उपन्यास – गबन -1-2 – (लेखक – मुंशी प्रेमचंद)

Premchand_4_aरमा ज्योंही चारपाई पर बैठा, जालपा चौंक पड़ी और उससे चिमट गई।

रमा ने पूछा–क्या है, तुम चौंक क्यों पड़ीं?

 

जालपा ने इधर-उधर प्रसन्न नजरों से ताककर कहा–कुछ नहीं, एक स्वप्न देख रही थी। तुम बैठे क्यों हो, कितनी रात है अभी?

 

रमा ने लेटते हुए कहा–सवेरा हो रहा है, क्या स्वप्न देखती थीं?

 

जालपा–जैसे कोई चोर मेरे गहनों की संदूकची उठाए लिये जाता हो।

 

रमा का ह्रदय इतने जोर से धक-धक करने लगा, मानो उस पर हथौड़े पड़ रहे हैं। खून सर्द हो गया। परंतु संदेह हुआ, कहीं इसने मुझे देख तो नहीं लिया। वह ज़ोर से चिल्ला पडा–चोर! चोर! नीचे बरामदे में दयानाथ भी चिल्ला उठे–चोर! चोर! जालपा घबडाकर उठी। दौड़ी हुई कमरे में गई, झटके से आलमारी खोली। संदूकची वहां न थी? मूर्छित होकर फिर पड़ी।

 

सवेरा होते ही दयानाथ गहने लेकर सर्राफ के पास पहुंचे और हिसाब होने लगा। सर्राफ के पंद्रह सौ रू. आते थे, मगर वह केवल पंद्रह सौ रू. के गहने लेकरसंतुष्ट न हुआ। बिके हुए गहनों को वह बक्रे पर ही ले सकता था। बिकी हुई चीज़ कौन वापस लेता है। रोकड़ पर दिए होते, तो दूसरी बात थी। इन चीज़ों कातो सौदा हो चुका था। उसने कुछ ऐसी व्यापारिक सिद्धान्त की बातें कीं,दयानाथ को कुछ ऐसा शिकंजे में कसा कि बेचारे को हां-हां करने के सिवा और कुछ न सूझा। दफ्तर का बाबू चतुर दुकानदार से क्या पेश पाता – पंद्रह सौ रू. में पच्चीस सौ रू. के गहने भी चले गए, ऊपर से पचास रू. और बाकी रह गए। इस बात पर पिता-पुत्र में कई दिन खूब वाद-विवाद हुआ। दोनों एकदूसरे को दोषी ठहराते रहे। कई दिन आपस में बोलचाल बंद रही, मगर इस चोरी का हाल गुप्त रखा गया। पुलिस को खबर हो जाती, तो भंडा फट जाने का भय था। जालपा से यही कहा गया कि माल तो मिलेगा नहीं, व्यर्थ का झंझट भले ही होगा। जालपा ने भी सोचा, जब माल ही न मिलेगा, तो रपट व्यर्थ क्यों की जाय।

 

जालपा को गहनों से जितना प्रेम था, उतना कदाचित संसार की और किसी वस्तु से न था, और उसमें आश्चर्य की कौन-सी बात थी। जब वह तीन वर्ष की अबोध बालिका थी, उस वक्त उसके लिए सोने के चूड़े बनवाए गए थे। दादी जब उसे गोद में खिलाने लगती, तो गहनों की ही चर्चा करती–तेरा दूल्हा तेरे लिए बडे सुंदर गहने लाएगा। ठुमक-ठुमककर चलेगी। जालपा पूछती–चांदी के होंगे कि सोने के, दादीजी?

 

दादी कहती–सोने के होंगे बेटी, चांदी के क्यों लाएगा- चांदी के लाए तो तुम उठाकर उसके मुंह पर पटक देना।

 

मानकी छेड़कर कहती–चांदी के तो लाएगा ही। सोने के उसे कहां मिले जाते हैं!

 

जालपा रोने लगती, इस बूढ़ी दादी, मानकी, घर की महरियां, पड़ोसिनें और दीनदयाल–सब हंसते। उन लोगों के लिए यह विनोद का अशेष भंडार था।बालिका जब ज़रा और बडी हुई, तो गुडियों के ब्याह करने लगी। लडके की ओर से चढ़ावे जाते, दुलहिन को गहने पहनाती, डोली में बैठाकर विदा करती,कभी-कभी दुलहिन गुडिया अपने गुये दूल्हे से गहनों के लिए मान करती, गुड्डा बेचारा कहीं-न-कहीं से गहने लाकर स्त्री को प्रसन्न करता था। उन्हीं दिनोंबिसाती ने उसे वह चन्द्रहार दिया, जो अब तक उसके पास सुरक्षित था। ज़रा और बडी हुई तो बडी-बूढि.यों में बैठकर गहनों की बातें सुनने लगी। महिलाओं के उस छोटे-से संसार में इसके सिवा और कोई चर्चा ही न थी। किसने कौन-कौन गहने बनवाए, कितने दाम लगे, ठोस हैं या पोले, जडाऊ हैं या सादे, किस लडकी के विवाह में कितने गहने आए? इन्हीं महत्वपूर्ण विषयों पर नित्य आलोचना-प्रत्यालोचना, टीका-टिप्पणी होती रहती थी। कोई दूसरा विषय इतनारोचक, इतना ग्राह्य हो ही नहीं सकता था। इस आभूषण-मंडित संसार में पली हुई जालपा का यह आभूषण-प्रेम स्वाभाविक ही था।

 

महीने-भर से ऊपर हो गया। उसकी दशा ज्यों-की-त्यों है। न कुछ खाती-पीती है, न किसी से हंसती-बोलती है। खाट पर पड़ी हुई शून्य नजरों से शून्याकाश की ओर ताकती रहती है। सारा घर समझाकर हार गया, पड़ोसिनें समझाकर हार गई, दीनदयाल आकर समझा गए, पर जालपा ने रोग- शय्या न छोड़ी। उसे अब घर में किसी पर विश्वास नहीं है, यहां तक कि रमा से भी उदासीन रहती है। वह समझती है, सारा घर मेरी उपेक्षा कर रहा है। सबके- सब मेरे प्राण के ग्राहक हो रहे हैं। जब इनके पास इतना धन है, तो फिर मेरे गहने क्यों नहीं बनवाते?जिससे हम सबसे अधिक स्नेह रखते हैं, उसी पर सबसे अधिक रोष भी करते हैं। जालपा को सबसे अधिक क्रोध रमानाथ पर था। अगर यह अपने माता-पिता से जोर देकर कहते, तो कोई इनकी बात न टाल सकता, पर यह कुछ कहें भी- इनके मुंह में तो दही जमा हुआ है। मुझसे प्रेम होता, तो यों निश्चिंत न बैठे रहते। जब तक सारी चीज़ें न बनवा लेते, रात को नींद न आती। मुंह देखे की मुहब्बत है, मां-बाप से कैसे कहें, जाएंगे तोअपनी ही ओर, मैं कौन हूं! वह रमा से केवल खिंची ही न रहती थी, वह कभी कुछ पूछता तो दोचार जली-कटी सुना देती। बेचारा अपना-सा मुंह लेकर रह जाता! गरीब अपनी ही लगाई हुई आग में जला जाता था। अगर वह जानता कि उन डींगों का यह फल होगा, तो वह जबान पर मुहर लगा लेता। चिंता और ग्लानि उसके ह्रदय को कुचले डालती थी। कहां सुबह से शाम तक हंसी-कहकहे, सैर – सपाटे में कटते थे, कहां अब नौकरी की तलाश में ठोकरें खाता फिरता था। सारी मस्ती गायब हो गई। बार-बार अपने पिता पर क्रोध आता, यह चाहते तो दो-चार महीने में सब रूपये अदा हो जाते, मगर इन्हें क्या फिक्र! मैं चाहे मर जाऊं पर यह अपनी टेक न छोड़ेंगे। उसके प्रेम से भरे हुए, निष्कपट ह्रदय में आग-सी सुलगती रहती थी। जालपा का मुरझाया हुआ मुख देखकर उसके मुंह से ठंडी सांस निकल जाती थी। वह सुखद प्रेम-स्वप्न इतनी जल्द भंग हो गया, क्या वे दिन फिर कभी आएंगे- तीन हज़ार के गहने कैसे बनेंगे- अगर नौकर भी हुआ, तो ऐसा कौन-सा बडा ओहदा मिल जाएगा- तीन हज़ार तो शायद तीन जन्म में भी न जमा हों। वह कोई ऐसा उपाय सोच निकालना चाहता था, जिसमें वह जल्द-से- जल्द अतुल संपत्ति का स्वामी हो जाय। कहीं उसके नाम कोई लाटरी निकल आती! फिर तो वह जालपा को आभूषणों से मढ़ देता। सबसे पहले चन्द्रहार बनवाता। उसमें हीरे जड़े होते। अगर इस वक्त उसे जाली नोट बनाना आ जाता तो अवश्य बनाकर चला देता।एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा।

 

शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों से परिचय था, लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था। यह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है, जब तक किसी के समाने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी, फिर कोईबात भी न पूछेगा। कोई ऐसा भलामानुस न दीखता था, जो कुछ बिना कहे ही जान जाए, और उसे कोई अच्छी-सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत खिकै था। मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और आएं तो द्वार से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया, तो ऐसी फटकार सुनाऊंगा कि बचा याद करें, मगर वह ज़रा ग़ौर करता तो उसे मालूम हो जाता कि इस विषय में मित्रों का उतना दोष न था, जितना खुद उसका। कोई ऐसा मित्र न था, जिससे उसने बढ़-बढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी। घर की असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा। और यह उसी का फल था कि इतने मित्रों के होते हुए भी वह बेकार था। वह किसी से अपनी मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा सांस की भांति अंदर घुटकर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुंह लटकाए हुए बैठ गया।

 

जागेश्वरी ने पानी लाकर रख दिया और पूछा–आज तुम दिनभर कहां रहे?लो हाथ- मुंह धो डालो। रमा ने लोटा उठाया ही था कि जालपा ने आकर उग्र भाव से कहा–मुझे मेरे घर पहुंचा दो, इसी वक्त!

रमा ने लोटा रख दिया और उसकी ओर इस तरह ताकने लगा, मानो उसकी बात समझ में न आई हो।

 

जागेश्वरी बोली–भला इस तरह कहीं बहू-बेटियां विदा होती हैं, कैसी बात कहती हो, बहू?

 

जालपा–मैं उन बहू-बेटियों में नहीं हूं। मेरा जिस वक्त जी चाहेगा, जाऊंगी, जिस वक्त जी चाहेगा, आऊंगी। मुझे किसी का डर नहीं है। जब यहां कोई मेरी बात नहीं पूछता, तो मैं भी किसी को अपना नहीं समझती। सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हूं। कोई झांकता तक नहीं। मैं चिडिया नहीं हूं, जिसका पिंजडादाना-पानी रखकर बंद कर दिया जाय। मैं भी आदमी हूं। अब इस घर में मैं क्षण-भर न रूकूंगी। अगर कोई मुझे भेजने न जायगा, तो अकेली चली जाउंगी। राह में कोई भेडिया नहीं बैठा है, जो मुझे उठा ले जाएगा और उठा भी ले जाए, तो क्या ग़म। यहां कौन-सा सुख भोग रही हूं।

 

रमा ने सावधन होकर कहा–आख़िर कुछ मालूम भी तो हो, क्या बात हुई?

 

जालपा–बात कुछ नहीं हुई, अपना जी है। यहां नहीं रहना चाहती।

 

रमानाथ–भला इस तरह जाओगी तो तुम्हारे घरवाले क्या कहेंगे, कुछ यह भी तो सोचो!

 

जालपा–यह सब कुछ सोच चुकी हूं, और ज्यादा नहीं सोचना चाहती। मैं जाकर अपने कपड़े बांधाती हूं और इसी गाड़ी से जाऊंगी।

 

यह कहकर जालपा ऊपर चली गई। रमा भी पीछे-पीछे यह सोचता हुआ चला, इसे कैसे शांत करूं। जालपा अपने कमरे में जाकर बिस्तर लपेटने लगी कि रमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला–तुम्हें मेरी कसम जो इस वक्त जाने का नाम लो!

 

जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा–तुम्हारी कसम की हमें कुछ परवा नहीं है।

 

उसने अपना हाथ छुडालिया और फिर बिछावन लपेटने लगी। रमा खिसियाना-सा होकर एक किनारे खडाहो गया। जालपा ने बिस्तरबंद से बिस्तरे को बांधा और फिर अपने संदूक को साफ करने लगी। मगर अब उसमें वह पहले-सी तत्परता न थी, बार-बार संदूक बंद करती और खोलती।

 

वर्षा बंद हो चुकी थी, केवल छत पर रूका हुआ पानी टपक रहा था। आख़िर वह उसी बिस्तर के बंडल पर बैठ गई और बोली–तुमने मुझे कसम क्यों दिलाई?रमा के ह्रदय में आशा की गुदगुदी हुई। बोला–इसके सिवा मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या उपाय था?

 

जालपा–क्या तुम चाहते हो कि मैं यहीं घुट-घुटकर मर जाऊं?

 

रमानाथ–तुम ऐसे मनहूस शब्द क्यों मुंह से निकालती हो? मैं तो चलने को तैयार हूं, न मानोगी तो पहुंचाना ही पड़ेगा। जाओ, मेरा ईश्वर मालिक है, मगर कम-से-कम बाबूजी और अम्मां से पूछ लो।

 

बुझती हुई आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली–वह मेरे कौन होते हैं,जो उनसे पूछूँ?

 

रमानाथ–कोई नहीं होते?

 

जालपा–कोई नहीं! अगर कोई होते, तो मुझे यों न छोड़ देते। रूपये रखते हुए कोई अपने प्रियजनों का कष्ट नहीं देख सकता ये लोग क्या मेरे आंसू न पोंछ सकते थे? मैं दिन-के दिन यहां पड़ी रहती हूं, कोई झूठों भी पूछता है? मुहल्ले की स्त्रियां मिलने आती हैं, कैसे मिलूं ? यह सूरत तो मुझसे नहीं दिखाई जाती। न कहीं आना न जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई कितने दिन रह सकता है? मुझे इन लोगों से अब कोई आशा नहीं रही। आखिर दो लङके और भी तो हैं, उनके लिए भी कुछ जोड़ेंगे कि तुम्हीं को दे दें!

 

रमा को बडी-बडी बातें करने का फिर अवसर मिला। वह खुश था कि इतने दिनों के बाद आज उसे प्रसन्न करने का मौका तो मिलाब बोला–प्रिये, तुम्हारा ख्याल बहुत ठीक है। जरूर यही बात है। नहीं तो ढाई-तीन हज़ार उनके लिए क्या बडी बात थी? पचासों हजार बैंक में जमा हैं, दफ्तर तो केवल दिल बहलाने जाते हैं।

 

जालपा–मगर हैं मक्खीचूस पल्ले सिरे के!

 

रमानाथ–मक्खीचूस न होते, तो इतनी संपत्ति कहां से आती!

 

जालपा–मुझे तो किसी की परवा नहीं है जी, हमारे घर किस बात की कमी है! दाल-रोटी वहां भी मिल जायगी। दो-चार सखी-सहेलियां हैं, खेत- खलिहान हैं, बाग-बगीचे हैं, जी बहलता रहेगा।

 

रमानाथ–और मेरी क्या दशा होगी, जानती हो? घुल-घुलकर मर जाऊंगा। जब से चोरी हुई, मेरे दिल पर जैसी गुजरती है, वह दिल ही जानता है। अम्मां और बाबूजी से एक बार नहीं, लाखों बार कहा, ज़ोर देकर कहा कि दो-चार चीज़ें तो बनवा ही दीजिए, पर किसी के कान पर जूं तक न रेंगी। न जाने क्यों मुझसे आंखें उधर कर लीं।

 

जालपा–जब तुम्हारी नौकरी कहीं लग जाय, तो मुझे बुला लेना।

 

रमानाथ–तलाश कर रहा हूं। बहुत जल्द मिलने वाली है। हज़ारों बड़े-बडे आदमियों से मुलाकात है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हां, ज़रा अच्छी जगह चाहता हूं।

 

जालपा–मैं इन लोगों का रूख समझती हूं। मैं भी यहां अब दावे के साथ रहूंगी। क्यों, किसी से नौकरी के लिए कहते नहीं हो?

 

रमानाथ–शर्म आती है किसी से कहते हुए।

 

जालपा–इसमें शर्म की कौन-सी बात है – कहते शर्म आती हो, तो खत लिख दो।

 

रमा उछल पडा, कितना सरल उपाय था और अभी तक यह सीधी-सी बात उसे न सूझी थी। बोला–हां, यह तुमने बहुत अच्छी तरकीब बतलाई, कल जरूर लिखूंगा।

 

जालपा–मुझे पहुंचाकर आना तो लिखना। कल ही थोड़े लौट आओगे।

 

रमानाथ–तो क्या तुम सचमुच जाओगी? तब मुझे नौकरी मिल चुकी और मैं खत लिख चुका! इस वियोग के दुःख में बैठकर रोऊंगा कि नौकरी ढूंढूगा। नहीं, इस वक्त जाने का विचार छोड़ो। नहीं, सच कहता हूं, मैं कहीं भाग जाऊंगा। मकान का हाल देख चुका। तुम्हारे सिवा और कौन बैठा हुआ है, जिसके लिए यहां पडा-सडा करूं। हटो तो ज़रा मैं बिस्तर खोल दूं।

 

जालपा ने बिस्तर पर से ज़रा खिसककर कहा–मैं बहुत जल्द चली आऊंगी। तुम गए और मैं आई।

 

रमा ने बिस्तर खोलते हुए कहा–जी नहीं, माफ कीजिए, इस धोखे में नहीं आता। तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहां मेरी जान पर बन आवेगी। इस घर में फिर कैसे कदम रक्खा जायगा।

 

जालपा ने एहसान जताते हुए कहा–आपने मेरा बंधा-बंधाया बिस्तर खोल दिया, नहीं तो आज कितने आनंद से घर पहुंच जाती। शहजादी सच कहती थी, मर्द बडे टोनहे होते हैं। मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आएं, पर मैं न मानूंगी। पर तुमने दो ही मिनट में मेरे सारे मनसूबे चौपट कर दिए। कल खत लिखना जरूर। बिना कुछ पैदा किए अब निर्वाह नहीं है।

 

रमानाथ–कल नहीं, मैं इसी वक्त जाकर दो-तीन चिट्ठियां लिखता हूं।

 

जालपा–पान तो खाते जाओ।

 

रमानाथ ने पान खाया और मर्दाने कमरे में आकर खत लिखने बैठे। मगर फिर कुछ सोचकर उठ खड़े हुए और एक तरफ को चल दिए। स्त्री का सप्रेम आग्रह पुरूष से क्या नहीं करा सकता।

 

नौ

 

रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी, पर थे बडे रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हज़ारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बडा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो

 

रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाजी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य, पर बिसात पर न बैठा रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया, पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आई है, उसका मुंह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह गए। कहां जायं- सिनेमा ही देख आवें- किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था, पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझा।कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में कदम रखा। रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले–आइए, आइए, बाबू रमानाथ साहब बहादुर! तुम तो इस बुड्ढे को बिलकुल भूल ही गए। हां भाई, अब क्यों आओगे?प्रेमिका की रसीली

 

बातों का आनंद यहां कहां? चोरी का कुछ पता चला?

 

रमानाथ–कुछ भी नहीं।

 

रमेश–बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई, नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बडा दुःख हुआ होगा?

 

रमानाथ–कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रक्खा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।

 

रमेश–बाबूजी के पास क्या काई का खजाना रक्खा हुआ है? अभी चारपांच हज़ार खर्च किए हैं, फिर कहां से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हज़ार रूपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या पचास रू. होता ही क्या है?

 

रमानाथ–मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उडाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा?

 

रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा–आओ एक बाजी हो जाए, फिर इस मामले को सोचें, इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।

 

रमानाथ–मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, मेरे होश ठिकाने नहीं होंगे।

 

रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा–आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचें, क्या हो सकता है।

 

रमानाथ–ज़रा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुडाते ही ओले पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नज़दीक ही न जाता!

 

रमेश–अजी, दो-चार चालें चलो तो आप-ही-आप जी लग जायगा। ज़रा अक्ल की गांठ तो खुले।

 

बाज़ी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रूख पीट लिया।

 

रमानाथ–ओह, क्या गलती हुई!

 

रमेश बाबू की आंखों में नशे की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब से कम मादक न था। बोले–बोहनी तो अच्छी हुई! तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूं। मगर वेतन बहुत कम है, केवल तीस रूपये। वह रंगी दाढ़ी वाले खां साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता। कई बार बचा चुका हूं। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें। बाल-बच्चे वाले आदमी

 

हैं। वह तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए।तुम्हारे लायक तो वह जगह नहीं है, चाहो तो कर लो। यह कहते-कहते रमा का फीला मार लिया। रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा–आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उडाते जाते हैं, इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला।

 

रमेश–देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती तो नहीं उठाया। हां, तो तुम्हें वह जगह मंजूर है?

 

रमानाथ–वेतन तो तीस है।

 

रमेश–हां, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर बढ़जाय। मेरी तो राय है, कर लो।

 

रमानाथ–अच्छी बात है, आपकी सलाह है तो कर लूंगा।

 

रमेश–जगह आमदनी की है। मियां ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम.ए., एल.एल. बी. करा लिया। दो कॉलेज में पढ़ते हैं। लड़कियों की शादियां अच्छे घरों में कीं। हां, ज़रा समझ-बूझकर काम करने की जरूरत है।

 

रमानाथ–आमदनी की मुझे परवा नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज़ तो है नहीं।ट

 

रमेश–बहुत खराब, मगर बाल-बच्चों वाले आदमी क्या करें। तीस रूपयों में गुज़र नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूं। मेरे लिए डेढ़सौ काफी हैं। कुछ बचा भी लेता हूं, लेकिन जिस घर में बहुत से आदमी हों, लड़कों की पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियां हों, वह आदमी क्या कर सकता है। जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जाएगा कि वह भलमनसी के साथ निर्वाह कर सकें, तब तक रिश्वत बंद न होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध तो वह भी खाते हैं। फिर एक को तीस रूपये और दूसरे को तीन सौ रूपये क्यों देते हो? रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बडे ज़ोर से कहकहा माराब

 

रमा ने रोष के साथ कहा–अगर आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिए, नहीं मैं जाता हूं। मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उडा लिए!

 

रमेश–अच्छा साहब, अब बोलूं तो ज़बान पकड़ लीजिए। यह लीजिए, शह! तो तुम कल अर्जी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जाएगी, मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात-भर खेलना होगा।

 

रमानाथ–आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।

 

रमेश–अजी वह दिन गए, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चन्द्रमा बलवान हैं। इधर मैंने एक मां सि’ किया है। क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह!

 

रमानाथ–जी तो चाहता है, दूसरी बाज़ी मात देकर जाऊं, मगर देर होगी।

 

रमेश–देर क्या होगी। अभी तो नौ बजे हैं। खेल लो, दिल का अरमान निकल जाय। यह शह और मात!

 

रमानाथ–अच्छा कल की रही। कल ललकार कर पांच मातें न दी हों तो कहिएगा।

 

रमेश–अजी जाओ भी, तुम मुझे क्या मात दोगे! हिम्मत हो, तो अभी सही!

 

रमानाथ–अच्छा आइए, आप भी क्या कहेंगे, मगर मैं पांच बाज़ियों से कम न खेलूंगा!

 

रमेश–पांच नहीं, तुम दस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो फिर खाना खा लें। तब निश्चिन्त होकर बैठें। तुम्हारे घर कहलाए देता हूं कि आज यहीं सोएंगे, इंतज़ार न करें।

 

दोनों ने भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठेब पहली बाज़ी में ग्यारह बज गए। रमेश बाबू की जीत रही। दूसरी बाजी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाज़ी खत्म हुई तो दो बज गए।

 

रमानाथ–अब तो मुझे नींद आ रही है।

 

रमेश–तो मुंह धो डालो, बरग रक्खी हुई है। मैं पांच बाज़ियां खेले बगैर सोने न दूंगा।

 

रमेश बाबू को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलंद है। नहीं तो रमा को लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गए थे, इस वक्त चाहे जितनी बाज़ियां खेलूं, जीत मेरी ही होगी मगर जब चौथी बाज़ी हार गए, तो यह विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊं। बोले–अब तो सोना चाहिए।

 

रमानाथ–क्यों, पांच बाजियां पूरी न कर लीजिए?

 

रमेश–कल दफ्तर भी तो जाना है।

 

रमा ने अधिक आग्रह न किया। दोनों सोए।

 

रमा यों ही आठ बजे से पहले न उठता था, फिर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दस बजे तक सोने का अधिकार था। रमेश नियमानुसार पांच बजे उठ बैठे, स्नान किया, संध्या की, घूमने गए और आठ बजे लौटे, मगर रमा तब तक सोता ही रहा। आखिर जब साढ़े नौ बज गए तो उन्होंने उसे जगाया।

 

रमा ने बिभड़कर कहा–नाहक जगा दिया, कैसी मजे क़ी नींद आ रही थी।

 

रमेश–अजी वह अर्जी देना है कि नहीं तुमको?

 

रमानाथ–आप दे दीजिएगा।

 

रमेश–और जो कहीं साहब ने बुलाया, तो मैं ही चला जाऊंगा?

 

रमानाथ–ऊंह, जो चाहे कीजिएगा, मैं तो सोता हूं।

 

रमा फिर लेट गया और रमेश ने भोजन किया, कपड़े पहने और दफ्तर चलने को तैयार हुए। उसी वक्त रमानाथ हड़बडाकर उठा और आंखें मलता हुआ बोला–मैं भी चलूंगा।

रमेश–अरे मुंह-हाथ तो धो ले, भले आदमी!

 

रमानाथ–आप तो चले जा रहे हैं।

 

रमेश–नहीं, अभी पंद्रह-बीस मिनट तक रूक सकता हूं, तैयार हो जाओ।

 

रमानाथ–मैं तैयार हूं। वहां से लौटकर घर भोजन करूंगा।

 

रमेश–कहता तो हूं, अभी आधा घंटे तक रूका हुआ हूं।

 

रमा ने एक मिनट में मुंह धोया, पांच मिनट में भोजन किया और चटपट रमेश के साथ दफ्तर चला।

 

रास्ते में रमेश ने मुस्कराकर कहा–घर क्या बहाना करोगे, कुछ सोच रक्खा

 

है?

 

रमानाथ–कह दूंगा, रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।

 

रमेश–मुझे गालियां दिलाओगे और क्या फिर कभी न आने पाओगे।

 

रमानाथ–ऐसा स्त्री-भक्त नहीं हूं। हां, यह तो बताइए, मुझे अर्ज़ी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?

 

रमेश–और क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जायगी? महीनों दौड़ना पड़ेगा, महीनों! बीसियों सिफारिशें लानी पडेंगी। सुबह-शाम हाज़िरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?

 

रमानाथ–तो मैं ऐसी नौकरी से बाज़ आया। मुझे तो अर्ज़ी लेकर जाते ही शर्म आती है।खुशामदें कौन करेगा- पहले मुझे क्लर्कों पर बडी हंसी आती थी, मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डांट-वांट तो न बताएंगे?

 

रमेश–बुरी तरह डांटता है, लोग उसके सामने जाते हुए कांपते हैं।

रमानाथ–तो फिर मैं घर जाता हूं। यह सब मुझसे न बरदाश्त होगा।

रमेश–पहले सब ऐसे ही घबराते हैं, मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी, और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे। जिस दिन मेरी पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था मानो फांसी पाने जा रहा हूं;मगर तुम्हें डरने का कोई कारण नहीं है। मैं सब ठीक कर दूंगा।

 

रमानाथ–आपको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गए होंगे!

 

रमेश–पूरे पच्चीस हो गए, साहब! बीस बरस तो स्त्री का देहांत हुए हो गए। दस रूपये पर नौकर हुआ था!

 

रमानाथ–आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की- तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज्यादा न रही होगी।

 

रमेश ने हंसकर कहा–बरफी खाने के बाद गुड़ खाने को किसका जी चाहता है? महल का सुख भोगने के बाद झोंपडा किसे अच्छा लगता है? प्रेम आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूं, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर आंख तक नहीं उठाई। कितनी ही सुंदरियां देखीं, कई बार लोगों ने विवाह के लिए घेरा भी, लेकिन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में मेरे लिए प्रेम का सजीव आनंद भरा हुआ है। यों बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ्तर पहुंच गए।

 

10

 

रमा दफ्तर से घर पहुंचा, तो चार बज रहे थे। वह दफ्तर ही में था कि आसमान पर बादल घिर आए। पानी आया ही चाहता था, पर रमा को घर पहुंचने की इतनी बेचैनी हो रही थी कि उससे रूका न गया। हाते के बाहर भी न निकलने पाया था कि जोर की वर्षा होने लगी। आषाढ़ का पहला पानी था, एक ही क्षण में वह लथपथ हो गया। फिर भी वह कहीं रूका नहीं। नौकरी मिल जाने का शुभ समाचार सुनाने का आनंद इस दौंगड़े की क्या परवाह कर सकता था? वेतन तो केवल तीस ही रूपये थे, पर जगह आमदनी की थी। उसने मन-ही-मन हिसाब लगा लिया था कि कितना मासिक बचत हो जाने से वह जालपा के लिए चन्द्रहार बनवा सकेगा। अगर पचास-साठ रूपये महीने भी बच जायं, तो पांच साल में जालपा गहनों से लद जाएगी। कौन-सा आभूषण कितने का होगा, इसका भी उसने अनुमान कर लिया था। घर पहुंचकर उसने कपड़े भी न उतारे, लथपथ जालपा के कमरे में पहुंच गया।

 

जालपा उसे देखते ही बोली–यह भीग कहां गए, रात कहां गायब थे?

 

रमानाथ–इसी नौकरी की फिक्र में पडा हुआ हूं। इस वक्त दफ्तर से चला आता हूं। म्युनिसिपैलिटी के दफ्तरमें मुझे एक जगह मिल गई।

 

जालपा ने उछलकर पूछा–सच! कितने की जगह है?

 

रमा को ठीक-ठीक बतलाने में संकोच हुआ। तीस की नौकरी बताना अपमान की बात थी। स्त्री के नजरों में तुच्छ बनना कौन चाहता है। बोला–अभी तो चालीस मिलेंगे, पर जल्द तरक्की होगी। जगह आमदनी की है।

 

जालपा ने उसके लिए किसी बडे पद की कल्पना कर रक्खी थी। बोली–चालीस में क्या होगा? भला साठ-सभार तो होते!

 

रमानाथ–मिल तो सकती थी सौ रूपये की भी, पर यहां रौब है, और आराम है। पचास-साठ रूपये ऊपर से मिल जाएंगे।

 

जालपा–तो तुम घूस लोगे, गरीबों का गला काटोगे?

 

रमा ने हंसकर कहा–नहीं प्रिये, वह जगह ऐसी नहीं कि गरीबों का गला काटना पड़े। बड़े-बडे महाजनों से रकमें मिलेंगी और वह खुशी से गले लगायेंगे।

 

मैं जिसे चाहूं दिनभर दफ्तर में खडा रक्खूं, महाजनों का एक-एक मिनट एक-एक अशरफी के बराबर है। जल्द-से-जल्द अपना काम कराने के लिए वे खुशामद भी करेंगे, पैसे भी देंगे।

 

जालपा संतुष्ट हो गई, बोली–हां, तब ठीक है। गरीबों का काम यों ही कर देना।

 

रमानाथ–वह तो करूंगा ही।

 

जालपा–अभी अम्मांजी से तो नहीं कहा?जाकर कह आओ। मुझे तो सबसे बडी खुशी यही है कि अब मालूम होगा कि यहां मेरा भी कोई अधिकार है।

 

रमानाथ–हां, जाता हूं, मगर उनसे तो मैं बीस ही बतलाऊंगा।

 

जालपा ने उल्लसित होकर कहा–हां जी, बल्कि पंद्रह ही कहना, ऊपर की आमदनी की तो चर्चा ही करना व्यर्थ है। भीतर का हिसाब वे ले सकते हैं। मैं सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊंगी।

 

इतने में डाकिए ने पुकारा। रमा ने दरवाज़े पर जाकर देखा, तो उसके नाम एक पार्सल आया था। महाशय दीनदयाल ने भेजा था। लेकर खुश-खुश घर में आए और जालपा के हाथों में रखकर बोले–तुम्हारे घर से आया है, देखो इसमें क्या है?

 

रमा ने चटपट कैंची निकाली और पार्सल खोलाब उसमें देवदार की एक डिबिया निकली। उसमें एक चन्द्रहार रक्खा हुआ था। रमा ने उसे निकालकर देखा और हंसकर बोला–ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली, चीज तो बहुत अच्छी मालूम होती है।

 

जालपा ने कुंठित स्वर में कहा–अम्मांजी को यह क्या सूझी, यह तो उन्हीं का हार है। मैं तो इसे न लूंगी। अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो।

 

रमा ने विस्मित होकर कहा–लौटाने की क्या जरूरत है, वह नाराज न होंगी?

 

जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा–मेरी बला से, रानी ऱूठेंगी अपना सुहाग लेंगी। मैं उनकी दया के बिना भी जीती रह सकती हूं। आज इतने दिनों के बाद उन्हें मुझ पर दया आई है। उस वक्त दया न आई थी, जब मैं उनके घर से विदा हुई थी। उनके गहने उन्हें मुबारक हों। मैं किसी का एहसान नहीं लेना चाहती। अभी उनके ओढ़ने-पहनने के दिन हैं। मैं क्यों बाधक बनूं। तुम कुशल से रहोगे, तो मुझे बहुत गहने मिल जाएंगे। मैं अम्मांजी को यह दिखाना चाहती हूं कि जालपा तुम्हारे गहनों की भूखी नहीं है।

 

रमा ने संतोष देते हुए कहा–मेरी समझ में तो तुम्हें हार रख लेना चाहिए। सोचो, उन्हें कितना दुःख होगा। विदाई के समय यदि न दिया तो, तो अच्छा ही किया। नहीं तो और गहनों के साथ यह भी चला जाता।

 

जालपा–मैं इसे लूंगी नहीं, यह निश्चय है।

 

रमानाथ–आखिर क्यों?

 

जालपा–मेरी इच्छा!

 

रमानाथ–इस इच्छा का कोई कारण भी तो होगा?

 

जालपा रूंधे हुए स्वर में बोली–कारण यही है कि अम्मांजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं, बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा। देने वाले का ह्रदय देखना चाहिए। प्रेम से यदि वह मुझे एक छल्ला भी दे दें, तो मैं दोनों हाथों से ले लूं। जब दिल पर जब्र करके दुनिया की लाज से या किसी के धिक्कारने से दिया, तो क्या दिया। दान भिखारिनियों को दिया जाता है। मैं किसी का दान न लूंगी, चाहे वह माता ही क्यों न हों।

 

माता के प्रति जालपा का यह द्वेष देखकर रमा और कुछ न कह सका। द्वेष तर्क और प्रमाण नहीं सुनता। रमा ने हार ले लिया और चारपाई से उठता हुआ बोला–ज़रा अम्मां और बाबू जी को तो दिखा दूं। कम-से-कम उनसे पूछ तो लेना ही चाहिए। जालपा ने हार उसके हाथ से छीन लिया और बोली–वे लोग मेरे कौन होते हैं, जो मैं उनसे पूछूं – केवल एक घर में रहने का नाता है। जब वह मुझे कुछ नहीं समझते, तो मैं भी उन्हें कुछ नहीं समझती।

 

यह कहते हुए उसने हार को उसी डिब्बे में रख दिया, और उस पर कपडा लपेटकर सीने लगी। रमा ने एक बार डरते-डरते फिर कहा–ऐसी जल्दी क्या है, दस-पांच दिन में लौटा देना। उन लोगों की भी खातिर हो जाएगी। इस पर जालपा ने कठोर नजरों से देखकर कहा–जब तक मैं इसे लौटान दूंगी, मेरे दिल को चैन न आएगा। मेरे ह्रदय में कांटा-सा खटकता रहेगा। अभी पार्सल तैयार हुआ जाता है, हाल ही लौटा दो। एक क्षण में पार्सल तैयार हो गया और रमा उसे लिये हुए चिंतित भाव से नीचे चला।

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