यवाद दिया और उस पर विचार करने का वादा किया। जब वह उससे विदा होकर नरकटों के बाड़े के बाहर आ गया जो बगीचे के चारों ओर बना हुआ था, तो उसने पीछे फिरकर देखा। सरल, जीवन्मुक्त साधु पालम पौधों को पानी दे रहा था, और उसकी झुकी हुई कमर पर कबूतर बैठा उसके साथसाथ घूमता था। इस दृश्य को देखकर पापनाशी रो पड़ा।
अपनी कुटी में जाकर उसने एक विचित्र दृश्य देखा। ऐसा जान पड़ता था कि अगणित बालुकरण किसी परचण्ड आंधी से उड़कर कुटी में फैल गये हैं। जब उसने जरा ध्यान से देखा तो परत्येक बालुकरण यथार्थ में एक अति सूक्ष्म आकार का गीदड़ था, सारी कुटी शृंगालमय हो गयी थी।
उसी रात को पापनाशी ने स्वप्न देखा कि एक बहुत ऊंचा पत्थर का स्तम्भ है, जिसके शिखर पर एक आदमी का चेहरा दिखाई दे रहा है। उसके कान में कहीं से यह आवाज आयी-इस स्तम्भ पर च़ !
पापनाशी जागा तो उसे निश्चय हुआ कि यह स्वप्न मुझे ईश्वर की ओर से हुआ है। उसने अपने शिष्यों को बुलाया और उनको इन शब्दों में सम्बोधित किया-‘पिरय पुत्रो, मुझे आदेश मिला है कि तुमसे फिर विदा मांगू और जहां ईश्वर ले जाये वहां जाऊं। मेरी अनुपस्थिति में लेवियन की आज्ञाओं को मेरी ही आज्ञाओं की भांति मानना और बन्धु पालम की रक्षा करते रहना। ईश्वर तुम्हें शांति दे। नमस्कार !’
जब वह चला तो उसके सभी शिष्य साष्टांग दण्डवत करने लगे और जब उन्होंने सिर उठाया तो उन्हें अपने गुरु की लस्बी, श्याममूर्ति क्षितिज में विलीन होती हुई दिखाई दी।
वह रात और दिन अविश्रान्त चलता रहा। यहां तक कि वह उस मन्दिर में जा पहुंचा, जो पराचीन काल में मूर्तिपूजकों ने बनाया था और जिसमें वह अपनी विचित्र पूर्वयात्रा में एक रात सोया था। अब इस मन्दिर का भग्नावशेष मात्र रह गया था और सर्प, बिच्छू, चमगादड़ आदि जन्तुओं के अतिरिक्त परेत भी इसमें अपना अड्डा बनाये हुए थे। दीवारें जिन पर जादू के चिह्न बने हुए थे, अभी तक खड़ी थीं। तीस वृहदाकार स्तम्भ जिनके शिखरों पर मनुष्य के सिर अथवा कमल के फूल बने हुए थे, अभी तक एक भारी चबूतरे को उठाये हुए थे। लेकिन मन्दिर के एक सिरे पर एक स्तम्भ इस चबूतरे के बीच से सरक गया था और अब अकेला खड़ा था। इसका कलश एक स्त्री को मुस्कराता हुआ मुखमण्डल था। उसकी आंखें लम्बी थीं, कपोल भरे हुए, और मस्तक पर गाय की सींगें थीं।
पापनाशी ने स्तम्भ को देखते ही पहचान गया कि यह वह स्तम्भ है जिसे उसने स्वप्न में देखा था और उसने अनुमान किया कि इसकी ऊंचाई बत्तीस हाथों से कम न होगी। वह निकट गांव में गया और उतनी ही ऊंची एक सी़ी बनाई और जब सी़ी तैयार हो गयी तो वह स्तम्भ से लगाकर खड़ी की गयी। वह उस पर च़ा और शिखर पर जाकर उसने भूमि पर मस्तक नवाकर यों परार्थना की-‘भगवान्, यही वह स्थान है जो तूने मेरे लिए बताया है। मेरी परम इच्छा है कि मैं यहीं तेरी दया की छाया में जीवनपर्यन्त रहूं।’
वह अपने साथ भोजन की सामगिरयां न लाया था। उसे भरोसा था कि ईश्वर मेरी सुधि अवश्य लेगा और यह आशा थी कि गांव के भक्तिपरायण जन मेरे खानेपीने का परबन्ध कर देंगे और ऐसा भी। दूसरे दिन तीसरे पहर स्त्रियां अपने बालकों के साथ रोटियां, छुहारे और ताजा पानी लिये हुए आयीं, जिसे बालकों ने स्तम्भ के शिखर पर पहुंचा दिया।
स्तम्भ का कलश इतना चौड़ा न था कि पापनाशी उस पर पैर फैलाकर लेट सकता, इसलिए वह पैरों को नीचेऊपर किये, सिर छाती पर रखकर सोता था और निद्रा जागृत रहने से भी अधिक कष्टदायक थी। परातःकाल उकाब अपने पैरों से उसे स्पर्श करता था और वह निद्रा, भय तथा अंगवेदना से पीड़ित उठ बैठता था।
संयोग से जिस ब़ई ने यह सी़ी बनायी थी, वह ईश्वर का भक्त था। उसे यह देखकर चिन्ता हुई कि योगी को वर्षा और धूप से कष्ट हो रहा है। और इस भय से कि कहीं निद्रा में वह नीचे न गिर पड़े, उस पुण्यात्मा पुरुष ने स्तम्भ के शिखर पर छत और कठघरा बना दिया।
थोड़े ही दिनों में उस असाधारण व्यक्ति की चचार गांवों में फैलने लगी और रविवार के दिन श्रमजीवियों के दलके-दल अपनी स्त्रियों और बच्चों के साथ उसके दर्शनार्थ आने लगे। पापनाशी के शिष्यों ने जब सुना कि गुरुजी ने इस विचित्र स्थान में शरण ली है तो वह चकित हुए, और उसकी सेवा में उपस्थित होकर उससे स्तम्भ के नीचे अपनी कुटिया बनाने की आज्ञा पराप्त की। नित्यपरति परातःकाल वह आकर अपने स्वामी के चारों ओर खड़े हो जाते और उसके सदुपदेश सुनते थे।
वह उन्हें सिखाता था-पिरय पुत्रो, उन्हीं नन्हें बालकों के समान बन रहो जिन्हें परभु मसीह प्यार किया करते थे। वही मुक्ति का मार्ग है। वासना ही सब पापों का मूल है। वह वासना से उसी भांति उत्पन्न होते हैं जैसे सन्तान पिता से। अहंकार, लोभ, आलस्य, त्र्कोध और ईष्यार उनकी पिरय सन्तान हैं। मैंने इस्कन्द्रिया में यही कुटिल व्यापार देखा। मैंने धन सम्पन्न पुरुषों को कुचेष्टाओं में परवाहित होते देखा है जो उस नदी की बा़ की भांति हैं जिसमें मैला जल भरा हो। वह उन्हें दुःख की खाड़ी में बहा ले जाता है।
एफरायम और सिरापियन के अधिष्ठाताओं ने इस अद्भुत तपस्या का समाचार सुना तो उसके दर्शनों से अपने नेत्रों को कृतार्थ करने की इच्छा परकट की। उनकी नौका के त्रिकोण पालों को दूर से नदी में आते देखकर पापनाशी के मन में अनिवार्यतः यह विचार उत्पन्न हुआ कि ईश्वर ने मुझे एकान्त से भी योगियों के लिए आदर्श बना दिया है। दोनों महात्माओं ने जब उसे देखा तो उन्हें बड़ा कुतूहल हुआ और आपस में परामर्श करके उन्होंने सर्वसम्मति से ऐसी अमानुषिक को तपस्या का त्याज्य ठहराया। अतएव उन्होंने पापनाशी से नीचे उतर आने का अनुरोध किया।
वह बोला-‘यह जीवनपरणाली परम्परागत व्यवहार के सर्वथा विरुद्ध है। धर्मसिद्घान्त इसकी आज्ञा नहीं देते।’
लेकिन पापनाशी ने उत्तर दिया-‘योगी जीवन के नियमों और परम्परागत व्यवहारों की परवाह नहीं करता। योगी स्वयं असाधारण व्यक्ति होता है, इसलिए यदि उसका जीवन भी असाधारण हो तो आश्चर्य की क्या बात है। मैं ईश्वर की परेरणा से यहां च़ा हूं। उसी के आदेश से उतरुंगा।’
नित्यपरति धर्म के इच्छुक आकर पापनाशी के शिष्य बनते और उसी स्तम्भ के नीचे अपनी कुटिया बनाते थे। उनमें से कई शिष्यों ने अपने गुरु का अनुकरण करने के लिए मन्दिर के दूसरे स्तम्भों पर च़कर तप करना शुरू किया। पर जब उनके अन्य सहचरों ने इसकी निन्दा की, और वह स्वयं धूप और कष्ट न सह सके, तो नीचे उतर आये।
देश के अन्य भागों से पापियों और भक्तों के जत्थेके-जत्थे आने लगे। उनमें से कितने ही बहुत दूर से आते थे। उनके साथ भोजन की कोई वस्तु न होती थी। एक वृद्घा विधवा को सूझी कि उनके हाथ ताजा पानी, खरबूजे आदि फल बेचे जायें तो लाभ हो। स्तम्भ के समीप ही उसने मिट्टी के कुल्हड़ जमा किये। एक नीली चादर तानकर उसने नीचे फलों की टोकरियां सजाईं और पीछे खड़ी होकर हांक लगाने लगी-ठंडा पानी, ताजा फल, जिसे खाना या पानी पीना हो चला आवे। इसकी देखादेखी एक नानबाई थोड़ीसी लाल ईंटें लाया और समीप ही अपना तन्दूर बनाया। इसमें सादी और खमीरी रोटियां सेंककर वह गराहकों को खिलाता था। यात्रियों की संख्या दिनपरतिदिन ब़ने लगी। मिस्त्र देश के बड़ेबड़े शहरों से भी लोग आने लगे। यह देखकर एक लोभ आदमी ने मुसाफिरों और नौकरों, ऊंटों, खच्चरों आदि को ठहराने के लिए एक सराय बनवाई। थोड़े ही दिन में उस स्तम्भ के सामने एक बाजार लग गया जहां मदुए अपनी मछलियां और किसान अपने फलमेवे लालाकर बेचने लगे। एक नाई भी आ पहुंचा जो किसी वृक्ष की छांह में बैठकर यात्रियों की हजामत बनाता था और दिल्लगी की बातें करके लोगों को हंसाता था। पुराना मन्दिर इतने दिन उजड़े रहने के बाद फिर आबाद हुआ। जहां रातदिन निर्जनता और नीरवता का आधिपत्य रहता था, वहां अब जीवन के दृश्य और चिह्न दिखाई देने लगे। हरदम चहलपहल रहती। भठियारों ने पुराने मन्दिर के तहखानों के शराबखाने बना दिये और स्तम्भ पर पापनाशी के चित्र लटकाकर उसके नीचे यूनानी और मिस्त्री लिपियों में यह विज्ञापन लगा दिये-‘अनार की शराब, अंजीर की शराब और सिलिसिया की सच्ची जौ की शराब यहां मिलती है।’ दुकानदारों ने उन दीवारों पर जिन पर पवित्र और सुन्दर बेलबूटे अंकित किये हुए थे, रस्सियों से गूंथकर प्याज लटका दिये। तली हुई मछलियां, मरे हुए खरहे और भेड़ों की लाशें सजाई हुई दिखाई देने लगीं। संध्या समय इस खंडहर के पुराने निवासी अर्थात चूहे सफ बांधकर नदी की ओर दौड़ते और बगुले सन्देहात्मक भाव से मर्दन उठाकर ऊंची कारनिसों पर बैठ जाते; लेकिन वहां भी उन्हें पाकशालाओं के धुएं, शराबियों के शोरगुल और शराब बेचने वालों की हांकपुकार से चैन न मिलता। चारों तरफ कोठी वालों ने सड़कें, मकान, चर्च धर्मशालाएं और ऋषियों के आश्रम बनवा दिये। छः महीने न गुजरने पाये थे कि वहां एक अच्छाखासा शहर बस गया, जहां रक्षाकारी विभाग, न्याय, कारागार, सभी बन गये और वृद्ध मुंशी ने एक पाठशाला भी खोल ली। जंगल में मंगल हो गया, ऊसर में बाग लहराने लगा।
यात्रियों का रातदिन तांता लगा रहता। शैनःशैनः ईसाई धर्म के परधान पदाधिकारी भी श्रद्घा के वशीभूत होकर आने लगे। ऐन्टियोक का परधान जो उस समय संयोग से मिस्त्र में था, अपने समस्त अनुयायियों के साथ आया। उसने पापनाशी के असाधारण तप की मुक्तकंठ से परशंसा की। मिस्त्र के अन्य उच्च महारथियों ने इस सम्मति का अनुमोदन किया। एफरायम और सिरापियन के अध्यक्षों ने यह बात सुनी तो उन्होंने पापनाशी के पास आकर उसके चरणों पर सिर झुकाया और पहले इस तपस्या के विरुद्ध जो विचार परकट किये थे उनके लिए लज्जित हुए और क्षमा मांगी। पापनाशी ने उत्तर दिया-‘बन्धुओं, यथार्थ यह है कि मैं जो तपस्या कर रहा हूं वह केवल उन परलोभनों और दुरिच्छाओं के निवारण के लिए है जो सर्वत्र मुझे घेरे रहते हैं और जिनकी संख्या तथा शक्ति को देखकर मैं दहल उठता हूं। मनुष्य का बाह्यरूप बहुत ही सूक्ष्म और स्वल्प होता है। इस ऊंचे शिखर पर से मैं मनुष्यों की चींटियों के समान जमीन पर रेंगते देखता हूं। किन्तु मनुष्य को अन्दर से देखो तो यह अनन्त और अपार है। वह संसार के समाकार है क्योंकि संसार उसके अन्तर्गत है। मेरे सामने जो कुछ है-यह आश्रय, यह अतिथिशालाएं, नदी पर तैरने वाली नौकाएं, यह गराम खेत, वनउपवन, नदियां, नहरें, पर्वत, मरुस्थल वह उसकी तुलना नहीं कर सकते जो मुझमें है। मैं अपने विराट अन्तस्थल में असंख्य नगरों और सीमाशून्य पर्वतों को छिपाये हुए हूं, और इस विराट अन्तस्थल पर इच्छाएं उसी भांति आच्छादित हैं जैसे निशा पृथ्वी पर आच्छादित हो जाती है। मैं, केवल मैं, अविचार एक जगत हूं।’
सातवें महीने में इस्कन्द्रिया से बुबेस्तीस और सायम नाम की दो वंध्या स्त्रियां, इस लालसा में आयीं कि महात्मा के आशीवार्द और स्तम्भ के अलौकिक गुणों से उनके संतान होगी। अपनी ऊसर देह को पत्थर से रगड़ा। इन स्त्रियों के पीछे जहां तक निगाह पहुंचती थी, रथों, पालकियों और डोलियों का एक जुलूस चला आता था जो स्तम्भ के पास आकर रुक गया और इस देवपुरुष के दर्शन के लिए धक्काधक्का करने लगा। इन सवारियों में से ऐसे रोगी निकले जिनको देखकर हृदय कांप उठता था। माताएं ऐसे बालकों को लायी थीं जिनके अंग टे़े हो गये थे, आंखें निकल आयी थीं और गले बैठ गये थे। पापनाशी ने उनकी देह पर अपना हाथ रखा। तब अन्धे, हाथों से टटोलते, पापनाशी की ओर दो रक्तमय छिद्रों से ताकते हुए आये। पक्षाघात पीड़ित पराणियों ने अपने गतिशून्य सूखे तथा संकुचित अंगों की पापनाशी के सम्मुख उपस्थित किया। लंगड़ों ने अपनी टांगें दिखायीं। कछुई के रोग वाली स्त्रियां दोनों हाथों से अपनी छाती को दबाये हुए आयी और उसके सामने अपने जर्जर वक्ष खोल दिये। जलोदर के रोगी, शराब के पीपों की भांति फूले हुए, उसके सममुख भूमि पर लेटाये गये। पापनाशी ने इन समस्त रोगी पराणियों को आशीवार्द दिया। फीलपांव से पीड़ित हब्शी संभलसंभलकर चलते हुए आये और उसकी ओर करुण नेत्रों से ताकने लगे। उसने उनके ऊपर सलीब का चिह्न बना दिया। एक युवती बड़ी दूर से डोली में लायी गयी थी। रक्त उगलने के बाद तीन दिन से उसने आंखें न खोली थीं। वह एक मोम की मूर्ति की भांति दीखती थी और उसके मातापिता ने उसे मुर्दा समझकर उसकी छाती पर खजूर की एक पत्ती रख दी थी। पापनाशी ने ज्योंही ईश्वर से परार्थना की, युवती ने सिर उठाया और आंखें खोल दीं।
यात्रियों ने अपने घर लोटकर इन सिद्धियों की चचार की तो मिरगी के रोगी भी दौड़े। मिस्त्र के सभी परान्तों से अगणित रोगी आकर जमा हो गये। ज्योंही उन्होंने यह स्तम्भ देखा तो मूर्छित हो गये, जमीन पर लौटने लगे और उनके हाथपैर अकड़ गये। यद्यपि यह किसी को विश्वास न आयेगा, किन्तु वहां जितने आदमी मौजूद थे, सबके-सब बौखला उठे और रोगियों की भांति कुलांचें खाने लगे। पंडित और पुजारी, स्त्री और पुरुष सबके-सब तलेऊपर लोटनेपोटने लगे। सबों के अंग अकड़े हुए थे, मुंह से फिचकुर बहता था, मिट्टी से मुट्ठियां भरभरकर फांकते और अनर्गल शब्द मुंह से निकालते थे।
पापनाशी ने शिखर पर से यह कुतूहलजनक दृश्य देखा तो उसके समस्त शरीर में विप्लवसा होने लगा। उसने ईश्वर से परार्थना की-‘भगवान्’, मैं ही छोड़ा हुआ बकरा हूं, और मैं अपने ऊपर इन सारे पराणियों के पापों का भार लेता हूं, और यही कारण है कि मेरा शरीर परेतों और पिशाचों से भरा हुआ है।’
जब कोई रोगी चंगा होकर जाता था तो लोग उसका स्वागत करते थे, उसका लुजूस निकालते थे, बाजे बजाते, फूल उड़ाते और उसके घर तक पहुंचाते थे, और लाखों कंठों से यह ध्वनि निकलती थी-‘हमारे परभु मसीह फिर अवतरित हुए !’
बैसाखियों के सहारे चलने वाले दुर्बल रोगी जब आरोग्य लाभ कर लेते थे तो अपनी बैसाखियां इसी स्तम्भ में लटका देते थे। हजारों बैसाखियां लटकती हुई दिखाई देती थीं और परतिदिन उनकी संख्या ब़ती ही जाती थी। अपनी मुराद पाने वाली स्त्रियां फूल की माला लटका देती थीं। कितने ही यूनानी यात्रियों ने पापनाशी के परति श्रद्घामय दोहे अंकित कर दिये। जो यात्री आता था, वह स्तम्भ पर अपना नाम अंकित कर देता था। अतएव स्तम्भ पर जहां तक आदमी के हाथ पहुंच सकते थे, उस समय की समस्त लिपियों-लैटिन, यूनानी, मिस्त्री, इबरानी, सुरयानी और जन्दी-का विचित्र सम्मिश्रण दृष्टिगोचर था।
जब ईस्टर का उत्सव आया तो इस चमत्कारों और सिद्धियों के नगर में इतनी भीड़भाड़ हुई देशदेशान्तरों के यात्रियों का ऐसा जमघट हुआ कि बड़ेबड़े बुड्ढे कहते कि पुराने जादूगरों के दिन फिर लौट आये। सभी परकार के मनुष्य, नाना परकार के वस्त्र पहने हुए वहां नजर आते थे। मिस्त्रनिवासियों के धरीदार कपड़े, अरबों में ीले पाजामे, हब्शियों के श्वेत जांघिए, यूनानियों के ऊंचे चुगे, रोमनिवासियों के नीचे लबादे, असभ्य जातियों के लाल सुथने और वेश्याओं की किमखाब की पेशवाजें, भांतिभांति की टोपियों, मुड़ासों, कमरबन्दों और जूतों-इन सभी कलेवरों की झांकियां मिल जाती थीं। कहीं कोई महिला मुंह पर नकाब डाले, गधे पर सवार चली जाती थी, जिसके आगओगे हब्शी खोजे मुसाफिरों को हटाने के लिए छड़ियां घुमाते, ‘हटो, बचो, रास्ता दो’ का शोर मचाते रहते थे। कहीं बाजीगरों के खेल होते थे। बाजीगर जमींन पर एक जाजिम बिछाये, मौन दर्शकों के समान अद्भुत छलांगें मारता और भांतिभांति के करतब दिखाता था। कभी रस्सी पर च़कर ताली बाजाता, कभी बांस गाड़कर उस पर च़ जाता और शिखर पर सिर नीचे पैर ऊपर करके खड़ा हो जाता। कहीं मदारियों के खेल थे, कहीं बन्दरों के नाच, कहीं भालुओं की भद्दी नकलें। सपेरे पिटारियों में से सांप निकालकर दिखाते, हथेली पर बिच्छू दिखाते और सांप का विष उतारने वाली जड़ी बेचते थे। कितना शोर था, कितना धूल, कितनी चकमदमक। कहीं ऊंटवान ऊंटों को पीट रहा है। और जोरजोर से गालियां दे रहा है, कहीं फेहरी वाले गली में एक झोली लटकाये चिल्लाचिल्लाकर को़ की बातीजें और भूतपरेत आदि व्याधियों के मंत्र बेचते फिरते हैं, कहीं साधुगण स्वर मिलाकर बाइबिल के भजन गा रहे हैं, कहीं भेड़ें मिमिया रही हैं कहीं गधे रंेंग रहे हैं, मल्लाह यात्रियों को पुकारते हैं ‘देर मत करो !’ कहीं भिन्नभिन्न परान्तों की स्त्रियां अपने खोये हुए बालकों को पुकार रही हैं, कोई रोता है और कहीं खुशी में लोग आतिशबाजी छोड़ते हैं। इन समस्त ध्वनियों के मिलने से ऐसा शोर होता था कि कान के परदे फटे जाते थे। और इन सबसे परबल ध्वनि उन हब्शी लड़कों की थी जो गले फाड़कर खजूर बेचते फिरते थे। और इन समस्त जनसमूह को खुले हुए मैदान में भी सांस लेने को हवा न मयस्सर होती थी। स्त्रियों के कपड़ों की महक, हब्शियों के वस्त्रों की दुर्गन्ध, खाना पकाने के धुएं, और कपूर, लोहबान आदि की सुगन्ध से, जो भक्तजन महात्मा पापनाशी के सम्मुख जलाते थे, समस्त वायुमंडल दूषित हो गया था, लोगों के दम घुटने लगते थे।
जब रात आयी तो लोगों ने अलाव जलाये, मशालें और लालटेनें जलायी गयीं, किन्तु लाल परकाश की छाया और काली सूरतों के सिवा और कुछ न दिखाई देता था। मेले के एक तरफ एक वृद्ध पुरुष तेली धुआंती कुप्पी जलाये, पुराने जमाने की एक कहानी कह रहा था। श्रोता लोग घेरा बनाये हुए थे। बुड्े का चेहरा धुंधले परकाश में चमक रहा था। वह भाव बनाबनाकर कहानी कहता था, और उसकी परछाईं उसके परत्येक भाव को ब़ाबढ़ाकर दिखाती थी। श्रोतागण परछाईं के विकृत अभिनय देखदेखकर खुश होते थे। यह कहानी बिट्रीऊ की परेमकथा थी। बिट्रीऊ ने अपने हृदय पर जादू कर दिया था और छाती से निकालकर एक बबूल के वृक्ष में रखकर स्वयं वृक्ष का रूप धारण कर लिया था। कहानी पुरानी थी। श्रोताओं ने सैकड़ों ही बार इसे सुना होगा, किन्तु वृद्ध की वर्णशैली बड़ी चित्ताकर्षक थी। इसने कहानी को मजेदार बना दिया था। शराबखानों में मद के प्यासे कुरसियों पर लेटे हुए भांतिभांति के सुधारस पान कर रहे थे और बोतलें खाली करते चले जाते थे। नर्तकियां आंखों में सुरमा लगाये और पेट खोले उनके सामने नाचती और कोई धार्मिक या शृंगार रस का अभिनय करती थीं।
एकांत कमरों में युवकगण चौपड़ या कोई खेल खेलते थे, और वृद्धजन वेश्याओं से दिल बहला रहे थे। इन समस्त दृश्यों के ऊपर वह अकेला, स्थिर, अटल स्तम्भ खड़ा था। उसका गोरूपी कलश परकाश की छाया में मुंह फैलाये दिखाई देता था, और उसके ऊपर पृथ्वीआकाश के मध्य पापनाशी अकेला बैठा हुआ यह दृश्य देख रहा था। इतने में चांद ने नल के अंचल में से सिर निकाला, पहाड़ियां नीले परकाश में चमक उठीं और पापनाशी को ऐसा भासित हुआ मानो थायस की सजीव मूर्ति नाचते हुए जल के परकाश में चमकती, नीले गगन में निरालंब खड़ी है।
दिन गुजरते जाते थे और पापनाशी ज्यों का त्यों स्तम्भ पर आसन जमाये हुए था। वर्षाकाल आया तो आकाश का जल लकड़ी की छत से टपकटपक उसे भिगोने लगा। इससे सरदी खाकर उसके हाथपांव अकड़ उठे, हिलनाडोलना मुश्किल हो गया। उधर दिन को धूप की जलन और रात को ओस की शीत खातेखाते उसके शरीर की खाल फटने लगी और समस्त देह में घाव, छाले और गिल्टियां पड़ गयीं। लेकिन थायस की इच्छा अब भी उसके अन्तःकरण में व्याप्त थी और वह अन्तवेर्दना से पीड़ित होकर चिल्ला उठता था- ‘भगवान ! मेरी ओर भी सांसत कीजिए, और भी यातनाएं अभी पीछे पड़ी हुई हैं, विनाश वासनाएं अभी तक मन का मंथन कर रही हैं। भगवान्, मुझ पर पराणिमात्र की विषयवासनाओं का भार रख दीजिए, उन सबों को पराश्यिचत करुंगा। यद्यपि यह असत्य है कि यूनानी कुतिये ने समस्त संसार का पापभार अपने ऊपर लिया था, जैसा मैंने किसी समय एक मिथ्यावादी मनुष्य को कहते सुना था, लेकिन उस कथा में कुछ आशय अवश्य छिपा हुआ है जिसकी सचाई अब मेरी समझ में आ रही है, क्योंकि इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जनता के पाप धमार्त्माओं की आत्माओं में परविष्ट होते हैं और वह इस भांति विलीन हो जाते हैं, मानो कुएं में गिरे पड़े हों। यही कारण है कि पुण्यात्माओं के मन में जितना मल भरा रहता है, उतना पापियों के मन में कदापि नहीं रहता। इसलिए भगवान्, मैं तुझे धन्यवाद देता हूं कि तूने मुझे संसार का मलकुंड बना दिया है।
एक दिन उस पवित्र नगर में यह खबर उड़ी, और पापनाशी के कानों में भी पहुंची कि एक उच्च राज्यपदाधिकारी, जो इस्कन्द्रिया की जलसेना का अध्यक्ष था, शीघर ही उस शहर की सैर करने आ रहा है-नहीं बल्कि रवाना हो चुका है।
यह समाचार सत्य था। वयोवृद्ध कोटा, जो उस साल नील सागर की नदियों और जलमार्गों का निरीक्षण कर रहा था, कई बार इस महात्मा और इस नगर को देखने की इच्छा परकट कर चुका था। इस नगर का नाम पापनाशी ही के नाम पर ‘पापमोचन’ रखा गया था। एक दिन परभातकाल इस पवित्र भूमि के निवासियों ने देखा कि नील नदी श्वेत पालों से आच्छन्न हो गयी है। कोटा एक सुनहरी नौका पर, जिस पर बैंगनी रंग के पाल लगे हुए थे, अपनी समस्त नाविकशक्ति के आगओगे निशाना उड़ाता चला आता है। घाट पर पहुंचकर वह उतर पड़ा और अपने मन्त्री तथा अपने वैद्य अरिस्टीयस के साथ नगर की तरफ चला। मन्त्री के हाथ में नदी के मानचित्र आदि थे। और वैद्य से कोटा स्वयं बातें कर रहा था। वृद्घावस्था में उसे वैद्यराज की बातों में आनन्द मिलता था।
कोटा के पीछ सहस्त्रों मनुष्यों का जुलूस चला और जलतट पर सैनिकों की वर्दियां और राज्यकर्मचारियों के चुगेही-चुगे दिखाई देने लगे। इन चुगों में चौड़ी बैंगनी रंग की गांठ लगी थी, जो रोम की व्यवस्थापकसभा के सदस्यों का सम्मानचिह्न थी। कोटा उस पवित्र स्तम्भ के समीप रुक गया और महात्मा पापनाशी को ध्यान से देखने लगा। गरमी के कारण अपने चुगे के दामन से मुंह पर का पसीना वह पोंछता था। वह स्वभाव से विचित्र अनुभवों का परेमी था, और अपनी जलयात्राओं में उसने कितनी ही अद्भुत बातें देखी थीं। वह उन्हें स्मरण रखना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि अपना वर्तमान इतिहासगरन्थ समाप्त करने के बाद अपनी समस्त यात्राओं का वृत्तान्त लिखे और जोजो अनोखी बातें देखी हैं उसका उल्लेख करे। यह दृश्य देखकर उसे बहुत दिलचस्पी हुई।
उसने खांसकर कहा-‘विचित्र बात है ! और यह पुरुष मेरा मेहमान था। मैं अपने यात्रावृत्तान्त में वह अवश्य लिखूंगा। हां, गतवर्ष इस पुरुष ने मेरे यहां दावत खायी थी, और उसके एक ही दिन बाद एक वेश्या को लेकर भाग गया था।’
फिर अपने मन्त्री से बोला-‘पुत्र, मेरे पत्रों पर इसका उल्लेख कर दो। इसे स्तम्भ की लम्बाईचौड़ाई भी दर्ज कर देना। देखना, शिखर पर जो गाय की मूर्ति बनी हुई है, उसे न भूलना।’
तब फिर अपना मुंह पोंछकर बोला-‘मुझसे विश्वस्त पराणियों ने कहा है कि इस योगी ने साल भर से एक क्षण के लिए भी नीचे कदम नहीं रखा। क्यों अरिस्टीयस यह सम्भव है ! कोई पुरुष पूरे साल भर तक आकाश में लटका रह सकता है?’
अरिस्टीयस ने उत्तर दिया-किसी अस्वस्थ या उन्मत्त पराणी के लिए जो बात सम्भव है। आपको शायद यह बात न मालूम होगी कि कतिपय शरीरिक और मानसिक विकार न हो, असम्भव है। आपको शायद यह बात न मालूम होगी कि कतिपय शारीरिक और मानसिक विकारों से इतने अद्भुत शक्ति आ जाती है जो तन्दुरुस्त आदमियों में कभी नहीं आ सकती। क्योंकि यथार्थ में अच्छा स्वास्थ्य या बुरा स्वास्थ्य स्वयं कोई वस्तु नहीं है। वह शरीर के अंगपरत्यंग की भिन्नभिन्न दशाओं का नाममात्र है। रोगों के निदान से मैंने वह बात सिद्ध की है कि वह भी जीवन की आवश्यक अवस्थाएं हैं। मैं बड़े परेम से उनकी मीमांसा करता हूं, इसलिए कि उन पर विजय पराप्त कर सकूं। उनमें से कई बीमारियां परशंसनीय है और उनमें बहिर्विकार के रूप में अद्भुत आरोग्यवर्द्धक शक्ति छिपी रहती है। उदाहरणः कभीकभी शारीरिक विकारों से बुद्धिशक्तियां परखर हो जाती हैं, बड़े वेग से उनका विकास होने लगता है। आप सिरोन को तो जानते हैं। जब वल बालक था तो वह तुतलाकर बोलता था और मन्दबुद्धि था। लेकिन जब एक सी़ी पर से गिर जाने के कारण उसकी कपालित्र्कया हो गयी तो वह उच्चश्रेणी का वकील निकला, जैसाकि आप स्वयं देख रहे हैं। इस योगी का कोई गुप्त अंग अवश्य ही विकृत हो गया है। इनके अतिरिक्त इस अवस्था में जीवन व्यतीत करना इतनी असाधारण बात नहीं है, जितनी आप समझ रहे हैं। आपको भारतवर्ष के योगियों की याद है ? वहां के योगीगण इसी भांति बहुत दिनों तक निश्चल रह सकते हैं-एकदो वर्ष नहीं, बल्कि बीस, तीस, चालीस वर्षों तक। कभीकभी इससे भी अधिक। यहां तक कि मैंने तो सुना है कि वह निर्जल; निराहार सौसौ वर्षों तक समाधिस्थ रहते हैं।’
कोटा ने कहा-ईश्वर की सौगन्ध से कहता हूं, मुझे यह दशा अत्यन्त कुतूहलजनक मालूम हो रही है। यह निराले परकार का पागलपन है। मैं इसकी परशंसा नहीं कर सकता, क्योंकि मनुष्य का जन्म चलने और काम करने के निमित्त हुआ है और उद्योगहीनता सामराज्य के परति अक्षम्य अत्याचार है। मुझे ऐसे किसी धर्म का ज्ञान नहीं है जो ऐसी आपत्तिजनक त्रि्कयाओं का आदेश करता हो। सम्भव है, एशियाई सम्परदायों में इसकी व्यवस्था हो। जब मैं शाम (सीरिया) का सूबेदार था तो मैंने ‘हेरा’ नगर के द्वार पर एक ऊंचा चबूतरा बना हुआ देखा। एक आदमी साल में दो बार उस पर च़ता था और वहां सात दिनों तक चुपचाप बैठा रहता था। लोगों को विश्वास था कि यह पराणी देवताओं से बातें करता था और शाम देश को धनधान्यपूर्ण रखने के लिए उनसे विनय करता था। मुझे यह परथा निरर्थकसी जान पड़ी, किन्तु मैंने उसे उठाने की चेष्टा नहीं की। क्योंकि मेरा विचार है कि राज्यकर्मचारियों को परजा के रीतिरिवाजों में हस्तक्षेप न करना चाहिए, बल्कि इनको मयार्दित रखना उनका कर्तव्य है। शासकों की नीति कदापि न होनी चाहिए कि परजा को किसी विशेष मत की ओर खींचें, बल्कि उथको ‘उसी मत की रक्षा करनी चाहिए जो परचलित हो, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, क्योंकि देश, काल और जाति की परिस्थिति के अनुसार ही उसका जन्म और विकास हुआ है। अगर शासन किसी मत को दमन करने की चेष्टा करता है, तो वह अपने को विचारों में त्र्कान्तिकारी और व्यवहारों में अत्याचारी सिद्ध करता है, और परजा उससे घृणा करे तो सर्वथा क्षम्य है। फिर आप जनता के मिथ्या विचारों का सुधार क्योंकर कर सकते हैं अगर तुम उनको समझने और उन्हें निरक्षेप भाव से देखने में असमर्थ हैं ? अरिस्टोयस, मेरा विचार है कि इस पक्षियों के बसाये हुए मेघनगर को आकाश में लटका रहने दूं। उस पर नैसर्गिक शक्तियों का कोप ही क्या कम है कि मैं भी उसको उजाड़ने में अगरसर बनूं। उसके उजाड़ने से मुझे अपयश के सिवा और कुछ हाथ न लगेगा। हां, इस आकाश निवासी योगी के विचारों और विश्वासों को लेखबद्ध करना चाहिए।
यह कहकर उसने फिर खांसा और अपने मन्त्री के कन्धे पर हाथ रखकर बोला-‘पुत्र, नोट कर लो कि ईसाई सम्परदाय के कुछ अनुयायियों के मतानुसार स्तम्भों के शिखर पर रहना और वेश्याओं को ले भागना सराहनीय कार्य है। इतना और ब़ा दो कि यह परथाएं सृष्टि करने वाले देवताओं की उपासना के परमाण हैं। ईसाई धर्म ईश्वरवादी होकर देवताओं के परभाव को अभी तक नहीं मिटा सका। लेकिन इस विषय में हमें स्वयं इस योगी ही से जिज्ञासा करनी चाहिए।
तब फिर उठाकर और धूप से आंखों को बचाने के लिए हाथों की आड़ करके उसने उच्चस्वर में कहा-इधर देखो पापनाशी ! अगर तुम अभी यह नहीं भूले हो कि तुम एक बार मेरे मेहमान रह चुके हो तो मेरी बातों का उत्तर दो। तुम वहां आकाश पर बैठे क्या कर रहे हो ? तुम्हारे वहां जाने का और रहने का क्या उद्देश्य है ? क्या तुम्हारा विचार है कि इस स्तम्भ पर च़कर तुम देश का कुछ कल्याण कर सकते हो ?
पापनाशी ने कोटा को केवल परतिमावादी तुच्छ दृष्टि से देखा और उसे कुछ उत्तर देने योग्य न समझा। लेकिन उसका शिष्य लेवियन समीप आकर बोला-‘मान्यवर, वह ऋषि समस्त भूमण्डल के पापों को अपने ऊपर लेता और रोगियों को आरोग्य परदान करता है।’
कोटा-‘कसम खुदा की, यह तो बड़ी दिल्लगी की बात है तुम कहते हो अरिस्टीयस, यह आकाशवासी महात्मा चिकित्सा करता है। यह तो तुम्हारा परतिवादी निकला। तुम ऐसे आकाशरोही वैद्य से क्योंकर पेश पा सकोगे ?’
अरिस्टीयस ने सिर हिलाकर कहा-यह बहुत सम्भव है कि वह बाजेबाजे रोगों की चिकित्सा करने में मुझसे कुशल हो। अदाहरणतः मिरगी ही को ले लीजिए। गंवारी बोलचाल में लोग इसे ‘देवरोग’ कहते हैं, यद्यपि सभी रोग दैवी हैं, क्योंकि उनके सृजन करने वाले तो देवगण ही हैं। लेकिन इस विशेष रोग का कारण अंशतः कल्पनाशक्ति में है और आप यह रोगियों की कल्पना पर जितना परभाव डाल सकता है, उतना मैं अपने चिकित्सालय में खरल और दस्ते से औषधियों घोंटकर कदापि नहीं डाल सकता। महाशय, कितनी ही गुप्त शक्तियां हैं जो शास्त्र और बुद्धि से कहीं ब़कर परभावोत्पादक हैं।’
कोटा-‘वह कौन शक्तियां हैं ?’
अरिस्टीयस-‘मूर्खता और अज्ञान।’
कोटा-‘मैंने अपनी बड़ीबड़ी यात्राओं में भी इससे विचित्र दृश्य नहीं देखा, और मुझे आशा है कि कभी कोई सुयोग्य इतिहासलेखक ‘मोचननगर’ की उत्पत्ति का सविस्तार वर्णर करुंगा। लेकिन हम जैसी बहुधन्धी मनुष्यों को किसी वस्तु के देखने में चाहे वह कितनाही कुतूहलजनक क्यों न हो, अपना बहुत समय न गंवाना चाहिए। चलिए, अब नहरों का निरीक्षण करें। अच्छा पापनाशी, नमस्कार। फिर कभी आऊंगा। लेकिन अगर तुम फिर कभी पृथ्वी पर उतरो और इस्कन्द्रिया आने का संयोग हो तो मुझे न भूलना। मेरे द्वार तुम्हारे स्वागत के लिए नित्य खुले हैं। मेरे यहां आकर अवश्य भोजन करना।’
हजारों मनुष्यों ने कोटा के यह शब्द सुने। एक ने दूसरे से कहा-ईसाइयों में और भी नमक मिर्च लगाया। जनता किसी की परशंसा बड़े अधिकारियों के मुंह से सुनती है तो उसकी दृष्टि में उस परशंसित मनुष्य का आदरसम्मान सतगुण अधिक हो जाता है। पापनाशी की ओर भी ख्याति होने लगी। सरलहृदय मतानुरागियों ने इन शब्दों को और भी परिमार्जित और अतिशयोक्तिपूर्ण रूप दे दिया। किंवदन्तियां होने लगीं कि महात्मा पापनाशी ने स्तम्भ के शिखर पर बैठेबैठे, जलसेना के अध्यक्ष को ईसाई धर्म का अनुगामी बना लिया। उसके उपदेशों में यह चमत्कार है कि सुनते ही बड़ेबड़े नास्तिक भी मस्तक झुका देते हैं। कोटा के अन्तिम शब्दों में भक्तों को गुप्त आशय छिपा हुआ परतीत हुआ। जिस स्वागत की उस उच्च अधिकारी ने सूचना दी थी वह साधारण स्वागत नहीं था। वह वास्तव में एक आध्यात्मिक भोज, एक स्वगीर्य सम्मेलन, एक पारलौकिक संयोग का निमंत्रण था। उस सम्भाषण की कथा का बड़ा अद्भुत और अलंकृत विस्तार किया गया। और जिनजिन महानुभावों ने यह रचना की उन्होंने स्वयं पहले उस पर विश्वास किया। कहा जाता था कि जब कोटा ने विशद तर्कवितर्क के पश्चात सत्य को अंगीकार किया और परभु मसीह की शरण में आया तो एक स्वर्गदूत आकाश से उसके मुंह का पसीना पोंछने आया। यह भी कहा जाता था कि कोटा के साथ उसके वैद्य और मन्त्री ने भी ईसाई धर्म स्वीकार किया। मुख्य ईसाई संस्थाओं के अधिष्ठाताओें ने यह अलौकिक समाचार सुना तो ऐतिहासिक घटनाओं में उसका उल्लेख किया। इतने ख्यातिलाभ के बाद यह कहना किंचित मात्र भी अतिशयोक्ति न थी कि सारा संसार पापनाशी के दर्शनों के लिए उत्कंठित हो गया। पराच्य और पाश्चात्य दोनों ही देशों के ईसाइयों की विस्मित आंखें उनकी ओर उठने लगीं। इटली के परधान नगरों ने उसके नाम अभिनन्दनपत्र भेजे और रोम के कैंसर कॉन्स्टैनटाइन ने, जो ईसाई धर्म का पक्षपाती था उनके पास एक पत्र भेजा। ईसाई दूत इस पत्र को बड़े आदरसम्मान के साथ पापनाशी के पास लाये। लेकिन एक रात को जब वह नवजात नगर हिम की चादर ओ़े सो रहा था, पापनाशी के कानों में यह शब्द सुनाई दिये-पापनाशी, तू अपने कर्मों से परसिद्ध और अपने शब्दों से शक्तिशाली हो गया है। ईश्वर ने अपनी कीर्ति को उज्ज्वल करने के लिए तुझे इस सवोर्च्च पद पर पहुंचाया है। उसने तुझे अलौकिक लीलाएं दिखाने, रोगियों को आरोग्य परदान करने, नास्तिकों को सन्मार्ग पर लाने, पापियों का उद्घार करने, एरियन के मतानुयायियों के मुख में कालिमा लगाने और ईसाई जगत में शान्ति और सुखसामराज्य स्थापित करने के लिए नियुक्त किया है।’
पापनाशी ने उत्तर दिया-‘ईश्वर की जैसी आज्ञा।’
फिर आवाज आयी थी-‘पापनाशी, उठ जा, और विधमीर कॉन्सटेन्स को उसके राज्यपरासाद में सन्मार्ग पर ला, जो अपने पूज्य बन्धु कॉन्सटेनटाइन का अनुकरण न करके एरियस और माक्र्स के मिथ्यावाद में फंसा हुआ है। जा, विलम्ब न कर। अष्टधातु के फाटक तेरे पहंुचते ही आपही-आप खुल जायेंगे, और तेरी पादुकाओं की ध्वनि; कैसरों के सिंहासन के सम्मुख सजे भवन की स्वर्णभूमि पर परतिध्वनित होगी और तेरी परतिभामय वाणी कॉन्स्टैनटाइन के पुत्र के हृदय को परास्त कर देगी। संयुक्त और अखण्ड ईसाई सामराज्य पर राज्य करेगा और जिस परकार जीव देह पर शासन करता है, उसी परकार ईसाई धर्म सामराज्य पर शासन करेगा। धनी, रईस, राजयाधिकारी, राज्यसभा के सभासद सभी तेरे अधीन हो जायेंगे। तू जनता को लोभ से मुक्त करेगा और असभ्य जातियों के आत्र्कमणों का निवारण करेगा। वृद्ध कोटा जो इस समय नौकाविभाग का परधान है। तुझे शासन का कर्णधार बना हुआ देखकर तेरे चरण धोयेगा। तेरे शरीरान्त होने पर तेरी मृतदेह इस्कन्द्रिया जायेगी और वहां का परधान मठधारी उसे एक ऋषि का स्मारकचिह्न समझकर उसका चुम्बन करेगा ! जा !’
पापनाशी ने उत्तर दिया-‘ईश्वर की जैसी आज्ञा !’
यह कहकर उसने उठकर खड़े होने की चेष्टा की, किन्तु उस आवाज ने उसकी इच्छा को ताड़कर कहा-‘सबसे महत्व की बात यह है कि तू सी़ी द्वारा मत उतर ! यह तो साधारण मनुष्यों कीसी बात होगी। ईश्वर ने तुझे अद्भुत शक्ति परदान की है। तुझ जैसे परतिभाशाली महात्मा को वायु में उड़ना चाहिए। नीचे कूद पड़, स्वर्ग के दूत तुझे संभालने के लिए खड़े हैं, तुरन्त कूद पड़।’
पापनाशी न उत्तर दिया-‘ईश्वर की इस संसार में उसी भांति विषय हो जैसे स्वर्ग में है!’
अपनी विशाल बांहें फैलाकर, मानो कि बृहदाकर पक्षी ने अपने छिदरे पंख फैलाये हों, वह नीचे कूदने वाला ही था कि सहसा एक डरावनी, उपहाससूचक हास्यध्वनि उसके कानों में आयी। भीत होकर उसने पूछा-यह कौन हंस रहा है।’
उस आवाज ने उत्तर दिया-‘चौंकते क्यों हो ? अभी तो तुम्हारी मित्रता का आरम्भ हुआ है। एक दिन ऐसा आयेगा जब मुझसे तुम्हारा परिचय घनिष्ठ हो जायेगा। मित्रवर, मैंने ही तुझे इस स्तम्भ पर च़ने की परेरणा की थी और जिस निरापदभाव से तुमने मेरी आज्ञा शिरोधार्य की उससे मैं बहुत परसन्न हूं। पापनाशी, मैं तुमसे बहुत खुश हूं।’
पापनाशी ने भयभीत होकर कहा-‘परभु, परभु ! मैं तुझे अब पहचान गया, खूब पहचान गया। तू ही वह पराणी है जो परभु मसीह को मन्दिर के कलश पर ले गया था और भूमंडल के समस्त सामराज्यों का दिग्दर्शन कराया था।’
‘तू शैतान है ! भगवान्, तुम मुझसे क्यों पराङ्मुख हो ?’
वह थरथर कांपता हुआ भूमि पर गिर पड़ा और सोचने लगा-
मुझे पहले इसका ज्ञान क्यों न हुआ ? मैं उन नेत्रहीन, वधिर और अपंग मनुष्यों से भी अभागा हूं जो नित्य शरण आते हैं। मेरी अन्तर्दृष्टि सर्वथा ज्योतिहीन हो गयी है, मुझे दैवी घटनाओं का अब लेशमात्र भी ज्ञान नहीं होता और अब मैं उन भरष्टबुद्धि पागलों की भांति हूं जो मिट्टी फांकते हैं और मुर्दों की लाशें घसीटते हैं। मैं अब नरक के अमंगल और स्वर्ग के मधुर शब्दों में भेद करने के योग्य नहीं रहा। मुझसे अब उस नवजात शिशु का नैसर्गिक ज्ञान भी नहीं रहा जो माता के स्तनों के मुंह से निकल जाने पर रोता है, उस कुत्ते कासा भी, जो अपने स्वामी के पद चिह्नों की गन्ध पहचानता है, उस पौधे (सूर्यमुखी) कासा भी जो सूर्य की ओर अपना मुख फेरता रहता है। मैं परेतों और पिशाचों के परिहास का केन्द्र हूं। यह सब मुझ पर तालियां बजा रहे हैं, जो अब ज्ञात हुआ, कि शैतान ही मुझे यहां खींचकर लाया। जब उसने मुझे इस स्तम्भ पर च़ाया तो वासना और अहंकार दोनों ही मेरे साथ च़ आये ! मैं केवल अपनी इच्छाओं के विस्तार ही से शंकायमान नहीं होता। एटोनी भी अपनी पर्वतगुफा में ऐसे ही परलोभनों से पीड़ित है। मैं चाहता हूं कि इन समस्त पिशाचों की तलवार मेरी देह को छेद स्वर्गदूतों के सम्मुख मेरी धज्जियां उड़ा दी जायें। अब मैं अपनी यातनाओं से परेम करना सीख गया हूं। लेकिन ईश्वर मुझसे नहीं बोलता, उसका एक शब्द भी मेरे कानों में नहीं आता। उसका यह निर्दय मौन, यह कठोर निस्तब्धता आश्चर्यजनक है। उसने मुझे त्याग दिया है-मुझे, जिसका उसके सिवा और कोई अवलम्ब न था। वह मुझे इस आफत में अकेला निस्सहाय छोड़े हुए है। वह मुझसे दूर भागता है, घृणा करता है। लेकिन मैं उसका पीछा नहीं छोड़ सकता। यहां मेरे पैर जल रहे हैं, मैं दौड़कर उसके पास पहुंचूंगा।
यह कहते ही उसने वह सी़ी थाम ली जो स्तम्भ के सहारे खड़ी थी, उस पर पैर रखे और एक डण्डा नीचे उतरा कि उसका मुख गोरूपी कलश के सम्मुख आ गया। उसे देखकर गोमूर्ति विचित्र रूप से मुस्कराई। उसे अब इसमें कोई सन्देह न था कि जिस स्थान को उसने शांतिलाभ और सत्कीर्ति के लिए पसंद किया था, वह उसके सर्वनाश और पतन का सिद्ध हुआ। वह बड़े वेग से उतरकर जमीन पर आ पहुंचा। उसके पैरों को अब खड़े होने का भी अभ्यास न था, वे डगमगाते थे। लेकिन अपने ऊपर इस पैशाचिक स्तंभ की परछाईं पड़ते देखकर वह जबरदस्ती दौड़ा, मानो कोइर कैदी भाग जाता हो। संसार निद्रा में मग्न था। वह सबसे छिपा हुआ उस चौक से होकर निकला जिसके चारों ओर शराब की दुकानें, सराएं, धर्मशालाएं बनी हुई थीं और एक गली में घुस गया, जो लाइबिया की पहाड़ियों की ओर जाती थी। विचित्र बात यह थी कि एक कुत्ता भी भूंकता हुआ उसका पीछा कर रहा था और जब एक मरुभूमि के किनारे तक उसे दौड़ा न ले गया, उसका पीछा न छोड़ा। पापनाशी ऐसे देहातों में पहुंचा जहां सड़कें या पगडंडियां न थीं, केवल वनजन्तुओं के पैरों के निशान थे। इस निर्जन परदेश में वह एक दिन और रात लगातार अकेला भागता चला गया।
अन्त में जब वह भूख, प्यास और थकान से इतना बेदम हो गया कि पांव लड़खड़ाने लगे, ऐसा जान पड़ने लगा कि अब जीता न बचूंगा तो वह एक नगर में पहुंचा जो दायेंबायें इतनी दूर तक फैला हुआ था कि उसकी सीमाएं नीले क्षितिज में विलीन हो जाती थीं। चारों ओर निस्तब्धता छायी हुई थी, किसी पराणी का नाम न था। मकानों की कमी न थी, पर वह दूरदूर पर बने हुए थे, और उन मिस्त्री मीनारों की भांति दीखते थे जो बीच में काट लिये गये हों। सबों की बनावट एकसी थी, मानो एक ही इमारत की बहुतसी नकलें की गयी हों। वास्तव में यह सब कबरें थीं। उनके द्वार खुले ओर टूटे हुए थे, और उनके अन्दर भेड़ियों और लकड़बग्घों की चमकती हुई आंखें नजर आती थीं, जिन्होंने वहां बच्चे दिये थे। मुर्दे कबरों के सामने बाहर पड़े हुए थे जिन्हें डाकुओं ने नोचखसोट लिया था और जंगली जानवरों ने जगहजगह चबा डाला था। इस मृतपुरी में बहुत देश तक चलने के बाद पापनाशी एक कबर के सामने थककर गिर पड़ा, जो छुहारे के वृक्षों से ंके हुए एक सोते के समीप थी। यह कबर खूब सजी हुई थी, उसके ऊपर बेलबूटे बने हुए थे, किन्तु कोई द्वार न था। पापनाशी ने एक छिद्र में से झांका तो अन्दर एक सुन्दर, रंगा हआ तहखाना दिखाई पड़ा जिसमें सांपों के छोटेछोटे बच्चे इधरउधर रेंग रहे थे। उसे अब भी यही शंका हो रही थी कि ईश्वर ने मेरा हाथ छोड़ दिया है और मेरा कोई अवलम्ब नहीं है।
उसने एक दिन दीर्घ नि:श्वास लेकर कहा-‘इसी स्थान में मेरा निवास होगा, यही कबर अब मेरे परायश्चित और आत्मदमन का आश्रयस्था न होगी।’
उसके पैर तो उठ न सकते थे, लेटेलेटे खिसकता हुआ वह अन्दर चला गया, सांपों को अपने पैरों से भगा दिया और निरन्तर अठारह घण्टों तक पक्की भूमि पर सिर रखे हुए औंधे मुंह पड़ा रहा। इसके पश्चात वह उस जलस्त्रोत पर गया और चिल्लू से पेट भर पानी पिया। तब उसने थोड़े छुहारे तोड़े और कई कमल की बेलें निकाकर कमल गट्टे जमा किये। यही उसका भोजन था। क्षुआ और तृषा शान्त होने पर उसे ऐसा अनुमान हुआ कि यहां वह सभी विघ्नबाधाओं से मुक्त होकर कालक्षेप कर सकता है। अतएव उसने इसे अपने जीवन का नियम बना लिया। परातःकाल से संध्या तक वह एक क्षण के लिए भी सिर ऊपर न उठाता था।
एक दिन जब वह इस भांति औंधे मुंह पड़ा हुआ था तो उसके कानों में किसी के बोलने की आवाज आयी-ष्पााणाचित्रों को देख, तुझे ज्ञान पराप्त होगा।
यह सुनते ही उसने सिर उठाया और तहखाने की दीवारों पर दृष्टिपात किया तो उसे चारों ओर सामाजिक दृश्य अंकित दिखाई दिये। जीवन की साधारण घटनाएं जीतीजागती मूर्तियों द्वारा परकट की गयी थीं। यह बड़े पराचीन समय की चित्रकारी थी और इतनी उत्तम कि जान पड़ता मूर्तियां अब बोलना ही चाहती हैं। चित्रकार ने उनमें जान डाल दी थी। कहीं कोई नानबाई रोटियां बना रहा था और गोलों को कुप्पी की तरह फुलाकर आग फूंकता था, कोई बतखों के पर नोंच रहा था ओैर कोई पतीलियों में मांस पका रहा था। जरा और हटकर एक शिकारी कन्धों पर हिरन लिये जाता था जिसकी देह में बाण चुभे दिखाई देते थे। एक स्थान पर किसान खेती का कामकाज करते थे। कोई बोता था, कोई काटता था, कोई अनाज बखारों से भर रहा था। दूसरे स्थान पर कई स्त्रियां वीणा, बांसुरी और तम्बूरों पर नाच रही थीं। एक सुन्दर युवती सितार बजा रही थी। उसके केशों में कमल का पुष्प शोभा दे रहा था। केश बड़ी सुन्दरता से गुंथे हुए थे। उसके स्वच्छ महीन कपड़ों से उसके निर्मल अंगों की आभा झलकती थी। उसके मुख और वक्षस्थल की शोभा अद्वितीय थी। उसका मुख एक ओर को फिरा हुआ था, पर कमलनेत्र सीधे ही ताक रहे थे। सवारंग अनुपम, अद्वितीय, मुग्धकर था। पापनाशी ने उसे देखते ही आंखें नीची कर लीं और उस आवाज को उत्तर दिया-‘तू मुझे इन तस्वीरों का अवलोकन करने का आदेश क्यों देता है। इसमें तेरी क्या इच्छा है ? यह सत्य है कि इन चित्रों में परतिमावादी पुरुष के सांसारिक जीवन का अंकन किया गया है जो यहां मेरे पैरों के नीचे* एक कुएं की तह में, काले पत्थर के सन्दूक में बन्द, गड़ा हुआ है। उनसे एक मरे हुए पराणी की याद आती है, और यद्यपि उनके रूप बहुत चमकीले हैं, पर यथार्थ में वह केवल छाया नहीं, छाया की छाया है, क्योंकि मानवजीवन स्वयं छायामात्र है। मृतदेह का इतना महत्व इतना गर्व !’
उस आवाज ने उत्तर दिया-‘अब वह मर गया है लेकिन एक दिन जीवित था। लेकिन तू एक दिन मर जायेगा और तेरा कोई निशान न होगा। तू ऐसा मिट जायेगा मानो कभी तेरा जन्म ही नहीं हुआ था।’
उस दिन से पापनाशी का चित्त आठों पहर चंचल रहने लगा। एक पल के लिए उसे शान्ति न मिलती। उस आवाज की अविश्रान्त ध्वनि उसके कानों में आया करती। सितार बजाने वाली युवती अपनी लम्बी पलकों के नीचे सक उसकी ओर टकटकी लगाये रहती। आखिर एक दिन वह भी बोली-‘पापनाशी, इधर देख ! मैं कितनी मायाविनी और रूपवती हूं ! मुझे प्यार क्यों नहीं करता ? मेरे परेमालिंगन में उस परेमदाह को शान्त कर दे जो तुझे विकल कर रहा है। मुझसे तू व्यर्थ आशंकित है। तू मुझसे बच नहीं सकता, मेरे परेमपाशों से भाग नहीं सकता ! मैं नारी सौन्दर्य हूं। हतबुद्धि ! मूर्ख ! तू मुझसे कहां भाग जाने का विचार करता है ? तुझे कहां शरण मिलेगी ? तुझे सुन्दर पुष्पों की शोभा में, खजूर के वृक्षों के फूलों में, उसकी फलों से लदी हुई डालियों में, कबूतरों के पर में, मृगाओं की छलांगों में, जलपरपातों के मधुर कलरव में, चांद की मन्द ज्योत्स्ना में, तितलियों के मनोहर रंगों में, और यदि अपनी आंखें बंद कर लेगा, तो अपने अंतस्तल में, मेरा ही स्वरूप दिखाई देगा। मेरा सौंदर्य सर्वव्यापक है। एक हजार वर्षों से अधिक हुए कि उस पुरुष ने जो यहां महीन कफन में वेष्टित, एक काले पत्थर की शय्या पर विश्राम कर रहा है, मुझे अपने हृदय से लगाया था। एक हजार वर्षों से अधिक हुआ कि उसने मेरे सुधामय अधरों का अन्तिम बार रसास्वादन किया था और उसकी दीर्घ निद्रा अभी तक उसकी सुगन्ध से महक रही है। पापनाशी, तुम मुझे भलीभांति जानते हो ? तुम मुझे भूल कैसे गये ? मुझे पहचाना क्यों नहीं ! इसी पर आत्मज्ञानी बनने का दावा करते हो ? मैं थायस के असंख्य अवतारों में से एक हूं। तुम विद्वान हो और जीवों के तत्त्व को जानते हो। तुमने बड़ीबड़ी यात्राएं की हैं और यात्राओं ही से मनुष्य आदमी बनता है, उसके ज्ञान और बुर्द्धि का विकास होता है। यात्रा के दिनों में बहुधा इतनी नवीन वस्तुएं देखने में आ जाती हैं, जितनी घर पर बैठे हुए दस वर्ष में भी न आयेंगी। तुमने सुना है कि पूर्वकाल में थायस हेलेन के नाम से यूनान में रहती थी। उसने थीब्स में फिर दूसरा अवतार लिया। मैं ही थीब्स की थायस थी। इसका कारण क्या है कि तुम इतना भी न भांप सके। पहचानो, यह किसकी कबर है ? क्या तुम बिल्कुल भूल गये कि हमने कैसेकैसे विहार किये थे। जब मैं जीवित थी तो मैंने इस संसार के पापों का बड़ा भार अपने सिर पर लिया था और अब केवल छायामात्र रह जाने पर भी एक चित्र के रूप में भी, मुझमें इतनी समाथ्र्य है कि मैं तुम्हारे पापों को अपने ऊपर ले सकूं। हां, मुझमें इतनी सामथ्र्य है। जिसने जीवन में समस्त संसार के पापों का भार उठाया, क्या उसका चित्र अब एक पराणी के पापों को भार न उठा सकेगा। विस्मित क्यों होते हो? आश्चर्य की कोई बात नहीं। विधाता ही ने यह व्यवस्था कर दी कि तुम जहां जाओगे, थायस तुम्हारे साथ रहेगी। अब अपनी चिरसंगिनी थायस की क्यों अवहेलना करते हो ? तुम विधाता के नियम को नहीं तोड़ सकते।’
पापनाशी ने पत्थर के फर्श पर अपना सिर पटक दिया और भयभीत होकर चीख उठा। अब यह सितारवादिनी नित्यपरति दीवार से न जाने किस तरह अलग होकर उसके समीप आ जाती और मन्दश्वास लेते हुए उससे स्पष्ट शब्दों में वार्तालाप करती। और जब वह विरक्त पराणी उसकी क्षुब्ध चेष्टाओं का बहिष्कार करता तो वह उससे कहती-‘पिरयतम! मुझे प्यार क्यों नहीं करते ? मुझसे इतनी निठुराई क्यों करते हो ? जब तक तुम मुझसे दूर भागते रहोगे, मैं तुम्हें विकल करती रहूंगी, तुम्हें यातनाएं देती रहूंगी। तुम्हें अभी यह नहीं मालूम है कि मृत स्त्री की आत्मा कितनी धैर्यशालिनी होती है। अगर आवश्यकता हो तो मैं उस समय तक तुम्हारा इन्तजार करुंगी जब तक तुम मर न जाओगे। मरने के बाद भी मैं तुम्हारा पीछा न छोडूंगी। मैं जादूगरनी हूं, मुझे मंत्रों का बहुत अभ्यास है। मैं तुम्हारी मृतदेह में नया जीव डाल दूंगी। जो उसे चैतन्य कर देगा और जो मुझे वह वस्तु परदान करके अपने को धन्य मानेगा जो मैं तुमसे मांगतेमांगते हार गयी और न पा सकी ! मैं उस पुनजीर्वित शरीर के साथ मनमाना सुखभोग करुंगी। और पिरय पापनाशी, सोचो, तुम्हारी दशा कितनी करुणाजनक होगी जब तुम्हारी स्वर्गवासिनी आत्मा उस ऊंचे स्थान पर बैठे हुए देखेगी कि मेरी ही देह की क्या छीछालेदर हो रही है। स्वयं ईश्वर जिसने हिसाब के दिन के बाद तुम्हें अनन्तकाल तक के लिए यह देह लौटा देने का वचन दिया है चक्कर में पड़ जायेगा कि क्या करुं। वह उस मानव शरीर को स्वर्ग के पवित्र धाम में कैसे स्थान देगा जिसमें एक परेत का निवास है और जिससे एक जादूगरनी की माया लिपटी हुई है ? तुमने उस कठिन समस्या का विचार नहीं किया। न ईश्वर ही ने उस पर विचार करने का कष्ट उठाया। तुमसे कोई परदा नहीं। हम तुम दोनों एक ही हैं ईश्वर बहुत विचारशील नहीं जान पड़ता। कोई साधारण जादूगर उसे धोखें में डाल सकता है; और यदि उसके पास आकाश, वजर और मेघों की जलसेना न होती तो देहाती लौंडे उसकी दा़ी नोचकर भाग जाते, उससे कोई भयभीत न होता, और उसकी विस्तृत सृष्टि का अन्त हो जाता। यथार्थ में उसका पुराना शत्रु सर्प उससे कहीं चतुर और दूरदर्शी है। सर्पराज के कौशल का पारावार नहीं है। यह कलाओं में परवीण हैं यदि मैं ऐसी सुन्दरी हूं तो इसका कारण यह है कि उसने मुझे अपने ही हाथों से रचा और यह शोभा परदान की। उसी ने मुझे बालों का गूंथना, अर्धकुसुमित अधरों से हंसना और आभूषणों से अंगों को सजाना सिखाया। तुम अभी तक उसका माहात्म्य नहीं जानते। जब तुम पहली बार इस कबर में आये तो तुमने अपने पैरों से उन सर्पों को भगा दिया जो यहां रहते थे और उनके अंडों को कुचल डाला। तुम्हें इसकी लेशमात्र भी चिन्ता न हुई कि यह सर्पराज के आत्मीय हैं। मित्र, मुझे भय है कि इस अविचार का तुमको कड़ा दंड मिलेगा। सर्पराज तुमसे बदला लिये बिना न रहेगा। तिस पर भी तुम इतना तो जानते ही थे कि वह संगीत में निपुण और परेमकला में सिद्धहस्त है। तुमने यह जानकर भी उसकी अवज्ञा की। कला और सौन्दर्य दोनों ही से झगड़ा कर बैठे, दोनों को ही पांव तले कुचलने की चेष्टा की। और अब तुम दैहिक और मानसिक आतंकों से गरस्त हो रहे हो। तुम्हारा ईश्वर क्यों तुम्हारी सहायता नहीं करता ? उसके लिए यह असम्भव है। उसका आकार भूमंडल के आकार के समान ही है, इसलिए उसे चलने की जगह ही कहां है, और अगर असम्भव को सम्भव मान लें, तो उसकी भूमंडलव्यापी देह के किंचितमात्र हिलने पर सारी सृष्टि अपनी जगह से खिसक जायेगी, संसार का नाम ही न रहेगा। तुम्हारे सर्वज्ञाता ईश्वर ने अपनी सृष्टि में अपने को कैद कर रखा है।
पापनाशी को मालूम था कि जादू द्वारा बड़ेबड़े अनैसर्गिक कार्य सिद्ध हो जाया करते हैं। यह विचार करके उसको बड़ी घबराहट हुई-
शायद वह मृत पुरुष जो मेरे पैरों के नीचे समाधिस्थ है उन मन्त्रों को याद रखे हुए है जो ‘गुप्त गरंथ’ में गुप्त रूप से लिखे हुए हैं। वह गरंथ अवश्य ही किसी बादशाह की कबर निकट होगी। उन मन्त्रों के बल से मुर्दे वही देह धारण कर लेते हैं जो उन्होंने इस लोक में धारण किया था, और फिर सूर्य के परकाश और रमणियों की मन्द मुस्कान का आनन्द उठाते हैं।
उसको सबसे अधिक भय इस बात का था कि कहीं यह सितार बजाने वाली सुन्दरी और वह मृत पुरुष निकल न आये और उसके सामने उसी भांति संभोग न करने लगें, जैसे वह अपने जीवन में किया करते थे। कभीकभी उसे ऐसा मालूम होता था कि चुम्बन का शब्द सुनाई दे रहा है।
वह मानसिक ताप से जला जाता था, और अब ईश्वर की दयादृष्टि से वंचित होकर उसे विचारों से उतना ही भय लगता था, जितना भावों से। न जाने मन में कब क्या भाव जागृत हो जाय।
एकदिन संध्या समय जब वह अपने नियमानुसार औंधे मुंह पड़ा सिजदा कर रहा था; किसी अपरिचित पराणी ने उससे कहा-
‘पापनाशी, पृथ्वी पर उससे कितने ही अधिक और कितने ही विचित्र पराणी बसते हैं जितना तुम अनुमान कर सकते हो, और यदि मैं तुम्हें यह सब दिखा सकूं जिसका मैंने अनुभव किया है तो तुम आश्चर्य से भर जाओगे। संसार में ऐसे मनुष्य भी हैं जिनके ललाट के मध्य में केवल एक ही आंख होती है और वह जीवन का सारा काम उसी एक आंख से करते हैं। ऐसे पराणी भी देखे गये हैं जिनके एक ही टांग होती है और वह उछलउछलकर चलते हैं। इन एक टांगों से एक पूरा परान्त बसा हुआ। ऐसे पराणी भी हैं जो इच्छानुसार स्त्री या पुरुष बन जाते हैं। उनके लिंगभेद नहीं होता। इतना ही सुनकर न चकराओ; पृथ्वी पर मानव वृक्ष हैं जिनकी जड़ें जमीन में फैलती हैं, बिना सिर वाले मनुष्य हैं। जिनकी छाती में मुंह, दो आंखें और एक नाक रहती है। क्या तुम शुद्ध मन से विश्वास करते हो कि परभु मसीह ने इन पराणियों की मुक्ति के निमित्त ही शरीरत्याग किया ? अगर उसने इन दुखियों को छोड़ दिया है तो यह किसी शरण जायेंगे, कौन इनकी मुक्ति का दायी होगा ?’
इसके कुछ समय बाद पापनाशी को एक स्वप्न हुआ। उसने निर्मल परकाश में एक चौड़ी सड़क, बहते हुए नाले और लहलहाते हुए उद्यान देखे। सड़क पर अरिस्टोबोलस और चेरियास अपने अरबी घोड़ों को सरपट दौड़ाये चले जाते थे और इस चौगान दौड़ से उनका चित्त इतना उल्लसित हो रहा था कि उनमें मुंह अरुणवर्ण हुए जाते थे। उनके समीप ही के एक पेशताक में खड़ा कवि कलित्र्कान्त अपने कवित्त पॄ रहा था। सफल वर्ग उसके स्वर में कांपता था और उसकी आंखों में चमकता था। उद्यान में जेनाथेमीज पके हुए सेब चुन रहा था और एक सर्प को थपकियां दे रहा था जिसके नीले पर थे। हरमोडोरस श्वेत वस्त्र पहने, सिर पर एक रत्नजटित मुकुट रखे, एक वृक्ष के नीचे ध्यान में मग्न बैठा था। इस वृक्ष में फूलों की जगह छोटेछोटे सिर लटक रहे थे जो मिस्त्र देश की देवियों की भांति गिद्ध; बाज या उज्ज्वल चन्द्रमण्डल का मुकुट पहने हुए थे। पीछे की ओर एक जलकुण्ड के समीप बैठा हुआ निसियास नक्षत्रों की अनन्त गति का अवलोकन कर रहा था।
तब एक स्त्री मुंह पर नकाब डाले और हाथ में मेंहदी की एक टहनी लिये पापनाशी के पास आयी और बोली-‘पापनाशी, इधर देख ! कुछ लोग ऐसे हैं जो अनन्त सौन्दर्य के लिए लालायित रहते हैं, और अपने नश्वर जीवन को अमर समझते हैं। कुछ ऐसे पराणी भी हैं जो जड़ और विचार शून्य हैं, जो कभी जीवन के तत्त्वों पर विचार ही नहीं करते लेकिन दोनों ही केवल जीवन के नाते परकृति देवी की आज्ञाओं का पालन करते हैं; वह केवल इतने ही से सन्तुष्ट और सुखी हैं कि हम जीते हैं, और संसार के अद्वितीय कलानिधि का गुणगान करते हैं क्योंकि मनुष्य ईश्वर की मूर्तिमान स्तुति है। पराणी मात्र का विचार है कि सुख एक निष्पाप, विशुद्ध वस्तु है, और सुखभोग मनुष्य के लिए वर्जित नहीं है। अगर इन लोगों का विचार सत्य है तो पापनाशी, तुम कहीं के न रहे। तुम्हारा जीवन नष्ट हो गया। तुमने परकृति के दिये हुए सवोर्त्तम पदार्थ को तुच्छ समझा। तुम जानते हो, तुम्हें इसका क्या दण्ड मिलेगा?’
पापनाशी की नींद टूट गयी।
इसी भांति पापनाशी को निरन्तर शारीरिक तथा मानसिक परलोभनों का सामना करना पड़ता था। यह दुष्परेरणाएं उसे सर्वत्र घेरे रहती थीं। शैतान एक पल के लिए भी उसे चैन न लेने देता। उस निर्जन कबर में किसी बड़े नगर की सड़कों से भी अधिक पराणी बसे हुए जान पड़ते थे। भूतपिशाच हंसहंसकर शोर मचाया करते और अगणित परेत, चुड़ैल आदि और नाना परकार की दुरात्माएं जीवन का साधारण व्यवहार करती रहती थीं। संध्या समय जब वह जलधारा की ओर जाता तो परियां उसे चुड़ैले उसके चारों ओर एकत्र हो जातीं और उसे अपने कामोत्तेजक नृत्यों में खींच ले जाने की चेष्टा करतीं। पिशाचों को अब उससे जरा भी भय न होता था। वे उसका उपहास करते, उस पर अश्लील व्यंग करते और बहुधा उस पर मुष्टिपरहार भी कर देते। वह इन अपमानों से अत्यन्त दुःखी होता था। एक दिन एक पिशाच, जो उसकी बांह से बड़ा नहीं था, उस रस्सी को चुरा ले गया जो वह अपनी कमर में बांधे था। अब वह बिल्कुल नंगा था। आवरण की छाया भी उसकी देह पर न थी। यह सबसे घोर अपमान था जो एक तपस्वी का हो सकता था।
पापनाशी ने सोचा-मन तू मुझे कहां लिये जाता है ?
उस दिन से उसने निश्चय किया कि अब हाथों से श्रम करेगा जिसमें विचारेद्रियों को वह शान्ति मिले जिसकी उन्हें बड़ी आवश्यकता थी। आलस्य का सबसे बुरा फल कुपरवृत्तियों को उकसाना है।
जलधारा के निकट, छुहारे के वृक्षों के नीचे कई केले के पौधे थे जिनकी पत्तियां बहुत बड़ीबड़ी थीं। पापनाशी ने उनके तने काट लिये और उन्हें कबर के पास लाया। उन्हें उसने एक पत्थर से कुचला और उनके रेशे निकाले। रस्सी बनाने वालों को उसने केले के तार निकालते देखा था। वह उस रस्सी की जगह जो एक पिशाच चुरा ले गया था कमरे में लपेटने के लिए दूसरी रस्सी बनाना चाहता था। परेतों ने उसकी दिनचार्य में यह परिवर्तन देखा तो त्र्कुद्ध हुए। किन्तु उसी क्षण से उनका शोर बन्द हो गया, और सितार वाली रमणी ने भी अपनी अलौकिक संगीतकला को बन्द कर दिया और पूर्ववत दीवार से जा मिली और चुपचाप खड़ी हो गयी।
पापनाशी ज्योंज्यों केले के तनों को कुचलता था, उसका आत्मविश्वास, धैर्य और धर्मबल ब़ता जाता था।
उसने मन में विचार किया-ईश्वर की इच्छा है तो अब भी इन्द्रियों का दमन कर सकता हूं। रही आत्मा, उसकी धर्मनिष्ठा अभी तक निश्चल और अभेद्य है। ये परेत, पिशाच, गण और वह कुलटा स्त्री, मेरे मन में ईश्वर के सम्बन्ध में भांतिभांति की शंकाएं उत्पन्न करते रहते हैं। मैं ऋषि जॉन के शब्दों में उनको यह उत्तर दूंगा-आदि में शब्द था और शब्द भी निराकार ईश्वर था। यह मेरा अटल विश्वास है, और यदि मेरा विश्वास मिथ्या और भरममूलक है तो मैं दृ़ता से उस पर विश्वास करता हूं। वास्तव में इसे मिथ्या ही होना चाहिए। यदि ऐसा न होता तो मैं ‘विश्वास’ करता, केवल ईमान न लाता, बल्कि अनुभव करता, जानता। अनुभव से अनन्त जीवन नहीं पराप्त होता ज्ञान हमें मुक्ति नहीं दे सकता। उद्घार करने वाला केवल विश्वास है। अतः हमारे उद्घार की भित्ति मिथ्या और असत्य है।
यह सोचतेसोचते वह रुक गया। तर्क उसे न जाने किधर लिये जाता था।
वह इन बिखरे हुए रेशों को दिनभर धूप में सुखाता और रातभर ओस में भीगने देता। दिन में कई बार वह रेशों को फेरता था कि कहीं सड़ न जायें। अब उसे यह अनुभव करके परम आनन्द होता था कि बालकों के समान सरल और निष्कपट हो गया है।
रस्सी बट चुकने के बाद उसने चटाइयां और टोकरियां बनाने के लए नरकट काटकर जमा किया। वह समाधिकुटी एक टोकरी बनाने वाले की दूकान बन गयी। और अब पापनाशी जब चाहता ईशपरार्थना करता, जब चाहता काम करता; लेकिन इतना संयम और यत्न करने पर भी ईश्वर की उस दयादृष्टि न हुई। एक रात को वह एक ऐसी आवाज सुनकर जाग पड़ा जिसने उसका एकएक रोआं खड़ा कर दिया। यह उसी मरे हुए आदमी की आवाज थी जो उस कबर के अन्दर दफन था। और कौन बोलने वाला था ?
आवाज सायंसायं करती हुई जल्दीजल्दी यों पुकार रही थी-हेलेन, हेलेन, आओ, मेरे साथ स्नान करो !’
एक स्त्री ने जिसका मुंह पापनाशी के कानों के समीप ही जान पड़ता था, उत्तर दिया-पिरयतम, मैं उठ नहीं सकती। मेरे ऊपर एक आदमी सोया हुआ है।
सहसा पापनाशी को ऐसा मालूम हुआ कि वह अपना गाल किसी स्त्री के हृदयस्थल पर रखे हुए है। वह तुरन्त पहचान गया कि वही सितार बजाने वाली युवती है। वह ज्योंही जरासा खिसका तो स्त्री का बोझ कुछ हलका हो गया और उसने अपनी छाती ऊपर उठायी। पापनाशी तब कामोन्मत्त होकर, उस कोमल, सुगंधमय, गर्म शरीर से चिमट गया और दोनों हाथों से उसे पकड़कर भींच लिया ! सर्वनाशी दुर्दमनीय वासना ने उसे परास्त कर दिया। गिड़गिड़ाकर वह कहने लगा-‘ठहरो, ठहरो, पिरये ! ठहरो, मेरी जान !’
लेकिन युवती एक छलांग में कबर के द्वार पर जा पहुंची। पापनाशी को दोनों हाथ फैलाये देखकर वह हंस पड़ी और उसकी मुस्कराहट राशि की उज्ज्वल किरणों में चमक उठी।
उसने निष्ठुरता से कहा-‘मैं क्यों ठहरुं ? ऐसे परेमी के लिए जिसकी भावनाशक्ति इतनी सजीव और परखर हो, छाया ही काफी है। फिर तुम अब पतित हो गये, तुम्हारे पतन में अब कोई कसर नहीं रही। मेरी मनोकामना पूरी हो गयी, अब मेरा तुमसे क्या नाता ?’
पापनाशी ने सारी रात रोरोकर काटी और उषाकाल हुआ तो उसने परभु मसीह की वंदना की जिसमें भक्तिपूर्ण व्यंग भरा हुआ था-ईसू, परभू ईसू, तूने क्यों मुझसे आंखें फेर लीं ! तू देख रहा है कि मैं कितनी भयावह परिस्थितियों में घिरा हुआ हूं। मेरे प्यारे मुक्तिदाता आ, मेरी सहायता कर। तेरा पिता मुझसे नाराज है, मेरी अनुनयविनय कुछ नहीं सुनता, इसलिए याद रख कि तेरे सिवाय मेरा अब कोई नहीं है। तेरे पिता से अब मुझे कोई आशा नहीं है मैं उसके रहस्य को समझ नहीं सकता और न उसे मुझ पर दया आती है। किन्तु तूने एक स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है, तूने माता का स्नेहभोग किया है और इसलिए तुझ पर मेरी श्रद्घा है। याद रख कि तू भी एक समय मानवदेहधारी था। मैं तेरी परार्थना करता हूं, इस कारण नहीं कि तू ईश्वर का ईश्वर, ज्योति की ज्योति परमपिता है, बल्कि इस कारण कि तूने इस लोक में, जहां अब मैं नाना यातनाएं भोग रहा हूं, दरिद्र ओैर दीन पराणियों कासा जीवन व्यतीत किया है, इस कारण कि शैतान ने तुझे भी कुवासनाओं के भंवर में डालने की चेष्टा की है, और मानसिक वेदना ने तेरे भी मुख को पसीने से तर किया है। मेरे मसीह, मेरे बन्धु मसीह, मैं तेरी दया का, तेरी मनुष्यता का परार्थी हूं।
जब वह अपने हाथों को मलमलकर यह परार्थना कर रहा था, तो अट्टाहास की परचंड ध्वनि से कबर की दीवारें हिल गयीं और वही आवाज, जो स्तम्भ शिखर पर उसके कानों में आयी थी, अपमानसूचक शब्दों में बोली-‘यह परार्थना तो विधमीर मार्कस के मुख से निकलने के योग्य है! पापनाशी भी मार्कस का चेला हो गया। वाह वाह! क्या कहना ! पापनाशी विधमीर हो गया !’
पापनाशी पर मानो वजरघात हो गया। वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
जब उसने फिर आंखें खोलीं, तो उसने देखा कि तपस्वी काले कनटोप पहने उसके चारों ओर खड़े हैं, उसके मुख पर पानी के छींटे दे रहे हैं और उसकी झाड़फूंक, यन्त्रमन्त्र में लगे हुए हैं। कोई आदमी हाथों में खजूर की डालियां लिये बाहर खड़े हैं।
उनमें से एक ने कहा-‘हम लोग इधर से होकर जा रहे थे तो हमने इस कबर से चिल्लाने की आवाज निकलती हुई सुनी, और जब अन्दर आये तो तुम्हें पृथ्वी पर अचेत पड़े देखा। निस्सन्देह परेतों ने तुम्हें पछाड़ दिया था और हमको देखकर भाग खड़े हुए।’
पापनाशी ने सिर उठाकर क्षीण स्वर में पूछा-‘बन्धुवर, आप लोग कौन है ? आप लोग क्यों खजूर की डालियां लिये हुए हैं ? क्या मेरी मृतकक्रिया करने तो नहीं आये हैं?’
उनमें से एक तपस्वी बोला-‘बन्धुवर, क्या तुम्हें खबर नहीं कि हमारे पूज्यपिता एण्तोनी, जिनकी अवस्था अब एक सौ पांच वर्षों की हो गयी है, अपने अन्तिम काल की सूचना पाकर उस पर्वत से उतर आये हैं जहां वह एकांत सेवन कर रहे थे ? उन्होंने अपने अगणित शिष्यों और भक्तों को जो उनकी आध्यात्मिक सन्तानें हैं, आशीवार्द देने के निमित्त यह कष्ट उठाया है। हम खजूर की डालियां लिये (जो शान्ति की सूचक हैं) अपने पिता की अभ्यर्थना करने जा रहे हैं। लेकिन बन्धुवर, यह क्या बात है कि तुमको ऐसी महान घटना की खबर नहीं। क्या यह सम्भव है कि कोई देवदूत यह सूचना लेकर इस कबर में नहीं आया ?’
पापनाशी बोला-‘आह ! मेरी कुछ न पूछो। मैं अब इस कृपा के योगय नहीं हूं और इस मृत्युपुरी में परेतों और पिशाचों के सिवा और कोई नहीं रहता। मेरे लिए ईश्वर से परार्थना करो। मेरा नाम पापनाशी है जो एक धमार्श्रम का अध्यक्ष था। परभु के सेवकों में मुझसे अधिक दुःखी और कोई न होगा।’
पापनाशी का नाम सुनते ही सब योगियों ने खजूर की डालियां हिलायीं और एक स्वर से उसकी परशंसा करने लगे। वह तपस्वी जो पहले बोला था, विस्मय से चौंककर बोला-‘क्या तुम वही सन्त पापनाशी हो जिसकी उज्ज्वल कीर्ति इतनी विख्यात हो रही है कि लोग अनुमान करने लगे थे कि किसी दिन वह पूज्य एण्तोनी की बराबरी करने लगेगा? श्रद्धेय पिता, तुम्हीं ने थायस नाम की वेश्या को ईश्वर के चरणों में रत किया ? तुम्हीं को तो देवदूत उठाकर एक उच्च स्तम्भ के शिखर पर बिठा आये थे, जहां तुम नित्य परभु मसीह के भोज में सम्मिलित होते थे। जो लोग उस समय स्तम्भ के नीचे खड़े थे, उन्होंने अपने नेत्रों से तुम्हारा स्वगोर्त्थान देखा। देवदूतों के पास श्वेत मेघावरण की भांति तुम्हारे चारों ओर मंडल बनाये थे और तुम दाहिना हाथ फैलाये मनुष्यों को आशीवार्द देते जाते थे। दूसरे दिन जब लोगों ने तुम्हें वहां न पाया तो उनकी शोकध्वनि उस मुकुटहीन स्तम्भ के शिखर पर जा पहुंची। चारों ओर हाहाकार मच गया। लेकिन तुम्हारे शिष्य लेवियन ने तुम्हारे आत्मोत्सर्ग की कथा कही और तुम्हारे आश्रम का अध्यक्ष बनाया गया। किन्तु वहां पॉल नाम का एक मूर्ख भी था ! शायद वह भी तुम्हारे शिष्यों में था। उने जनसम्मति के विरोध करने की चेष्टा की। उसका कहना था कि उसने स्वप्न देखा है कि पिशाच तुम्हें पकड़े लिये जाता है। जनता को यह सुनकर बड़ा त्र्कोध आया। उन्होंने उसको पत्थर से मारना चाहा। चारों ओर से लोग दौड़ पड़े। ईश्वर ही जाने कैसे मूर्ख की जान बची। हां, वह बच अवश्य गया। मेरा नाम जोजीमस है। मैं इन तपस्वियों का अध्यक्ष हूं जो इस समय तुम्हारे चरणों पर गिरे हुए हैं। अपने शिष्यों की भांति मैं भी तुम्हारे चरणों पर सिर रखता हूं कि पुत्रों के साथ पिता को भी तुम्हारे शुभ शब्दों का फल मिल जाये। हम लोगों को अपने आशीवार्द से शान्ति दीजिये। उसके बाद उन अलौकिक कृत्यों का भी वर्णन कीजिए जो ईश्वर आपके द्वारा पूरा करना चाहता है। हमारा परम सौभाग्य है कि आप जैसे महान पुरुष के दर्शन हुए।’
नाशी ने उत्तर दिया-‘बन्धुवर, तुमने मेरे विषय में जो धारणा बना रखी है वह यथार्थ से कोसों दूर है। ईश्वर की मुझ पर कृपादृष्टि होती तो दूर की बात है, मैं उसके हाथों कठोरतम यातनायें भोग रहा हूं। मेरी जो दुर्गति हुई है उसका वृत्तान्त सुनाना व्यर्थ है। मुझे स्तम्भ के शिखर पर देवदूत नहीं ले गये थे। यह लोगों की मिथ्या कल्पना है। वास्तव में मेरी आंखों के सामने एक पर्दा पड़ गया है और मुझे कुछ सूझ नहीं पड़ता मैं स्वप्नवत जीवन व्यतीत कर रहा हूं। ईश्वरविमुख होकर मानवजीवन स्वप्न के समान है। जब मैंने इस्कंद्रिया की यात्रा की थी तो थोड़े ही समय में मुझे कितने ही वादों के सुनने का अवसर मिला और मुझे ज्ञात हुआ कि भरांति की सेवा गणना से परे है। वह नित्य मेरा पीछा किया करती है और मेरे चारों तरफ संगीनों की दीवार खड़ी है।’
जोजिमस ने उत्तर दिया-‘पूज्य पिता, आपको स्मरण रखना चाहिए कि संतगण और मुख्यतः एकान्तसेवी सन्तगण भयंकर यातनाओं से पीड़ित होते रहते हैं। अगर यह सत्य नहीं है कि देवदूत तुम्हें ले गये तो अवश्य ही यह सम्मान तुम्हारी मूर्ति अथवा छाया का हुआ होगा, क्योंकि लेवियन, तपस्वीगण और दर्शकों ने अपनी आंखों से तुम्हें विमान पर ऊपर जाते देखा।’
पापनाशी ने सन्त एण्तोनी के पास जाकर उनसे आशीवार्द लेने का निश्चय किया। बोला-‘बन्धु जोजीमस, मुझे भी खजूर की एक डाली दे दो और मैं भी तुम्हारे साथ पिता एण्तोनी का दर्शन करने चलूंगा।’
जोजीमस ने कहा-‘बहुत अच्छी बात है। तपस्वियों के लिए सैनिक विधान ही उपयुक्त है क्योंकि हम लोग ईश्वर के सिपाही हैं। हम और तुम अधिष्ठाता हैं, इसलिए आगओगे चलेंगे और यह लोग भजन गाते हुए हमारी पीछेपीछे चलेंगे।’
जब सब लोग यात्रा को चले तो पापनाशी ने कहा-‘बराह्मा एक है क्योंकि वह सत्य है और संसार अनेक है क्योंकि वह असत्य है। हमें संसार की सभी वस्तुओं से मुंह मोड़ लेना चाहिए, उनमें भी जो देखने में सर्वदा निर्दोष जान पड़ती हैं। उनकी बहुरूपता उन्हें इतनी मनोहारिणी बना देती है जो इस बात का परत्यक्ष परमाण है कि वह दूषित हैं। इसी कारण मैं किसी कमल को भी शांत निर्मल सागर में हिलते हुए देखता हूं तो मुझे आत्मवेदना होने लगती है, और चित्त मलिन हो जाता है। जिन वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है, वे सभी त्याज्य हैं। रेणुका का एक अणु भी दोषों से रहित नहीं, हमें उससे सशंक रहना चाहिए। सभी वस्तुएं हमें बहकाती हैं, हमें राग में रत कराती हैं। और स्त्री तो उन सारे परलोभनों का योग मात्र है जो वायुमंडल में फूलों से लहराती हुई पृथ्वी पर और स्वच्छ सागर में विचरण करते हैं। वह पुरुष धन्य है जिसकी आत्मा बन्द द्वार के समान है। वही पुरुष सुखी है जो गूंगा, बहरा, अन्धा होना जानता है, और जो इसलिए सांसारिक वस्तुओं से अज्ञात रहता है कि ईश्वर का ज्ञान पराप्त करे।’
जोजीमस ने इस कथन पर विचार करने के बाद उत्तर दिया-‘पूज्य पिता, तुमने अपनी आत्मा मेरे सामने खोलकर रख दी है, इसलिए आवश्यक है कि मैं अपने पापों को तुम्हारे सामने स्वीकार करुं। इस भांति हम अपनी धर्मपरथा के अनुसार परस्पर अपनेअपने अपराधों को स्वीकार कर लेंगे। यह वरत धारण करने के पहले मेरा सांसारिक जीवन अत्यन्त दुवार्सनामय था। मदौरा नगर में, जो वेश्याओं के लिए परसिद्ध था, मैं नाना परकार के विलासभोग किया करता था। नित्यपरति रात्रि समय जवान विषयगामियों और वीणा बजाने वाली स्त्रियों के साथ शराब पीता, और उनमें जो पसन्द आती उसे अपने साथ घर ले जाता। तुम जैसा साधु पुरुष कल्पना भी नहीं कर सकता कि मेरी परचण्ड कामातुरता मुझे किसी सीमा तक ले जाती थी, इस इतना ही कह देता पयार्प्त है कि मुझसे न विवाहित बचती थी न देवकन्या, और मैं चारों ओर व्यभिचार और अधर्म फैलाया करता था। मेरे हृदय में कुवासनाओं के सिवा किसी बात का ध्यान ही न आता था। मैं अपनी इन्द्रियों को मदिरा से उत्तेजित करता था और यथार्थ में मदिरा का सबसे बड़ा पियक्कड़ समझा जाता था। तिस पर मैं ईसाई धमार्वलस्बी था, और सलीब पर च़ाये गये मसीह पर मेरा अटल विश्वास था। अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति भोगविलास में उड़ाने के बाद मैं अभाव की वेदनाओं से विकल होने लगा था कि मैंने रंगीले सहचरों में सबसे बलवान पुरुष को एकाएक एक भयंकर रोग में गरस्त होते देखा। उसका शरीर दिनोंदिन क्षीण होने लगा। उसकी टांगें अब उसे संभाल न सकतीं, उसके कांपते हुए हाथ शिथिल पड़ गये, उसकी ज्योतिहीन आंखें बन्द रहने लगीं। उसके कंठ से कराहने के सिवा और कोई ध्वनि न निकलती। उसका मन, जो उसकी देह में भी अधिक आलस्यपरेमी था, निद्रा में मग्न रहता पशुओं की भांति व्यवहार करने के दण्डस्वरूप ईश्वर ने उसे पशु ही का अनुरूप बना दिया। अपनी सम्पत्ति के हाथ से निकल जाने के कारण मैं पहले ही से कुछ विचारशील और संयमी हो गया था। किन्तु एक परम मित्र की दुर्दशा से वह रंग और भी गहरा हो गया। इस उदाहरण ने मेरी आंखें खेल दीं। इसका मेरे मन पर इतना गहरा परभाव पड़ा कि मैंने संसार को त्याग दिया और इस मरुभूमि में चला आया। वहां गत बीस वर्षों से मैं ऐसी शान्ति का आनन्द उठा रहा हूं, जिसमें कोई विघ्न न पड़ा। मैं अपने तपस्वी शिष्यों के साथ यथासमय जुलाहे, राज, ब़ई अथवा लेखक का काम किया करता हूं, लेकिन जो सच पूछो तो मुझे लिखने में कोई आनन्द नहीं आता, क्योंकि मैं कर्म को विचार से श्रेष्ठ समझता हूं। मेरे विचार हैं कि मुझ पर ईश्वर की दयादृष्टि है क्योंकि घोर से घोर पापों में आसक्त रहने पर भी मैंने कभी आशा नहीं छोड़ी। यह भाव मन से एक क्षण के लिए भी दूर हुआ कि परम पिता मुझ पर अवश्य अकृपा करेंगे। आशादीपक को जलाये रखने से अन्धकार मिट जाता है।
यह बातें सुनकर पापनाशी ने अपनी आंखें आकाश की ओर उठायीं और यों गिला की-‘भगवान ! तुम इस पराणी पर दयादृष्टि रखते हो जिस पर व्यभिचार, अधर्म और विषयभोग जैसे पापों की कालिमा पुती हुई है, और मुझ पर, जिसने सदैव तेरी आज्ञाओं का पालन किया, कभी तेरी इच्छा और उपदेश के विरुद्ध आचरण नहीं किया, तेरी इतनी अकृपा ? तेरा न्याय कितना रहस्यमय है और तेरी व्यवस्थाएं कितनी दुगार्ह्य ?’
जोजीमस ने अपने हाथ फैलाकर कहा-पूज्य पिता, देखिये, क्षितिज के दोनों ओर कालीकाली शृंखलाएं चली आ रही हैं, मानो चीटियां किसी अन्य स्थान को जा रही हों। यह सब हमारे सहयात्री हैं जो पिता एण्तोनी के दर्शन को आ रहे हैं।’
जब यह लोग उन यात्रियों के पास पहुंचे तो उन्हें एक विशाल दृश्य दिखाई दिया। तपस्वियों की सेना तीन वृहद अर्धगोलाकार पंक्तियों में दूर तक फैली हुई थी। पहली श्रेणी में मरुभूमि के वृद्ध तपस्वी थे, जिनके हाथों में सलीबें थीं और जिनकी दायिं जमीन को छू रही थीं। दूसरी पंक्ति में एफ्रायम और सेरापियन के तपस्वी और नील के तटवर्ती परान्त के वरतधारी विराज रहे थे। उनके पीछे के महात्मागण थे जो अपनी दूरवर्ती पहाड़ियों से आये थे ? कुछ लोग अपने संवलाये और सूखे हुए शरीर को बिना सिले हुए चीथड़ों से के हुए थे, दूसरे लोगों की देह पर वस्त्रों की जगह केवल नरकट की हिड्डयां थीं जो बेंत की डालियों को ऐंठकर बांध ली गयी थीं। कितने ही बिल्कुल नंगे थे लेकिन ईश्वर ने उनकी नग्नता को भेड़ के घनेघने बालों में छिपा दिया था। सभी के हाथों में खजूर की डालियां थीं। उनकी शोभा ऐसी थी मानो पन्ने के इन्द्रधनुष हों अथवा उनकी उपमा स्वर्ग की दीवारों से जी सकती थी।
इतने विस्तृत जनसमूह में ऐसी सुव्यवस्था छाई हुई थी कि पापनाशी को अपने अधीनस्थ तपस्वियों को खोज निकालने में लेशमात्र भी कठिनाई न पड़ी। वह उनके समीप जाकर खड़ा हो गया, किन्तु पहले अपने मुंह को कनटोप से अच्छी तरह ंक लिया कि उसे कोई पहचान न सके और उनकी धार्मिक आकांक्षा में बाधा न पड़े।
सहसा असंख्य कण्ठों से गगन भेदी नाद उठा-वह महात्मा, वह महात्मा आये! देखो वह मुक्तात्मा है जिसने नरक और शैतान को परास्त कर दिया है, जो ईश्वर का चहेता, हमारा पूज्य पिता एण्तोनी है !
तब चारों ओर सन्नाटा छा गया और परत्येक मस्तक पृथ्वी पर झुक गया।
उस विस्तीर्ण मरुस्थल में एक पर्वत के शिखर पर से महात्मा एण्तोनी अपने दो पिरय शिष्यों के हाथों के सहारे, जिनके नाम मकेरियस और अमेथस थे आहिस्ता से उतर रहे थे। वह धीरेधीरे चलते थे पर उनका शरीर अभी तक तीर की भांति सीधा था और उससे उनकी असाधारण शक्ति परकट होती थी। उनकी श्वेत दा़ी चौड़ी छाती पर फैली हुई थी और उनके मुंड़े हुए चिकने सिर पर परकाश की रेखाएं, यों जगमगा रही थीं मानो मूसा पैगम्बर का मस्तक हो। उनकी आंखों में उकाव की आंखों कीसी तीवर ज्योति थी, और उनके गोल कपोलों पर बालकों कीसी मधुर मुस्कान थी। अपने भक्तों को आशीवार्द देने के लिए वह अपनी बाहें उठाये हुए थे, जो एक शताब्दी के असाधारण और अविश्रांत परिश्रम से जर्जर हो गयी थीं। अन्त में उनके मुख से यह परेममय शब्द उच्चरित हुए-‘ऐ जेकब, तेरे मण्डप कितने विशाल, और ऐ इसराइल, तेरे शामियाने कितने सुखमय हैं।’
इसके एक क्षण के उपरान्त वह जीतीजागती दीवार एक सिरे से दूसरे सिरे तक मधुर मेघध्वनि की भांति इस भजन से गुञ्जरित हो गयी-धन्य है वह पराणी जो ईश्वर भीरू है !
एण्तोनी अमेथस और मकेरियस के साथ वृद्ध तपस्वियों, वरतधारियों और बरह्मचारियों के बीच में से होते हुए निकले। यह महात्मा जिसने स्वर्ग और नरक दोनों ही देखा था, यह तपस्वी जिसने एक पर्वत के शिखर पर बैठे हुए ईसाई धर्म का संचालन किया था, यह ऋषि जिसने विधर्मियों और नास्तिकों का काफिया तंग कर दिया था, इस समय अपने परत्येक पुत्र से स्नेहमय शब्दों में बोलता था, और परसन्नमुख उसने विदा मांगता था किन्तु आज उसकी स्वर्गयात्रा का शुभ दिवस था। परमपिता ईश्वर ने आज अपने लाड़ले बेटे को अपने यहां आने का निमन्त्रण दिया था।
उसने एफ्रायम और सिरेपियन के अध्यक्षों से कहा-‘तुम दोनों बहुसंख्यक सेनाओं के नेतृत्व और संचालन में कुशल हो, इसलिए तुम दोनों स्वर्ग में स्वर्ण के सैनिकवस्त्र धारण करोगे और देवदूतों के नेता मीकायेल अपनी सेनाओं के सेनापति की पदवी तुम्हें परदान करेंगे।’
वृद्ध पॉल को देखकर उन्होंने उसे आलिंगन किया और बोले-‘देखो, यह मेरे समस्त पुत्रों में सज्जन और दयालु है। इसकी आत्मा से ऐसी मनोहर सुरभि परस्फुटित होती है जैसी गुलाब की कलियों के फूलों से, जिन्हें वह नित्य बोता है।’
सन्त जोजीमस को उन्हांेंने इन शब्दों में सम्बोधित किया-‘तू कभी ईश्वरीय दया और क्षमा से निराश नहीं हुआ, इसलिए तेरी आत्मा में ईश्वरीय शान्ति का निवास है। तेरी सुकीर्ति का कमल तेरे कुकर्मों के कीचड़ से उदय हुआ है।’
उनके सभी भाषाओं से देवबुद्धि परकट होती थी।
वृद्धजनों से उन्होंने कहा-ईश्वर के सिंहासन के चारों ओर अस्सी वृद्धपुरुष उज्ज्वल वस्त्र पहने, सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये बैठे रहते हैं।
युवकवृन्द को उन्होंने इन शब्दों में सान्त्वना दी-‘परसन्न रहो, उदासीनता उस लोगों के लिए छोड़ दो जो संसार का सुख भोग रहे हैं !’
इस भांति सबसे हंसहंसकर बातें करते, उपदेश देते वह अपने धर्मपुत्रों की सेना के सामने से चले जाते थे। सहसा पापनाशी उन्हें समीप आते देखकर उनके चरणों पर गिर पड़ा। उसका हृदय आशा और भय से विदीर्ण हो रहा था।
‘मेरे पूज्य पिता, मेरे दयालु पिता !’-उसने मानसिक वेदना से पीड़ित होकर कहा-‘पिरय पिता, मेरी बांह पकड़िए, क्योंकि मैं भंवर में बहा जाता हूं। मैंने थायस की आत्मा को ईश्वर के चरणों पर समर्पित किया; मैंने एक ऊंचे स्तम्भ के शिखर पर और एक कबर की कन्दरा में तप किया है, भूमि पर रगड़ खातेखाते मेरे मस्तक में ऊंट के घुटनों के समान घट्ठे पड़ गये हैं, तिस पर भी ईश्वर ने मुझसे आंखें फेर ली हैं। पिता, मुझे आशीवार्द दीजिए इससे मेरा उद्घार हो जायेगा।’
किन्तु एण्तोनी ने इसका उत्तर न दिया-उसने पापनाशी के शिष्यों को ऐसी तीवर दृष्टि से देखा जिसके सामने खड़ा होना मुश्किल था। इतने में उनकी निगाह मूर्ख पॉल पर जा पड़ी। वह जरा देर उसकी तरफ देखते रहे, फिर उसे अपने समीप आने का संकेत किया। चूंकि सभी आदमियों को विस्मय हुआ कि वह महात्मा इस मूर्ख और पागल आदमी से बातें कर रहे हैं, अतएव उनकी शंका का समाधान करने के लिए उन्होंने कहा-‘ईश्वर ने इस व्यक्ति पर जितनी वत्सलता परकट की है उतनी तुम में से किसी पर नहीं। पुत्र पॉल, अपनी आंखें ऊपर उठा और मुझे बतला कि तुझे स्वर्ग में क्या दिखाई देता है।’
बुद्धिहीन पॉल ने आंखें उठायीं। उसके मुख पर तेज छा गया और उसकी वाणी मुक्त हो गयी। बोला-‘मैं स्वर्ग में एक शय्या बिछी हुई देखता हूं जिसमें सुनहरी और बैंगनी चादरें लगी हुई हैं। उसके पास तीन देवकन्याएं बैठी हुई बड़ी चौकसी से देख रही हैं कि कोई अन्य आत्मा उसके निकट न आने पाये। जिस सम्मानित व्यक्ति के लिए शय्या बिछाई गयी है उसके सिवाय कोई निकट नहीं जा सकता।
पापनाशी ने यह समझकर कि यह शय्या उसकी सत्कीर्ति की परिचायक है, ईश्वर को धन्यवाद देना शुरू किया। किन्तु सन्त एण्तोनी ने उसे चुप रहने और मूर्ख पॉल की बातों को सुनने का संकेत किया। पॉल उसी आत्मोल्लास की धुन में बोला-‘तीनों देवकन्याएं मुझसे बातें कर रही हैं। वह मुझसे कहती हैं कि शीघर ही एक विदुषी मृत्युलोक से परस्थान करने वाली है। इस्कन्द्रिया की थायस मरणासन्न है; और हमने यह शय्या उसके आदरसत्कार के निमित्त तैयार की है, क्योंकि हम तीनों उसी की विभूतियां हैं। हमारे नाम हैं भक्ति, भय और परेम!’
एण्तोनी ने पूछा-‘पिरय पुत्र, तुझे और क्या दिखाई देता है ?’
मूर्ख पॉल ने अधः से ऊध्र्व तक शून्य दृष्टि से देखा, एक क्षितिज से दूसरी क्षितिज तक नजर दौड़ायी। सहसा उसकी दृष्टि पापनाशी पर जा पड़ी। दैवी भय से उसका मुंह पीला पड़ गया और उसके नेत्रों से अदृश्य ज्वाला निकलने लगी।
उसने एक लम्बी सांस लेकर कहा-‘मैं तीन पिशाचों को देख रहा हूं जो उमंग से भरे हुए इस मनुष्य को पकड़ने की तैयारी कर रहे हैं। उनमें से एक का आकार एक स्तम्भ की भांति है, दूसरे का एक स्त्री की भांति और तीसरे का एक जादूगर की भांति। तीनों के नाम गर्म लोहे से दाग दिये हैं-एक का मस्तक पर, दूसरे के पेट पर और तीसरे का छाती पर और वे नाम हैं-अहंकार, विलासपरेम और शंका। बस, मुझे और कुछ नहीं सूझता।’
यह कहने के बाद पॉल की आंखें फिर निष्परभ हो गयीं, मुंह नीचे को लटक गया और वह पूर्ववत सीधासादा मालूम होने लगा।
जब पापनाशी ने शिष्यगण एण्तोनी की ओर सचिन्त और सशंक भाव से देखने लगे तो उन्होंने यह शब्द कहे-‘ईश्वर ने अपनी सच्चाई व्यवस्था सुना दी। हमारा कर्तव्य है कि हम उसको शिरोधार्य करें और चुप रहें। असन्टोष और गिला उसके सेवकों के लिए उपयुक्त नहीं।
यह कहकर वह आगे ब़ गये। सूर्य ने अस्ताचल को परयाण किया और उसे अपने अरुण परकाश से आलोकित कर दिया। सन्त एण्तोनी की छाया देैवी लीला से अत्यन्त दीर्घ रूप धारण करके उसके पीछे, एक अनन्त गलीचे की भांति फैली हुई थी, कि सन्त एण्तोनी की स्मृति भी इस भांति दीर्घजीवी होगी, और लोग अनन्तकाल तक उसका यश गाते रहेंगे।
किन्तु पापनाशी वजराहत की भांति खड़ा रहा। उसे न कुछ सूझता था, न कुछ सुनाई देता था। यही शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे-थायस मरणासन्न है !
उसे कभी इस बात का ध्यान ही न आया था। बीस वर्षों तक निरन्तर उसने मोमियाई के सिर को देखा था, मृत्यु का स्वरूप उसकी आंखों के सम्मुख रहता था। पर यह विचार कि मृत्यु एक दिन थायस की आंखें बन्द कर देगी, उसे घोर आश्चर्य में डाल रहा था।
‘थायस मर रही है !’-इन शब्दों में कितनी विस्मयकारी और भयंकर आशय है ! थायस मर रही है, वह अब इस लोक में न रहेगी, तो फिर सूर्य का, फूलों का, सरोवरों का और समस्त सृष्टि का उद्देश्य ही क्या ? इस बरह्माण्ड ही की क्या आवश्यकता है। सहसा वह झपटकर चला-‘उसे देखूंगा, एक बार फिर उससे मिलूंगा !’ वह दौड़ने लगा। उसे कुछ खबर न थी कि वह कहां जा रहा है, किन्तु अन्तःपरेरणा उसे अविचल रूप से लक्ष्य की ओर लिये जाती थी, वह सीधे नील नदी की ओर चला जा रहा था। नदी पर उसे पालों का एक समूह तैरता हुआ दिखाई पड़ा। वह कूदकर एक नौका में जा बैठा, जिसे हब्शी चला रहे थे, और वहां नौका के मुस्तूल पर पीठ टेककर मुदित आंखों से यात्रा मार्ग का स्मरण करता हुआ, वह त्र्कोध और वेदना से बोला-आह ! मैं कितना मूर्ख हूं कि थायस को पहले ही अपना न कर लिया जब समय था ! कितना मूर्ख हूं कि समझा कि संसार में थायस के सिवा और भी कुछ है ! कितना पागलपन था ! मैं ईश्वर के विचार में, आत्मोद्घार की चिन्ता में, अनन्त जीवन की आकांक्षा में रत रहता; मानो थामस को देखने के बाद भी इन पाखण्डों में कुछ महत्व था। मुझे उस समय कुछ न सूझा कि उस स्त्री के चुम्बन में अनन्त सुख भरा हुआ है, और उसके बिना जीवन निरर्थक है, जिसका मूल्य एक दुःस्वप्न से अधिक नहीं। मूर्ख ! तूने उसे देखा, फिर भी तुझे परलोक के सुखों की इच्छा बनी रही ! अरे कायर, तू उसे देखकर भी ईश्वर से डरता रहा ! ईश्वर स्वर्ग ! अनादि ! यह सब क्या गोरखधन्धा है! उनमें रखा ही क्या है, और क्या वह उस आनन्द का अल्पांश नहीं दे सकते हैं जो तुझे उससे मिलता। अरे अभागे, निबुर्द्धि, मिथ्यावादी, मूर्ख जो थायस के अधरों को छोड़कर ईश्वरीय कृपा को अन्यत्र खोजता रहा ! तेरी आंखों पर किसने पर्दा डाल दिया था? उस पराणी का सत्यानाश हो जाय जिसने उस समय तुझे अन्धा बना दिया था। तुझे दैवी कोप का क्या भय था जब तू उसके परेम का एक क्षण भी आनन्द उठा लेता। पर तूने ऐसा न किया। उसने तेरे लिए अपनी बांहें फैला दी थीं, जिनमें मांस के साथ फूलों की सुगन्ध मिश्रित थी, और तूने उसके उन्मुक्त वृक्ष के अनुपम सुधासागर में अपने को प्लावित न कर दिया। तू नित्य उस द्वेषध्वनि पर कान लगाये रहा जो तुझसे कहती थी, भागभाग ! अन्धे ! हा शोक ! पश्चात्ताप ! हा निराश ! नरक में उसे कभी न भूलने वाली घड़ी की आनन्दस्मृति ले जाने का और ईश्वर से यह कहने का अवसर हाथों से निकल गया कि ‘मेरे मांस को जला मेरी धमनियों में जितना रक्त है उसे चूस ले, मेरी सारी हिड्डयों को चूरचूर कर दे, लेकिन तू मेरा हृदय से उस सुखदस्मृति को नहीं निकाल सकता, जो चिरकाल तक मुझे सुगन्धित और परमुदित रखेगी ! थायस मर रही है ! ईश्वर तू कितना हास्यास्पद है ! तुझे कैसे बताऊं कि मैं तेरे नरकलोक को तुच्छ समझता हूं, उसकी हंसी उड़ाता हूं ! थायस मर रही है, वह मेरी कभी न होगी, कभी नहीं, कभी नहीं !
नौका तेज धारा के साथ बहती जाती थी और वह दिनके-दिन पेट के बल पड़ा हुआ बारबार कहता था-कभी नहीं ! कभी नहीं !! कभी नहीं !!
तब यह विचार आने पर कि उसने औरों को अपना परेमरस चखाया, केवल मैं ही वंचित रहा। उसने संसार को अपने परेम की लहरों से प्लावित कर दिया और मैं उसके होंठों को भी न तर कर सका। वह दांत पीसकर उठ बैठा और अन्तवेर्दना से चिल्लाने लगा। वह अपने नखों से अपनी छाती को खरोंचने और अपने हाथों को दातों से काटने लगा।
उसके मन में यह विचार उठा-यदि मैं उसके सारे परेमियों का संहारा कर देता तो कितना अच्छा होता।
इस हत्याकाण्ड की कल्पना ने उसे सरल हत्यातृष्णा से आन्दोलित कर दिया। वह सोचने लगा कि वह निसियास का खूब आराम से मजे लेलेकर वध करेगा और उसके चेहरे को बराबर देखता रहेगा कि कैसे उसकी जान निकलती है। तब अकस्मात उसका त्र्कोधावेग द्रवीभूत हो गया। वह रोने और सिसकने लगा; वह दीन और नमर हो गया। एक अज्ञात विनयशीलता ने उसके चित्त को कोमल बना दिया। उसे यह आकांक्षा हुई कि अपने बालपन के साथी निसियास के गले में बांहें डाल दे और उससे कहे-निसियास मैं तुम्हें प्यार करता हूं क्योंकि तुमने उससे परेम किया है। मुझसे उसकी परेमचचार करो। मुझसे वह बातें कहो जो वह तुमसे किया करती थी।
लेकिन अभी तक उसके हृदय में इन वाक्यबाण की नोक निरन्तर चुभ रही थी-थायस मर रही है !
फिर वह परेमोन्मत्त होकर कहने लगा-ओ दिन के उजाले ! ओ निशा के आकाशदीपकों की रौप्य छटा, ओ आकाश, ओ झूमती हुई चोटियों वाले वृक्षों! ओ वनजन्तुओं ! ओ गृहपशुओं ! ओ मनुष्यों के चिन्तित हृदयों ! क्या तुम्हारे कान बहरे हो गये हैं ? तुम्हें सुनाई नहीं देता कि थायस मर रही है ? मन्द समीरण, निर्मल परकाश, मनोहर सुगन्ध ! इनकी अब क्या जरूरत है ? तुम भाग जाओ, लुप्त हो जाओ ! ओ भूमण्डल के रूप और विचार ! अपने मुंह छिपा लो, मिट जाओ ! क्या तुम नहीं जानते कि थायस मर रही है ? वह संसार के माधुर्य का केन्द्र थी जो वस्तु उसके समीप आती थी वह उसकी रूपज्योति से परतिबिम्बित होकर चमक उठती थी। इस्कन्द्रिया के भोज में जितने विद्वान्, ज्ञानी, वृद्ध उसके समीप बैठते थे उनके विचार कितने चित्ताकर्षक थे, उनके भाषण कितने सरस ! कितने हंसमुख लोग थे ! उनके अधरों पर मधुर मुस्कान की शोभा थी और उनके विचार आनन्दभोग की सुगन्ध में डूबे हुए थे। थायस की छाया उनके ऊपर थी, इसलिए उनके मुख से जो कुछ निकलता वह सुन्दर, सत्य और मधुर होता था ! उनके कथन एक शुभर अभक्ति से अलंकृत हो जाते थे। शोक ! वह शोक सब अब स्वप्न हो गया। उस सुखमय अभिनय का अन्त हो गया। थायस मर रही है ! वह मौत मुझे क्यों नहीं आती। उसकी मौत से मरना मेरे लिए कितना स्वाभाविक और सरल है ! लेकिन ओ अभागे, निकम्मे, कायर पुरुष, ओ निराश और विषाद में डूबी हुई दुरात्मा, क्या तू मरने के लिए ही बनायी गयी है ? क्या तू समझता है कि तू मृत्यु का स्वाद रख सकेगा ? जिसने अभी जीवन का मर्म नहीं जाना, वह मरना क्या जाने ? हां, अगर ईश्वर है, और मुझे दण्ड दे, तो मैं करने को तैयार हूं। सुनता है ओ ईश्वर, मैं तुझसे घृणा करता हूं सुनता है ! मैं तुझे कोसता हूं! मुझे अपने अग्निवजरों से भस्म कर दे, मैं इसका इच्छुक हूं, यहां मेरी बड़ी अभिलाषा है। तू मुझे अग्निकुण्ड में डाल दे। तुझे उत्तेजित करने के लिए, देख, मैं तेरे मुख पर थूकता हूं। मेरे लिए अनन्त नरकवास की जरूरत है। इसके बिना यह अपार त्र्कोध शान्त न होगा जो मेरे हृदय में खड़क रहा है।
दूसरे दिन परातःकाल अलबीना ने पापनाशी को अपने आश्रम में खड़े पाया। वह उसका स्वागत करती हुई बोली-‘पूज्य पिता, हम अपने शान्तिभवन में तुम्हारा स्वागत करते हैं, क्योंकि आप अवश्य ही उस विदुषी की आत्मा को शान्ति परदान करने आये हैं जिसे अपने यहां आश्रम दिया है। आपको विदित होगा कि ईश्वर ने अपनी असीम कृपा से उसे अपने पास बुलाया है। यह समाचार आपसे क्योंकर छिपा रह सकता था जिसे स्वर्ग के दूतों ने मरुस्थल के इस सिरे से उस सिरे तक पहुंचा दिया है ? यथार्थ में थायस का शुभ अंत निकट है। उसके आत्मोद्घार की त्रि्कया पूरी हो गयी और मैं सूक्ष्मतः आप पर यह परकट कर देना उचित समझती हूं कि जब तक वह यहां रही, उसका व्यवहार और आचरण कैसा रहा। आपके चले जाने के पश्चात जब वह अपनी मुहर लगाई हुई कुटी में एकान्त सेवन के लिए रखी गयी, तो मैंने उसके भोजन के साथ बांसुरी भी भेज दी, जो ठीक उसी परकार की थी जैसी नर्तकियां भोज के अवसरों पर बजाया करती हैं। मैंने यह व्यवस्था इसलिए की जिसमें उसका चित्त उदास न हो और वह ईश्वर के सामने उससे कम संगीतचातुर्य और कुशागरता न परकट करे जितनी वह मनुष्यों के सामने दिखाती थी। अनुभव से सिद्ध हुआ कि मैंने व्यवस्था करने में दूरदर्षिता और चरित्रपरिचय से काम लिया, क्योंकि थायस दिनभर बांसुरी बजाकर ईश्वर का कीर्तिगान करती रहती थी और अन्य देवकन्याएं, जो उसकी वंशी की ध्वनि से आकर्षित होती थीं, कहतीं-हमें इस गान में स्वर्गकुंजों की बुलबुल की चहक का आनन्द मिलता है ! उसके स्वर्गसंगीत से सारा आश्रम गुंजरित हो जाता था। पथिक भी अनायास खड़े होकर उसे सुनकर अपने कान पवित्र कर लेते थे। इस भांति थायस तपश्चयार करती रही। यहां तक कि साठ दिनों के बाद वह द्वार जिस पर आपने मुंहर लगा दी थी, आपही-आप खुल गया और वह मिट्टी की मुहर टूट गयी। यद्यपि उसे किसी मनुष्य ने छुआ तक नहीं। इस लक्षण से मुझे ज्ञात हुआ कि आपने उसके लिए जो परायश्चित नियत किया था, वह पूरा हो गया और ईश्वर ने उसके सब अपराध क्षमा कर दिये। उसी समय से वह मेरी अन्य देवकन्याओं के साधारण जीवन में भाग लेने लगी है। उन्हीं के साथ कामधन्धा करती है, उन्हीं के साथ ध्यानउपासना करती है। वह अपने वचन और व्यवहार की नमरता से उनके लिए एक आदर्शचरित्र थी, और उनके बीच में और व्यवहार की नमरता से उनके लिए एक आदर्शचरित्र थी, और उनके बीच में पवित्रता की एक मूर्तिसी जान पड़ती थी। कभीकभी वह मनमलिन हो जाती थी, किन्तु वे घटाएं जल्द ही कट जाती थीं और फिर सूर्य का विहसित परकाश फैल जाता था। जब मैंने देखा कि उसके हृदय में ईश्वर के परति भक्ति, आशा और परेम के भाव उदित हो गये हैं तो फिर मैंने उनके अभिनयकलानैपुण्य का उपयोग करने में विलम्ब नहीं किया। यहां तक कि मैं उसके सौन्दर्य को भी उसकी बहनों की धमोर्न्नति के लिए काम में लाई। मैंने उससे सद्गरंथ में वर्णित देवकन्याओं और विदुषियों की कीर्तियों का अभिनय करने के लिए आदेश किया। उसने ईश्वर, डीबोरा, जूडिथ, लाजरस की बहन मरियम, तथा परभु मसीह की माता मरियम का अभिनय किया। पूज्य पिता, मैं जानती हूं कि आपका संयमशील मन इन कृत्यों के विचार ही से कम्पित होता है, लेकिन आपने भी यदि उसे इन धार्मिक दृश्यों में देखा होता तो आपका द्गदय पुलकित हो जाता। जब वह अपने खजूर के पत्तों से सुन्दर हाथ आकाश की ओर उठाती थी, तो उसके लोचनों से सच्चे आंसुओं की वर्षा होने लगती थी। मैंने बहुत दिनों तक स्त्रीसमुदाय पर शासन किया है और मेरा यह नियम है कि उनके स्वभाव और परवृत्तियों की अवहेलना न की जाय। सभी बीजों में एक समान फूल नहीं लगते, न सभी आत्माएं समान रूप में निवृत्त होती हैं। यह बात भी न भूलनी चाहिए कि थायस ने अपने को ईश्वर के चरणों पर उस समय अर्पित किया जब उसका मुखकमल पूर्ण विकास पर था और ऐसा आत्मसमर्पण अगर अद्वितीय नहीं, तो विरला अवश्य है। यह सौन्दर्य जो उसका स्वाभाविक आवरण है, तीस मास के विषम ताप पर भी अभी तक निष्परभ नहीं हुआ है। अपनी इस बीमारी में उसकी निरन्तर यही इच्छा रही है कि आकाश को देखा करे। इसलिए मैं नित्य परातःकाल उसे आंगन में कुएं के पास, पुराने अंजीरे के वृक्ष के नीचे, जिसकी छाया में इस आश्रम की अधिष्ठात्रियां उपदेश किया करती हैं, ले जाती हूं। दयालु पिता, वह आपको वहीं मिलेगी। किन्तु जल्दी कीजिए, क्योंकि ईश्वर का आदेश हो चुका है और आज की रात वह मुख कफन से ंक जायेगा जो ईश्वर ने इस जगत को लज्जित और उत्साहित करने के लिए बनाया है। यही स्वरूप आत्मा का संहार करता था, यही उसका उद्घार करेगा।
पापनाशी अलबीना के पीछेपीछे आंगन में गया जो सूर्य के परकाश से आच्छादित हो रहा था। ईंटों की छत के किनारों पर श्वेत कपोतों की एक मुक्तामालासी बनी हुई थी। अंजीर के वृक्ष की छांह में एक शय्या पर थायस हाथपर-हाथ रखे लेटी हुई थी। उसका मुख श्रीविहीन हो गया था। उसके पास कई स्त्रियां मुंह पर नकाब डाले खड़ी अन्तिम संस्कारसूचक गीत गा रही थीं-
‘परम पिता, मुझ दीन पराणी पर
अपनी सपरेम वत्सलता से दया कर।
अपनी करुणादृष्टि से
मेरे अपराधों को क्षमा कर।’
पापनाशी ने पुकारा-‘थायस !’
थायस ने पलकें उठायी और अपनी आंखों की पुतलियां उस कंठध्वनि की ओरफेरीं।
अलबीना ने देवकन्याओं को पीछे हट जाने की आज्ञा दी, क्योंकि पापनाशी पर उनकी छाया पड़ना भी धर्मविरुद्ध था।
पापनाशी ने फिर पुकारा-‘थायस।’
उसने अपना सिर धीरेसे उठाया। उसके पीले होंठों से एक हल्की सांस निकलआयी।
उसने क्षीण स्वर में कहा-‘पिता, क्या आप हैं ? आपको याद है कि हमने सोते से पानी पिया था और छुहारे तोड़े थे ? पिता, उसी दिन मेरे हृदय में परेम का अभ्युदय हुआ- अनन्त जीवन के परेम का !’
यह कहकर वह चुप हो गयी। उसका सिर पीछे को झुक गया।
यमदूतों ने उसे घेर लिया था और इन्तिम पराणवेदना श्वेत बूंदों ने उसके माथे को आर्द्र कर दिया था। एक कबूतर अपने अरुण त्र्कन्दन से उस स्थान की नीरवता भंग कर रहा था। तब पापनाशी की सिसकियां देवकन्याओं के भजनों के साथ सम्मिश्रत हो गयीं।
‘मुझे मेरी कालिमाओं से भलीभांति पवित्र कर दे और मेरे पापों को धो दे, क्योंकि मैं अपने कुकर्मों को स्वीकार करती हूं, और मेरे पातक मेरे नेत्रों के सम्मुख उपस्थित हैं।’
सहसा थायस उठकर शय्या पर बैठ गयी। उसकी बैंगनी आंखें फैल गयीं, और वह तल्लीन होकर बांहों को फैलाये हुए दूर की पहाड़ियों की ओर ताकने लगी। तब उसने स्पष्ट और उत्फुल्ल स्वर में कहा-‘वह देखो, अनन्त परभात के गुलाब खिले हैं।’
उसकी आंखों में एक विचित्र स्फूर्ति आ गयी, उसके मुख पर हल्कासा रंग छा गया। उसकी जीवनज्योति चमक उठी थी, और वह पहले से भी अधिक सुन्दर और परसन्नवदन हो गयी थी।
पापनाशी घुटनों के बल बैठ गया; अपनी लम्बी, पतली बांहें उसके गले में डाल दीं, और बोला-ऐसे स्वरों में जिसे स्वयं न पहचान सकता था कि यह मेरी ही आवाज है- ‘पिरये, अभी मरने का नाम न ले ! मैं तुझ पर जान देता हूं। अभी न मर ! थायस, सुन, कान धरकर सुन, मैंने तेरे साथ छल किया है, तुझे दगा दिया है। मैं स्वयं भरांति में पड़ा हुआ था। ईश्वर, स्वर्ग आदि यह सब निरर्थक शब्द हैं, मिथ्या हैं। इस ऐहिक जीवन से ब़कर और कोई वस्तु; और कोई पदार्थ नहीं है। मानवपरेम ही संसार में सबसे उत्तम रत्न है। मेरा तुझ पर अनन्त परेम है। अभी न मर। यह कभी नहीं हो सकता, तेरा महत्त्व इससे कहीं अधिक है, तू मरने के लिए बनाई ही नहीं गयीं। आ, मेरे साथ चल ! यहां से भाग चलें। मैं तुझे अपनी गोद में उठाकर पृथ्वी की उस सीमा तक ले जा सकता हूं। आ, हम परेम में मग्न हो जायें। पिरये, सुन, मैं क्या कहता हूं। एक बार कह दे, मैं जिऊंगी-मैं जीना चाहती हूं ! थायस उठ, उठ !’
थायस ने एक शब्द भी न सुना। उसकी दृष्टि अनन्त की ओर लगी हुई थी।
अन्त में वह निर्बल स्वर में बोली-‘स्वर्ग के द्वार खुल रहे हैं, मैं देवदूतों को, नबियों को और सन्तों को देख रही हूं-मेरा सरल हृदय थियोडर उन्हीं में है। उसके सिर पर फूलों का मुकुट है, वह मुस्कराता है, मुझे पुकार रहा है। दो देवदूत मेरे पास आये हैं, वह इधर चले आ रहे हैं….वह कितने सुन्दर हैं ! मैं ईश्वर के दर्शन कर रही हूं !’
उसने एक परफुल्ल उच्छवास लिया और उसका सिर तकिये पर पीछे गिर पड़ा। थायस का पराणान्त हो गया ! सब देखते ही रह गये, चिड़िया उड़ गयी।
पापनाशी ने अंतिम बार, निराश होकर, उसको गले से लगा लिया। उसकी आंखें उसे तृष्णा, परेम और त्र्कोध से फाड़े खाती थीं।
अलबीना ने पापनाशी से कहा-‘दूर हो, पापी पिशाच !’
और उसने बड़ी कोमलता से अपनी उंगलियां मृत बालिका की पलकों पर रखीं। पापनाशी पीछे हट गया, जैसे किसी ने धक्का दे दिया हो। उसकी आंखों में ज्वाला निकल रही थी। ऐसा मालूम होता था कि उसके पैरों के तले पृथ्वी फट गयी है।
देवकन्याएं जकरिया का भजन गा रही थीं-
‘इजराइलियों के खुदा को कोटि धन्यवाद !’
अकस्मात उनके कंठ अवरुद्ध हो गये, मानो किसी ने गला बन्द कर दिया। उन्होंने दादुर!!!
वह इतना घिनौना हो गया था कि जब उसने अपना हाथ अपने मुंह पर फेरा, तो उसे स्वयं ज्ञात हुआ कि उसका स्वरूप कितना विकृत हो गया है !
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