उपन्यास – गबन -1-1- (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

Premchand_4_aबरसात के दिन हैं, सावन का महीना । आकाश में सुनहरी घटाएँ छाई हुई हैं । रह – रहकर रिमझिम वर्षा होने लगती है । अभी तीसरा पहर है ; पर ऐसा मालूम हों रहा है, शाम हो गयी । आमों के बाग़ में झूला पड़ा हुआ है । लड़कियाँ भी झूल रहीं हैं और उनकी माताएँ भी । दो-चार झूल रहीं हैं, दो चार झुला रही हैं । कोई कजली गाने लगती है, कोई बारहमासा । इस ऋतु में महिलाओं की बाल-स्मृतियाँ भी जाग उठती हैं । ये फुहारें मानो चिंताओं को ह्रदय से धो डालती हैं । मानो मुरझाए हुए मन को भी हरा कर देती हैं । सबके दिल उमंगों से भरे हुए हैं । घानी साडियों ने प्रकृति की हरियाली से नाता जोड़ा है ।

इसी समय एक बिसाती आकर झूले के पास खडा हो गया। उसे देखते ही झूला बंद हो गया। छोटी -बडी सबों ने आकर उसे घेर लिया। बिसाती ने अपना संदूक खोला और चमकती -दमकती चीजें निकालकर दिखाने लगा। कच्चे मोतियों के गहने थे, कच्चे लैस और गोटे, रंगीन मोजे, खूबसूरत गुडियां और गुडियों के गहने, बच्चों के लट्टू और झुनझुने। किसी ने कोई चीज ली, किसी ने कोई चीज। एक बडी-बडी आंखों वाली बालिका ने वह चीज पसंद की, जो उन चमकती हुई चीजों में सबसे सुंदर थी। वह गिरोजी रंग का एक चन्द्रहार था। मां से बोली–अम्मां, मैं यह हार लूंगी।

मां ने बिसाती से पूछा–बाबा, यह हार कितने का है – बिसाती ने हार को रूमाल से पोंछते हुए कहा- खरीद तो बीस आने की है, मालकिन जो चाहें दे दें।

माता ने कहा-यह तो बडा महंगा है। चार दिन में इसकी चमक-दमक जाती रहेगी।

बिसाती ने मार्मिक भाव से सिर हिलाकर कहा–बहूजी, चार दिन में तो बिटिया को असली चन्द्रहार मिल जाएगा!

माता के ह्रदय पर इन सह्रदयता से भरे हुए शब्दों ने चोट की। हार ले लिया गया।

 

बालिका के आनंद की सीमा न थी। शायद हीरों के हार से भी उसे इतना आनंद न होता। उसे पहनकर वह सारे गांव में नाचती गिरी। उसके पास जो बाल-संपत्ति थी, उसमें सबसे मूल्यवान, सबसे प्रिय यही बिल्लौर का हार था। लडकी का नाम जालपा था, माता का मानकी।

 

महाशय दीनदयाल प्रयाग के छोटे – से गांव में रहते थे। वह किसान न थे पर खेती करते थे। वह जमींदार न थे पर जमींदारी करते थे। थानेदार न थे पर थानेदारी करते थे। वह थे जमींदार के मुख्तार। गांव पर उन्हीं की धाक थी। उनके पास चार चपरासी थे, एक घोडा, कई गाएं- – भैंसें। वेतन कुल पांच रूपये पाते थे, जो उनके तंबाकू के खर्च को भी काफी न होता था। उनकी आय के और कौन से मार्ग थे, यह कौन जानता है। जालपा उन्हीं की लडकी थी। पहले उसके तीन भाई और थे, पर इस समय वह अकेली थी। उससे कोई पूछता–तेरे भाई क्या हुए, तो वह बडी सरलता से कहती–बडी दूर खेलने गए हैं। कहते हैं, मुख्तार साहब ने एक गरीब आदमी को इतना पिटवाया था कि वह मर गया था। उसके तीन वर्ष के अंदर तीनों लङके जाते रहे। तब से बेचारे बहुत संभलकर चलते थे। फूंक – फूंककर पांव रखते, दूध के जले थे, छाछ भी फूंक – फूंककर पीते थे। माता और पिता के जीवन में और क्या अवलंब? दीनदयाल जब कभी प्रयाग जाते, तो जालपा के लिए कोई न कोई आभूषण जरूर लाते। उनकी व्यावहारिक बुद्धि में यह विचार ही न आता था कि जालपा किसी और चीज से अधिक प्रसन्न हो सकती है। गुडियां और खिलौने वह व्यर्थ समझते थे, इसलिए जालपा आभूषणों से ही खेलती थी। यही उसके खिलौने थे। वह बिल्लौर का हार, जो उसने बिसाती से लिया था, अब उसका सबसे प्यारा खिलौना था। असली हार की अभिलाषा अभी उसके मन में उदय ही नहीं हुई थी। गांव में कोई उत्सव होता, या कोई त्योहार पडता, तो वह उसी हार को पहनती। कोई दूसरा गहना उसकी आंखों में जंचता ही न था। एक दिन दीनदयाल लौटे, तो मानकी के लिए एक चन्द्रहार लाए। मानकी को यह साके बहुत दिनों से थी। यह हार पाकर वह मुग्ध हो गई। जालपा को अब अपना हार अच्छा न लगता, पिता से बोली–बाबूजी, मुझे भी ऐसा ही हार ला दीजिए।

 

दीनदयाल ने मुस्कराकर कहा-ला दूंगा, बेटी!

कब ला दीजिएगा

 

बहुत जल्दी ।

 

बाप के शब्दों से जालपा का मन न भरा।

उसने माता से जाकर कहा-अम्मांजी, मुझे भी अपना सा हार बनवा दो।

 

मां-वह तो बहुत रूपयों में बनेगा, बेटी!

 

जालपा-तुमने अपने लिए बनवाया है, मेरे लिए क्यों नहीं बनवातीं?

 

मां ने मुस्कराकर कहा-तेरे लिए तेरी ससुराल से आएगा।

 

यह हार छ सौ में बना था। इतने रूपये जमा कर लेना, दीनदयाल के लिए आसान न था। ऐसे कौन बडे ओहदेदार थे। बरसों में कहीं यह हार बनने की नौबत आई जीवन में फिर कभी इतने रूपये आयेंगे, इसमें उन्हें संदेह था। जालपा लजाकर भाग गई, पर यह शब्द उसके ह्रदय में अंकित हो गए। ससुराल उसके लिए अब उतनी भंयकर न थी। ससुराल से चन्द्रहार आएगा, वहां के लोग उसे माता-पिता से अधिक प्यार करेंगे, तभी तो जो चीज ये लोग नहीं बनवा सकते, वह वहां से आएगी।

 

लेकिन ससुराल से न आए तो उसके सामने तीन लड़कियों के विवाह चुके थे, किसी की ससुराल से चन्द्रहार न आया था। कहीं उसकी ससुराल

 

से भी न आया तो- उसने सोचा–तो क्या माताजी अपना हार मुझे दे देंगी? अवश्य दे देंगी।

 

इस तरह हंसते-खेलते सात वर्ष कट गए। और वह दिन भी आ गया, जब उसकी चिरसंचित अभिलाषा पूरी होगी।

 

2

 

मुंशी दीनदयाल की जान – पहचान के आदमियों में एक महाशय दयानाथ थे, बडे ही सज्जन और सह्रदय कचहरी में नौकर थे और पचास रूपये वेतन पाते थे। दीनदयाल अदालत के कीड़े थे। दयानाथ को उनसे सैकड़ों ही बार काम पड़ चुका था। चाहते, तो हजारों वसूल करते, पर कभी एक पैसे के भी रवादार नहीं हुए थे। दीनदयाल के साथ ही उनका यह सलूक न था?-यह उनका स्वभाव था। यह बात भी न थी कि वह बहुत ऊँचे आदर्श के आदमी हों, पर रिश्वत को हराम समझते थे। शायद इसलिए कि वह अपनी आंखों से इस तरह के दृश्य देख चुके थे। किसी को जेल जाते देखा था, किसी को संतान से हाथ धोते, किसी को दुर्व्यसनों के पंजे में फंसते। ऐसी उन्हें कोई मिसाल न मिलती थी, जिसने रिश्वत लेकर चैन किया हो उनकी यह दृढ़ धारणा हो गई थी कि हराम की कमाई हराम ही में जाती है। यह बात वह कभी न भूलते इस जमाने में पचास रुपए की भुगुत ही क्या पांच आदमियों का पालन बडी मुश्किल से होता था। लङके अच्छे कपड़ों को तरसते, स्त्री गहनों को तरसती, पर दयानाथ विचलित न होते थे। बडा लड़का दो ही महीने तक कालेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा। पिता ने साफ कह दिया–मैं तुम्हारी डिग्री के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता। पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरूषार्थ से पढ़ो। बहुतों ने किया है, तुम भी कर सकते हो । लेकिन रमानाथ में इतनी लगन न थी। इधर दो साल से वह बिलकुल बेकार था। शतरंज खेलता, सैर – सपाटे करता और मां और छोटे भाइयों पर रोब जमाता। दोस्तों की बदौलत शौक पूरा होता रहता था। किसी का चेस्टर मांग लिया और शाम को हवा खाने निकल गए। किसी का पंपःशू पहन लिया, किसी की घड़ी कलाई पर बांधा ली। कभी बनारसी फैशन में निकले, कभी लखनवी फैशन मेंब दस मित्रों ने एक-एक कपडा बनवा लिया, तो दस सूट बदलने का उपाय हो गया। सहकारिता का यह बिलकुल नया उपयोग था। इसी युवक को दीनदयाल ने जालपा के लिए पसंद किया। दयानाथ शादी नहीं करना चाहते थे। उनके पास न रूपये थे और न एक नए परिवार का भार उठाने की हिम्मत, पर जागेश्वरी ने त्रिया-हठ से काम लिया और इस शक्ति के सामने पुरूष को झुकना पड़ा। जागेश्वरी बरसों से पुत्रवधू के लिए तड़प रही थी। जो उसके सामने बहुएं बनकर आइ, वे आज पोते खिला रही हैं, फिर उस दुखिया को कैसे धैर्य होता। वह कुछ-कुछ निराश हो चली थी। ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आए। दीनदयाल ने संदेश भेजा, तो उसको आंखें-सी मिल गई। अगर कहीं यह शिकार हाथ से निकल गया, तो फिर न जाने कितने दिनों और राह देखनी पड़े। कोई यहां क्यों आने लगा। न धन ही है, न जायदाद। लङके पर कौन रीझता है। लोग तो धन देखते हैं, इसलिए उसने इस अवसर पर सारी शक्ति लगा दी और उसकी विजय हुई।

दयानाथ ने कहा, भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। मुझमें समाई नहीं है। जो आदमी अपने पेट की फिक्र नहीं कर सकता, उसका विवाह करना मुझे तो अधर्म-सा मालूम होता है। फिर रूपये की भी तो फिक्र है। एक हजार तो टीमटाम के लिए चाहिए, जोड़े और गहनों के लिए अलग। (कानों पर हाथ रखकर) ना बाबा! यह बोझ मेरे मान का नहीं।

 

जागेश्वरी पर इन दलीलों का कोई असर न हुआ, बोली-वह भी तो कुछ देगा-

 

मैं उससे मांगने तो जाऊंगा नहीं।

 

तुम्हारे मांगने की जरूरत ही न पड़ेगी। वह खुद ही देंगे। लडकी के ब्याह में पैसे का मुंह कोई नहीं देखता। हां, मकदूर चाहिए, सो दीनदयाल पोढ़े आदमी हैं। और फिर यही एक संतान है; बचाकर रखेंगे, तो किसके लिए? दयानाथ को अब कोई बात न सूझी, केवल यही कहा–वह चाहे लाख दे दें, चाहे एक न दें, मैं न कहूंगा कि दो, न कहूंगा कि मत दो। कर्ज मैं लेना नहीं चाहता, और लूं, तो दूंगा किसके घर से?

जागेश्वरी ने इस बाधा को मानो हवा में उडाकर कहा–मुझे तो विश्वास है कि वह टीके में एक हजार से कम न देंगे। तुम्हारे टीमटाम के लिए इतना बहुत है। गहनों का प्रबंध किसी सर्राफ से कर लेना। टीके में एक हजार देंगे, तो क्या द्वार पर एक हजार भी न देंगे- वही रूपये सर्राफ को दे देना। दो-चार सौ बाकी रहे, वह धीरे-धीरे चुक जाएंगे। बच्चा के लिए कोई न कोई द्वार खुलेगा ही।

 

दयानाथ ने उपेक्षा-भाव से कहा–‘खुल चुका, जिसे शतरंज और सैर-सपाटे से फुरसत न मिले, उसे सभी द्वार बंद मिलेंगे।

 

जागेश्वरी को अपने विवाह की बात याद आई। दयानाथ भी तो गुलछर्रे उडाते थे लेकिन उसके आते ही उन्हें चार पैसे कमाने की फिक्र कैसी सिर पर

 

सवार हो गई थी। साल-भर भी न बीतने पाया था कि नौकर हो गए। बोली–बहू आ जाएगी, तो उसकी आंखें भी खुलेंगी, देख लेना। अपनी बात याद करो। जब तक गले में जुआ नहीं पडा है, तभी तक यह कुलेलें हैं। जुआ पडा और सारा नशा हिरन हुआ। निकम्मों को राह पर लाने का इससे बढ़कर और कोई उपाय ही नहीं।

 

जब दयानाथ परास्त हो जाते थे, तो अख़बार पढ़ने लगते थे। अपनी हार को छिपाने का उनके पास यही संकेत था।

 

3

 

मुंशी दीनदयाल उन आदमियों में से थे, जो सीधों के साथ सीधे होते हैं, पर टेढ़ों के साथ टेढ़े ही नहीं, शैतान हो जाते हैं। दयानाथ बडा-सा मुंह खोलते, हजारों की बातचीत करते, तो दीनदयाल उन्हें ऐसा चकमा देते कि वह उम्र- भर याद करते। दयानाथ की सज्जनता ने उन्हें वशीभूत कर लिया। उनका विचारएक हजार देने का था, पर एक हजार टीके ही में दे आए। मानकी ने कहा–जब टीके में एक हजार दिया, तो इतना ही घर पर भी देना पड़ेगा। आएगा कहां से- दीनदयाल चिढ़कर बोले–भगवान मालिक है। जब उन लोगों ने उदारता दिखाई और लड़का मुझे सौंप दिया, तो मैं भी दिखा देना चाहता हूं कि हम भीशरीफ हैं और शील का मूल्य पहचानते हैं। अगर उन्होंने हेकड़ी जताई होती, तो अभी उनकी खबर लेता।

 

दीनदयाल एक हजार तो दे आए, पर दयानाथ का बोझ हल्का करने के बदले और भारी कर दिया। वह कर्ज से कोसों भागते थे। इस शादी में उन्होंने मियां की जूती मियां की चांद वाली नीति निभाने की ठानी थी पर दीनदयाल की सह्रदयता ने उनका संयम तोड़ दिया। वे सारे टीमटाम, नाच-तमाशे, जिनकीकल्पना का उन्होंने गला घोंट दिया था, वही रूप धारण करके उनके सामने आ गए। बंधा हुआ घोडाथान से खुल गया, उसे कौन रोक सकता है। धूमधाम से विवाह करने की ठन गई। पहले जोडे–गहने को उन्होंने गौण समझ रखा था, अब वही सबसे मुख्य हो गया। ऐसा चढ़ावा हो कि मड़वे वाले देखकर भङक उठें। सबकी आंखें खुल जाएं । कोई तीन हजार का सामान बनवा डाला। सर्राफ को एक हजार नगद मिल गए, एक हजार के लिए एक सप्ताह का वादा हुआ, तो उसने कोई आपत्ति न की। सोचा–दो हजार सीधे हुए जाते हैं, पांच-सात सौ रूपये रह जाएंगे, वह कहां जाते हैं। व्यापारी की लागत निकल आती है, तो नगद को तत्काल पाने के लिए आग्रह नहीं करता। फिर भी चन्द्रहार की कसर रह गई। जडाऊ चन्द्रहार एक हजार से नीचे अच्छा नहीं मिल सकता था। दयानाथका जी तो लहराया कि लगे हाथ उसे भी ले लो, किसी को नाक सिकोड़ने की जगह तो न रहेगी, पर जागेश्वरी इस पर राजी न हुई। बाजी पलट चुकी थी।दयानाथ ने गर्म होकर कहा–तुम्हें क्या, तुम तो घर में बैठी रहोगी। मौत तो मेरी होगी, जब उधार के लोग नाकभौं सिकोड़ने लगेंगे।

 

जागेश्वरी–दोगे कहां से, कुछ सोचा है?

 

दयानाथ–कम-से-कम एक हजार तो वहां मिल ही जाएंगे।

 

जागेश्वरी–खून मुंह लग गया क्या?

 

दयानाथ ने शरमाकर कहा–नहीं-नहीं, मगर आखिर वहां भी तो कुछ मिलेगा?

 

जागेश्वरी–वहां मिलेगा, तो वहां खर्च भी होगा। नाम जोड़े गहने से नहीं होता, दान-दक्षिणा से होता है। इस तरह चन्द्रहार का प्रस्ताव रद्द हो गया।

 

मगर दयानाथ दिखावे और नुमाइश को चाहे अनावश्यक समझें, रमानाथ उसे परमावश्यक समझता था। बरात ऐसे धूम से जानी चाहिए कि गांव-भर में शोर मच जाय। पहले दूल्हे के लिए पालकी का विचार था। रमानाथ ने मोटर पर जोर दिया। उसके मित्रों ने इसका अनुमोदन किया, प्रस्ताव स्वीकृत हो गया।दयानाथ एकांतप्रिय जीव थे, न किसी से मित्रता थी, न किसी से मेल-जोल। रमानाथ मिलनसार युवक था, उसके मित्र ही इस समय हर एक काम में अग्रसरहो रहे थे। वे जो काम करते, दिल खोल कर। आतिशबाजियां बनवाई, तो अव्वल दर्जे की। नाच ठीक किया, तो अव्वल दर्जे का; बाजे-गाजे भी अव्वल दर्जे के, दोयम या सोयम का वहां जिक्र ही न था। दयानाथ उसकी उच्छृंखलता देखकर चिंतित तो हो जाते थे पर कुछ कह न सकते थे। क्या कहते!

 

4

 

नाटक उस वक्त पास होता है, जब रसिक समाज उसे पंसद कर लेता है। बरात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पंसद कर लेते हैं। नाटक की परीक्षा चार-पांच घंटे तक होती रहती है, बरात की परीक्षा के लिए केवल इतने ही मिनटों का समय होता है। सारी सजावट, सारी दौड़धूप और तैयारी का निबटारा पांच मिनटों में हो जाता है। अगर सबके मुंह से वाह-वाह निकल गया, तो तमाशा पास नहीं तो ! रूपया, मेहनत, फिक्र, सब अकारथ। दयानाथ का तमाशा पास हो गया। शहर में वह तीसरे दर्जे में आता, गांव में अव्वल दर्जे में आया। कोई बाजों की धोंधों-पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को आंखें गाड़-गाड़कर देख रहा था। कुछ लोग फुलवारियों के तख्त देखकर लोट-लोट जाते थे। आतिशबाजी ही मनोरंजन का केंद्र थी। हवाइयां जब सकै से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले, पीले, कुमकुमे-से बिखर जाते, जब चर्खियां छूटतीं और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्रमुग्ध-से हो जाते थे। वाह, क्या कारीगरी है! जालपा के लिए इन चीजों में लेशमात्र भी आकर्षण न था। हां, वह वर को एक आंख देखना चाहती थी, वह भी सबसे छिपाकर; पर उस भीड़-भाड़ में ऐसा अवसर कहां। द्वारचार के समय उसकी सखियां उसे छत पर खींच ले गई और उसने रमानाथ को देखा। उसका सारा विराग, सारी उदासीनता, सारी मनोव्यथा मानो छू-मंतर हो गई थी। मुंह पर हर्ष की लालिमा छा गई। अनुराग स्फूर्ति का भंडार है।

 

द्वारचार के बाद बरात जनवासे चली गई। भोजन की तैयारियां होने लगीं। किसी ने पूरियां खाई, किसी ने उपलों पर खिचड़ी पकाई। देहात के तमाशा देखनेवालों के मनोरंजन के लिए नाच-गाना होने लगा। दस बजे सहसा फिर बाजे बजने लगे। मालूम हुआ कि चढ़ावा आ रहा है। बरात में हर एक रस्म डंके की चोट पर अदा होती है। दूल्हा कलेवा करने आ रहा है, बाजे बजने लगे। समधी मिलने आ रहा है, बाजे बजने लगे। चढ़ावा ज्योंही पहुंचा, घर में हलचल मच गई। स्त्री-पुरूष, बूढ़े-जवान, सब चढ़ावा देखने के लिए उत्सुक हो उठे। ज्योंही किश्तियां मंडप में पहुंचीं, लोग सब काम छोड़कर देखने दौड़े। आपस में धक्कम-धक्का होने लगा। मानकी प्यास से बेहाल हो रही थी, कंठ सूखा जाता था, चढ़ावा आते ही प्यास भाग गई। दीनदयाल मारे भूख-प्यास के निर्जीव-से पड़े थे, यह समाचार सुनते ही सचेत होकर दौड़े। मानकी एक-एक चीज़ को निकाल-निकालकर देखने और दिखाने लगी। वहां सभी इस कला के विशेषज्ञ थे। मदोऊ ने गहने बनवाए थे, औरतों ने पहने थे, सभी आलोचना करने लगे। चूहेदन्ती कितनी सुंदर है, कोई दस तोले की होगी वाह! साढे। ग्यारह तोले से रत्ती-भर भी कम निकल जाए, तो कुछ हार जाऊं! यह शेरदहां तो देखो, क्या हाथ की सफाई है! जी चाहता है कारीगर के हाथ चूम लें। यह भी बारह तोले से कम न होगा। वाह! कभी देखा भी है, सोलह तोले से कम निकल जाए, तो मुंह न दिखाऊं। हां, माल उतना चोखा नहीं है। यह कंगन तो देखो, बिलकुल पक्की जडाई है, कितना बारीक काम है कि आंख नहीं ठहरती! कैसा दमक रहा है। सच्चे नगीने हैं। झूठे नगीनों में यह आब कहां। चीज तो यह गुलूबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं! और उनके बीच के हीरे कैसे चमक रहे हैं! किसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा। क्या बंगालियों ने कारीगरी का ठेका ले लिया है, हमारे देश में एक-से-एक कारीगर पड़े हुए हैं। बंगाली सुनार बेचारे उनकी क्या बराबरी करेंगे। इसी तरह एक-एक चीज की आलोचना होती रही। सहसा किसी ने कहा–चन्द्रहार नहीं है क्या!

 

मानकी ने रोनी सूरत बनाकर कहा–नहीं, चन्द्रहार नहीं आया।

 

एक महिला बोली–अरे, चन्द्रहार नहीं आया?

 

दीनदयाल ने गंभीर भाव से कहा–और सभी चीजें तो हैं, एक चन्द्रहार ही तो नहीं है।

 

उसी महिला ने मुंह बनाकर कहा–चन्द्रहार की बात ही और है!

 

मानकी ने चढ़ाव को सामने से हटाकर कहा–बेचारी के भाग में चन्द्रहार लिखा ही नहीं है।

 

इस गोलाकार जमघट के पीछे अंधेरे में आशा और आकांक्षा की मूर्ति – सी जालपा भी खड़ी थी। और सब गहनों के नाम कान में आते थे, चन्द्रहार का नाम न आता था। उसकी छाती धक-धक कर रही थी। चन्द्रहार नहीं है क्या? शायद सबके नीचे हो इस तरह वह मन को समझाती रही। जब मालूम हो गया चन्द्रहार नहीं है तो उसके कलेजे पर चोट-सी लग गई। मालूम हुआ, देह में रक्त की बूंद भी नहीं है। मानो उसे मूर्च्छा आ जायगी। वह उन्माद की सी दशा में अपने कमरे में आई और फूट-फूटकर रोने लगी। वह लालसा जो आज सात वर्ष हुए, उसके ह्रदय में अंकुरित हुई थी, जो इस समय पुष्प और पल्लव से लदी खड़ी थी, उस पर वज्रपात हो गया। वह हरा-भरा लहलहाता हुआ पौधा जल गया?-केवल उसकी राख रह गई। आज ही के दिन पर तो उसकी समस्त आशाएं अवलंबित थीं। दुर्दैव ने आज वह अवलंब भी छीन लिया। उस निराशा के आवेश में उसका ऐसा जी चाहने लगा कि अपना मुंह नोच डाले। उसका वश चलता, तो वह चढ़ावे को उठाकर आग में गेंक देती। कमरे में एक आले पर शिव की मूर्ति रक्खी हुई थी। उसने उसे उठाकर ऐसा पटका कि उसकी आशाओं की भांति वह भी चूर-चूर हो गई। उसने निश्चय किया, मैं कोई आभूषण न पहनूंगी। आभूषण पहनने से होता ही क्या है। जो रूप-विहीन हों, वे अपने को गहने से सजाएं, मुझे तो ईश्वर ने यों ही सुंदरी बनाया है, मैं गहने न पहनकर भी बुरी न लगूंगी। सस्ती चीजें उठा लाए, जिसमें रूपये खर्च होते थे, उसका नाम ही न लिया। अगर गिनती ही गिनानी थी, तो इतने ही दामों में इसके दूने गहने आ जाते!

 

वह इसी क्रोध में भरी बैठी थी कि उसकी तीन सखियां आकर खड़ी हो गई। उन्होंने समझा था, जालपा को अभी चढ़ाव की कुछ खबर नहीं है। जालपा ने उन्हें देखते ही आंखें पोंछ डालीं और मुस्कराने लगी।

 

राधा मुस्कराकर बोली–जालपा- मालूम होता है, तूने बडी तपस्या की थी, ऐसा चढ़ाव मैंने आज तक नहीं देखा था। अब तो तेरी सब साध पूरी हो गई। जालपा ने अपनी लंबी-लंबी पलकें उठाकर उसकी ओर ऐसे दीन -नजर से देखा, मानो जीवन में अब उसके लिए कोई आशा नहीं है?

हां बहन, सब साध पूरी हो गई। इन शब्दों में कितनी अपार मर्मान्तक वेदना भरी हुई थी, इसका अनुमान तीनों युवतियों में कोई भी न कर सकी । तीनों कौतूहल से उसकी ओर ताकने लगीं, मानो उसका आशय उनकी समझ में न आया हो बासन्ती ने कहा–जी चाहता है, कारीगर के हाथ चूम लूं।

शहजादी बोली–चढ़ावा ऐसा ही होना चाहिए, कि देखने वाले भड़क उठें।

 

बासन्ती–तुम्हारी सास बडी चतुर जान पड़ती हैं, कोई चीज नहीं छोड़ी।

 

जालपा ने मुंह उधरकर कहा–ऐसा ही होगा।

 

राधा–और तो सब कुछ है, केवल चन्द्रहार नहीं है।

 

शहजादी–एक चन्द्रहार के न होने से क्या होता है बहन, उसकी जगह गुलूबंद तो है।

 

जालपा ने वक्रोक्ति के भाव से कहा–हां, देह में एक आंख के न होने से क्या होता है, और सब अंग होते ही हैं, आंखें हुई तो क्या, न हुई तो क्या!

 

बालकों के मुंह से गंभीर बातें सुनकर जैसे हमें हंसी आ जाती है, उसी तरह जालपा के मुंह से यह लालसा से भरी हुई बातें सुनकर राधा और बासन्ती अपनी हंसी न रोक सकीं। हां, शहजादी को हंसी न आई। यह आभूषण लालसा उसके लिए हंसने की बात नहीं, रोने की बात थी। कृत्रिम सहानुभूति दिखाती हुई बोली–सब न जाने कहां के जंगली हैं कि और सब चीजें तो लाए, चन्द्रहार न लाए, जो सब गहनों का राजा है। लाला अभी आते हैं तो पूछती हूं कि तुमने यह कहां की रीति निकाली है?-ऐसा अनर्थ भी कोई करता है।

राधा और बासन्ती दिल में कांप रही थीं कि जालपा कहीं ताड़ न जाय। उनका बस चलता तो शहजादी का मुंह बंद कर देतीं, बार-बार उसे चुप रहने का इशारा कर रही थीं, मगर जालपा को शहजादी का यह व्यंग्य, संवेदना से परिपूर्ण जान पड़ा। सजल नेत्र होकर बोली–क्या करोगी पूछकर बहन, जो होना था सो हो गया!

 

शहजादी–तुम पूछने को कहती हो, मैं रूलाकर छोड़ूंगी। मेरे चढ़ाव पर कंगन नहीं आया था, उस वक्त मन ऐसा खक्रा हुआ कि सारे गहनों पर लात मार दूं। जब तक कंगन न बन गए, मैं नींद भर सोई नहीं।

 

राधा–तो क्या तुम जानती हो, जालपा का चन्द्रहार न बनेगा।

 

शहजादी–बनेगा तब बनेगा, इस अवसर पर तो नहीं बना। दस-पांच की चीज़ तो है नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च है, फिर कारीगर तो हमेशा अच्छे नहीं मिलते।

जालपा का भग्न ह्रदय शहजादी की इन बातों से मानो जी उठा, वह रूंधे कंठ से बोली–यही तो मैं भी सोचती हूं बहन, जब आज न मिला, तो फिर क्या मिलेगा!

राधा और बासन्ती मन-ही-मन शहजादी को कोस रही थीं, और थप्पड़ दिखा-दिखाकर धमका रही थीं, पर शहजादी को इस वक्त तमाशे का मजा आ रहा था। बोली–नहीं, यह बात नहीं है जल्ली; आग्रह करने से सब कुछ हो सकता है, सास-ससुर को बार-बार याद दिलाती रहना। बहनोईजी से दो-चार दिन रूठे रहने से भी बहुत कुछ काम निकल सकता है। बस यही समझ लो कि घरवाले चैन न लेने पाएं, यह बात हरदम उनके ध्यान में रहे। उन्हें मालूम हो जाय कि बिना चन्द्रहार बनवाए कुशल नहीं। तुम ज़रा भी ढीली पड़ीं और काम बिगडा।

 

राधा ने हंसी को रोकते हुए कहा–इनसे न बने तो तुम्हें बुला लें, क्यों – अब उठोगी कि सारी रात उपदेश ही करती रहोगी!

 

शहजादी–चलती हूं, ऐसी क्या भागड़ पड़ी है। हां, खूब याद आई, क्यों जल्ली, तेरी अम्मांजी के पास बडा अच्छा चन्द्रहार है। तुझे न देंगी।

 

जालपा ने एक लंबी सांस लेकर कहा–क्या कहूं बहन, मुझे तो आशा नहीं है।

 

शहजादी–एक बार कहकर देखो तो, अब उनके कौन पहनने-ओढ़ने के दिन बैठे हैं।

 

जालपा–मुझसे तो न कहा जायगा।

 

शहजादी–मैं कह दूंगी।

 

जालपा–नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं। मैं ज़रा उनके मातृस्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूं।

 

बासन्ती ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा–अब उठेगी भी कि यहां सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।

 

शहजादी उठी, पर जालपा रास्ता रोककर खड़ी हो गई और बोली–नहीं, अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूं।

 

शहजादी–जब यह दोनों चुड़ैलें बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुर सिखाती हूं और यह दोनों मुझ पर झल्लाती हैं। सुन नहीं रही हो, मैं भी विष की गांठ हूं।

 

बासन्ती–विष की गांठ तो तू है ही।

 

शहजादी–तुम भी तो ससुराल से सालभर बाद आई हो, कौन-कौन-सी नई चीजें बनवा लाई।

 

बासन्ती–और तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया।

 

शहजादी–मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।

 

राधा–प्रेम के सामने गहनों का कोई मूल्य नहीं।

 

शहजादी–तो सूखा प्रेम तुम्हीं को गले।

 

इतने में मानकी ने आकर कहा–तुम तीनों यहां बैठी क्या कर रही हो , चलो वहां लोग खाना खाने आ रहे हैं।

 

तीनों युवतियां चली गई। जालपा माता के गले में चन्द्रहार की शोभा देखकर मन-ही-मन सोचने लगी?-गहनों से इनका जी अब तक नहीं भरा।

 

महाशय दयानाथ जितनी उमंगों से ब्याह करने गए थे, उतना ही हतोत्साह होकर लौटे। दीनदयाल ने खूब दिया, लेकिन वहां से जो कुछ मिला, वह सब नाच-तमाशे, नेगचार में खर्च हो गया। बार-बार अपनी भूल पर पछताते, क्यों दिखावे और तमाशे में इतने रूपये खर्च किए। इसकी जरूरत ही क्या थी, ज्यादा-से- ज्यादा लोग यही तो कहते–महाशय बडे कृपण हैं। उतना सुन लेने में क्या हानि थी? मैंने गांव वालों को तमाशा दिखाने का ठेका तो नहीं लिया था। यह सब रमा का दुस्साहस है। उसी ने सारे खर्च बढ़ा-बढ़ाकर मेरा दिवाला निकाल दिया। और सब तकाजे तो दस-पांच दिन टल भी सकते थे, पर सर्राफ किसी तरह न मानता था। शादी के सातवें दिन उसे एक हजार रूपये देने का वादा था। सातवें दिन सर्राफ आया, मगर यहां रूपये कहां थे? दयानाथ में लल्लो-चप्पो की आदत न थी, मगर आज उन्होंने उसे चकमा देने की खूब कोशिश की। किस्त बांधकर सब रूपये छः महीने में अदा कर देने का वादा किया। फिर तीन महीने पर आए, मगर सर्राफ भी एक ही घुटा हुआ आदमी था, उसी वक्त टला, जब दयानाथ ने तीसरे दिन बाकी रकम की चीजें लौटा देने का वादा किया और यह भी उसकी सज्जनता ही थी। वह तीसरा दिन भी आ गया, और अब दयानाथ को अपनी लाज रखने का कोई उपाय न सूझता था। कोई चलता हुआ आदमी शायद इतना व्यग्र न होता, हीले-हवाले करके महाजन को महीनों टालता रहता; लेकिन दयानाथ इस मामले में अनाड़ी थे।

 

जागेश्वरी ने आकर कहा–भोजन कब से बना ठंडा हो रहा है। खाकर तब बैठो।

 

दयानाथ ने इस तरह गर्दन उठाई, मानो सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है। बोले–तुम लोग जाकर खा लो, मुझे भूख नहीं है।

 

जागेश्वरी–भूख क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था! इस तरह दाना-पानी छोड़ देने से महाजन के रूपये थोड़े ही अदा हो जाएंगे।

 

दयानाथ–मैं सोचता हूं, उसे आज क्या जवाब दूंगा- मैं तो यह विवाह करके बुरा फंस गया। बहू कुछ गहने लौटा तो देगी।

 

जागेश्वरी–बहू का हाल तो सुन चुके, फिर भी उससे ऐसी आशा रखते हो उसकी टेक है कि जब तक चन्द्रहार न बन जायगा, कोई गहना ही न पहनूंगी। सारे गहने संदूक में बंद कर रखे हैं। बस, वही एक बिल्लौरी हार गले में डाले हुए है। बहुएं बहुत देखीं, पर ऐसी बहू न देखी थी। फिर कितना बुरा मालूम होता है कि कल की आई बहू, उससे गहने छीन लिए जाएं।

दयानाथ ने चिढ़कर कहा–तुम तो जले पर नमक छिड़कती हो बुरा मालूम होता है तो लाओ एक हजार निकालकर दे दो, महाजन को दे आऊं, देती हो? बुरा मुझे खुद मालूम होता है, लेकिन उपाय क्या है? गला कैसे छूटेगा?

 

जागेश्वरी–बेटे का ब्याह किया है कि ठट्ठा है? शादी-ब्याह में सभी कर्ज़ लेते हैं, तुमने कोई नई बात नहीं की। खाने-पहनने के लिए कौन कर्ज लेता है। धर्मात्मा बनने का कुछ फल मिलना चाहिए या नहीं- तुम्हारे ही दर्जे पर सत्यदेव हैं, पक्का मकान खडाकर दिया, जमींदारी खरीद ली, बेटी के ब्याह में कुछ नहीं तो पांच हज़ार तो खर्च किए ही होंगे।

 

दयानाथ–जभी दोनों लङके भी तो चल दिए!

 

जागेश्वरी–मरना-जीना तो संसार की गति है, लेते हैं, वह भी मरते हैं,नहीं लेते, वह भी मरते हैं। अगर तुम चाहो तो छः महीने में सब रूपये चुका सकते हो’

 

दयानाथ ने त्योरी चढ़ाकर कहा–जो बात जिंदगी?भर नहीं की, वह अब आखिरी वक्त नहीं कर सकता बहू से साफ-साफ कह दो, उससे पर्दा रखने की जरूरत ही क्या है, और पर्दा रह ही कितने दिन सकता है। आज नहीं तो कल सारा हाल मालूम ही हो जाएगा। बस तीन-चार चीजें लौटा दे, तो काम बन जाय। तुम उससे एक बार कहो तो।

 

जागेश्वरी झुंझलाकर बोली–उससे तुम्हीं कहो, मुझसे तो न कहा जायगा।

 

सहसा रमानाथ टेनिस-रैकेट लिये बाहर से आया। सफेद टेनिस शर्ट था, सफेद पतलून, कैनवस का जूता, गोरे रंग और सुंदर मुखाकृति पर इस पहनावे ने रईसों की शान पैदा कर दी थी। रूमाल में बेले के गजरे लिये हुए था। उससे सुगंध उड़ रही थी। माता-पिता की आंखें बचाकर वह जीने पर जाना चाहता था, कि जागेश्वरी ने टोका–इन्हीं के तो सब कांटे बोए हुए हैं, इनसे क्यों नहीं सलाह लेते?(रमा से) तुमने नाच-तमाशे में बारह-तेरह सौ रूपये उडा दिए, बतलाओ सर्राफ को क्या जवाब दिया जाय- बडी मुश्किलों से कुछ गहने लौटाने पर राजी हुआ, मगर बहू से गहने मांगे कौन- यह सब तुम्हारी ही करतूत है।

रमानाथ ने इस आक्षेप को अपने ऊपर से हटाते हुए कहा–मैंने क्या खर्च किया- जो कुछ किया बाबूजी ने किया। हां, जो कुछ मुझसे कहा गया, वह मैंने किया।

 

रमानाथ के कथन में बहुत कुछ सत्य था। यदि दयानाथ की इच्छा न होती तो रमा क्या कर सकता था?जो कुछ हुआ उन्हीं की अनुमति से हुआ। रमानाथ पर इल्जाम रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी। बोले–मैं तुम्हें इल्जाम नहीं देता भाई। किया तो मैंने ही, मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टालनी चाहिए। सर्राफ का तकाजा है। कल उसका आदमी आवेगा। उसे क्या जवाब दिया जाएगा? मेरी समझ में तो यही एक उपाय है कि उतने रूपये के गहने उसे लौटा दिए जायं। गहने लौटा देने में भी वह झंझट करेगा, लेकिन दस-बीस रूपये के लोभ में लौटाने पर राजी हो जायगा। तुम्हारी क्या सलाह है?

 

रमानाथ ने शरमाते हुए कहा–मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूं, मगर मैं इतना कह सकता हूं कि इस प्रस्ताव को वह खुशी से मंजूर न करेगी। अम्मां तो जानती हैं कि चढ़ावे में चन्द्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। प्रण कर लिया है, जब तक चन्द्रहार न बन जाएगा, कोई गहना न पहनूंगी।

 

जागेश्वरी ने अपने पक्ष का समर्थन होते देख, खुश होकर कहा–यही तो मैं इनसे कह रही हूं।

 

रमानाथ–रोना-धोना मच जायगा और इसके साथ घर का पर्दा भी खुल जायगा।

 

दयानाथ ने माथा सिकोड़कर कहा–उससे पर्दा रखने की जरूरत ही क्या! अपनी यथार्थ स्थिति को वह जितनी ही जल्दी समझ ले, उतना ही अच्छा।

 

रमानाथ ने जवानों के स्वभाव के अनुसार जालपा से खूब जीभ उडाई थी। खूब बढ़-बढ़कर बातें की थीं। जमींदारी है, उससे कई हजार का नफा है। बैंक में रूपये हैं, उनका सूद आता है। जालपा से अब अगर गहने की बात कही गई, तो रमानाथ को वह पूरा लबाडिया समझेगी। बोला–पर्दा तो एक दिन खुल ही जायगा, पर इतनी जल्दी खोल देने का नतीजा यही होगा कि वह हमें नीच समझने लगेगी। शायद अपने घरवालों को भी लिख भेजे। चारों तरफ बदनामी होगी।

 

दयानाथ–हमने तो दीनदयाल से यह कभी न कहा था कि हम लखपती हैं।

 

रमानाथ–तो आपने यही कब कहा था कि हम उधार गहने लाए हैं और दो-चार दिन में लौटा देंगे! आखिर यह सारा स्वांग अपनी धाक बैठाने के लिए ही किया था या कुछ और?

 

दयानाथ–तो फिर किसी दूसरे बहाने से मांगना पड़ेगा। बिना मांगे काम नहीं चल सकता कल या तो रूपये देने पड़ेंगे, या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।

 

रमानाथ ने कोई जवाब न दिया। जागेश्वरी बोली–और कौन-सा बहाना किया जायगा- अगर कहा जाय, किसी को मंगनी देना है, तो शायद वह देगी नहीं। देगी भी तो दो-चार दिन में लौटाएंगे कैसे ?

 

दयानाथ को एक उपाय सूझा।बोले–अगर उन गहनों के बदले मुलम्मे के गहने दे दिए जाएं? मगर तुरंत ही उन्हें ज्ञात हो गया कि यह लचर बात है, खुद ही उसका विरोध करते हुए कहा–हां, बाद मुलम्मा उड़ जायगा तो फिर लज्जित होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। मुझे तो यही सूझता है, यह सारी स्थिति उसे समझा दी जाय। ज़रा देर के लिए उसे दुख तो जरूर होगा,लेकिन आगे के वास्ते रास्ता साफ हो जाएगा।

 

संभव था, जैसा दयानाथ का विचार था, कि जालपा रो-धोकर शांत हो जायगी, पर रमा की इसमें किरकिरी होती थी। फिर वह मुंह न दिखा सकेगा। जब वह उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदारी क्या हुई- बैंक के रूपये क्या हुए, तो उसे क्या जवाब देगा- विरक्त भाव से बोला–इसमें बेइज्जती के सिवा और कुछ न होगा। आप क्या सर्राफ को दो-चार-छः महीने नहीं टाल सकते?आप देना चाहें, तो इतने दिनों में हजार-बारह सौ रूपये बडी आसानी से दे सकते हैं।

 

दयानाथ ने पूछा–कैसे ?

 

रमानाथ–उसी तरह जैसे आपके और भाई करते हैं!

 

दयानाथ–वह मुझसे नहीं हो सकता।

 

तीनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। दयानाथ ने अपना फैसला सुना दिया। जागेश्वरी और रमा को यह फैसला मंजूर न था। इसलिए अब इस गुत्थी के सुलझाने का भार उन्हीं दोनों पर था। जागेश्वरी ने भी एक तरह से निश्चय कर लिया था। दयानाथ को झख मारकर अपना नियम तोड़ना पड़ेगा। यह कहां की नीति है कि हमारे ऊपर संकट पडा हुआ हो और हम अपने नियमों का राग अलापे जायं। रमानाथ बुरी तरह फंसा था। वह खूब जानता था कि पिताजी ने जो काम कभी नहीं किया, वह आज न करेंगे। उन्हें जालपा से गहने मांगने में कोई संकोच न होगा और यही वह न चाहता था। वह पछता रहा था कि मैंने क्यों जालपा से डींगें मारीं। अब अपने मुंह की लाली रखने का सारा भार उसी पर था। जालपा की अनुपम छवि ने पहले ही दिन उस पर मोहिनी डाल दी थी। वह अपने सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुंदरी के योग्य था? जालपा के पिता पांच रूपये के नौकर थे, पर जालपा ने कभी अपने घर में झाड़ू न लगाई थी। कभी अपनी धोती न छांटी थी। अपना बिछावन न बिछाया था। यहां तक कि अपनी के धोती की खींच तक न सी थी। दयानाथ पचास रूपये पाते थे, पर यहां केवल चौका-बासन करने के लिए महरी थी। बाकी सारा काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर और देहात का फर्क क्या जाने! शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पडाथा। वह कई बार पति और सास से साश्चर्य पूछ चुकी थी, क्या यहां कोई नौकर नहीं है? जालपा के घर दूध-दही-घी की कमी नहीं थी। यहां बच्चों को भी दूध मयस्सर न था। इन सारे अभावों की पूर्ति के लिए रमानाथ के पास मीठी-मीठी बडी- बडी बातों के सिवा और क्या था। घर का किराया पांच रूपया था, रमानाथ ने पंद्रह बतलाए थे। लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रूपये था, रमानाथ ने चालीस बतलाए थे। उस समय उसे इसकी ज़रा भी शंका न थी, कि एक दिन सारा भंडा फट जायगा। मिथ्या दूरदर्शी नहीं होता, लेकिन वह दिन इतनी जल्दी आयगा, यह कौन जानता था। अगर उसने ये डींगें न मारी होतीं, तो जागेश्वरी की तरह वह भी सारा भार दयानाथ पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाता, लेकिन इस वक्त वह अपने ही बनाए हुए जाल में फंस गया था। कैसे निकले! उसने कितने ही उपाय सोचे, लेकिन कोई ऐसा न था, जो आगे चलकर उसे उलझनों में न डाल देता, दलदल में न फंसा देता। एकाएक उसे एक चाल सूझी। उसका दिल उछल पडा, पर इस बात को वह मुंह तक न ला सका, ओह!

 

कितनी नीचता है! कितना कपट! कितनी निर्दयता! अपनी प्रेयसी के साथ ऐसी धूर्तता! उसके मन ने उसे धिक्काराब अगर इस वक्त उसे कोई एक हजार रूपया दे देता, तो वह उसका उम्रभर के लिए गुलाम हो जाता।

दयानाथ ने पूछा–कोई बात सूझी?मुझे तो कुछ नहीं सूझता।

 

कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा।आप ही सोचिए, मुझे तो कुछ नहीं सूझता।

 

क्यों नहीं उससे दो-तीन गहने मांग लेते?तुम चाहो तो ले सकते हो,

 

हमारे लिए मुश्किल है।

 

मुझे शर्म आती है।

 

तुम विचित्र आदमी हो, न खुद मांगोगे न मुझे मांगने दोगे, तो आखिर यह नाव कैसे चलेगी? मैं एक बार नहीं, हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मत रक्खो। मैं अपने आखिरी दिन जेल में नहीं काट सकता इसमें शर्म की क्या बात है, मेरी समझ में नहीं आता। किसके जीवन में ऐसे कुअवसर नहीं आते?तुम्हीं अपनी मां से पूछो।

 

जागेश्वरी ने अनुमोदन किया–मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिंता में पडा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूं। नहीं तो आज मेरे पास भी गहने न होते?एक-एक करके सब निकल गए। विवाह में पांच हजार से कम का चढ़ावा नहीं गया था, मगर पांच ही साल में सब स्वाहा हो गया। तब से एक छल्ला बनवाना भी नसीब न हुआ।

 

दयानाथ ज़ोर देकर बोले–शर्म करने का यह अवसर नहीं है। इन्हें मांगना पड़ेगा!

 

रमानाथ ने झेंपते हुए कहा–मैं मांग तो नहीं सकता, कहिए उठा लाऊं।

यह कहते-कहते लज्जा, क्षोभ और अपनी नीचता के ज्ञान से उसकी आंखें सजल हो गई।

 

दयानाथ ने भौंचक्ध होकर कहा–उठा लाओगे, उससे छिपाकर?

 

रमानाथ ने तीव्र कंठ से कहा–और आप क्या समझ रहे हैं?

 

दयानाथ ने माथे पर हाथ रख लिया, और एक क्षण के बाद आहत कंठ से बोले–नहीं, मैं ऐसा न करने दूंगा। मैंने छल कभी नहीं किया, और न कभी करूंगा। वह भी अपनी बहू के साथ! छिः-छिः, जो काम सीधे से चल सकता है, उसके लिए यह फरेब- कहीं उसकी निगाह पड़ गई, तो समझते हो, वह तुम्हें दिल में क्या समझेगी? मांग लेना इससे कहीं अच्छा है।

 

रमानाथ–आपको इससे क्या मतलब। मुझसे चीज़ें ले लीजिएगा, मगर जब आप जानते थे, यह नौबत आएगी, तो इतने जेवर ले जाने की जरूरत ही क्या थी ? व्यर्थ की विपत्ति मोल ली। इससे कई लाख गुना अच्छा था कि आसानी से जितना ले जा सकते, उतना ही ले जाते। उस भोजन से क्या लाभ कि पेट में पीडा होने लगे?मैं तो समझ रहा था कि आपने कोई मार्ग निकाल लिया होगा। मुझे क्या मालूम था कि आप मेरे सिर यह मुसीबतों की टोकरी पटक देंगे। वरना मैं उन चीज़ों को कभी न ले जाने देता।

 

दयानाथ कुछ लज्जित होकर बोले–इतने पर भी चन्द्रहार न होने से वहां हाय-तोबा मच गई।

 

रमानाथ–उस हाय-तोबा से हमारी क्या हानि हो सकती थी। जब इतना करने पर भी हाय-तोबा मच गई, तो मतलब भी तो न पूरा हुआ। उधर बदनामी हुई, इधर यह आफत सिर पर आई। मैं यह नहीं दिखाना चाहता कि हम इतने फटेहाल हैं। चोरी हो जाने पर तो सब्र करना ही पड़ेगा।

दयानाथ चुप हो गए। उस आवेश में रमा ने उन्हें खूब खरी-खरी सुनाई और वह चुपचाप सुनते रहे। आखिर जब न सुना गया, तो उठकर पुस्तकालय चले गए। यह उनका नित्य का नियम था। जब तक दो-चार पत्र-पत्रिकाएं न पढ़लें, उन्हें खाना न हजम होता था। उसी सुरक्षित गढ़ी में पहुंचकर घर की चिंताओं और बाधाओं से उनकी जान बचती थी। रमा भी वहां से उठा, पर जालपा के पास न जाकर अपने कमरे में गया। उसका कोई कमरा अलग तो था नहीं, एक ही मर्दाना कमरा था, इसी में दयानाथ अपने दोस्तों से गप-शप करते, दोनों लङके पढ़ते और रमा मित्रों के साथ शतरंज खेलता। रमा कमरे में पहुंचा, तो दोनों लङके ताश खेल रहे थे। गोपी का तेरहवां साल था, विश्वम्भर का नवां। दोनों रमा से थरथर कांपते थे। रमा खुद खूब ताश और शतरंज खेलता, पर भाइयों को खेलते देखकर हाथ में खुजली होने लगती थी। खुद चाहे दिनभर सैर – सपाटे किया करे, मगर क्या मजाल कि भाई कहीं घूमने निकल जायं। दयानाथ खुद लड़कों को कभी न मारते थे। अवसर मिलता, तो उनके साथ खेलते थे। उन्हें कनकौवे उडाते देखकर उनकी बाल-प्रकृति सजग हो जाती थी। दो-चार पेंच लडादेते। बच्चों के साथ कभी-कभी गुल्ली-डंडा भी खेलते थे। इसलिए लङके जितना रमा से डरते, उतना ही पिता से प्रेम करते थे।

 

रमा को देखते ही लड़कों ने ताश को टाट के नीचे छिपा दिया और पढ़ने लगे। सिर झुकाए चपत की प्रतीक्षा कर रहे थे, पर रमानाथ ने चपत नहीं लगाई, मोढ़े पर बैठकर गोपीनाथ से बोला–तुमने भंग की दुकान देखी है न, नुक्कड़ पर?

 

गोपीनाथ प्रसन्न होकर बोला–हां, देखी क्यों नहीं। जाकर चार पैसे का माजून ले लो, दौड़े हुए आना। हां, हलवाई की दुकान से आधा सेर मिठाई भी लेते आना। यह रूपया लो।

 

कोई पंद्रह मिनट में रमा ये दोनों चीज़ें ले, जालपा के कमरे की ओर चला। रात के दस बज गए थे। जालपा खुली हुई छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चांदनी में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुंबद और वृक्ष स्वप्न-चित्रों से लगते थे। जालपा की आंखें चंद्रमा की ओर लगी हुई थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चंद्रमा की ओर उड़ी जा रही हूं। उसे अपनी नाक में खुश्की, आंखों में जलन और सिर में चक्कर मालूम हो रहा था। कोई बात ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत याद करने पर भी याद न आती थी। एक बार घर की याद आ गई, रोने लगी। एक ही क्षण में सहेलियों की याद आ गई, हंसने लगी। सहसा रमानाथ हाथ में एक पोटली लिये, मुस्कराता हुआ आया और चारपाई पर बैठ गया।

 

जालपा ने उठकर पूछा–पोटली में क्या है?

 

रमानाथ–बूझ जाओ तो जानूं ।

 

जालपा–हंसी का गोलगप्पा है! (यह कहकर हंसने लगी।)

 

रमानाथ-मलतब?

 

जालपा–नींद की गठरी होगी!

 

रमानाथ–मलतब?

 

जालपा–तो प्रेम की पिटारी होगी!

 

रमानाथ- ठीक, आज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊंगा।

 

जालपा खिल उठी। रमा ने बडे अनुराग से उसे फूलों के गहने पहनाने शुरू किए, फूलों के शीतल कोमल स्पर्श से जालपा के कोमल शरीर में गुदगुदी-सी होने लगी। उन्हीं फूलों की भांति उसका एक-एक रोम प्रफुल्लित हो गया।

रमा ने मुस्कराकर कहा–कुछ उपहार?

 

जालपा ने कुछ उत्तर न दिया। इस वेश में पति की ओर ताकते हुए भी उसे संकोच हुआ। उसकी बडी इच्छा हुई कि ज़रा आईने में अपनी छवि देखे। सामने कमरे में लैंप जल रहा था, वह उठकर कमरे में गई और आईने के सामने खड़ी हो गई। नशे की तरंग में उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं सचमुच फूलों की देवी हूं। उसने पानदान उठा लिया और बाहर आकर पान बनाने लगी। रमा को इस समय अपने कपट-व्यवहार पर बडी ग्लानि हो रही थी। जालपा ने कमरे से लौटकर प्रेमोल्लसित नजरों से उसकी ओर देखा, तो उसने मुंह उधर लिया। उस सरल विश्वास से भरी हुई आंखों के सामने वह ताक न सका। उसने सोचा–मैं कितना बडा कायर हूं। क्या मैं बाबूजी को साफ-साफ जवाब न दे सकता था?मैंने हामी ही क्यों भरी- क्या जालपा से घर की दशा साफ-साफ कह देना मेरा कर्तव्य न था – उसकी आंखें भर आई। जाकर मुंडेर के पास खडा हो गया। प्रणय के उस निर्मल प्रकाश में उसका मनोविकार किसी भंयकर जंतु की भांति घूरता हुआ जान पड़ता था। उसे अपने ऊपर इतनी घृणा हुई कि एक बार जी में आया, सारा कपट-व्यवहार खोल दूं, लेकिन संभल गया। कितना भयंकर परिणाम होगा। जालपा की नज़रों से फिर जाने की कल्पना ही उसके लिए असह्य थी।

 

जालपा ने प्रेम-सरस नजरों से देखकर कहा – मेरे दादाजी तुम्हें देखकर गए और अम्मांजी से तुम्हारा बखान करने लगे, तो मैं सोचती थी कि तुम कैसे होगे। मेरे मन में तरह-तरह के चित्र आते थे। ‘

 

रमानाथ ने एक लंबी सांस खींची। कुछ जवाब न दिया।

 

जालपा ने फिर कहा – मेरी सखियां तुम्हें देखकर मुग्ध हो गई। शहजादी तो खिड़की के सामने से हटती ही न थी। तुमसे बातें करने की उसकी बडी इच्छा थी। जब तुम अंदर गए थे तो उसी ने तुम्हें पान के बीड़े दिए थे, याद है?’

 

रमा ने कोई जवाब न दिया ।

जालपा–अजी, वही जो रंग-रूप में सबसे अच्छी थी, जिसके गाल पर एक तिल था, तुमने उसकी ओर बडे प्रेम से देखा था, बेचारी लाज के मारे गड़ गई थी। मुझसे कहने लगी, जीजा तो बडे रसिक जान पड़ते हैं। सखियों ने उसे खूब चिढ़ाया, बेचारी रूआंसी हो गई। याद है? ‘

 

रमा ने मानो नदी में डूबते हुए कहा–मुझे तो याद नहीं आता।’

 

जालपा–अच्छा, अबकी चलोगे तो दिखा दूंगी। आज तुम बाज़ार की तरफ गए थे कि नहीं?’

 

रमा ने सिर झुकाकर कहा–आज तो फुरसत नहीं मिली।’

 

जालपा–जाओ, मैं तुमसे न बोलूंगी! रोज हीले-हवाले करते हो अच्छा, कल ला दोगे न?’

 

रमानाथ का कलेजा मसोस उठा। यह चन्द्रहार के लिए इतनी विकल हो रही है। इसे क्या मालूम कि दुर्भाग्य इसका सर्वस्व लूटने का सामान कर रहाहै। जिस सरल बालिका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना चाहिए था, उसी का सर्वस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है! वह इतना व्यग्र हुआ,कि जी में आया, कोठे से कूदकर प्राणों का अंत कर दे।

 

आधी रात बीत चुकी थी। चन्द्रमा चोर की भांति एक वृक्ष की आड़ से झांक रहा था। जालपा पति के गले में हाथ डाले हुए निद्रा में मग्न थी। रमा मन में विकट संकल्प करके धीरे से उठा, पर निद्रा की गोद में सोए हुए पुष्प प्रदीप ने उसे अस्थिर कर दिया। वह एक क्षण खडा मुग्ध नजरों से जालपा के निद्रा-विहसित मुख की ओर देखता रहा। कमरे में जाने का साहस न हुआ। फिर लेट गया।

 

जालपा ने चौंककर पूछा–कहां जाते हो, क्या सवेरा हो गया?

 

रमानाथ–अभी तो बडी रात है।

 

जालपा–तो तुम बैठे क्यों हो?

 

रमानाथ–कुछ नहीं, ज़रा पानी पीने उठा था।

 

जालपा ने प्रेमातुर होकर रमा के गले में बांहें डाल दीं और उसे सुलाकर कहा–तुम इस तरह मुझ पर टोना करोगे, तो मैं भाग जाऊंगी। न जाने किस तरहताकते हो, क्या करते हो, क्या मंत्र पढ़ते हो कि मेरा मन चंचल हो जाता है। बासन्ती सच कहती थी, पुरूषों की आंख में टोना होता है।

 

रमा ने फटे हुए स्वर में कहा–टोना नहीं कर रहा हूं, आंखों की प्यास बुझा रहा हूं।

 

दोनों फिर सोए, एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा चिंता में मग्न।

 

तीन घंटे और गुजर गए। द्वादशी के चांद ने अपना विश्व-दीपक बुझा दिया। प्रभात की शीतल-समीर प्रकृति को मद के प्याले पिलाती फिरती थी। आधी रात तक जागने वाला बाज़ार भी सो गया। केवल रमा अभी तक जाग रहा था। मन में भांति-भांति के तर्क-वितर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता था और फिर लेट जाता था। आखिर जब चार बजने की आवाज़ कान में आई, तो घबराकर उठ बैठा और कमरे में जा पहुंचा। गहनों का संदूकचा आलमारी में रक्खा हुआ था, रमा ने उसे उठा लिया, और थरथर कांपता हुआ नीचे उतर गया। इस घबराहट में उसे इतना अवकाश न मिला कि वह कुछ गहने छांटकर निकाल लेता। दयानाथ नीचे बरामदे में सो रहे थे। रमा ने उन्हें धीरे-से जगाया, उन्होंने हकबकाकर पूछा -कौन

 

रमा ने होंठ पर उंगली रखकर कहा–मैं हूं। यह संदूकची लाया हूं। रख लीजिए।

 

दयानाथ सावधन होकर बैठ गए। अभी तक केवल उनकी आंखें जागी थीं, अब चेतना भी जाग्रत हो गई। रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी, उन्होंने समझा था कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है। उन्हें इसका विश्वास न आया था कि रमा जो कुछ कह रहा है, उसे भी पूरा कर दिखाएगा। इन कमीनी चालों से वह अलग ही रहना चाहते थे। ऐसे कुत्सित कार्य में पुत्र से साठ-गांठ करना उनकी अंतरात्मा को किसी तरह स्वीकार न था।

पूछा–इसे क्यों उठा लाए?

 

रमा ने धृष्टता से कहा–आप ही का तो हुक्म था।

 

दयानाथ–झूठ कहते हो!

 

रमानाथ–तो क्या फिर रख आऊं?

 

रमा के इस प्रश्न ने दयानाथ को घोर संकट में डाल दिया। झेंपते हुए बोले–अब क्या रख आओगे, कहीं देख ले, तो गजब ही हो जाए। वही काम करोगे, जिसमें जग-हंसाई हो खड़े क्या हो, संदूकची मेरे बडे संदूक में रख आओ और जाकर लेट रहो कहीं जाग पड़े तो बस! बरामदे के पीछे दयानाथ का कमरा था। उसमें एक देवदार का पुराना संदूक रखा था। रमा ने संदूकची उसके अंदर रख दी और बडी फुर्ती से ऊपर चला गया। छत पर पहुंचकर उसने आहट ली, जालपा पिछले पहर की सुखद निद्रा में मग्न थी।

 

रमा ज्योंही चारपाई पर बैठा, जालपा चौंक पड़ी और उससे चिमट गई।

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